बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
''तुम क्या चाहते हो?"
''अभी कुछ दिनों के लिए तीव्रगामी सैनिक रथों को, सैनिक प्रयोजनों में ही नियोजित रहने दो।''
''कब तक?''
''राम के वध तक।''
शूर्पणखा की आंखें उठीं तो खर को लगा, उनकी धधकती ज्वाला उसे नष्ट कर डालेगी, ''पहले मेरे आदेश का पालन किया जाए।'' उसने सीधे खर की आंखों में देखा, ''मेरी स्पष्ट आज्ञा है किर अभी राम पर आक्रमण न किया जाए।''
''बहन! इसमें हस्तक्षेप मत करो, यह सैनिक विषय है।''
''सैनिक विषयों को भी शूर्पणखा भली प्रकार समझती है।'' शूर्पणखा का स्वर उग्र तथा रुक्ष था, ''रावण से कुछ धन प्राप्त करने के लिए झूठे युद्धों का नाटक बंद किया जाए।''
''क्या कहती हो, शूर्पणखे!'' खर आवेश से बोला, ''तुम अपने भाई पर आरोप लगा रही हो! यह झूठे युद्धों का नाटक नहीं है, राक्षसों की सत्ता के अस्तित्व का प्रश्न है। राम को तनिक समय और दिया गया, तो अपने पैर इस प्रकार जमा लेगा कि उखाड़ना असंभव हो जाएगा। तुम नहीं जानती, वह अत्यंत भयंकर व्यक्ति है।''
''वह भयंकर नहीं, अत्यंत सुंदर व्यक्ति है-सुदर्शन।''
खर की आंखों में संदेह उतरा, ''तुमने उसे देखा है?''
''नहीं।'' शूर्पणखा सावधान हो गयी, ''सुना है। संभव है, वह भयंकर भी हो-मुझे उससे क्या!... जाओ! मेरी आज्ञा का पालन करो। रथों को भेजकर लंका से मेरी आवश्यक वस्तुए मंगवाओ। अपनी सैनिक स्थिति को अधिक समर्थ बनाओ, किंतु मेरी अनुमति के बिना कहीं कोई आक्रमण मत करना। यह मेरा निश्चित आदेश है।''
खर अनिश्चित-सी दृष्टि से उसे देखता रहा और फिर असहायता में अपने हाथ झटककर बाहर चला गया।
अगले दो दिन शूर्पणखा के लिए अत्यंत व्याकुलता भरे थे। मन था कि राम को देखे बिना नहीं मानता था; और राम के सम्मुख जाने के लिए विशेषकर पहले साक्षात्कार के लिए जैसा श्रृंगार वह चाहती थी वैसा वज्रा और उसकी सहयोगिनियों के लिए संभव नहीं था...।
किंतु उससे रुका नहीं गया। जैसा भी संभव हुआ, वह वैसा ही श्रृंगार कर, राम के आश्रम के आस-पास मंडराती रही। पहले तो बहुत समय तक राम आश्रम से बाहर नहीं निकले। शूर्पणखा का मन हताश होने लगा तो उसे राम, ग्रामीणों और ब्रह्मचारियों के छोटे-से दल के साथ बाहर से आते दिखाई दिए। अब शूर्पणखा के लिए, राम के सम्मुख प्रकट होने से स्वयं को रोकना कठिन हो गया। एक व्यक्ति कुछ करना चाहे, और दूसरा उसे रोके-यह बात शूर्पणखा की समझ में आती थी; किंतु स्वयं ही मन राम के वक्ष से लग जाना चाहे, स्वयं ही उसे अपनी बांहों में भींच लेना चाहे, और फिर स्वयं ही स्वयं को रोकता भी रहे-यह क्या प्रक्रिया हुई। स्वयं ही ठेले और स्वयं ही रोके...।
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