आधुनिक >> दासता के नये रूप दासता के नये रूपगुरुदत्त
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स्वातन्त्र्योपलब्धि के अनन्तर देश-वासियों की दास मनोवृत्ति और पतित चरण का विश्लेषण...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
‘दासता के नये रूप’ में उपन्यासकार ने
स्वातन्त्र्योपलब्धि के अनन्तर देशवासियों की दास मनोवृत्ति और पतित आचरण
का विश्लेषण किया है। इस दिशा में उनकी यह अत्यन्त सफल अभिव्यक्ति कही जा
सकती है। उनका कहना है कि ‘सत्ताधीश लोग मनुष्य को दासता की
श्रृंखलाओं में बाँधने का यत्न करते रहे हैं। राजनीतिक सत्ता अथवा आर्थिक
व सामाजिक प्रभुत्व प्राप्त करके लोग अन्य मनुष्यों को अपनी सत्ता प्रभाव
के अधीन रखने के लिए अनेकानेक प्रकारों का प्रयोग करते हैं। ये दासता
उत्पन्न करने के उपाय हैं।
उपन्यासकार का कथन है कि यद्यपि भारतवासी अंग्रेजों की दासता से मुक्त हो गये हैं किन्तु वे किसी न किसी रूप में सत्ता के दास ही हैं।
गांधी के विषय में एक स्थान पर लेखक कहता है-महात्मा गांधी और कांग्रेस को चलाने वाले हिंदू ही हैं। हिन्दू ही इनका कहना मानते हैं। वे ही कांग्रेस को धन देते हैं और कांग्रेस सबसे बढ़कर हिंन्दुओं को साम्प्रदायिक कहकर गालियां देती है। मुसलमान गांधी से सौदा करते रहे और देश के ऊपर इस्लाम को समझते रहे, परन्तु उनके लिए महात्मा गांधी के तथा कांग्रेसियों के मन में प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं।
लेखक का युक्तियुक्त मत है-हिन्दुत्व तथा भारतीयता पर्यायवाची शब्द हैं। दोनों में मजहब का झगड़ा नहीं है।
लेखक अपने पक्ष को इतने प्रभावी तथा युक्तियुक्त ढंग से प्रस्तुत करता है। और पग-पग पर उदाहरण देकर प्रस्तुत करता है कि केवल दुराग्रही ही उससे मतभेद रख सकता है।
लेखक का यह एक अत्यन्त सफल उपन्यास है।
उपन्यासकार का कथन है कि यद्यपि भारतवासी अंग्रेजों की दासता से मुक्त हो गये हैं किन्तु वे किसी न किसी रूप में सत्ता के दास ही हैं।
गांधी के विषय में एक स्थान पर लेखक कहता है-महात्मा गांधी और कांग्रेस को चलाने वाले हिंदू ही हैं। हिन्दू ही इनका कहना मानते हैं। वे ही कांग्रेस को धन देते हैं और कांग्रेस सबसे बढ़कर हिंन्दुओं को साम्प्रदायिक कहकर गालियां देती है। मुसलमान गांधी से सौदा करते रहे और देश के ऊपर इस्लाम को समझते रहे, परन्तु उनके लिए महात्मा गांधी के तथा कांग्रेसियों के मन में प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ नहीं।
लेखक का युक्तियुक्त मत है-हिन्दुत्व तथा भारतीयता पर्यायवाची शब्द हैं। दोनों में मजहब का झगड़ा नहीं है।
लेखक अपने पक्ष को इतने प्रभावी तथा युक्तियुक्त ढंग से प्रस्तुत करता है। और पग-पग पर उदाहरण देकर प्रस्तुत करता है कि केवल दुराग्रही ही उससे मतभेद रख सकता है।
लेखक का यह एक अत्यन्त सफल उपन्यास है।
भूमिका
आज से सहस्रों वर्ष पूर्व जब स्मृतिकार महाराज मनु ने यह लिखा था कि
श्रुति में अयुक्तिसंगत बात नहीं हो सकती, तो उसने मानव की दासता की
श्रृंखलाओं पर घोर आघात किया था। यही कारण है कि भारतीय आचार-व्यवहार अथवा
मान्यताओं में युक्ति विशेष निर्णायक आधार रही हैं।
स्मृतिकार के ऐसा विधान करने पर भी सत्ताधीश लोग मनुष्य को दासता की श्रृंखलाओं में बाँधने का यत्न करते रहे हैं। राजनीतिक सत्ता अथवा आर्थिक व सामाजिक प्रभुत्व प्राप्त करके लोग अन्य मनुष्यों अपनी सत्ता अथवा प्रभाव के अधीन रखने के लिए अनेकानेक प्रकारों का प्रयोग करते हैं। ये दासता उत्पन्न करने के उपाय हैं। समय के साथ इसके रूप बदलते रहे हैं। फिर भी दासता तो दासता ही है। रूप बदलने से न तो दासता की तीव्रता कम होती है और न ही उसके दुष्परिणामों से बचा जा सकता है।
आम के पेड़ का अंकुर, जमने के समय भी आम का पेड़ ही होता है, वह नारंगी अथवा नीबू का अंकुर नहीं हो सकता। इसी प्रकार दासता प्रारम्भिक रूप में भी दासता ही रहती है, वह स्वतंन्त्रता नहीं कही जा सकती। दासता का अंकुर विचारों में उत्पन्न होता है। विचार से दासता, आचरण में भी दासता ही उत्पन्न करेगी, अन्य कुछ नहीं।
आज संसार में विचार-स्वातन्त्र्य का लोप हो रहा है। जन-साधारण की बात यदि छोड़ भी दी जाए तो तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भी विचार-स्वातन्त्र्य अवांच्छित मानने लगे हैं। वे विचारों की दासता और नियन्त्रण में मतभेद नहीं समझ पाते।
राजनीति में दलबन्दी भी दासता का ही एक रूप है। ऐसा माना जाता है कि राजनीति दल बनाने के बिना नहीं चल सकती। दल-निर्माण के समय तो आधार-भूत सिद्धान्तों की मान्यता ही निहित होती है, परन्तु समय समय पर, जब प्रत्येक विषय में दल के सदस्यों पर ‘ह्विप’ (आदेश) चलाये जाते हैं तो यह नियन्त्रण अधिनायकवाद में बदल जाता है और दल दासों का एक बाड़ा बन जाता है।
शासन की संसदीय प्रणाली में दलबन्दी विशेष अंग माना जाता है और साधारण बातों में भी दल के सदस्यों को ‘ह्विप’ के अनुसार मतदान करना होता है। यों तो उसको नियन्त्रण का नाम दिया गया है, वास्तव में यह अधिनायकवाद का ही एक रूप है।
भारतीय संसद में कांग्रेस का प्रबल बहुमत होते हुए भी निरन्तर ‘ह्विप’ की आवश्यकता बनी रहती है। वे विषय भी, जो दल बनाते समय अथवा निर्वाचनों के समय किसी के ध्यान में नहीं होते, जब विचार के लिए उपस्थिति होते हैं, तो दल के नियन्त्रण के आधीन सबको एक ही मत देना होता है। इसको दासता नहीं कहें तो और क्या कह सकते हैं ?
