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नगर परिमोहन

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5334
आईएसबीएन :000

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आधुनिक सभ्यता पर आधारित उपन्यास...

nagar parimohan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कथानक की भूमि

आधुनिक सभ्यता के विकास के साथ-साथ जनता देहातों से निकलकर नगरों की ओर आ रही है। इसमें कारण है-भौतिक विज्ञान में उन्नति।
सड़कें, नालियाँ, बिजली, पानी, भव्य भवन तथा अन्य सुख के सामान विज्ञान की उन्नति के साथ-साथ नगरों में उपलब्ध होते जाते हैं। इन सब साधनों की प्राप्ति में धन व्यय होता है। अतएव नगरों में रहने और शारीरिक सुख-सुविधा प्राप्त करने के लिए धन अत्यन्त आवश्यक वस्तु हो गई है।

परन्तु जहाँ नगरों में धन के व्यय करने के स्थान है वहाँ धनोपार्जन के स्रोत नहीं हैं। वास्तविक धन उत्पन्न होता है, परिश्रम और भूमि से। ये दोनों वस्तुएँ नगरों में नहीं हैं। न तो वहाँ भूमि है और न ही वहाँ पर परिश्रम करने वाले लोग हैं।
इस पर भी धन संचित मिलता है नगरों में। यह धन कैसे नगरों में आता है ? इस प्रश्न का उत्तर ही नगर और गाँव की समस्या को सुलझाने में सहायक हो सकता है। वास्तविक धन (Real wealth) का स्रोत नगर नहीं हैं। यह देहात अथवा उन स्थानों में जो नगर के बाहर हैं, उत्पन्न होता है। लहलहाते खेतो में, भूमि के गर्भ में खोदी खानों में तथा सागर तल पर धन के स्रोत हैं। इन स्रोतों से धन निकलता है मानव परिश्रम से। परिश्रम के फल को बढ़ाकर कई गुणा करने की शक्ति है मशीनों में।

इनमें से किसी का भी अट्टू सम्बन्ध नगरों से नहीं है। प्रायः देखा जाता है कि नगरों में भी परिश्रम करने वाला वर्ग कुछ अधिक धन नहीं रखता। धन तो नगरों में उन्हीं के पास एकत्रित होता रहता है, जो किसी प्रकार की हेराफेरी करने में चतुर हैं।
नगरों में धन एकत्रित करने वाले जहाँ अपने परिश्रम और बुद्धि का प्रयोग करते हैं, वहाँ वे हेराफेरी के उपाय भी प्रयोग में लाते हैं। केवल परिश्रम और बुद्धि के प्रयोग से उतना-कुछ प्राप्त नहीं हो सकता, जितना नगरों में सुख-सुविधा के लिए आवश्यक होता है।
इस प्रकार वात्सविक धन पैदा करने वाले तो, चाहे नगर में रहें चाहे देहात में, विज्ञान से प्राप्त सुख-आनन्द का भोग नहीं कर सकते।

अतः समस्या यह है कि धन पैदा करने वालों के लिए विज्ञान-जनित सुख सुविधा कैसे लाई जाए ? इसके लिए विज्ञान से प्राप्त सुविधाओं को देहातों तथा उत्पादन करनेवाले श्रमिकों तक पहुँचाना ही नगरों के आकर्षण को मिटाने में समर्थ हो सकता है।
इस समस्या का विश्लेषण और उसका सुझाव ही इस पुस्तक का विषय है।
समस्या बहुरूपी है। सब-के-सब पहलुओं पर प्रकाश डालना तो सम्भव नहीं था, इस पर भी सिद्धान्त रूप में समस्या का निरूपण किया गया है।
वैसे तो यह उपन्यास ही है। इसमें पात्र, स्थान और काल सर्वथा काल्पनिक हैं। किसी भी व्यक्ति अथवा श्रेणी के मान-अपमान से इस कहानी का कोई सम्बन्ध नहीं।

गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद
:1:

