सामाजिक >> लालसा लालसागुरुदत्त
|
3 पाठकों को प्रिय 9 पाठक हैं |
एक रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रथम परिच्छेद
राजा बहादुर की आज्ञा आयी कि भगवती लखनऊ से आने वाली गाड़ी से आ रहे
मेहमानों को लाने के लिए स्टेशन पर पहुँच जाये।
आज्ञा लाने वाला राजा बहादुर का विशिष्ट सिपाही रामहर्ष रात के दस बजे पहुँचा था और लखनऊ वाली गाड़ी रात के डेढ़ बजे आती थी। उस समय भगवती सो रहा था। आज्ञा उसकी माँ ने प्राप्त की थी। माँ के पास घड़ी तो थी नहीं, इस कारण वह चिन्ता करने लगी कि किस प्रकार वह अपने पुत्र को जगाकर समय पर स्टेशन भेजेगी।
भगवती चरण की माँ का मकान रेल के स्टेशन से एक फलाँग के अन्तर पर था। माँ विचार कर रही थी कि यदि वह जागती रहकर कान रखेगी तो आती रेल की सीटी की आवाज सुनकर पुत्र को जगाकर स्टेशन पर भेज देगी।
सर्दी का मौसम था। मकान के भीतर द्वार बन्द करके बैठे रहने से सीटी की आवाज नहीं भी सुनाई दे सकती थी। अतः उसने अपनी खाट मकान के प्रांगण के द्वार पर डाल दी और रजाई लपेटकर वहाँ जा बैठी। दिन-भर खेतों की देख-रेख और घर पर कूटने-पीसने के काम में व्यस्त रहने से वह थकी हुई थी। ज्यों ही रजाई में गरम हुई कि सो गयी। भगवती भी दिन भर राजा बहादुर के काम की भागदौड़ से थका हुआ अपने कमरे में गहरी नींद सो रहा था। माँ की नींद खुली, रेल की सीटी की आवाज सुनकर। वह हड़बड़ाकर उठी और भागकर मकान में जाकर, भगवती को हिला-हिलाकर जगाने लगी। भगवती जागा तो पूछने लगा, माँ ! क्या है ?"
जल्दी उठो। राजा बहादुर की आज्ञा आई है कि कोई मेहमान इस गाड़ी से आ रहे हैं और तुम्हें उनका सामान उठवा, ठिकाने पर पहुँचाने जाना है।
राजा बहादुर की आज्ञा की बात सुन वह उठा और कपड़े पहन अपनी लाठी हाथ में ले स्टेशन को भागा।
मेहमान के आने की कोई सूचना उसे नहीं थी। वह नहीं जानता था कि मेहमान कौन हैं और उन्हें कहाँ ठहराना है। फिर भी वह जा रहा था। वह स्टेशन पहुँचा तो गाड़ी छक-छक करती हुई प्लेटफार्म पर आयी परन्तु वह तो मालगाड़ी थी। स्टेशन बाबू हाथ में हरी बत्ती लिए प्लेटफार्म पर खड़ा था। गाड़ी को वहाँ खड़ी नहीं होना था और स्टेशन बाबू उसको हरी बत्ती दिखा, स्टेशन से निकल जाने का संकेत कर रहा था। जब गाड़ी निकल गयी तो भगवती स्टेशन बाबू के पास पहुँचकर पूछने लगा, "बाबू साहब सवारी गाड़ी कब आयेगी ?"
स्टेशन बाबू उसे पहचानता था। भगवती राजा बहादुर के काम से प्रायः स्टेशन पर आया करता था। बाबू भगवती के प्रश्न पर मुस्कराया और पूछने लगा, "गाड़ी से कोई आने वाला है क्या ?"
"जी।"
"कौन है ?"