जब 1953 में मध्यप्रदेश के कुछ मन्त्रीगणों के लाभ के कार्यों में भाग लेने का विषय उठा तो इस पर ससंद में कांग्रेस का ‘ह्विप’ जारी हुआ और जब उत्तर प्रदेश के एक संसद-सदस्य ने, कांग्रेस के नेता के आदेश के विरुद्ध अपनी आत्मा की पुकार के अधीन मत दिया तो उसको दल से बाहर करने की धमकी दी गई और उस बेचारे से क्षमायाचना कराई गई।
जो लोग संसदीय कांग्रेस पार्टी की मीटिंगों में कांग्रेस नेता की फटकारें सुनते रहते हैं, वे मध्यकालीन राजाओं-महाराजाओं के आदेशों के पालन करने वाले मानसिक दासों के चित्र का एक नवीन संस्करण तैयार करते प्रतीत होते हैं।
दासता यह रूप केवल संसदीय अथवा विधान सभा के दलों तक ही सीमित नहीं रहा। आज कांग्रेस के चार आना सदस्यों पर भी नियन्त्रण का चक्र चलाया जा रहा है। उन पर भी स्वतन्त्र विचार रखने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है। कांग्रेस का मान रखने के लिए कांग्रेस के प्रत्येक सदस्य को अपनी वाणी और कार्यों पर काबू रखने का आदेश है। परिणाम यह हो रहा है कि विचारशील चरित्रवान् तथा योग्य व्यक्तियों के लिए राजनीतिक दलों में स्थान कम होता जाता है और गुण्डे, चरित्रहीन स्वार्थी तथा मूर्खों के लिए इन दलों में स्थान बढ़ता जाता है। यह तो ऐसे ही है, जैसे चाटुकार राजाओं-महाराजाओं के पास खुशामदी और स्वार्थी लोगों का जमघट लग जाता था। अन्तर केवल यह हुआ है कि जहाँ पिछले काल में अधिनायकवाद व्यक्तिगत होता था, वहाँ आज यह पार्टी के नेताओं का बन गया है।
पार्टी के नेताओं के प्रभाव और उनकी सत्ता का सिक्का जन-साधारण में बनाए रखने के लिए जो उपाय प्रयोग में लाए जाते हैं, वे वही हैं, जो बीतेयुग में शासकों की सत्ता बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे।
बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं। आज 1954 से चालीस-पचास वर्ष पूर्व, जो कुछ अंग्रेज शासकों के प्रभाव को स्थिर रखने के लिए किया जाता था, वही आज कांग्रेस शासकों का शासन स्थिर करने के लिए किया जा रहा है। लार्ड कर्जन तथा उस समय के ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के भ्रमण के समय, जिस प्रकार स्कूलों के विद्यार्थियों को उनके स्वागत के लिए सड़कों के किनारे खड़ा करके उनके हाथों में कागज की ‘यूनियन जैक’ की झण्डियाँ पकड़ाकर हिप हिप हुर्रे के नारे लगवाए जाते थे, वही आज देश के दो चार व्यक्तियों के लिए किया जा रहा है। केवल उसके रूप में अन्तर है।
अपने देश के किसी एक व्यक्ति के लिए, उसकी विचारधारा को समझने की शक्ति न रखने वाले कोटि-कोटि विद्यार्थियों के मुख से, उसके लिए जय-जयकार बुलवाने का प्रयास तो किसी सीमा तक क्षम्य भी माना जा सकता है, यद्यपि यह भी दास्ता का एक रूप ही है। परन्तु उन विदेशियों को, जिनके न तो विचार हमसे मिलते हैं और न ही उनके काम हमें पसन्द हैं, यहाँ बुलाकर भारत के बालकों के मन में केवल संस्कार डालकर उनकी मान-प्रतिष्ठा बैठाना तो घोर दासता का चिह्न है। यह किसी प्रकार भी क्षम्य नहीं हो सकता।
आज राजनीतिक और आर्थिक मान्यताएँ वैसे ही जनता के मन में डाली जा रही हैं, जैसे किसी काल में सरलचित्त बालकों के मन में धर्मगुरु और भगवान की मान्यताएँ डाली जाती थीं। भगवान् के अस्तित्व में सन्देह करने वाले पर तो भारत में कभी प्रतिबन्ध नहीं था, परन्तु राजनीतिक तथा आर्थिक धारणाओं पर सन्देह करने वालों के लिए तो आज जेल और फाँसी तक का दण्ड नियत है। इस कारण राजनीतिक तथा आर्थिक विचारों की दासता मजहबी दासता से कहीं अधिक पतन की बात मानी जानी चाहिए।
इस सबका परिणाम यह हो रहा है कि जनता तो दास की दास ही है। केवल शासक बदल गये हैं। किसी काल के राजा महाराजाओं के स्थान में, किसी काल के धनी-मानी जमींदारों के स्थान पर, अथवा किसी काल का वायसरायों, कमिश्नरों और डिप्टी-कमिश्नरों के स्थान पर आज राजनीतिक नेता आसीन हो गए हैं। जनता तो वैसी की वैसी ही दासता में जकड़ी पड़ी है।