सतलुज और ब्यास नदियों के बीच के दुआबे में, ब्यास नदी के बाएँ किनारे से कुछ दूर, एक ऊँचे टीले पर, कंजेवाल नाम से एक गाँव बसा हुआ है। भूमि अत्यन्त ही उपजाऊ है और गाँव में कई खाते-पीते परिवार रहते हैं।
भूमि के मालिक तो धन-धान्य से सम्पन्न हैं ही, साथ ही भूमिरहित ‘कामे’ भी प्रसन्न हैं। गाँव के लोग परिश्रमी शान्तिप्रिय और ईमानदार हैं। यहाँ झगड़े भी बहुत कम होते हैं और इसके श्रेय, बहुत सीमा तक गाँव के चौधरी सुन्दरसिंह को है।
चौधरी का घर गाँव के बीचोंबीच एक खुले मैदान के किनारे पर था। घर पक्का लम्बा-चौड़ा था और उसके तीन भाग थे जिनमें चौधरी के तीन लड़के अपने-अपने परिवार सहित रहते थे। चौधरी का परिवार अच्छा-खासा बड़ा था। लड़के थे, उनकी पत्नियाँ थीं, और उनके बच्चे थे। सब मिल-मिलाकर बारह तेरह प्राणी थे और सब के सब बड़े आनन्द से परस्पर प्रेमपूर्वक रहते थे।

चौधरी की आयु पचास वर्ष से ऊपर हो चुकी थी और उसकी पत्नी का देहान्त हुए दस वर्ष के लगभग हो चुके थे। अब वह अपने सबसे बड़े लड़के सोहनलाल के साथ रहता था। चौधरी की एक लड़की भी थी, नाम था महिन्दर कौर। महिन्दर कौर गाँव के बाहर विवाही गई थी, परन्तु विवाह के एक वर्ष के भीतर ही विधवा हो गई थी। उसकी भी एक लड़की थी, मीरा। महिन्दर और मीरा, दोनों चौधरी के घर में ही रहती थीं। सोहनलाल ने इनको भी एक कमरा दे रखा था।

चौधरी के पास एक सौ बीघा के लगभग, भूमि थी, जिस पर कई प्रकार की पैदावार की जाती थी। भूमि अत्यन्त ही उपजाऊ थी। परिवार के सब युवक काम करते थे, जिससे चौधरी के घर में लक्ष्मी का वास था। देहाती बैंक में उसका पन्द्रह सोलह हजार रुपया भी जमा था। घर पर खलिहान अनाज से लदे पड़े थे और गाँव से दस मील के अन्तर पर एक शूगर मिल से, इसी वर्ष दिए गन्ने का दाम, लगभग अढ़ाई हजार रुपया अभी चौधरी ने लेना था।

सुन्दरसिंह बहुत ही कोमल स्वभाव और तीव्र बुद्धि का व्यक्ति था। इसी कारण वह बीस वर्षों से गाँव के चौधरी के पद पर आसीन था। वह गाँव के प्रत्येक परिवार से परिचित था और सभी परिवारों में उसकी मान-प्रतिष्ठा होती थी। सब जानते थे कि यदि कोई झगड़े की बात उसके पास लेकर जाए, जो वह तत्त्व की बात तुरन्त समझ जाएगा और पश्चात् निष्पक्ष तथा निर्लेप भाव से न्याय कर देगा। न्याय के साथ, वह झगड़ेवालों को समझा-बुझाकर अपने निर्णय को मनवाने के लिए तैयार भी कर लेता था।
चौधरी को अपनी दुहिता अर्थात्, महिन्दर कौर की लड़की मीरा, बहुत ही प्यारी लगती थी। लड़की जब अपने नाना के पास बैठती और अपनी बाल-बुद्धि की भोली-भाली बातें सुनाती तो चौधरी हँस-हँसकर दुहरा हो जाया करता था।
सोहनलाल का विवाह गाँव के एक लाला निरंजन की लड़की परमेश्वरी से हुआ था। परमेश्वरी देहात की लड़की होने के कारण एक देहाती घर के सब काम-काज भलीभाँति कर सकती थी। गाय भैंस के लिए सानी करना, उनको दुहना, गोबर समेटना, दही जमाना और दही मथकर मक्खन निकालना आदि, सब काम कुशलतापूर्वक कर सकती थी।

चौधरी तो स्वयं सिख-धर्म की पौल लिये हुए था। वह केश रखता था। कड़ा, कच्छा, कंघा इत्यादि भी धारण करता था। उसके पिता ने, जब एक-एक करके उसके लड़के मरते गए, तो गुरु ग्रन्थ साहब के सम्मुख यह मनौती की थी कि यदि उसका यह लड़का पाँच वर्ष तक जीवित रहा तो वह उसको सिख-धर्म में दीक्षा दिलवाएगा। इस कारण जब सुन्दरसिंह पाँच वर्ष का हुआ तो उसको पौल पिला दी गई। तब से ही सुन्दरसिंह सिख-धर्म की दीक्षा लिये हुआ था।