"यह तो नहीं जानता। राजा बहादुर की आज्ञा आयी है। कि स्टेशन पर मेहमान की अगवानी करने पहुँच जाऊँ।"
"परन्तु अभी तो बारह ही बजे हैं। गाड़ी आने में डेढ़ घंटा है।"
भगवती समझ गया कि माँ को सीटी सुन भ्रम हो गया होगा और उसने समय से पूर्व ही से जगाकर भेज दिया है। वह घर में घड़ी न होने का अभाव अनुभव करने लगा। उसने बाबू को कह दिया, सीटी की आवाज से भ्रम हो गया है।"
"तो ऐसा करो। टिकट-घर में चलकर बैठो, बाहर सर्दी है। भीतर आग जल रही है, वहाँ बैठकर तापो।"
घर लौटकर जाने और फिर आने की अपेक्षा भगवती ने यही उचित समझा कि यहीं बैठकर आग तापे। उसने मुस्कराकर बाबू की ओर देखा और उसके साथ ही टिकट घर में जा पहुँचा। वहाँ एक बड़ी-सी अँगीठी में पत्थर का कोयला धधक रहा था। वह उसके समीप भूमि पर ही बैठ गया।
बाबू ने लालटेन मेज पर रखी और कुर्सी को आग के समीप खींच, बैठकर आग तापने लगा। यह असिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर था। बड़े स्टेशन मास्टर की ड्यूटी इस समय नहीं थी। यह एक पंजाबी बाबू था। नाम था अर्जुनसिंह। घर से इतनी दूर पैंतालीस रुपये महीने की नौकरी पर पड़ा था। हाँ, रेल की नौकरी में इतना मजा तो था कि वर्ष में दो-तीन बार यात्रा करने के लिये मुक्त पास मिल जाते थे। साथ ही आने-जाने वाले माल के प्रत्येक पार्सल पर एक आना घूस मिल जाती थी। फिर रहने को मुक्त क्वार्टर मिला हुआ था। इस कारण वह बहुत मजे में था। कुछ बातचीत करते हुए समय निकालने के विचार से बाबू ने पूछ लिया, "राजा साहब क्या वेतन देते हैं तुमको ?"
"वेतन तो बीस रुपया मासिक है, परन्तु यह तो फोकट में ही मिल जाता है। मेरा निर्वाह तो भूमि की उपज पर होता है।"
"कितनी भूमि है तुम्हारे पास ?"
"पच्चीस बीघा है। वर्ष भर में खा-पीकर और दे-दिलाकर एक हजार बनिये के पास बच जाते हैं। दो मजदूर हैं। इनको खाने भर का अनाज और तीन-तीन रुपया वेतन देता हूँ। साथ ही होली दिवाली पर नये कपड़े बनवा देता हूँ। इनकी सहायता के लिये अस्थायी रूप में काम करने वाले समय-समय पर रखे जाते हैं। उनको दैनिक उजरत देते हैं। एक वयस्क को दो आना नित्य।"
अर्जुनसिंह को यह सब-कुछ बहुत ही कम समझ में आया। उसने पूछ लिया, "भगवती, कुछ पढ़े भी हो ?"
"जी, हिन्दी पढ़ लेता हूँ। रामायण पढ़ता हूँ और अब भगवद्गीता पढ़ रहा हूँ।"
"कहाँ से पढ़े हो ?"