जब कोई व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग न करके किसी अन्य की बात को केवल एक कारण मानता है कि वह धनी-मानी है या किसी प्रकार से बड़ी पदवी पर पहुँच गया है तो वह दास ही कहायेगा। यह अवस्था तब अनिचिन्तनीय हो जाती है। जब जन-साधारण इस दासता में आनन्द अनुभव करने लगता है। आज जन-साधारण महात्मा गांधी, पण्डित जवाहरलाल तथा स्टालिन अथवा कार्ल मार्क्स, लेनिन और अन्य नेताओं को इस कारण माननीय मानता है क्योंकि वे नेता हैं अथवा रहे हैं। भले ही उनकी बातें अथवा सिद्धान्त उनकी समझ से दूर हों और परीक्षा करने पर अमान्य सिद्ध हों।
इस पुस्तक में एक-दो स्थानों पर महात्मा गांधी के वक्तव्य उद्धृत किए गए हैं। वे ‘दिल्ली डायरी’ नाम की पुस्तक से हैं। नीचे फुटनोट में पृष्ठ संख्या दी है। ‘दिल्ली डायरी’ में सितम्बर 12, 1947 से जनवरी 30, 1948 तक के बिड़ला हाउस में महात्मा गांधी द्वारा प्रार्थना सभा में दिए गए उपदेश संग्रहीत किए गए हैं।
ये हैं दासता के नए रूप, जिनकी एक झलक मात्र ही इस पुस्तक में दिखाने का यत्न किया जा सका है। यह उपन्यास है और इसमें वर्णित पात्र तथा स्थान सब काल्पनिक हैं, वे किसी विशेष व्यक्ति तथा स्थान के अर्थवाचक नहीं। शेष पढ़ने और समझने से सम्बन्ध रखते हुए पाठकों के विचार और निर्णय करने की बात है।
स्मृतिकार के ऐसा विधान करने पर भी सत्ताधीश लोग मनुष्य को दासता की श्रृंखलाओं में बाँधने का यत्न करते रहे हैं। राजनीतिक सत्ता अथवा आर्थिक व सामाजिक प्रभुत्व प्राप्त करके लोग अन्य मनुष्यों अपनी सत्ता अथवा प्रभाव के अधीन रखने के लिए अनेकानेक प्रकारों का प्रयोग करते हैं। ये दासता उत्पन्न करने के उपाय हैं। समय के साथ इसके रूप बदलते रहे हैं। फिर भी दासता तो दासता ही है। रूप बदलने से न तो दासता की तीव्रता कम होती है और न ही उसके दुष्परिणामों से बचा जा सकता है।
आम के पेड़ का अंकुर, जमने के समय भी आम का पेड़ ही होता है, वह नारंगी अथवा नीबू का अंकुर नहीं हो सकता। इसी प्रकार दासता प्रारम्भिक रूप में भी दासता ही रहती है, वह स्वतंन्त्रता नहीं कही जा सकती। दासता का अंकुर विचारों में उत्पन्न होता है। विचार से दासता, आचरण में भी दासता ही उत्पन्न करेगी, अन्य कुछ नहीं।
आज संसार में विचार-स्वातन्त्र्य का लोप हो रहा है। जन-साधारण की बात यदि छोड़ भी दी जाए तो तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भी विचार-स्वातन्त्र्य अवांच्छित मानने लगे हैं। वे विचारों की दासता और नियन्त्रण में मतभेद नहीं समझ पाते।
राजनीति में दलबन्दी भी दासता का ही एक रूप है। ऐसा माना जाता है कि राजनीति दल बनाने के बिना नहीं चल सकती। दल-निर्माण के समय तो आधार-भूत सिद्धान्तों की मान्यता ही निहित होती है, परन्तु समय समय पर, जब प्रत्येक विषय में दल के सदस्यों पर ‘ह्विप’ (आदेश) चलाये जाते हैं तो यह नियन्त्रण अधिनायकवाद में बदल जाता है और दल दासों का एक बाड़ा बन जाता है।
शासन की संसदीय प्रणाली में दलबन्दी विशेष अंग माना जाता है और साधारण बातों में भी दल के सदस्यों को ‘ह्विप’ के अनुसार मतदान करना होता है। यों तो उसको नियन्त्रण का नाम दिया गया है, वास्तव में यह अधिनायकवाद का ही एक रूप है।
भारतीय संसद में कांग्रेस का प्रबल बहुमत होते हुए भी निरन्तर ‘ह्विप’ की आवश्यकता बनी रहती है। वे विषय भी, जो दल बनाते समय अथवा निर्वाचनों के समय किसी के ध्यान में नहीं होते, जब विचार के लिए उपस्थिति होते हैं, तो दल के नियन्त्रण के आधीन सबको एक ही मत देना होता है। इसको दासता नहीं कहें तो और क्या कह सकते हैं ?