इस पर सुन्दरसिंह ने, जब उसका पहला लड़का, सोहनलाल हुआ, तो अपनी पत्नी के कहने पर उसका मुंडन करा दिया और उसको सहजधारी बना दिया। गाँव के अन्य सिख-परिवारों में इसकी भारी चर्चा हुई। उस समय सुन्दरसिंह का पिता जीवित था। उसके पास कुछ सिखपन्थानुयायी उलाहना लेकर आए कि उसने पन्थ के साथ द्रोह किया है। सुन्दरसिंह के पिता ने उनको डाँटकर कहा, ‘‘गुरु के प्यारो। जब मैंने केशधारी न होते हुए अपने लड़के को केशधारी बनाया था, तब तो आप में से किसी ने नहीं कहा था कि मैंने हिन्दू धर्म के साथ द्रोह किया है। किसी हिन्दू ने भी मुझे इस विषय में कभी कुछ नहीं कहा।’’

‘‘सरदार साहब ! हिन्दुओं में तो जान नहीं। उनका धर्म कच्चा सूत है। इससे जब कोई हिन्दू धर्म छोड़ता है तो वे आपत्ति नहीं उठा सकते।’’
इस पर मालाराम, यह सुन्दरसिंह के पिता का नाम था, कहने लगा, ‘‘नहीं सरदार बहादुर ! यह नहीं। इसका कारण यह है कि हिन्दू प्रायः कट्टरपंथी नहीं होते। उनको पता है कि हिन्दू-धर्म और सिख-धर्म में कोई अन्तर नहीं। दोनों एक महान् पंथ की शाखाएँ ही हैं।’’
‘‘इस पर भी हैं तो दोनों भिन्न-भिन्न।’’

‘‘यदि भिन्न-भिन्न होतीं तो मेरी बीवी सुन्दर को सिख न बनाती और सुन्दरसिंह अपने पुत्र को सहजधारी न बनाता। यदि सोहन का हिन्दू बनाया जाना मूर्खता है तो सुन्दर का सिख बनाया जाना क्या मूर्खता नहीं थी ?’’
यद्यपि इस युक्ति से सिखपंथियों को सन्तोष नहीं हुआ था, तो भी वे कुछ अधिक नहीं कह सके। इस पर सिख-परिवारों में सुन्दरसिंह का मान का वह नहीं रहा, जो इस घटना से पहले था।

इस घटना के कुछ काल पश्चात् सुन्दरसिंह के पिता मालाराम का देहान्त हो गया। माँ का तो पहले ही स्वर्गवास हो चुका था। कालान्तर में सुन्दर सिंह के घर एक और लड़का हुआ; पीछे एक लड़की हुई। सुन्दरसिंह की अन्तिम सन्तान भी एक लड़का ही थी। उसने अन्य दोनों लड़कों को सिख-धर्म में सम्मिलित कर दिया। वास्तव में उसको सिख और हिंदू धर्म में कोई अन्तर समझ नहीं आया था, इस कारण उसका मन आया तो मोहनसिंह और रामसिंह, दोनों को, उसने पौल पिला दी।

समय व्यतीत होता गया और सिख से हिन्दू बनना और हिन्दू से सिख बनना बुरा समझा जाने लगा। जब सोहनलाल विवाह योग्य हुआ तो कोई सिख उसको लड़की देने के लिए तैयार नहीं हुआ। एक दो परिवारों से बात चली तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि सोहनलाल केश रख ले तो वे अपनी लड़की दे देंगे। इस समस्या के उत्पन्न होने पर एक दिन सुन्दरसिंह ने सोहनलाल से पूछ ही लिया, ‘‘क्योंकि सोहन ! विवाह के लिए सिख बनोगे ?’’
सोहनलाल ने अपने पिता से पूछ लिया, ‘‘चाचा ! तुम क्या कहते हो ?’’
‘‘मुझको हिन्दू और सिख धर्म में कुछ भी अन्तर प्रतीत नहीं होता। जैसा तुम्हारा मन करे, करो।’’
सोहनलाल ने कुछ विचारकर कहा, ‘‘चाचा ! मैं भी यही समझता हूं । इस कारण मुझे सिख बनने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। विवाह तो पूर्व जन्म के कर्मों से होता है न ! यदि मेरे भाग्य में लिखा होगा तो हो जाएगा।’’
पश्चात् गाँव के लाला निरंजन दास की लड़की से विवाह निश्चित हुआ और हो गया।
सुन्दरसिंह के दूसरे लड़के मोहनसिंह का विवाह भी गाँव में ही हुआ था। उसकी पत्नी भी हिन्दू-परिवार में से थी। नाम था केवली। महिन्दर कौर का विवाह जालन्धर के एक हिन्दू परिवार में हुआ था। विधवा होने के पश्चात् वह अपनी लड़की को लेकर गाँव आ गई थी और घर का कामकाज करती थी।

