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राम कथा - साक्षात्कार

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 533
आईएसबीएन :81-216-0765-5

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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान

अकंपन आया, "संम्राट्!"

"तुम्हारे अधीन कोई गूढ़-पुरुष है, या अयोग्य-जनों की ही सेना बना रखी है?"

अकंपन का वर्ण पीला पड़ गया, "मुझसे कोई भूल हुई सम्राट्!" 

"भूलें तो तुमसे बहुत हुई हैं," रावण बोला, "किंतु इस समय उनकी चर्चा के लिए तुम्हें नहीं बुलाया। एक अत्यन्त दायित्वपूर्ण कार्य सौंपना चाहता हूं।"

"सम्राट् आदेश दें?"

"कुछ चुने हुए गूढ़-पुरुषों को जनस्थान में भेज दो। वे लोग अपनी पहचान छिपाकर साधारण जनों के समान वहां रहें। संभव हो तो राम की सेना में सम्मिलित हो जाएं। हमें राम की गतिविधियों की निरंतर सूचना मिलती रहनी चाहिए। यदि वह सैन्य-संगठन का प्रयत्न करता है तो तुरंत हमें बताया जाए।"

"आपके आदेश का पालन होगा।" अकंपन चला गया।

किंतु रावण का मन शांत नहीं हो पा रहा था। सीता को वह ले आया था और मंदोदरी...क्या कहती है मंदोदरी? यही तो कि सीता अपनी इच्छा से उसका वरण करे, तो यही होगा। रावण संकल्प और निश्चय के साथ उठ खड़ा हुआ। कक्ष के बाहर निकल, परिचारकों को मार्ग दिखाने का आदेश दिए बिना ही बढ़ता चला गया। परिचारक और अंगरक्षक सहमे-से पीछे-पीछे चल रहे थे। वे समझ रहे थे कि सम्राट् आवेश में हैं, और इस समय कुछ भी पूछना विपत्ति का कारण हो सकता है। रावण उस खंड के अंतिम कक्ष के सम्मुख जाकर रुक गया। द्वार-रक्षकों ने द्वार खोल दिया और वह भीतर प्रविष्ट हुआ-सामने एक मंच पर सिर झुकाए सीता बैठी थीं।

सीता ने दृष्टि उठाकर रावण को देखा। इस समय न उनके चेहरे पर घबड़ाहट थी, न आंखों में भय। संकट को निश्चित जानकर उससे साक्षात्कार करने का संकल्प उनके चेहरे पर था। मुद्रा यद्यपि उदास थी, किंतु एक प्रकार की कठोरता का आभास मिलता था।

"वैदेही!" सीता की आंखें जैसे पूरी खुल गयीं।

रावण उस सौंदर्य को निहारता खड़ा रहा। फिर बोला, "मैं जानता हूं कि तुम बहुत दुखी हो; किंतु दुख से मुक्त होने का उपकरण तुम्हारे अपने हाथ में है। मैंने अपने प्रेम के कारण तुम्हारा अपहरण किया है। मैं तुम्हारा अनिष्ट नहीं करना चाहता, तुम्हें कष्ट देना नहीं चाहता, तुम्हें दुःखी देखना नहीं चाहता। संसार का सारा ऐश्वर्य मैं तुम्हारे आंचल में डाल देना चाहता हूं।"

"ऐश्वर्य मुझे नहीं चाहिए।" सीता शुष्क और कठोर स्वर में बोलीं। 

"तो क्या चाहिए तुम्हें?"

"एक खड्ग, अथवा धनुष-बाण।"

"क्या करोगी?"

"तुम्हारा वध!"

रावण ने सकपकाकर सीता को देखा-किस मिट्टी की बनी है यह नारी! धीरे से बोला, "तुम यहां से मुक्त नहीं हो सकतीं, मैथिली! व्यर्थ का हठ छोड़ दो। मैं तुमसे प्रेम करता हूं। स्वेच्छा से मुझे स्वीकार करो, तो लंका का साम्राज्य तुम्हारा है।"

"कभी किसी स्त्री ने स्वेच्छा से किसी चोर को भी स्वीकार किया है?"

"मैथिली! रावण लंका का सम्राट् है।"

"रावण कायर है और चोर है।"

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    अनुक्रम

  1. एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छह
  7. सात
  8. आठ

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