जब 1953 में मध्यप्रदेश के कुछ मन्त्रीगणों के लाभ के कार्यों में भाग लेने का विषय उठा तो इस पर ससंद में कांग्रेस का ‘ह्विप’ जारी हुआ और जब उत्तर प्रदेश के एक संसद-सदस्य ने, कांग्रेस के नेता के आदेश के विरुद्ध अपनी आत्मा की पुकार के अधीन मत दिया तो उसको दल से बाहर करने की धमकी दी गई और उस बेचारे से क्षमायाचना कराई गई।
जो लोग संसदीय कांग्रेस पार्टी की मीटिंगों में कांग्रेस नेता की फटकारें सुनते रहते हैं, वे मध्यकालीन राजाओं-महाराजाओं के आदेशों के पालन करने वाले मानसिक दासों के चित्र का एक नवीन संस्करण तैयार करते प्रतीत होते हैं।
दासता यह रूप केवल संसदीय अथवा विधान सभा के दलों तक ही सीमित नहीं रहा। आज कांग्रेस के चार आना सदस्यों पर भी नियन्त्रण का चक्र चलाया जा रहा है। उन पर भी स्वतन्त्र विचार रखने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाती है। कांग्रेस का मान रखने के लिए कांग्रेस के प्रत्येक सदस्य को अपनी वाणी और कार्यों पर काबू रखने का आदेश है। परिणाम यह हो रहा है कि विचारशील चरित्रवान् तथा योग्य व्यक्तियों के लिए राजनीतिक दलों में स्थान कम होता जाता है और गुण्डे, चरित्रहीन स्वार्थी तथा मूर्खों के लिए इन दलों में स्थान बढ़ता जाता है। यह तो ऐसे ही है, जैसे चाटुकार राजाओं-महाराजाओं के पास खुशामदी और स्वार्थी लोगों का जमघट लग जाता था। अन्तर केवल यह हुआ है कि जहाँ पिछले काल में अधिनायकवाद व्यक्तिगत होता था, वहाँ आज यह पार्टी के नेताओं का बन गया है।
पार्टी के नेताओं के प्रभाव और उनकी सत्ता का सिक्का जन-साधारण में बनाए रखने के लिए जो उपाय प्रयोग में लाए जाते हैं, वे वही हैं, जो बीतेयुग में शासकों की सत्ता बनाए रखने के लिए प्रयोग में लाए जाते थे।
बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं। आज 1954 से चालीस-पचास वर्ष पूर्व, जो कुछ अंग्रेज शासकों के प्रभाव को स्थिर रखने के लिए किया जाता था, वही आज कांग्रेस शासकों का शासन स्थिर करने के लिए किया जा रहा है। लार्ड कर्जन तथा उस समय के ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ के भ्रमण के समय, जिस प्रकार स्कूलों के विद्यार्थियों को उनके स्वागत के लिए सड़कों के किनारे खड़ा करके उनके हाथों में कागज की ‘यूनियन जैक’ की झण्डियाँ पकड़ाकर हिप हिप हुर्रे के नारे लगवाए जाते थे, वही आज देश के दो चार व्यक्तियों के लिए किया जा रहा है। केवल उसके रूप में अन्तर है।
अपने देश के किसी एक व्यक्ति के लिए, उसकी विचारधारा को समझने की शक्ति न रखने वाले कोटि-कोटि विद्यार्थियों के मुख से, उसके लिए जय-जयकार बुलवाने का प्रयास तो किसी सीमा तक क्षम्य भी माना जा सकता है, यद्यपि यह भी दास्ता का एक रूप ही है। परन्तु उन विदेशियों को, जिनके न तो विचार हमसे मिलते हैं और न ही उनके काम हमें पसन्द हैं, यहाँ बुलाकर भारत के बालकों के मन में केवल संस्कार डालकर उनकी मान-प्रतिष्ठा बैठाना तो घोर दासता का चिह्न है। यह किसी प्रकार भी क्षम्य नहीं हो सकता।
आज राजनीतिक और आर्थिक मान्यताएँ वैसे ही जनता के मन में डाली जा रही हैं, जैसे किसी काल में सरलचित्त बालकों के मन में धर्मगुरु और भगवान की मान्यताएँ डाली जाती थीं। भगवान् के अस्तित्व में सन्देह करने वाले पर तो भारत में कभी प्रतिबन्ध नहीं था, परन्तु राजनीतिक तथा आर्थिक धारणाओं पर सन्देह करने वालों के लिए तो आज जेल और फाँसी तक का दण्ड नियत है। इस कारण राजनीतिक तथा आर्थिक विचारों की दासता मजहबी दासता से कहीं अधिक पतन की बात मानी जानी चाहिए।
इस सबका परिणाम यह हो रहा है कि जनता तो दास की दास ही है। केवल शासक बदल गये हैं। किसी काल के राजा महाराजाओं के स्थान में, किसी काल के धनी-मानी जमींदारों के स्थान पर, अथवा किसी काल का वायसरायों, कमिश्नरों और डिप्टी-कमिश्नरों के स्थान पर आज राजनीतिक नेता आसीन हो गए हैं। जनता तो वैसी की वैसी ही दासता में जकड़ी पड़ी है।
जब कोई व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग न करके किसी अन्य की बात को केवल एक कारण मानता है कि वह धनी-मानी है या किसी प्रकार से बड़ी पदवी पर पहुँच गया है तो वह दास ही कहायेगा। यह अवस्था तब अनिचिन्तनीय हो जाती है। जब जन-साधारण इस दासता में आनन्द अनुभव करने लगता है। आज जन-साधारण महात्मा गांधी, पण्डित जवाहरलाल तथा स्टालिन अथवा कार्ल मार्क्स, लेनिन और अन्य नेताओं को इस कारण माननीय मानता है क्योंकि वे नेता हैं अथवा रहे हैं। भले ही उनकी बातें अथवा सिद्धान्त उनकी समझ से दूर हों और परीक्षा करने पर अमान्य सिद्ध हों।
इस पुस्तक में एक-दो स्थानों पर महात्मा गांधी के वक्तव्य उद्धृत किए गए हैं। वे ‘दिल्ली डायरी’ नाम की पुस्तक से हैं। नीचे फुटनोट में पृष्ठ संख्या दी है। ‘दिल्ली डायरी’ में सितम्बर 12, 1947 से जनवरी 30, 1948 तक के बिड़ला हाउस में महात्मा गांधी द्वारा प्रार्थना सभा में दिए गए उपदेश संग्रहीत किए गए हैं।
ये हैं दासता के नए रूप, जिनकी एक झलक मात्र ही इस पुस्तक में दिखाने का यत्न किया जा सका है। यह उपन्यास है और इसमें वर्णित पात्र तथा स्थान सब काल्पनिक हैं, वे किसी विशेष व्यक्ति तथा स्थान के अर्थवाचक नहीं। शेष पढ़ने और समझने से सम्बन्ध रखते हुए पाठकों के विचार और निर्णय करने की बात है।
गुरुदत्त
प्रथम परिच्छेद
:1:
‘महात्मा गांधी की जय ! महात्मा गांधी की जय !!’ के
गगनभेदी नारों में गाड़ी चल पड़ी।