सुन्दरसिंह प्रातःकाल उठ, स्नानादि तथा पूजा से निवृत्त हो घर के बाहर चौपाल पर एक तख्तपोश पर जा बैठता। इस समय गाँव के लोग अपनी समस्याएँ लेकर आ जाते। किसी घर में भाइयों में झगड़ा हो गया है, किसी विधवा के निर्वाह का प्रश्न उठा है, कहीं पति-पत्नी में नहीं बन रही, खेतों में पानी का झगड़ा है अथवा खेतों की मेंड़ टूट गई है-इस प्रकार की देहाती समस्याओं का सुझाव सुन्दरसिंह करता था।

यह ठीक था कि सरकार की ओर से अधिकारी भी नियुक्त थे, जो इन झगड़ों में न्याय करते थे, परन्तु गाँववाले अपने अनुभव से जानते थे कि सुन्दरसिंह की चौपाल पर न्याय सरकारी अधिकारियों से कहीं अधिक सुगमता, सरलता तथा कम व्यय करने से मिलता है, इससे लोग वहीं जाना लाभप्रद समझते थे।
कभी कोई मूढ़मति सुन्दरसिंह के निर्णय पर सन्तुष्ट न हो, न्यायालय जाने कौ तैयार हो जाता, तब भी सुन्दर सिंह समझौता कराने में अति कुशल सिद्ध होता। इस पर भी ऐसे अवसर कम ही आते थे। सुन्दरसिंह तो गांव में ही रहता था और प्रायः झगड़ों की वास्तविकता को अपने निजी ज्ञान से जानने के कारण, उसका निर्णय सत्य, न्याययुक्त और सन्तोषजनक होता था।

आज उसके सम्मुख एक जटिल समस्या उपस्थित हो गई थी। गाँव में एक हलवाई था कर्मचन्द। उसकी पहली पत्नी के मरने के समय उसकी आयु पचास वर्ष के लगभग थी। उस समय उसने दूसरा विवाह कर लिया। उसकी दूसरी पत्नी की आयु अठारह वर्ष के लगभग थी। स्वाभाविक रूप में दोनों की बननी कठिन थी। कुछ वर्ष तक तो काम चला, पश्चात् झगड़ा होने लगा। पिछली रात कर्मचन्द की पत्नी, पति का घर छोड़ पड़ोस के एक काहनचन्द के घर चली गई थी। कर्मचन्द तब काहनचन्द के विरुद्ध शिकायत लेकर आया।

सुन्दरसिंह ने काहनचन्द को, जो गाँव में सुनार का काम करता था, बुला भेजा। वह आया तो उसके साथ कर्मचन्द की पत्नी लक्ष्मी भी चली आई। सुन्दरसिंह ने काहनचन्द से पूछा, ‘‘काहन भैया ! यह क्या बात है ?’’
‘‘चौधरी ! कल रात के बारह बजे लक्ष्मी ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया। मैंने दरवाजा खोला तो इसने बताया कि कर्मचन्द ने इसको पीटा है और कहता है कि जान से मार देगा, इस कारण मैं इसकी रक्षा करूँ। मैंने इसे अपने घर के अन्दर बुला लिया और तब से यह मेरे घर में है।’’
‘‘कर्मचन्द ! सुनाओ, तुम क्या कहते हो ?’’ चौधरी ने कर्मचन्द से पूछा।
‘‘मैंने इसको पीटा जरूर था, परन्तु इतना नहीं कि यह मर जाती। वास्तव में यह स्त्री बदकार है।’’
लक्ष्मी ने कहा, ‘‘यह झूठ है !’’
अब सुन्दरसिंह ने लक्ष्मी से पूछा, ‘‘अब अगर कर्मचन्द्र तुमको वचन दे कि वह तुम्हें नहीं पीटेगा, तो तुम इसके घर चली जाओगी क्या ?’’

