नारी विमर्श >> भूल भूलगुरुदत्त
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एक श्रेष्ठ उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्त्री, समाज में नये आने वाले सदस्यों की जननी है। स्त्री उनको समाज की
उपयोगी अंग बनाने की प्रथम शिक्षिका है। वह समाज में सुख शान्ति का सृजन
करती है।
आज समाज ने कृतिम रूप से जीवन-स्तर ऊंचा कर लिया है और इस कृतिम जीवन- स्तर को बनाए रखने के लिए पत्नी को अपना स्वाभाविक कार्य छोड़कर पति के साथ मिलकर जीवन की गाड़ी चलानी पड़ रही है। यही भयंकर भूल है।
स्त्री को कृतिम जीवन स्तर के लिए कार्य करना उतना आवश्यक नहीं है जितना नवजात शिशुओं का पालन-पोषण करना उन्हें शिक्षित कर समाज का उपयोगी अंग बनाना है।
यही है इस उपन्यास का मूल भाव।
आज समाज ने कृतिम रूप से जीवन-स्तर ऊंचा कर लिया है और इस कृतिम जीवन- स्तर को बनाए रखने के लिए पत्नी को अपना स्वाभाविक कार्य छोड़कर पति के साथ मिलकर जीवन की गाड़ी चलानी पड़ रही है। यही भयंकर भूल है।
स्त्री को कृतिम जीवन स्तर के लिए कार्य करना उतना आवश्यक नहीं है जितना नवजात शिशुओं का पालन-पोषण करना उन्हें शिक्षित कर समाज का उपयोगी अंग बनाना है।
यही है इस उपन्यास का मूल भाव।
प्रकाशकीय
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जो स्थान श्री गुरुदत्त का है वह शायद ही
किसी अन्य उपन्यासकार का हो। श्री गुरुदत्त ने आजीवन साहित्य
साधना
के फलस्वरूप न सिर्फ अपना वरन् भारत की पवित्र व पावक धारा का नाम विदेशों
में आलोकित किया।
गुरुदत्त जी पेशे से वैद्य का कार्य करते थे किन्तु इनकी रग-रग में साहित्य सृजन की अनोखी चाह थी। अपने साहित्य सृजन का श्री गणेश इन्होंने ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ नामक मील का पत्थर स्थापित करने वाले महान उपन्यासकार से किया और इसके उपरान्त सामाजिक विषयों पर एक से बढ़कर एक अनेकों उपन्यासों का सृजन किया।
इनका जन्म सन् 1894 में लाहौर (जो वर्तमान में पाकिस्तान का अंग है।) में हुआ था। इन्होंने अपनी शिक्षा आधुनिक विज्ञान से प्रारम्भ की।, रसायन विज्ञान में एम. एस-सी. (स्नातकोत्तर) करने के बावजूद इन्हें वैदिक साहित्य के व्याख्याता बन गये और वैद्य का कार्य करने के साथ-साथ साहित्य सृजन में लग गये।
हिन्दी साहित्य के इस महान सृजक ने 8 अप्रैल 1989 को दिल्ली में देह त्याग दी और अपना समस्त साहित्य, अपने पाठकों के नाम कर दिया।
श्री गुरुदत्त के उपन्यासों की श्रृंखला में श्री गुरुदत्त के महान उपन्यास ‘भूल’ का प्रकाशन आपके हाथों में है।
‘भूल’ गुरुदत्त का ज्ञान व शिक्षा से परिपूर्ण एक सारगर्भित उपन्यास है। इस उपन्यास में इन्होंने स्पष्ट किया है कि प्रकृति ने प्रत्येक कार्य के सम्पादन के लिए विशिष्ट प्राणी का सृजन किया है। किन्तु आज के युग में मनुष्य प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण कर रहा है जो कि बहुत ही हानिकारक है। इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने स्त्रियों के द्वारा धनार्जन-कार्य को महान् भूल के रूप में सिद्ध किया है। स्त्री समाज में नये आने वाले घटकों की जननी है। वह उनको समाज का उपयोगी अंग बनाने की प्रथम शिक्षिका है किन्तु कृत्रिम उच्च जीवन-स्तर के लिए वह अपने स्वाभाविक कार्य को विस्मरण कर आर्थिक उपार्जन के कार्य करती है। यह एक महान भूल है और यह ही इस उपन्यास का मूल भाव है।