अमृतसर स्टेशन से जब रेलगाड़ी चली तो उसमें तिल धरने को भी स्थान नहीं था। छत पर, बाहर पायदान पर अभिप्राय यह कि कहीं एक इंच भी ऐसा स्थान नहीं था, जहाँ कोई-न-कोई व्यक्ति बैठा, खड़ा अथवा लटका हुआ न हो।
19 अगस्त, 1947 का दिन था और अमृतसर से इसी प्रकार लदी हुई गाड़ियाँ धड़ाधड़ भारत की राजधानी की ओर जा रही थीं। फिर भी अमृतसर में पश्चिमी पंजाब से आए विस्थापित जनों की भीड़ कम नहीं हो रही थी। भारत से जितने लोग रेल, मोटर, बसों इत्यादि से जाते थे, उनसे कहीं अधिक पाकिस्तान के अधीन आए पंजाब से आ जाते थे।
सन् 1944 में महात्मा गांधी और मिस्टर जिन्ना में पाकिस्तान के निर्माण के विषय की वार्तालाप हुआ था। इस वार्तालाप में गांधी यह मान गए थे कि देश का बँटवारा हो जाए। केवल दो बातों पर मतभेद था। एक तो देश के बँटवारे के साथ साथ हिन्दू और मुसलमानों की अदला-बदली और दूसरा हिन्दुओं की ओर से बोलने के महात्माजी के अधिकार पर।
मिस्टर जिन्ना का यह विचार था कि हिन्दू और मुसलमानों के आधार पर देश का बँटवारा होना चाहिए और बँटवारे के उपरान्त सब मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ और सब हिन्दू भारत में रहें। महात्माजी का विचार था कि लोग जहाँ रहते हैं, वहीं रहें और अपने देश की बनने वाली सरकारों के अधीन देश-भक्त बनकर रहें। मिस्टर जिन्ना इसको अस्वाभाविक और अव्यावहारिक बताते थे।
मिस्टर जिन्ना का कहना सत्य और महात्माजी का विचार असत्य सिद्ध हुआ। महात्मा गांधी और कांग्रेस के विपुल प्रयत्न करने पर भी हिन्दू पाकिस्तान में नहीं रह सके। जैसे मधुमक्खियों को धुआँ करके अपने छत्ते से भगा दिया जाता है, वैसे ही पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ किया गया।
बनने वाले पाकिस्तान से हिन्दुओं को भगाने का प्रयत्न 15 अगस्त, 1946 से ही आरम्भ हो गया था। इस प्रयत्न का श्रीगणेश कलकत्ता में ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के नाम पर हुआ। कलकत्ता में तो इस प्रयत्न को सफलता नहीं मिली। पंजाब में कलकत्ता से अधिक सफलता मिली। पंजाब में यह काम 3 मार्च, 1947 को आरम्भ किया गया। उस दिन मुस्लिम-लीग के दबाव के कारण खिजिर मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ा। गवर्नर ने मुस्लिम-लीग को मन्त्रिमण्डल बनाने का निमन्त्रण दिया, परन्तु कांग्रेसी और सिख नेताओं ने मुस्लिम लीग के मन्त्रिमण्डल बनाने का विरोध किया और इसके लिए सार्वजनिक आन्दोलन आरम्भ कर दिया।
यह निर्विवाद सत्य है कि 1941 के उपरान्त धीरे-धीरे हिन्दुओं का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ में चला गया था। 1946 के निर्वाचनों के समय 95 प्रतिशत हिन्दुओं के वोट कांग्रेस को मिले थे। इसमें 3 मार्च, 1947 को लाहौर की गड़बड़ का पूर्ण उत्तदायित्व कांग्रेस पर ही माना जाना चाहिए।
लाहौर की इस गड़बड़ के उपरान्त पंजाब में गवर्नर का शासन हो गया और गवर्नर महोदय मुस्लिम लीग की लूटमार के आन्दोलन को रोकने में असमर्थ सिद्ध हुए। इस तरह बनने वाले पाकिस्तान से हिन्दुओं को निकालने का जो प्रयास कलकत्ता में असफल रहा था वह पंजाब में सफल होने लगा।
ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता गया, पंजाब से हिन्दुओं का निकास बढ़ता गया 16 अगस्त, 1946 के कलकत्ता के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के ठीक एक वर्ष के पूर्ण होते-होते ‘डायरेक्ट एक्शन’ का उद्देश्य सिद्ध हो गया।
कांग्रेस के नेताओं का कहना कि भारत में स्वराज्य महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आन्दोलन के कारण मिला है, यह निर्विवाद सत्य नहीं। परन्तु पाकिस्तान का केवल एक वर्ष में हिंसात्मक आन्दोलन से बनना निर्विवाद सत्य है। पाकिस्तान बना और मिस्टर जिन्ना के विचारानुसार पाकिस्तान से हिन्दुओं का पत्ता कट गया। उनका वहाँ रहना असम्भव हो गया।
15 अगस्त, 1946 से लेकर कांग्रेसी नेता निरन्तर यह कहते रहे थे कि पंजाब तथा पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं को अपने-अपने घरों में ही रहना चाहिए, पाकिस्तान नहीं बनने दिया जाएगा। तदनन्तर जब पाकिस्तान स्वीकार कर लिया गया तो ये नेतागण कहने लगे कि हिन्दू पाकिस्तान में रह सकेंगे। उनको भारत नहीं आना चाहिए; परन्तु उनके ये सब कथन निरर्थक सिद्ध हुए।
कुछ हिन्दु ऐसे भी थे, जो कांग्रेसी नेताओं के इन आश्वासनों पर विश्वास न कर, सम्भावित पाकिस्तान से चले आये थे। ऐसे हिन्दुओं की संख्या बहुत कम थी। इनमें भी प्रायः तो लूटमार के भय से ही आए थे। इन लोगों को, जो 15 अगस्त, 1947 से पूर्व ही भारत में आ पहुँचे थे, यहाँ के हिन्दू, जो कांग्रेसी विचार रखते थे, भीरु, कायर कहते थे।
लाहौर के एक प्रसिद्ध नागरिक ने इसी प्रकार जब देहरादून में अपना निवास बनाया और जब एक प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता ने उनसे कहा, ‘‘पण्डितजी ! डरकर भाग आये न ?’’ तो उत्तर था, ‘डरकर नहीं, प्रत्युत् सोच-विचारकर, व्यावहारिक बुद्धि को दृष्टि में रखकर। दुर्भाग्य से आप जैसे मूर्खों को कौम ने नेता मान लिया, जो ऐसी अवस्था में हमारी रक्षा के अयोग्य सिद्ध हुए हैं।’’
यह कांग्रेसी पंजाब के ही रहने वाले, पंजाब विधान सभा के सदस्य थे। वे कह उठे, ‘‘वाह ! अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिए हम पर ही पिल पड़े। हम क्या कर सकते हैं ? पंजाब में गवर्नर का राज्य है और हम अब कुछ नहीं हैं।’’
‘‘यही तो कह रहा हूँ। तुम जब कुछ नहीं कर सकते तो दूसरो को, जो अपनी बहू-बेटियों की रक्षा के लिए अपने घर छोड़कर यहाँ आ रहे हैं, भीरु क्यों कहते हो ?