"माँ पढ़ाती थी।"
"पर यह तो कुछ नहीं। देखो, हमारा काँटे वाला उर्दू और अंग्रेजी में हस्ताक्षर करना जानता है और तीस रुपये वेतन पाता है।"
"पर बाबू साहब, यह सहतू तो इसमें गजर भी नहीं कर सकता। प्रायः मुझसे उधार माँगा करता है और उधार लिया रुपया इसने कभी लौटाया नहीं।"
हमारे खेतों पर काम करने वाले उधार नहीं माँगते। अव्वल तो उनको खाने और पहनने को मिलता है। उनके झोंपड़े हम मरम्मत करवाते रहते हैं। बीरू और तारा के पास तो पाँच-पाँच बीघा भूमि भी है। पिताजी ने अपने पास से नजराना देकर यह उनके नाम करवा दी थी।"
यह सुनकर तो बाबू को विस्मय हुआ। परन्तु वह अपनी स्थिति पर विचार करने लगा। पैंतालीस रुपये वेतन था। सौ रुपया महीना तक ऊपर की आय हो जाती थी फिर भी उसके पास कुछ बचता नहीं था। अतः वह समझने लगा कि भूमि रखना वास्तव में जागीरदारी है। उसने बात बदल दी और राजा बहादुर के परिवार की बातें होने लगीं। गाड़ी आयी तो भगवती उठकर प्लेटफार्म पर चला गया।
भगवती की माँ राधा अब कमरे में अपनी चारपाई पर बिस्तर में गरम हो, बैठते हुए भगवती की प्रतीक्षा करने का विचार करती थी, परन्तु वह पुनः सो गयी। कमरे का द्वार और प्रांगण का द्वार खुला रह गया। वह समझती थी कि अभी दस मिनट में भगवती मेहमान को मैंनेजर के बंगले में छोड़कर आता ही होगा। वह सोयी तो उसकी जाग खुली, कमरे का द्वार खुलने और भीतर ठंडी हवा आने से। वह समझी कि भगवती आया है। उसने रजाई में से ही आवाज दे दी, "भगवती आ गये हो ?"
कोई हँसा। राधा ने रजाई मुख से हटाई, परन्तु कमरे में अँधेरा था। आगन्तुक ने टार्च के प्रकाश में अपना मुख दिखाकर कह दिया, चुप रहो।
बाहर मेरी मोटर का ड्राईवर और नौकर खड़े हैं। आवाज सुनकर वे आ जायेंगे।"
"यह क्या कर रहे हैं, राजा भैया ?" राधा ने हड़बड़ाकर उठते हुए कहा। यह राजा बहादुर का बड़ा लड़का था।
"चुप। बदनाम हो जाओगी।"
"और आप ?"
"जानती नहीं, समरथ को नहिं दोष गोसाँईं।"
राधा के साथ यह पहला अवसर नहीं था। उसका पिता गणपति मिश्र राजा बहादुर का खास मुसाहिब था और राधा की माँ के बाल्यकाल में ही देहान्त हो जाने के कारण राधा राजा के कोट में वहाँ के बच्चों की भाँति पली थी। जब तेरह साल की थी कि राजा बहादुर के लड़के ने इस मोह-जाल में फँसा इसका भोग किया था। लड़का तो इससे विवाह करना चाहता था, परन्तु राजा बहादुर ने यह स्वीकार नहीं किया। दोनों में विद्वान सीताराम पांडे से राधा का विवाह कर दिया।
विवाह के एक दिन पूर्व गणपति मिश्र का एकाएक देहान्त हो गया। राधा को विश्वास था कि उसके पिता को विष देकर मार डाला गया है। फिर भी राधा की मौसी केसरी ने राधा का विवाह कर दिया। मौसी भी राधा के राजा भैया से सम्बन्ध की बात जान चुकी थी। राधा मन से तो राजा भैया से लगाव रखती थी, परन्तु पिता के मारे जाने की घटना से उसके मन में राजा के लड़के के लिये घृणा उत्पन्न हो गयी थी।
विवाह के एक वर्ष उपरान्त राधा के लड़का हुआ। लड़के का नाम भगवती चरण रखा गया। भगवती जब एक वर्ष का था। सीताराम के घर में डाका पड़ा। डाकुओं का विरोध करते हुए सीताराम मारा गया। राधा ने बच्चे को गोद में ले अरहर के खेत में छुपकर जान बचाई। उसको सन्देह था कि डाका राजा भैया ने डलवाया है और उसका अपहरण भी हो सकता है। इससे तो वह राजा भैया से और अधिक घृणा करने लगी थी।