‘भूल’ के साथ ही गुरुदत्त के एक लघु उपन्यास ‘‘जात ना पूछे कोय’’ का प्रकाशन किया गया है। दोनों ही उपन्यास ज्ञान, शिक्षा व मनोरंजन का अतुल भण्डार हैं। कथावस्तु अत्यंत रोचक, भाषा-शैली अत्यंन्तसरल व प्रस्तुतिकरण विशिष्ट है। पूर्ण विश्वास है कि दोनों उपन्यास, एक ही बैठक में पठनीय साबित होंगे।
अपने बहुमूल्य विचारों से अवश्य अवगत करायें।
गुरुदत्त जी पेशे से वैद्य का कार्य करते थे किन्तु इनकी रग-रग में साहित्य सृजन की अनोखी चाह थी। अपने साहित्य सृजन का श्री गणेश इन्होंने ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ नामक मील का पत्थर स्थापित करने वाले महान उपन्यासकार से किया और इसके उपरान्त सामाजिक विषयों पर एक से बढ़कर एक अनेकों उपन्यासों का सृजन किया।
इनका जन्म सन् 1894 में लाहौर (जो वर्तमान में पाकिस्तान का अंग है।) में हुआ था। इन्होंने अपनी शिक्षा आधुनिक विज्ञान से प्रारम्भ की।, रसायन विज्ञान में एम. एस-सी. (स्नातकोत्तर) करने के बावजूद इन्हें वैदिक साहित्य के व्याख्याता बन गये और वैद्य का कार्य करने के साथ-साथ साहित्य सृजन में लग गये।
हिन्दी साहित्य के इस महान सृजक ने 8 अप्रैल 1989 को दिल्ली में देह त्याग दी और अपना समस्त साहित्य, अपने पाठकों के नाम कर दिया।
श्री गुरुदत्त के उपन्यासों की श्रृंखला में श्री गुरुदत्त के महान उपन्यास ‘भूल’ का प्रकाशन आपके हाथों में है।
‘भूल’ गुरुदत्त का ज्ञान व शिक्षा से परिपूर्ण एक सारगर्भित उपन्यास है। इस उपन्यास में इन्होंने स्पष्ट किया है कि प्रकृति ने प्रत्येक कार्य के सम्पादन के लिए विशिष्ट प्राणी का सृजन किया है। किन्तु आज के युग में मनुष्य प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण कर रहा है जो कि बहुत ही हानिकारक है। इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने स्त्रियों के द्वारा धनार्जन-कार्य को महान् भूल के रूप में सिद्ध किया है। स्त्री समाज में नये आने वाले घटकों की जननी है। वह उनको समाज का उपयोगी अंग बनाने की प्रथम शिक्षिका है किन्तु कृत्रिम उच्च जीवन-स्तर के लिए वह अपने स्वाभाविक कार्य को विस्मरण कर आर्थिक उपार्जन के कार्य करती है। यह एक महान भूल है और यह ही इस उपन्यास का मूल भाव है।
‘भूल’ के साथ ही गुरुदत्त के एक लघु उपन्यास ‘‘जात ना पूछे कोय’’ का प्रकाशन किया गया है। दोनों ही उपन्यास ज्ञान, शिक्षा व मनोरंजन का अतुल भण्डार हैं। कथावस्तु अत्यंत रोचक, भाषा-शैली अत्यंन्तसरल व प्रस्तुतिकरण विशिष्ट है। पूर्ण विश्वास है कि दोनों उपन्यास, एक ही बैठक में पठनीय साबित होंगे।
अपने बहुमूल्य विचारों से अवश्य अवगत करायें।
प्रकाशक
भूल
प्रथम परिच्छेद
1
करौलबाग के एक फ्लैट के ड्राइग-रूम में एक युवक युवती से कह रहा था,
‘‘इस समस्या पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने
की आवश्यकता
है। इसका समाधान ढूँढे बिना जीवन दूभर हो जायेगा।’’
ड्राइंग-रूप नौ फुट और ग्यारह फुट छोटा-सा कमरा था जिसमें दरी, कालीन, कोच कुर्सियाँ लगी थीं। बीच में एक छोटी-सी तिपाई और उस पर मेजपोश तथा फूलदान था। फूलदान में दो-तीन लाल गुलाब के फूल पत्तों-शाखा सहित रखे हुए थे। एक कोने में छोटा-सा रेडियो सेट था, जो इस समय बन्द था। उस पर साटन का गिलाफ चढ़ा था। कमरे की दीवार पर नैनीताल के दो रंगीन दृश्य-चित्र टँगे थे।