‘‘इसने मुझको इतनी बार पीटा है और वचन दे देकर तोड़ा है कि मुझको विश्वास नहीं आता।’’
‘‘मैं इस बात का साक्षी हूँ कि यह वचन देता है। क्यों कर्मचन्द्र ?’’
‘‘मैं इसे अपने घर नहीं ले जाऊँगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘यह बदकार है।’’
‘‘तो फिर इसको छोड़ दो। यहाँ किसलिए आए हो ?’’
‘‘मैं इस कारण आया हूँ कि मुझे इसका खर्चा देने से छुट्टी मिल जाए। मैं किसी दूसरे की बीवी का खर्चा क्यों दूँ ?’’
‘‘तो मैं निर्वाह कैसे करूँगी ? इस तरह तो यह मुझे पेशा करने के लिए विवश कर रहा है।’’
‘‘क्यों काहन ! तुम इसको घर पर रख लोगे ?’’ चौधरी ने पूछा।
‘‘चौधरी ! मैंने इसको बुलाया नहीं था। मेरा इससे किसी प्रकार का अनुचित सम्बन्ध नहीं। यह रोती हुई मेरे घर पर आई तो मैंने इस पर दया कर इसको आश्रय दिया। अब यदि यह मेरे घर रहेगी तो इसे निकालूँगा नहीं, रख लूँगा, परन्तु उस रूप में नहीं, जिसमें तुम कहते हो।’’

‘‘कर्मचन्द ! तुमको यह सिद्ध करना पड़ेगा कि यह औरत बदकार है। तब ही तुम खर्च से बच सकते हो।’’
‘‘यह जिससे चाहे विवाह कर सकती है।’’
‘‘वह ऐसा करेगी अथवा नहीं, तुम्हारे कहने से नहीं होगा। जब तक यह विवाह नहीं करती, खर्चा तुमको देना होगा।’’
‘‘मान लो, मैं मर जाता हूँ, तो फिर क्या होगा ? यह समझ ले कि मैं मर गया हूँ और यह विधवा हो गई है।’’
सुन्दर सिंह हँस पड़ा और कहने लगा, ‘‘कर्मचन्द्र ! हम मान लेते हैं कि तुम मर गए हो। हम तुम्हारी देह का संस्कार करने श्मशान-भूमि ले जाते हैं और तुम्हारा दाह-संस्कार कर लौट आते हैं-यह हमने समझ लिया। अब तुम्हारी युवा पत्नी से पूछते हैं, ‘बताओ लक्ष्मी ! तुम दूसरा विवाह करोगी ?’ यह कहती है ‘नहीं।’ तब वह अपने मृत पति की पूर्ण सम्पत्ति पर अधिकार कर लेती है। हम इससे प्रसन्न होंगे।’’

काहनचन्द और लक्ष्मी परिस्थिति के इस स्पष्ट चित्रण को देख हँसने लगे। कर्मचन्द का मुख अपने दाह संस्कार की बात सुन पीला पड़ गया। सुन्दरसिंह ने लक्ष्मी से पूछा, ‘‘अच्छा लक्ष्मी ! बताओ, ऐसी परिस्थिति में क्या करोगी ?’’
मैं अपने मृत पति की सम्मत्ति पर अधिकार कर लूंगी और यत्न करूँगी कि एक धनी-मानी की विधवा बनकर रहूँ।’’
सुन्दरसिंह ने अब कर्मचन्द्र को सम्बोधन कर कहा, ‘‘अच्छा कर्मचन्द्र।  अब तुम बताओ कि हम तुमको मर गया मानें अथवा नहीं ?’’
कर्मचन्द्र चुप था। लक्ष्मी और काहन हँस रहे थे। कर्मचन्द ने उठते हुए अपनी पत्नी को कहा, ‘‘उठो भाग्यवान ! घर चलो।’’
चौधरी ने पूछा, ‘यदि तुमने उसको पीटा तो ?’’
‘‘नहीं चौधरी ! अब नहीं पीटूँगा।’’

:2:

सुन्दरसिंह के सम्मुख विकट समस्या तो उस दिन उपस्थित हुई, जिस दिन उसके सबसे छोटे लड़के रामसिंह की सगाई अमृतसर के एक क्लर्क शामसिंह की लड़की के साथ होने की बातचीत हुई।
कुछ दिन पूर्व रामसिंह दरबार साहब के दर्शन करने अमृतसर गया था। वहाँ इस सुन्दर युवक को शामसिंह ने देखा तो उसका मन उस पर रीझ गया। उसने रामसिंह से उसके घर का पता पूछा तथा माता-पिता का परिचय प्राप्त किया। रामसिंह ने परिचय देकर पूछ ही लिया, ‘‘आप किस लिए पूछ रहे हैं ?’’