भूमि के पट्टे का नवीकरण कराना था। उसके लिये राजा साहब का नजराना पाँच सौ रुपये जमा कराया गया। फिर भी पट्टा नहीं हुआ। एक दिन एकाएक पड़ोस के गाँव के एक बनिये ने राधा के खेतों पर तहसीलदार की सहायता से अधिकार जमा लिया और उन पर अपना हल चला दिया। राधा परेशानी में राजा भैया की माता, रानी माँ के पास अपनी शिकायत लेकर गयी। इत्तला करने पर राजा भैया की पत्नी कुँवर रानी की दासी चुटकी आई और उसे रानी मां के कमरे में ले जाने के स्थान राजा भैया के आगार में ले गयी। इस भेंट का परिणाम यह हुआ कि भूमि पर बनिये के काम करने वाले लोग भाग गये और राधा के काम करने वालों को पुनः भूमि मिल गयी।
फिर भी राधा के नाम पट्टा नहीं हुआ। इसी प्रकार कभी-कभी समय-कुसमय राधा और राजा भैया में भेंट होती रही, परन्तु राधा मन में विचार करती रही कि अपना और बच्चे का जीवन चलाने के लिये इस गन्दे काम को सहन करना है। प्रत्येक समागम के उपरान्त वह अपने मन को इससे अलिप्त रखने के लिये पूजा, व्रत अनुष्ठान करती रहती थी।
भगवती अब सोलह वर्ष का हो गया था। उसकी माँ की आयु तीस वर्ष की थी। वह अभी अपने को पूर्ण यौवना अनुभव करती थी। फिर भी वह राजा भैया के इस कृत्य से घृणा करती थी। जब राजा भैया उठकर जाने लगे तो उन्होंने कहा, राधा आज कई वर्ष के उपरान्त यह अवसर मिला है। धन्यवाद। अब सो जाओ।"
जाते-जाते वह रुके और कुछ स्मरण कर पूछने लगे, भगवती कहाँ है ?"
"स्टेशन पर गया है।" राधा ने भर्राई हुई आवाज में कह दिया।
"मैं दरवाजा खुला देख यही समझा था।"
राजा भैया बाहर आये तो ड्राईवर ने पूछ लिया, महाराज बहुत देरी लगी है ?"
"भीतर द्वार बन्द था और कोई जागता ही नहीं था।"
"जल्दी चलिये, गाड़ी आ रही है।"
राजा भैया लपककर गाड़ी में चढ़ गये और गाड़ी स्टेशन को चल दी।
आज्ञा लाने वाला राजा बहादुर का विशिष्ट सिपाही रामहर्ष रात के दस बजे पहुँचा था और लखनऊ वाली गाड़ी रात के डेढ़ बजे आती थी। उस समय भगवती सो रहा था। आज्ञा उसकी माँ ने प्राप्त की थी। माँ के पास घड़ी तो थी नहीं, इस कारण वह चिन्ता करने लगी कि किस प्रकार वह अपने पुत्र को जगाकर समय पर स्टेशन भेजेगी।
भगवती चरण की माँ का मकान रेल के स्टेशन से एक फलाँग के अन्तर पर था। माँ विचार कर रही थी कि यदि वह जागती रहकर कान रखेगी तो आती रेल की सीटी की आवाज सुनकर पुत्र को जगाकर स्टेशन पर भेज देगी।
सर्दी का मौसम था। मकान के भीतर द्वार बन्द करके बैठे रहने से सीटी की आवाज नहीं भी सुनाई दे सकती थी। अतः उसने अपनी खाट मकान के प्रांगण के द्वार पर डाल दी और रजाई लपेटकर वहाँ जा बैठी। दिन-भर खेतों की देख-रेख और घर पर कूटने-पीसने के काम में व्यस्त रहने से वह थकी हुई थी। ज्यों ही रजाई में गरम हुई कि सो गयी। भगवती भी दिन भर राजा बहादुर के काम की भागदौड़ से थका हुआ अपने कमरे में गहरी नींद सो रहा था। माँ की नींद खुली, रेल की सीटी की आवाज सुनकर। वह हड़बड़ाकर उठी और भागकर मकान में जाकर, भगवती को हिला-हिलाकर जगाने लगी। भगवती जागा तो पूछने लगा, माँ ! क्या है ?"