यह बैठक छोटी-सी होने पर भी भली-भाँति सजी और सुख-सुविधाओं के साधनों से सम्पन्न थी।
युवक और युवती दोनों अपने-अपने काम से लौटे थे। कपड़े उतार विश्राम कर रहे थे कि उनका तीन वर्ष का बच्चा मोतीलाल एक पत्र लेकर उनके पास आ गया। युवती ने पत्र पढ़कर अपने पति के हाथ में दे दिया और पति ने उस पत्र को पढ़ने के बाद ही उपयुक्त वाक्य अपनी पत्नी को कहा था।
‘‘पर, मैं कहती हूँ कि माता जी को और तो कुछ नहीं करना पड़ता एक बच्चा है, उसकी देखभाल भी उनको भार मालूम होती है।’।’’
‘‘वे लिखती हैं कि उन्होंने मुझे पाल-पोश, पढ़ा-लिखाकर इतना बड़ा कर दिया है। अब वे अपना परलोक सँवारना चाहती हैं। इसके लिए वे कल हरिद्वार चली जाएँगी।’’
‘‘हरिद्वार में परलोक बिकता है क्या ?’’
‘‘यह तुम उनसे पूछ लो। मैं वहाँ गया था तो स्नान करने में स्वर्गीय आनंद आया था। घाट पर चाट-भल्लों की दुकानों में एक मुरादाबाद वाले की दुकान की वस्तुएँ अत्यधिक स्वादिष्ट थीं। बाजार में तो मेरे खरीदने की कोई वस्तु ही नहीं दिखाई दी थी।’’
‘‘आपकी माता जी है आप ही उनसे बात करिये।’’
‘‘परन्तु उनका स्नेह तो तुमसे अधिक है।’’
‘‘हाँ, यह स्नेह ही तो टपक रहा है न ! यह मोती तीन वर्ष का हो गया है, अभी-अभी स्कूल जाने में दो दो वर्ष और हैं। इधर तीन मास में एक और ही तैयारी हो रही है और माता जी को देखिए, इस स्थिति में उनको हरिद्वार जाने की सूझ रही है।’’
युवक ने बालक से पूछा, ‘‘माता जी क्या कर रही हैं ?’’
चाय बना रही हैं। कहती हैं। चिट्ठी तुम ले जाओ; चाय मैं लाती हूँ।’’
इतने में कमरे के बाहर आहट हुई। युवक-युवती समझ गए कि उनके वार्तालाप का विषय आ गया है। वे चुपचाप बाहर द्वार की ओर देखने लगे।
तभी उज्जवल श्वेत परिधान में हाथ में चाय की ट्रे लिए एक प्रौढ़ावस्था की स्त्री आई और बीच में रखी श्वेत तिपाई पर से फूलदान बच्चे को उठाने के लिए कह, उस पर उसने चाय की ट्रे रख दी।
युवती चाय बनाने लगी और वह स्त्री कुर्सी पर बैठ गई। बच्चे को बुलाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए वह उसके मुख को देखने लगी।
युवती अभी चाय ही बना रही थी कि युवक ने प्रौढ़ावस्था की स्त्री को सम्बोधित कर कहा, माँ, कितना प्यारा लगता है मोती।’’
‘‘हां मोहन ! जब तुम इतने बड़े थे तो तुम भी ऐसे लगते थे। तुम्हारे बाल तनिक इससे अधिक काले थे। इसके सुनहरे हैं। तुम्हारे बाल गुच्छेदार और चमकीले थे। ...परन्तु यह तुम्हारी अपेक्षा अधिक बातूनी है। दिन-भर कुछ-न-कुछ कहता अथवा गाता रहता है।’’
‘‘हाँ उस दिन रेडियो पर कोई गाना आ रहा था नः
काले भँवरे-से बालों में
है उलझ गया दिल यह मेरा ,
इस पर भी तुमको कहता
थैंक्यू थैंक्यू थैंक्यू थैंक्यू।
तब से यह दिन-भर ‘थैंक्यू थैंक्यू’ ही कहता रहता है।’’
यह सुनकर तो तीनों ही हँस पड़े। चाय बन गई थी। युवक ने चाय का प्याला लेकर एक चुस्की लगाई।
युवती ने दो प्याले ही बनाए थे। एक स्वयं उठाकर पीने लगी तो बच्चा बोला, ‘‘मम्मी, मैं भी पिऊँगा।’’
उस प्रौढ़ा ने कुर्सी तिपाई के समीप करके बच्चे के लिए बनानी आरम्भ कर दी। युवक ने कहा, ‘‘माँ तुम अपने लिए भी बना लो न !’’