‘‘बेटा ! लड़कियों के माता-पिता योग्य लड़कों की खोज में रहते ही हैं। मैं तुम्हारे पिता से मिलने आऊँगा।’’
इतना कह शामसिंह रामसिंह से ‘वाहगुरु की फतेह’ बुला, दूर खड़ी अपनी लड़की और पत्नी के पास चला गया। रामसिंह उनकी ओर देखने लगा। उसने देखा कि लड़की सुन्दर है। ऐसी लड़की उसने अपने गाँव तथा आसपास के गाँव में कोई देखी नहीं थी। शामसिंह, उसकी पत्नी और लड़की, रामसिंह को भली-भाँति देखने के लिए उसके पास से निकले। रामसिंह दरबार साहब के सरोवर के किनारे खड़ा चार आँख से इनको देख रहा था। जब सब लोग उसके पास से निकले तो लड़की ने अपनी आँखें नीची कर रखी थी।

रामसिंह को अब पश्चात्ताप होने लगा कि उसने इनका पता क्यों नहीं पूछा। परन्तु अब वे काफी आगे निकल चुके थे। उनका परिचय प्राप्त करने के लिए उनके पीछे-पीछे जाना उसे ठीक नहीं जँचा। वह मन मारकर रह गया और अपनी भाभियों तथा उनके बच्चों के लिए सामान खरीदने के लिए चल पड़ा।
उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा, जब उसने एक दिन खेत से लौटने पर, शामसिंह को अपने घर पर पिता से बातचीत करते हुए पाया। रामसिंह को आया देख सुन्दरसिंह ने उसे बुला लिया और पूछने लगा, ‘‘राम ! इधर आओ।...इनको जानते हो क्या ?’’
‘‘हाँ पिताजी !’’
‘‘इनकी लड़की को देखा है क्या ?’’
‘‘जी! ’’
‘‘ये उसका तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते हैं।’’
रामसिंह चुप खड़ा रहा।

चौधरी ने कहा, ‘‘मैंने इनको अभी हाँ नहीं की। मैंने इनका पता और काम पूछ लिया है। ये सरदार शामसिंह जिला कचहरी में सब-जज के ‘रीडर’ हैं। इनकी लड़की दसवीं श्रेणी तक पढ़ी है। तुम पढ़े हो पाँचवीं तक। ये कई पीढ़ियों से नगर में रहते आ रहे हैं और तुम हो देहात के रहने वाले। अब बताओ, तुम क्या कहते हो ?’’
रामसिंह की आँखों के सम्मुख उस लड़की का चित्र आने लगा, जो सामने बैठे व्यक्ति के साथ, दो सप्ताह पूर्व दरबार साहब में उसको देख आँखें नीची किए हुए उसके पास से निकल गई थी। कुछ देर विचारकर उसने, बिना अपने पिता की बातों पर ध्यान दिए अथवा समझे, कह दिया, ‘‘ये चाहें तो मुझे यहाँ विवाह कर प्रसन्नता होगी।’’
‘‘देखो बेटा रामसिंह !’’ शामसिंह ने कहा, ‘तुमको देखा है। मेरी स्त्री और लड़की ने भी देखा है। मैंने तुम्हारे परिवार का पूरा परिचय भी, बीच में एक बार इस गाँव में आकर, पा लिया था। यह सब कुछ विचारकर ही आज मैं आया हूँ। मैंने तो निश्चय कर लिया है और अब शेष तुम लोगों के विचार की बात है।’’
रामसिंह ने अपने पिता को कुछ कहने का अवसर दिए बिना ही कह दिया, ‘‘तो फिर ठीक है। चाचा ! विवाह आदि की तारीख तुम निश्चय कर लो। मैं राज़ी हूँ।’’
यह कह रामसिंह घर के अन्दर चला गया। शामसिंह ने अपने थैले में से एक रेशमी रुमाल में बँधे चौदह छुहारे और एक नारियल निकाल, एक सौ रुपये के साथ चौधरी के सामने रख दिया और कहा, ‘‘आप मेरे बड़े़ भाई के तुल्य हैं। यह स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत करिए।’’

