बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
"देवर!" सीता कुछ घबरायी हुई-सी बोलीं, "तुम समझदार भी हो और बुद्धिमान भी। ऐसी परिस्थितियों को भी तुम मुझसे अधिक भली प्रकार समझते हो। किंतु एक तो मैं स्त्री हूं, फिर राम से बहुत प्रेम करती हूं। प्रेम करने वाला मन अधीर भी होता है और शंकालु भी। इस समय मेरा मन स्थिर नहीं है। मैं विवाद कर पाने तथा निर्णय-अनिर्णय की स्थिति में नहीं हूं। इस समय मेरा मन शरीर को चीरकर, बाहर निकलना चाह रहा है। या तो मुझे राम की सहायता के लिए जाने दो-अथवा तुम स्वयं जाओ। अपनी और शस्त्रागार कीं रक्षा, मैं मुखर की सहायता से कर लूंगी। फिर आर्य जटायु भी यहां से अधिक दूर नहीं हैं, उन्हें संदेश भिजवा मैं पास के ग्राम से जन-सैनिक बुलवा लूंगी..."
तभी, पहले के समान पीड़ा से भरा हुआ स्वर फिर से आया, "हा लक्ष्मण!" अंत तक आते-आते स्वर दूट गया। चीत्कार करने वाले का कंठ जैसे अवरुद्ध हो गया हो। टूटा-सा स्वर वन के वृक्षों से टक्करें मारता, जैसे भटकता फिरता था, पत्तियों और शाखाओं से सिर सुनता चलता था... "हां लक्ष ऽऽऽ मण...!"
सीता ने तुरन्त कटि से खड्ग बांधा। तूणीर उठाया और कंधे पर रख, धनुष की ओर हाथ बढ़ाया, "देवर! या तो आश्रम की रक्षा मुझ पर छोड़कर तुम जाओ अथवा आश्रम में तुम ठहरो और मुझे जाने दो।" लक्ष्मण के चेहरे पर, मन में हो रहे भीषण द्वन्द्व के लक्षण थे। वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे-"भाभी! सबसे सरल मार्ग तो यह है कि हम तीनों ही भैया की सहायता के लिए चलें किंतु उसमें दो बातें आपत्तिजनक हैं-प्रथम तो हम शस्त्रागार को सर्वथा असुरक्षित छोड़ रहे हैं और दूसरे वन के व्यूह की स्थिति जाने बिना, भैया की अनुमति के अभाव में, मैं आपको जोखिम के स्थान पर ले जा..."
"ऊहापोह के लिए समय नहीं है, सौमित्र!" सीता अत्यन्त व्यग्र स्वर में बोलीं, "जल्दी निश्चय कुरो! तुम जाओ या मुझे जाने दो। मेरी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, देवर! मैं बहुत व्यग्र हूं, ऐसा न हो..."
"कैसा न हो, भाभी?"
"कि तुम्हारे अनिर्णय, अकर्म और विलंब से मेरे इस अस्थिर मन में तुम्हारे प्रति कोई दुर्भावना जागे...भाभी की रक्षा की आड़ में बार-बार अपने दायित्व से पलायन करना..."
लक्ष्मण का मुखमंडल तमतमा गया, जैसे किसी ने चांटा मार दिया हो। बलात् स्वयं को बांध, उन्होंने सूक्ष्म दृष्टि से सीता की ओर देखा...सीता का संकेत क्या खर से हुए युद्ध की ओर है? क्या वे कहना चाहती हैं कि लक्ष्मण जान-बूझकर युद्ध से हट गए थे? क्या वे लक्ष्मण पर कायरता का आरोप लगा रही हैं...? शायद वे यही कहना चाह रही हैं।...तब भी सौमित्र कंदरा में छिपे रहे थे और भैया अकेले ही शत्रुओं से जूझे थे...अब भी लक्ष्मण आश्रम में सुरक्षित बैठे थे और भैया वन में शत्रुओं से जूझ रहे थे..."भाभी!"
"मैं बाध्य हूं, सौमित्र! मेरा मन स्वस्थ नहीं है।"
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