स्त्री ने किसी प्रकार का उत्तर न देते हुए चाय का प्याला बनाकर बच्चे को पिलाना आरम्भ कर दिया। चाय के साथ दाल-बीजी और पकौड़े थे।
युवक ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘माँ, इस चिट्ठी का मतलब है ?’’
‘‘मतलब तो स्पष्ट ही है मैं कल यू० पी० रोडवेज की पहली बस से हरिद्वार जा रही हूँ।’’
‘‘वहाँ क्या है ?’’
‘‘माँ भगवती गंगा का पवित्र जल। उस जल में स्नान से शान्ति-लाभ।’’
‘‘तो ऐसा करो माँ तुम आधा सेर बरफ अपने स्नान के जल में मिलाकर यहीं पर उसे गंगाजल के समान शीतल बना, उसमें स्नान कर लिया करो। घर बैठे ही उस जल से शान्ति-लाभ प्राप्त हो जाएगा।’’
माँ हँसी तो युवक और युवती भी हँसने लगे। माँ ने कहा, ‘‘देखो मोहन, तुम एम०ए० तक पढ़े हो मैंने केवल हिन्दी की परीक्षाएं ही पास की हैं। इस कारण तुमसे बहस करने से तुम्हारी पढ़ाई का अपमान हो जाएगा। परन्तु मैं भी यह जानती हूँ और तुम भी जानते हो कि हब्शी बालक के मुंह पर चाक पोत देने से वह अँग्रेज नहीं बन सकता।
इस पर तो काफी देर तक हँसी का कहकहा लगता रहा। मोती प्याले की कुंडी में अँगुली डाल प्याले को उठा स्वयं चाय पीने का यत्न करने लगा था।
‘‘मां कब तक लौटोगी ?’’ युवक ने पूछ लिया।
‘‘अब नहीं आऊंगी।’’
‘‘क्यों ?
‘‘मोहन तुमको पढ़ा-लिखाकर, योग्य बनाने तथा तुम्हें जीवन में स्थिर करने में इक्तीस वर्ष लग गए और जिस प्रयोजन से मैं हरिद्वार जाना चाहती हूँ वह तो इससे कहीं दुस्तर कार्य है। आशा नहीं कि मरने से पूर्व वह सम्पन्न हो सके।’’
‘‘क्या काम है ऐसा वह, माँ !’’
‘‘मैंने अपने पत्र में लिखा तो है। अब मुझे परलोक सँवारना है।’’
यह सुन युवती बोल उठी, ‘‘माताजी, छोड़िए इस बात को। आप सीधी बात क्यों नहीं कहतीं ? मोती के पालन पोषण में कठिनाई अनुभव कर रही हैं। आप दो वर्ष और ठहर जाइए, तब तक स्कूल जाने लगेगा और.....।’’
इसी समय उसको अपने पेट में एक नवीन जीव की सृष्टि का स्मरण हो आया। वह चुप हो गयी।
माँ मुस्कराती हुई उसके मुख को देख रही थी। उसकों चुप देख बोली, ‘‘हां, हाँ, कहों न आगे। देखों निर्मला, मोहन तीन वर्ष का था जब तुम्हारे ससुर का देहान्त हो गया था। उनके देहान्त के समय घर में दो-सो रुपये से अधिक कुछ नहीं था। उनका दो हजार रुपये का एकत बीमा था। वह मिला तो जीवन-यापन के की योजना बना मैंने स्वयं पढ़ना आरम्भ किया।
‘‘शेष तुम जानती ही हो। मदनहोहन एक स्कूल-मास्टरनी का लड़का है। उस मास्टरनी को जीवन-भर तीस रुपये से साठ रुपये तक वेतन मिलता रहा और इसी में मदनमोहन की एम०ए० तक की पढ़ायी हुई है।
‘‘अब मोती तीन वर्ष का है। परन्तु इस समय की स्थिति में और तब की स्थित में पर्याप्त अन्तर है। अब स्थिति बहुत अच्छी है। उस, समय आय का कोई स्त्रोत नहीं था। अब मदनमोहन ढाई सौ रुपये वेतन लाता है तथा उसकी उन्नति का मार्ग खुला है। मैं समझती हूँ कि मैं तुम्हारे पति को उससे बहुत अच्छी अवस्था में छोड़कर जा रही हूँ, जिसमें मदन के पिता मुझकों छोड़कर गए थे।
