बहुभागीय पुस्तकें >> राम कथा - साक्षात्कार राम कथा - साक्षात्कारनरेन्द्र कोहली
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राम कथा पर आधारित उपन्यास, चौथा सोपान
मंदोदरी ने आहत आंखों से शूर्पणखा को देखा-शूर्पणखा शूर्पणखा ही थी। किसी को भी हृदय अपने शर्प जैसे नखों से किसी भी क्षण छील सकती थी...तनिक भी मोह-माया नहीं, किसी से कोई ममता नहीं। जीवन का लक्ष्य ही जैसे संपर्क में आए प्रत्येक व्यक्ति को आहत-पीड़ित करना हो।...भाई ने ऐसी भयंकर घटता को भी चुपचाप अनदेखा कर, मंदोदरी का कम अपमान किया था कि अब वहन उपालंभ दे रही है! किस अपराध का दंड दे रहे हैं ये लोग उसे? इसका, कि मंदोदरी घर में सुख-शांति चाहती है। वह क्लेश नहीं चाहती...वह शूर्पणखा को कष्ट में सांत्वना देने आयी थी-और शूर्पणखा ने उसका वह घाव छीलकर उसके सामने रख दिया, जिसे भूल जाने का वह कब से प्रयत्न कर रही थी।
''तुम विश्राम करो, शूर्पणखा!'' सहसा मंदोदरी उठ खड़ी हुई, और उन्होंने दासियों को संकेत किया, ''देखना, राजकुमारी को कोई कष्ट न हो।''
शूर्पणखा अपनी आंखों में एक संतोष लिए, भाभी को जाते देखती रही। उसके मन का उत्ताप जैसे कुछ हल्का पड़ा। होंठों पर क्रूर मुसकान उभरी...मेरे तो पति की हत्या कर दी और स्वयं दाम्पत्य सुख उठा रहे हैं...थोड़ी देर में दासी ने सूचना दी कि राजकुमार विभीषण अपनीं रानी के साथ पधारे हैं। शूर्पणखा द्वार की ओर देखती रही, मुख से कुछ नहीं बोली। वह उन्हें आने से रोक नहीं सकती, किंतु विभीषण का आना उसके लिए तनिक भी सुखकर नहीं होगा। विभीषण और सरमा आकर पलंग के निकट रखे मंचों पर बैठ गए, "कैसी हो, बहन?"
शूर्पणखा ने विभीषण को तीखी दृष्टि से देखा, "तुम्हें कोई सूचना नहीं मिली कि कैसी हूं?"
विभीषण सायास मुसकराया, "समझ गया। वैसी ही हो, जैसी थीं। जनस्थान की सारी राक्षस-सेना को नष्ट करना; खर, दूषण तथा त्रिशिरा का वध करवाकर भी अभी तुमने कुछ नहीं सीखा बहन!"
"तुम मुझे अपमानित करने आए हो विभीषण?" शूर्पणखा का स्वर कुछ ऊंचा उठा।
सरमा ने चुपके से पति का हाथ दबाया, "शांत रहो।"
विभीषण ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, "मैं अपमान करने नहीं आया। दुःख की घड़ी में अपनी बड़ी बहन को सांत्वना देने आया हूं। किंतु देखता हूं कि बहन अभी पर्याप्त शक्तिमती है। अभी तो उसमें लंका की सेना को भी कटवा डालने का उत्साह बना हुआ है।"
"अपनी अपमानित और पीड़ित बहन को सांत्वना देने का यही ढंग है, विभीषण?" शूर्पणखा बोली, "क्या इसी व्यवहार को पाने के लिए मैं जनस्थान से भागी हुई यहां आयी हूं? जनस्थान में यदि राम के हाथों राक्षस-सेना मारी गयी तो क्या मेरा दोष है? मेरे अपमान का प्रतिशोध लेने लंका की सेना जाए और नष्ट हो जाए, तो उसके लिए भी क्या मैं दोषी हूंगी?"
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