इस प्रकार की परिस्थिति में सुन्दरसिंह विवश हो गया। उसका मन अभी भी इस सम्बन्ध के लिए सर्वथा तैयार नहीं हुआ था, परन्तु शामसिंह ने बात ऐसे ढंग से की थी कि अस्वीकार करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं हो सका। सुन्दरसिंह ने रुपया और रुमाल उठाकर माथे से लगा लिया और घर के अन्दर ले जाकर सोहन और मोहन की पत्नियों को बुलाकर सूचना दे दी।
पश्चात् विवाह की तिथि और विधि पर विचार होने लगा। विवाह की तिथि तो तय हो गई, परन्तु विधि पर कुछ मतभेद हो गया। शामसिंह अमृतसर में ‘आनन्द’ पढ़ा़ने के लिए कह रहा था। सुन्दरसिंह ने इसे स्वीकार कर लिया और साथ में कह दिया कि विवाह हिन्दू विधि से ही होगा। उसका कहना था कि आनन्द पढ़ा़ने के बाद उसी सायंकाल नवग्रव पूजा इत्यादि कराकर विवाह की कार्यवाही समाप्त हो।

शामसिंह को यह विचित्र प्रतीत हुआ, परन्तु सुन्दरसिंह ने कहा, ‘‘सरदार जी ! यह तो होगा ही आपकी बात हमने मान ली कि आनन्द पढ़ा जाएगा। उसके पश्चात् लड़की हमारी हो जाएगी। हम भी जो रस्म पूरी करना चाहेंगे, कर लेंगे। आपको इसमें क्या आपत्ति है ?’’
‘चौधरी साहब ! यह आपत्ति मुझको नहीं। मुझको भय है कि लड़की आपत्ति करेगी। वह सोलहों आने गुरुमुख है।’’
सुन्दरसिंह ने हँसते हुए कहा, ‘‘मैं भी गुरुमुख हूँ। दसों गुरु महाराजों के विवाह जिस प्रकार हुए थे वैसे ही मैं करने को कहता हूँ। परंतु मैं पूछता हूँ कि यह मतभेद क्या आरम्भ से ही चलेगा ? देखिए, हम आपको अथवा आपकी लड़की को, जैसा आप लोग चाहें करने से मना नहीं करेंगे। हम आशा करते हैं कि आप भी हमें अपने विचारानुसार आचरण करने से मना नहीं करेंगे।’’

‘‘पर आप अपने साथ जो इच्छा हो करिए, लड़की को कैसे आप कह सकते हैं कि वह जिस बात को मानती नहीं, करे ?’’
‘‘यह कहने की हम उससे उसी प्रकार आशा करते हैं, जैसे वह हमसे वह करने की आशा करती है, जो हम मानते नहीं।’’
सुन्दरसिंह की युक्ति का उत्तर शामसिंह के पास नहीं था। शामसिंह समझ गया कि आनन्द पढ़ाते समय वह यह पसन्द नहीं करेगा कि रामसिंह के पिता तथा भाई-बन्धु संस्कार में न बैठें। साथ ही उसको सन्देह था कि ऐसी अवस्था में रामसिंह भी मानेगा अथवा नहीं। अतएव वह सुन्दरसिंह की बात को मान गया।

इस प्रकार बात तय हो गई और शामसिंह की लड़की गुणवन्ती का सुन्दरसिंह के सबसे छोटे लड़के रामसिंह के साथ विवाह दो विधियों से हुआ।
अब चौधरी के घर में एक ऐसा तत्त्व आ पहुँचा, जो उनके परिवार की परम्पराओं को उचित नहीं समझता था। सुन्दरसिंह पौलधारी सिख होते हुए भी, नदी के किनारे शिव मन्दिर में जल चढ़ाने जाया करता था और वहाँ सूर्य भगवान को अर्घ्य भी देता था। गुणवन्ती नित्य प्रातःकाल उठ जपजी साहब का पाठ किया करती और वह कच्छा-कड़ा आदि धर्म के चिह्नों को धारण करती। यहाँ तक तो साधारण बात थी, परन्तु जब केवली के राम-राम कहने पर आपत्ति होने लगी तो घर के वातावरण से माधुर्य विलीन होने लगा।
महिन्दर कौर की लड़की मीरा कृष्ण-भक्ति के गीत गाया करती थी, जिन्हें गुणवन्ती न केवल नापसन्द करती थी, प्रयुक्त हँसी भी उड़ाती थी। परिणाम यह हुआ कि संयुक्त परिवार होते हुए तीनों भाई पृथक्-पृथक् से अनुभव करने लगे। केवली और गुमवन्ती में तो केवल मौखिक सम्मान की बात ही शेष रह गई।