जल्दी उठो। राजा बहादुर की आज्ञा आई है कि कोई मेहमान इस गाड़ी से आ रहे हैं और तुम्हें उनका सामान उठवा, ठिकाने पर पहुँचाने जाना है।
राजा बहादुर की आज्ञा की बात सुन वह उठा और कपड़े पहन अपनी लाठी हाथ में ले स्टेशन को भागा।
मेहमान के आने की कोई सूचना उसे नहीं थी। वह नहीं जानता था कि मेहमान कौन हैं और उन्हें कहाँ ठहराना है। फिर भी वह जा रहा था। वह स्टेशन पहुँचा तो गाड़ी छक-छक करती हुई प्लेटफार्म पर आयी परन्तु वह तो मालगाड़ी थी। स्टेशन बाबू हाथ में हरी बत्ती लिए प्लेटफार्म पर खड़ा था। गाड़ी को वहाँ खड़ी नहीं होना था और स्टेशन बाबू उसको हरी बत्ती दिखा, स्टेशन से निकल जाने का संकेत कर रहा था। जब गाड़ी निकल गयी तो भगवती स्टेशन बाबू के पास पहुँचकर पूछने लगा, "बाबू साहब सवारी गाड़ी कब आयेगी ?"
स्टेशन बाबू उसे पहचानता था। भगवती राजा बहादुर के काम से प्रायः स्टेशन पर आया करता था। बाबू भगवती के प्रश्न पर मुस्कराया और पूछने लगा, "गाड़ी से कोई आने वाला है क्या ?"
"जी।"
"कौन है ?"
"यह तो नहीं जानता। राजा बहादुर की आज्ञा आयी है। कि स्टेशन पर मेहमान की अगवानी करने पहुँच जाऊँ।"
"परन्तु अभी तो बारह ही बजे हैं। गाड़ी आने में डेढ़ घंटा है।"
भगवती समझ गया कि माँ को सीटी सुन भ्रम हो गया होगा और उसने समय से पूर्व ही से जगाकर भेज दिया है। वह घर में घड़ी न होने का अभाव अनुभव करने लगा। उसने बाबू को कह दिया, सीटी की आवाज से भ्रम हो गया है।"
"तो ऐसा करो। टिकट-घर में चलकर बैठो, बाहर सर्दी है। भीतर आग जल रही है, वहाँ बैठकर तापो।"
घर लौटकर जाने और फिर आने की अपेक्षा भगवती ने यही उचित समझा कि यहीं बैठकर आग तापे। उसने मुस्कराकर बाबू की ओर देखा और उसके साथ ही टिकट घर में जा पहुँचा। वहाँ एक बड़ी-सी अँगीठी में पत्थर का कोयला धधक रहा था। वह उसके समीप भूमि पर ही बैठ गया।
बाबू ने लालटेन मेज पर रखी और कुर्सी को आग के समीप खींच, बैठकर आग तापने लगा। यह असिस्टेण्ट स्टेशन मास्टर था। बड़े स्टेशन मास्टर की ड्यूटी इस समय नहीं थी। यह एक पंजाबी बाबू था। नाम था अर्जुनसिंह। घर से इतनी दूर पैंतालीस रुपये महीने की नौकरी पर पड़ा था। हाँ, रेल की नौकरी में इतना मजा तो था कि वर्ष में दो-तीन बार यात्रा करने के लिये मुक्त पास मिल जाते थे। साथ ही आने-जाने वाले माल के प्रत्येक पार्सल पर एक आना घूस मिल जाती थी। फिर रहने को मुक्त क्वार्टर मिला हुआ था। इस कारण वह बहुत मजे में था। कुछ बातचीत करते हुए समय निकालने के विचार से बाबू ने पूछ लिया, "राजा साहब क्या वेतन देते हैं तुमको ?"
"वेतन तो बीस रुपया मासिक है, परन्तु यह तो फोकट में ही मिल जाता है। मेरा निर्वाह तो भूमि की उपज पर होता है।"
"कितनी भूमि है तुम्हारे पास ?"