‘‘देखिए श्रीमान् जी ! फौज पंजाब के गवर्गर के अधीन नहीं है। वह तो केन्द्रीय सरकार के अधीन है और वहाँ आपके पूज्य नेता पण्डित जवाहरलाल नेहरू बहुत कुछ हैं। वे तो बहुत कुछ कर सकते थे।
‘‘मुझको स्मरण है कि मार्च मास में पण्डित नेहरू लाहौर पधारे थे और वे हिन्दू मुहल्लों की तबाही देखकर रो पड़े थे। परन्तु दिल्ली पहुँचकर सब कुछ भूल गए और अब जून का महीना समाप्त होने को आ रहा है। अब तक केवल मिस्टर जिन्ना और महात्मा गांधी के संयुक्त वक्तव्य ही प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दुओं की रक्षा के लिए क्या किया है ?
‘‘मुसलमान हमको डरपोक और कायर समझते हैं। वे और उनके नेता अपने उद्देश्य को समझते हैं और उसकी पूर्ति के लिए वे प्रत्येक प्रकार का प्रयत्न करते हैं। मुसलमान जनता अपने नेताओं की आज्ञापालन करती है और नेता उनकी रक्षा के लिए सदैव तैयार रहते हैं। इसके विपरीत हिन्दू जनता अपने नेताओं की आज्ञा का पालन तो करती है, परन्तु नेता लोग आने वाले संकट को न तो देख सके हैं और न ही उसकी चिकित्सा कर सकते हैं।’’
‘‘श्रीमान् जी ! जाइये। मसूरी की ठण्डी हवा खाइये। यदि आपको वोट देने वाले, आपकी आज्ञापालन करने वाले लोग जल-भुन रहे हैं, लूटे-मारे जा रहे हैं तथा उनकी बहू-बेटियों का अपहरण हो रहा है तो आपको क्या ?’’
‘‘आप हमसे क्या आशा करते हैं ?’’
‘‘आपका कर्तव्य था कि आप दिल्ली जाकर पण्डित जवाहरलाल के घर पर धरना दे देते और उनको पंजाब के हिन्दुओं की रक्षा के लिए सक्रिय प्रयत्न करने को कहते।’’
हिन्दुओं में ऐसे मुँहफट बहुत कम थे। भोले-भाले हिन्दू कांग्रेसी वाग्जाल में फँसे हुए, कांग्रेस से बाहर किसी भी समझदार व्यक्ति को अपना नेता मानने के लिए तैयार नहीं थे और कांग्रेसी नेता उन हिन्दुओं को अपने अपने घरों में बैठे रहो, केवल यह कहने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी सुझाव दे नहीं सके थे।
15 अगस्त के कई दिन बाद तक भी कांग्रेसी नेता पंजाबियों के लिए यही उचित समझ रहे थे कि वे पाकिस्तान में बैठे रहें और उनकी उचित रक्षा की जा सकेगी।
परिणाम यह हुआ कि अरबों रुपयों की हानि, सहकर, सहस्रों स्त्रियों का अपहरण कराकर और लाखों को मौत के घाट उतारे जाने पर, पंजाब के हिन्दू अपने बचे-खुचे समान को पोटलियों में बाँधकर रेलगाड़ियों के साथ लटके हुए, अमानुषिक यन्त्रणाएँ सहते हुए भारत को चल पड़े।
इन सब प्रकार की मानसिक तथा शारीरिक यन्त्रणा को सहते हुए भी बेचारे भूखे पेटों, सूखे गलों और भर्राई आवाजों के साथ ‘महात्मा गांधी की जय’ बोल रहे थे।
अमृतसर स्टेशन से जब रेलगाड़ी चली तो उसमें तिल धरने को भी स्थान नहीं था। छत पर, बाहर पायदान पर अभिप्राय यह कि कहीं एक इंच भी ऐसा स्थान नहीं था, जहाँ कोई-न-कोई व्यक्ति बैठा, खड़ा अथवा लटका हुआ न हो।
19 अगस्त, 1947 का दिन था और अमृतसर से इसी प्रकार लदी हुई गाड़ियाँ धड़ाधड़ भारत की राजधानी की ओर जा रही थीं। फिर भी अमृतसर में पश्चिमी पंजाब से आए विस्थापित जनों की भीड़ कम नहीं हो रही थी। भारत से जितने लोग रेल, मोटर, बसों इत्यादि से जाते थे, उनसे कहीं अधिक पाकिस्तान के अधीन आए पंजाब से आ जाते थे।
सन् 1944 में महात्मा गांधी और मिस्टर जिन्ना में पाकिस्तान के निर्माण के विषय की वार्तालाप हुआ था। इस वार्तालाप में गांधी यह मान गए थे कि देश का बँटवारा हो जाए। केवल दो बातों पर मतभेद था। एक तो देश के बँटवारे के साथ साथ हिन्दू और मुसलमानों की अदला-बदली और दूसरा हिन्दुओं की ओर से बोलने के महात्माजी के अधिकार पर।
मिस्टर जिन्ना का यह विचार था कि हिन्दू और मुसलमानों के आधार पर देश का बँटवारा होना चाहिए और बँटवारे के उपरान्त सब मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ और सब हिन्दू भारत में रहें। महात्माजी का विचार था कि लोग जहाँ रहते हैं, वहीं रहें और अपने देश की बनने वाली सरकारों के अधीन देश-भक्त बनकर रहें। मिस्टर जिन्ना इसको अस्वाभाविक और अव्यावहारिक बताते थे।
मिस्टर जिन्ना का कहना सत्य और महात्माजी का विचार असत्य सिद्ध हुआ। महात्मा गांधी और कांग्रेस के विपुल प्रयत्न करने पर भी हिन्दू पाकिस्तान में नहीं रह सके। जैसे मधुमक्खियों को धुआँ करके अपने छत्ते से भगा दिया जाता है, वैसे ही पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ किया गया।
बनने वाले पाकिस्तान से हिन्दुओं को भगाने का प्रयत्न 15 अगस्त, 1946 से ही आरम्भ हो गया था। इस प्रयत्न का श्रीगणेश कलकत्ता में ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के नाम पर हुआ। कलकत्ता में तो इस प्रयत्न को सफलता नहीं मिली। पंजाब में कलकत्ता से अधिक सफलता मिली। पंजाब में यह काम 3 मार्च, 1947 को आरम्भ किया गया। उस दिन मुस्लिम-लीग के दबाव के कारण खिजिर मन्त्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ा। गवर्नर ने मुस्लिम-लीग को मन्त्रिमण्डल बनाने का निमन्त्रण दिया, परन्तु कांग्रेसी और सिख नेताओं ने मुस्लिम लीग के मन्त्रिमण्डल बनाने का विरोध किया और इसके लिए सार्वजनिक आन्दोलन आरम्भ कर दिया।