इस सब कुछ के होने पर भी कदाचित् विशेष कुछ न होता यदि गुणवन्ती घर की अन्य बहुओं की भाँति घर का काम-काज कर सकती। वह नगर की रहनेवाली थी और नगर के वातावरण में पली होने के कारण न तो वह गाय-भैंस की सानी कर पाती, न ही दही मथकर मक्खन निकालने का उसे ढंग आता। वास्तव में इन कार्यों में उसे रुचि तक नहीं थी।

गुणवन्ती को उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था। दिन-रात वह पुस्तकें पढ़ने में समय व्यतीत करती। भोजन करना, कपड़े पहनना और श्रृंगार करना उसके दिन भर के काम थे। कभी नौकरों को डाँटने का कार्य भी हो जाता। तंग आकर सुन्दरसिंह ने अपने बड़े लड़के सोहनलाल के घर में रहना आरम्भ कर दिया और महिन्दर तथा मीरा को भी अपने साथ रख लिया।
अब तीन घरों में तीन चूल्हे जलते थे। तीनों के पृथक-पृथक पशु थे जिनसे दूध, दही मक्खन निकाला जाता। केवली और परमेश्वरी स्वयं मक्खन निकालतीं, परन्तु गुणवंती ने इन कामों के लिए नौकर रखा हुआ था।
विवाह का पहला वर्ष तो लाड़-प्यार में व्यतीत हो गया। गुणवंती के राम-राम पर, शिव-मन्दिर में जल चढ़ा़ने पर तथा सूर्य भगवान को अर्घ्य देने पर हँसने को मजाक में उड़ा़या जाता रहा, परन्तु उसके हँसने को सहते जाने का परिणाम यह हुआ कि वह परिवार के अन्य सदस्यों को अपने से छोटा, कम बुद्धिमान और पिछड़ा हुआ समझने लगी और सब लोगों का आपस का मेल-जोल कम होने लगा।

एक दिन, विवाह के लगभग डेढ़ वर्ष पश्चात, जब कि रामसिंह के घर एक लड़की हो चुकी थी, गुणवन्ती ने लड़की को दूध पिलाते हुए अपने पति से पूछा, ‘‘इस वर्ष कितनी आय हुई है आपकी खेती से ?’’
‘‘खा-पीकर लगभग पाँच हज़ार बच गया है।’’
‘आप तीनों भाई और आपके पिता खेतों में काम करते हैं। स्त्रियाँ घरों पर काम करती हैं। छाँटना, फूँकना, पीसना तक घर पर होता है। इस सारे परिश्रम करने पर भी पाँच हजार तो कुछ भी न हुआ। मैं तो समझती हूँ कि आप गाँव में अपनी जवानी व्यर्थ खराब कर रहे हैं।’’
‘‘परन्तु यहाँ हम सब स्वतन्त्र हैं नगरों में नौकरी करने पर अफसरों को खुश रखने के लिए उनकी खुशामद करनी पड़ती है।’’
‘‘ठीक है। पर नौकरी के अतिरिक्त भी तो बहुत से काम हैं, जिनसे कुछ ही वर्षों में लाखों पैदा किए जा सकते हैं।’’
‘‘उन कामों के लिए रुपया चाहिए।’’

‘‘इच्छा हो तो रुपए का प्रबन्ध भी हो जाता है। आपके पिताजी के पास भी तो रुपया होना चाहिए।’’
‘‘हमें कुछ काम भी तो नहीं आता। मैं क्या कर सकता हूँ ?’’
‘‘काम भी सीखा जा सकता है। देखिए, जीवन में यही दस-पन्द्रह वर्ष काम करने के होते हैं। इसी आयु में कुछ कमा लो तो ठीक है, पीछे तो यह जीवन बोझ बन जाता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आप कुछ पढ़े़-लिखे है नहीं। क्या आप अपने बच्चों को भी अपने जैसा अनपढ़ बनाना चाहते हैं ?’’
अन्य युक्तियों ने कुछ प्रभाव उत्पन्न किया हो चाहे नहीं, परन्तु बच्चों को पढ़ा़ सकने की बात ने रामसिंह के हृदय को प्रभावित कर लिया। वह गाँव छोड़ नगर जाने का विचार करने लगा।

 

 

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