"पच्चीस बीघा है। वर्ष भर में खा-पीकर और दे-दिलाकर एक हजार बनिये के पास बच जाते हैं। दो मजदूर हैं। इनको खाने भर का अनाज और तीन-तीन रुपया वेतन देता हूँ। साथ ही होली दिवाली पर नये कपड़े बनवा देता हूँ। इनकी सहायता के लिये अस्थायी रूप में काम करने वाले समय-समय पर रखे जाते हैं। उनको दैनिक उजरत देते हैं। एक वयस्क को दो आना नित्य।"
अर्जुनसिंह को यह सब-कुछ बहुत ही कम समझ में आया। उसने पूछ लिया, "भगवती, कुछ पढ़े भी हो ?"
"जी, हिन्दी पढ़ लेता हूँ। रामायण पढ़ता हूँ और अब भगवद्गीता पढ़ रहा हूँ।"
"कहाँ से पढ़े हो ?"
"माँ पढ़ाती थी।"
"पर यह तो कुछ नहीं। देखो, हमारा काँटे वाला उर्दू और अंग्रेजी में हस्ताक्षर करना जानता है और तीस रुपये वेतन पाता है।"
"पर बाबू साहब, यह सहतू तो इसमें गजर भी नहीं कर सकता। प्रायः मुझसे उधार माँगा करता है और उधार लिया रुपया इसने कभी लौटाया नहीं।"
हमारे खेतों पर काम करने वाले उधार नहीं माँगते। अव्वल तो उनको खाने और पहनने को मिलता है। उनके झोंपड़े हम मरम्मत करवाते रहते हैं। बीरू और तारा के पास तो पाँच-पाँच बीघा भूमि भी है। पिताजी ने अपने पास से नजराना देकर यह उनके नाम करवा दी थी।"
यह सुनकर तो बाबू को विस्मय हुआ। परन्तु वह अपनी स्थिति पर विचार करने लगा। पैंतालीस रुपये वेतन था। सौ रुपया महीना तक ऊपर की आय हो जाती थी फिर भी उसके पास कुछ बचता नहीं था। अतः वह समझने लगा कि भूमि रखना वास्तव में जागीरदारी है। उसने बात बदल दी और राजा बहादुर के परिवार की बातें होने लगीं। गाड़ी आयी तो भगवती उठकर प्लेटफार्म पर चला गया।
भगवती की माँ राधा अब कमरे में अपनी चारपाई पर बिस्तर में गरम हो, बैठते हुए भगवती की प्रतीक्षा करने का विचार करती थी, परन्तु वह पुनः सो गयी। कमरे का द्वार और प्रांगण का द्वार खुला रह गया। वह समझती थी कि अभी दस मिनट में भगवती मेहमान को मैंनेजर के बंगले में छोड़कर आता ही होगा। वह सोयी तो उसकी जाग खुली, कमरे का द्वार खुलने और भीतर ठंडी हवा आने से। वह समझी कि भगवती आया है। उसने रजाई में से ही आवाज दे दी, "भगवती आ गये हो ?"
कोई हँसा। राधा ने रजाई मुख से हटाई, परन्तु कमरे में अँधेरा था। आगन्तुक ने टार्च के प्रकाश में अपना मुख दिखाकर कह दिया, चुप रहो।
बाहर मेरी मोटर का ड्राईवर और नौकर खड़े हैं। आवाज सुनकर वे आ जायेंगे।"
"यह क्या कर रहे हैं, राजा भैया ?" राधा ने हड़बड़ाकर उठते हुए कहा। यह राजा बहादुर का बड़ा लड़का था।
"चुप। बदनाम हो जाओगी।"
"और आप ?"