यह निर्विवाद सत्य है कि 1941 के उपरान्त धीरे-धीरे हिन्दुओं का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ में चला गया था। 1946 के निर्वाचनों के समय 95 प्रतिशत हिन्दुओं के वोट कांग्रेस को मिले थे। इसमें 3 मार्च, 1947 को लाहौर की गड़बड़ का पूर्ण उत्तदायित्व कांग्रेस पर ही माना जाना चाहिए।
लाहौर की इस गड़बड़ के उपरान्त पंजाब में गवर्नर का शासन हो गया और गवर्नर महोदय मुस्लिम लीग की लूटमार के आन्दोलन को रोकने में असमर्थ सिद्ध हुए। इस तरह बनने वाले पाकिस्तान से हिन्दुओं को निकालने का जो प्रयास कलकत्ता में असफल रहा था वह पंजाब में सफल होने लगा।
ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता गया, पंजाब से हिन्दुओं का निकास बढ़ता गया 16 अगस्त, 1946 के कलकत्ता के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के ठीक एक वर्ष के पूर्ण होते-होते ‘डायरेक्ट एक्शन’ का उद्देश्य सिद्ध हो गया।
कांग्रेस के नेताओं का कहना कि भारत में स्वराज्य महात्मा गांधी के अहिंसात्मक आन्दोलन के कारण मिला है, यह निर्विवाद सत्य नहीं। परन्तु पाकिस्तान का केवल एक वर्ष में हिंसात्मक आन्दोलन से बनना निर्विवाद सत्य है। पाकिस्तान बना और मिस्टर जिन्ना के विचारानुसार पाकिस्तान से हिन्दुओं का पत्ता कट गया। उनका वहाँ रहना असम्भव हो गया।
15 अगस्त, 1946 से लेकर कांग्रेसी नेता निरन्तर यह कहते रहे थे कि पंजाब तथा पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं को अपने-अपने घरों में ही रहना चाहिए, पाकिस्तान नहीं बनने दिया जाएगा। तदनन्तर जब पाकिस्तान स्वीकार कर लिया गया तो ये नेतागण कहने लगे कि हिन्दू पाकिस्तान में रह सकेंगे। उनको भारत नहीं आना चाहिए; परन्तु उनके ये सब कथन निरर्थक सिद्ध हुए।
कुछ हिन्दु ऐसे भी थे, जो कांग्रेसी नेताओं के इन आश्वासनों पर विश्वास न कर, सम्भावित पाकिस्तान से चले आये थे। ऐसे हिन्दुओं की संख्या बहुत कम थी। इनमें भी प्रायः तो लूटमार के भय से ही आए थे। इन लोगों को, जो 15 अगस्त, 1947 से पूर्व ही भारत में आ पहुँचे थे, यहाँ के हिन्दू, जो कांग्रेसी विचार रखते थे, भीरु, कायर कहते थे।
लाहौर के एक प्रसिद्ध नागरिक ने इसी प्रकार जब देहरादून में अपना निवास बनाया और जब एक प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता ने उनसे कहा, ‘‘पण्डितजी ! डरकर भाग आये न ?’’ तो उत्तर था, ‘डरकर नहीं, प्रत्युत् सोच-विचारकर, व्यावहारिक बुद्धि को दृष्टि में रखकर। दुर्भाग्य से आप जैसे मूर्खों को कौम ने नेता मान लिया, जो ऐसी अवस्था में हमारी रक्षा के अयोग्य सिद्ध हुए हैं।’’
यह कांग्रेसी पंजाब के ही रहने वाले, पंजाब विधान सभा के सदस्य थे। वे कह उठे, ‘‘वाह ! अपनी दुर्बलता को छिपाने के लिए हम पर ही पिल पड़े। हम क्या कर सकते हैं ? पंजाब में गवर्नर का राज्य है और हम अब कुछ नहीं हैं।’’
‘‘यही तो कह रहा हूँ। तुम जब कुछ नहीं कर सकते तो दूसरो को, जो अपनी बहू-बेटियों की रक्षा के लिए अपने घर छोड़कर यहाँ आ रहे हैं, भीरु क्यों कहते हो ?
‘‘देखिए श्रीमान् जी ! फौज पंजाब के गवर्गर के अधीन नहीं है। वह तो केन्द्रीय सरकार के अधीन है और वहाँ आपके पूज्य नेता पण्डित जवाहरलाल नेहरू बहुत कुछ हैं। वे तो बहुत कुछ कर सकते थे।
‘‘मुझको स्मरण है कि मार्च मास में पण्डित नेहरू लाहौर पधारे थे और वे हिन्दू मुहल्लों की तबाही देखकर रो पड़े थे। परन्तु दिल्ली पहुँचकर सब कुछ भूल गए और अब जून का महीना समाप्त होने को आ रहा है। अब तक केवल मिस्टर जिन्ना और महात्मा गांधी के संयुक्त वक्तव्य ही प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दुओं की रक्षा के लिए क्या किया है ?
‘‘मुसलमान हमको डरपोक और कायर समझते हैं। वे और उनके नेता अपने उद्देश्य को समझते हैं और उसकी पूर्ति के लिए वे प्रत्येक प्रकार का प्रयत्न करते हैं। मुसलमान जनता अपने नेताओं की आज्ञापालन करती है और नेता उनकी रक्षा के लिए सदैव तैयार रहते हैं। इसके विपरीत हिन्दू जनता अपने नेताओं की आज्ञा का पालन तो करती है, परन्तु नेता लोग आने वाले संकट को न तो देख सके हैं और न ही उसकी चिकित्सा कर सकते हैं।’’
‘‘श्रीमान् जी ! जाइये। मसूरी की ठण्डी हवा खाइये। यदि आपको वोट देने वाले, आपकी आज्ञापालन करने वाले लोग जल-भुन रहे हैं, लूटे-मारे जा रहे हैं तथा उनकी बहू-बेटियों का अपहरण हो रहा है तो आपको क्या ?’’
