बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
"देवर! यह सब क्या था?" सीता बोली।
"था नहीं, भाभी! है!" लक्ष्मण गंभीर स्वर में बोले, "वैसे तो भैया के बल-विक्रम पर मुझे इतना अधिक विश्वास है कि शत्रुओं द्वारा उन्हें कष्ट दिए जाने की संभावना की कल्पना भी मेरे मन में नहीं है। किंतु बल-विक्रम युद्ध में काम आता है। षड्यंत्रों में फंसकर कभी-कभी बल-विक्रम व्यर्थ हो जाता है..."
"तो कहीं ऐसा तो नहीं, सौमित्र, कि वे लोग छल से प्रिय को ऐसे स्थान पर ले जाएं जहां पहले से व्यूह रचा गया हो; और उस व्यूह में घेरकर प्रिय का अहित करने का प्रयत्न करें!"
"यह भी हो सकता है, दीदी!" मुखर बोला, "कि वे लोग आर्य राम को इसीलिए आश्रम से हटा ले गए हों कि पीछे से आश्रम पर आक्रमण कर सारा शस्त्रागार उठा ले जाएं..."
लक्ष्मण ध्यान से मुखर को देखते रहे। फिर बोले, "मुझे लगता
है कि संभावनाएं दोनों प्रकार की हो सकती हैं। बाहर वन में भी व्यूह रचा गया हो सकता है, जहां भैया को ले जाया गया है; और व्यूह यहां आश्रम के चारों ओर भी हो सकता है, जहां से भैया को हटाया गया है। इसलिए हमें दोनों स्थलों पर सन्नद्ध रहना चाहिए। यहां भी और वहां भी...किंतु व्यूह किसने रचा? राक्षसों की एक भी सैनिक टुकड़ी इधर आयी होती, तो हमें उसकी सूचना अवश्य मिल जाती।"
"वाहर वन में राम हैं," सीता सौमित्र के आत्मचिंतन की उपेक्षा करती हुई बोली, "और यहां शस्त्रागार है। इन दोनों में किसकी रक्षा अधिक आवश्यक है, सौमित्र!"
"इन दोनों में से तो भैया की रक्षा ही अधिक आवश्यक है, भाभी!" सौमित्र बोले, "भैया सकुशल रहेंगे तो ऐसे अनेक शस्त्रागार का निर्माण करेंगे। किंतु भाभी! आश्रम में केवल शस्त्रागार ही नहीं है; यहां आप भी हैं। मेरे लिए बाहर वन में भैया हैं और आश्रम में भाभी हैं। दोनों की रक्षा समान रूप से आवश्यक है। भैया अपनी रक्षा में सक्षम हैं, आप इतनी सक्षम नहीं हैं। ऐसी स्थिति में आपकी रक्षा का प्रबंध पहले करना होगा। अकेला घायल मुखर षड्यंत्रों में धंसने अथवा व्यूहों को तोड़ने में समर्थ नहीं है। ऐसी स्थिति में न उसे अकेला भैया की सहायता के लिए बन में भेज सकता हूं और न आपकी रक्षा का भार उस पर छोड़कर स्वयं जा सकता हूं..." सहसा उन सबके कान खड़े हो गए-मृत्यु की-सी यातना-भरा स्वर पुकार रहा था, "हा लक्ष्मण!"
स्वर उसी दिशा से आ रहा था, जिस दिशा में राम गए थे। स्वर था भी उन्ही का-सा। तीनों ने एक-दूसरे की ओर देखा।
"मैं जाता हूं।" मुखर बोला, "आप दोनों यही ठहरें।"
"ठहरो, मुखर!" लक्ष्मण ने उसे रोक दिया, "जहां तक मैं अपने भाई को जानता हूं, वे किसी भी स्थिति में इतने दीन नहीं हो सकते। हमें सोच-समझकर पग उठाना चाहिए। यह स्वर राक्षसों की माया भी हो सकता है।"
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