"जानती नहीं, समरथ को नहिं दोष गोसाँईं।"
राधा के साथ यह पहला अवसर नहीं था। उसका पिता गणपति मिश्र राजा बहादुर का खास मुसाहिब था और राधा की माँ के बाल्यकाल में ही देहान्त हो जाने के कारण राधा राजा के कोट में वहाँ के बच्चों की भाँति पली थी। जब तेरह साल की थी कि राजा बहादुर के लड़के ने इस मोह-जाल में फँसा इसका भोग किया था। लड़का तो इससे विवाह करना चाहता था, परन्तु राजा बहादुर ने यह स्वीकार नहीं किया। दोनों में विद्वान सीताराम पांडे से राधा का विवाह कर दिया।
विवाह के एक दिन पूर्व गणपति मिश्र का एकाएक देहान्त हो गया। राधा को विश्वास था कि उसके पिता को विष देकर मार डाला गया है। फिर भी राधा की मौसी केसरी ने राधा का विवाह कर दिया। मौसी भी राधा के राजा भैया से सम्बन्ध की बात जान चुकी थी। राधा मन से तो राजा भैया से लगाव रखती थी, परन्तु पिता के मारे जाने की घटना से उसके मन में राजा के लड़के के लिये घृणा उत्पन्न हो गयी थी।
विवाह के एक वर्ष उपरान्त राधा के लड़का हुआ। लड़के का नाम भगवती चरण रखा गया। भगवती जब एक वर्ष का था। सीताराम के घर में डाका पड़ा। डाकुओं का विरोध करते हुए सीताराम मारा गया। राधा ने बच्चे को गोद में ले अरहर के खेत में छुपकर जान बचाई। उसको सन्देह था कि डाका राजा भैया ने डलवाया है और उसका अपहरण भी हो सकता है। इससे तो वह राजा भैया से और अधिक घृणा करने लगी थी।
भूमि के पट्टे का नवीकरण कराना था। उसके लिये राजा साहब का नजराना पाँच सौ रुपये जमा कराया गया। फिर भी पट्टा नहीं हुआ। एक दिन एकाएक पड़ोस के गाँव के एक बनिये ने राधा के खेतों पर तहसीलदार की सहायता से अधिकार जमा लिया और उन पर अपना हल चला दिया। राधा परेशानी में राजा भैया की माता, रानी माँ के पास अपनी शिकायत लेकर गयी। इत्तला करने पर राजा भैया की पत्नी कुँवर रानी की दासी चुटकी आई और उसे रानी मां के कमरे में ले जाने के स्थान राजा भैया के आगार में ले गयी। इस भेंट का परिणाम यह हुआ कि भूमि पर बनिये के काम करने वाले लोग भाग गये और राधा के काम करने वालों को पुनः भूमि मिल गयी।
फिर भी राधा के नाम पट्टा नहीं हुआ। इसी प्रकार कभी-कभी समय-कुसमय राधा और राजा भैया में भेंट होती रही, परन्तु राधा मन में विचार करती रही कि अपना और बच्चे का जीवन चलाने के लिये इस गन्दे काम को सहन करना है। प्रत्येक समागम के उपरान्त वह अपने मन को इससे अलिप्त रखने के लिये पूजा, व्रत अनुष्ठान करती रहती थी।
भगवती अब सोलह वर्ष का हो गया था। उसकी माँ की आयु तीस वर्ष की थी। वह अभी अपने को पूर्ण यौवना अनुभव करती थी। फिर भी वह राजा भैया के इस कृत्य से घृणा करती थी। जब राजा भैया उठकर जाने लगे तो उन्होंने कहा, राधा आज कई वर्ष के उपरान्त यह अवसर मिला है। धन्यवाद। अब सो जाओ।"
जाते-जाते वह रुके और कुछ स्मरण कर पूछने लगे, भगवती कहाँ है ?"
"स्टेशन पर गया है।" राधा ने भर्राई हुई आवाज में कह दिया।
"मैं दरवाजा खुला देख यही समझा था।"
राजा भैया बाहर आये तो ड्राईवर ने पूछ लिया, महाराज बहुत देरी लगी है ?"
"भीतर द्वार बन्द था और कोई जागता ही नहीं था।"
"जल्दी चलिये, गाड़ी आ रही है।"
राजा भैया लपककर गाड़ी में चढ़ गये और गाड़ी स्टेशन को चल दी।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book