‘‘आप हमसे क्या आशा करते हैं ?’’
‘‘आपका कर्तव्य था कि आप दिल्ली जाकर पण्डित जवाहरलाल के घर पर धरना दे देते और उनको पंजाब के हिन्दुओं की रक्षा के लिए सक्रिय प्रयत्न करने को कहते।’’
हिन्दुओं में ऐसे मुँहफट बहुत कम थे। भोले-भाले हिन्दू कांग्रेसी वाग्जाल में फँसे हुए, कांग्रेस से बाहर किसी भी समझदार व्यक्ति को अपना नेता मानने के लिए तैयार नहीं थे और कांग्रेसी नेता उन हिन्दुओं को अपने अपने घरों में बैठे रहो, केवल यह कहने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी सुझाव दे नहीं सके थे।
15 अगस्त के कई दिन बाद तक भी कांग्रेसी नेता पंजाबियों के लिए यही उचित समझ रहे थे कि वे पाकिस्तान में बैठे रहें और उनकी उचित रक्षा की जा सकेगी।
परिणाम यह हुआ कि अरबों रुपयों की हानि, सहकर, सहस्रों स्त्रियों का अपहरण कराकर और लाखों को मौत के घाट उतारे जाने पर, पंजाब के हिन्दू अपने बचे-खुचे समान को पोटलियों में बाँधकर रेलगाड़ियों के साथ लटके हुए, अमानुषिक यन्त्रणाएँ सहते हुए भारत को चल पड़े।
इन सब प्रकार की मानसिक तथा शारीरिक यन्त्रणा को सहते हुए भी बेचारे भूखे पेटों, सूखे गलों और भर्राई आवाजों के साथ ‘महात्मा गांधी की जय’ बोल रहे थे।
:2:
उस गाड़ी के एक डिब्बे में एक व्यक्ति अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ
बैठा था। ये चार प्राणी डिब्बे की दीवार के साथ भिंचे हुए थे। डिब्बा
खचाखच भरा हुआ था। स्त्री कोने की एक सीट पर बैठी थी। बच्चे गाड़ी के फर्श
पर बैठे थे। स्त्री के पास ही उसका पति बैठा था।
इस व्यक्ति के साथ ही सटा हुआ फ्रण्टियर का रहने वाला एक व्यक्ति भी बैठा था। उसके पास भूमि पर उसकी बीवी पिचककर बैठी हुई थी। उस फ्रण्टियर के रहने वाले की बीवी के हाथ में एक पोटली थी।
जब गाड़ी चल पड़ी तो डिब्बे में बैठे एक युवक ने नारा लगा दिया, ‘‘महात्मा गांधी की...जय !’’
पठान के साथ बैठे व्यक्ति ने, अपने सूखे गले की भर्राई आवाज से नारे का उत्तर दिया। पठान पसीने से तरबतर हो रहा था। उसने अपने साथी के भर्राए गले से गांधीजी की जय की आवाज सुनी तो हँस पड़ा और उससे पूछने लगा, ‘‘तुम्हारे गले से आवाज तो निकलती नहीं, फिर चिल्ला क्यों रहे हो ?’’
‘‘तो क्या करूँ ? सवेरे से गाड़ी में बैठा प्यास से मरा जा रहा हूँ।’’
‘‘ठीक है दोस्त ! पर यह चिल्ला क्यों रहे हो ? तुम्हारे चिल्लाने से गांधीजी की जय कैसे हो जाएगी ?’’
‘‘वह तो हो गई है। स्वराज्य मिल तो गया है।’’
‘‘पर हमको तो पाकिस्तान मिला है, जहाँ से धक्के मार-मारकर निकाल दिए गए हैं। जानते हो, मैं लाखों की जायदाद का मालिक था। एक पाई नहीं ला सका। यह औरत अपने कुछ आभूषण इस पोटली में बाँध लाई है। इनमें से ही रिश्वत देकर गाड़ी में जगह पा सका हूँ।’’
‘‘वैसे तो मैंने भी पचास रुपये बाबू को दिए हैं, तब कहीं जाकर जगह मिली है। फिर भी मेरा विचार है कि दिल्ली जाकर हमारी मुसीबतों का अन्त हो जाएगा।’’
इस व्यक्ति के साथ ही सटा हुआ फ्रण्टियर का रहने वाला एक व्यक्ति भी बैठा था। उसके पास भूमि पर उसकी बीवी पिचककर बैठी हुई थी। उस फ्रण्टियर के रहने वाले की बीवी के हाथ में एक पोटली थी।
जब गाड़ी चल पड़ी तो डिब्बे में बैठे एक युवक ने नारा लगा दिया, ‘‘महात्मा गांधी की...जय !’’
पठान के साथ बैठे व्यक्ति ने, अपने सूखे गले की भर्राई आवाज से नारे का उत्तर दिया। पठान पसीने से तरबतर हो रहा था। उसने अपने साथी के भर्राए गले से गांधीजी की जय की आवाज सुनी तो हँस पड़ा और उससे पूछने लगा, ‘‘तुम्हारे गले से आवाज तो निकलती नहीं, फिर चिल्ला क्यों रहे हो ?’’
‘‘तो क्या करूँ ? सवेरे से गाड़ी में बैठा प्यास से मरा जा रहा हूँ।’’
‘‘ठीक है दोस्त ! पर यह चिल्ला क्यों रहे हो ? तुम्हारे चिल्लाने से गांधीजी की जय कैसे हो जाएगी ?’’
‘‘वह तो हो गई है। स्वराज्य मिल तो गया है।’’
‘‘पर हमको तो पाकिस्तान मिला है, जहाँ से धक्के मार-मारकर निकाल दिए गए हैं। जानते हो, मैं लाखों की जायदाद का मालिक था। एक पाई नहीं ला सका। यह औरत अपने कुछ आभूषण इस पोटली में बाँध लाई है। इनमें से ही रिश्वत देकर गाड़ी में जगह पा सका हूँ।’’
‘‘वैसे तो मैंने भी पचास रुपये बाबू को दिए हैं, तब कहीं जाकर जगह मिली है। फिर भी मेरा विचार है कि दिल्ली जाकर हमारी मुसीबतों का अन्त हो जाएगा।’’
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