‘‘हरिद्वार से क्या मिल सकता है और क्या नहीं, यह मेरी अपनी आत्मा की बात है।’’
मदनमोहन सोचता था कि माँ को जाने देना चाहिए। आखिर वे उसकों बाँधकर रखने वाले कौन होते हैं। ? उसका यह भी अनुमान था कि वह एक-दो मास परिद्वार में रहकर ऊब जाएगी और वापस घर आ जाएगी।
ड्राइंग-रूप नौ फुट और ग्यारह फुट छोटा-सा कमरा था जिसमें दरी, कालीन, कोच कुर्सियाँ लगी थीं। बीच में एक छोटी-सी तिपाई और उस पर मेजपोश तथा फूलदान था। फूलदान में दो-तीन लाल गुलाब के फूल पत्तों-शाखा सहित रखे हुए थे। एक कोने में छोटा-सा रेडियो सेट था, जो इस समय बन्द था। उस पर साटन का गिलाफ चढ़ा था। कमरे की दीवार पर नैनीताल के दो रंगीन दृश्य-चित्र टँगे थे।
यह बैठक छोटी-सी होने पर भी भली-भाँति सजी और सुख-सुविधाओं के साधनों से सम्पन्न थी।
युवक और युवती दोनों अपने-अपने काम से लौटे थे। कपड़े उतार विश्राम कर रहे थे कि उनका तीन वर्ष का बच्चा मोतीलाल एक पत्र लेकर उनके पास आ गया। युवती ने पत्र पढ़कर अपने पति के हाथ में दे दिया और पति ने उस पत्र को पढ़ने के बाद ही उपयुक्त वाक्य अपनी पत्नी को कहा था।
‘‘पर, मैं कहती हूँ कि माता जी को और तो कुछ नहीं करना पड़ता एक बच्चा है, उसकी देखभाल भी उनको भार मालूम होती है।’।’’
‘‘वे लिखती हैं कि उन्होंने मुझे पाल-पोश, पढ़ा-लिखाकर इतना बड़ा कर दिया है। अब वे अपना परलोक सँवारना चाहती हैं। इसके लिए वे कल हरिद्वार चली जाएँगी।’’
‘‘हरिद्वार में परलोक बिकता है क्या ?’’
‘‘यह तुम उनसे पूछ लो। मैं वहाँ गया था तो स्नान करने में स्वर्गीय आनंद आया था। घाट पर चाट-भल्लों की दुकानों में एक मुरादाबाद वाले की दुकान की वस्तुएँ अत्यधिक स्वादिष्ट थीं। बाजार में तो मेरे खरीदने की कोई वस्तु ही नहीं दिखाई दी थी।’’
‘‘आपकी माता जी है आप ही उनसे बात करिये।’’
‘‘परन्तु उनका स्नेह तो तुमसे अधिक है।’’
‘‘हाँ, यह स्नेह ही तो टपक रहा है न ! यह मोती तीन वर्ष का हो गया है, अभी-अभी स्कूल जाने में दो दो वर्ष और हैं। इधर तीन मास में एक और ही तैयारी हो रही है और माता जी को देखिए, इस स्थिति में उनको हरिद्वार जाने की सूझ रही है।’’
युवक ने बालक से पूछा, ‘‘माता जी क्या कर रही हैं ?’’
चाय बना रही हैं। कहती हैं। चिट्ठी तुम ले जाओ; चाय मैं लाती हूँ।’’
इतने में कमरे के बाहर आहट हुई। युवक-युवती समझ गए कि उनके वार्तालाप का विषय आ गया है। वे चुपचाप बाहर द्वार की ओर देखने लगे।
तभी उज्जवल श्वेत परिधान में हाथ में चाय की ट्रे लिए एक प्रौढ़ावस्था की स्त्री आई और बीच में रखी श्वेत तिपाई पर से फूलदान बच्चे को उठाने के लिए कह, उस पर उसने चाय की ट्रे रख दी।
युवती चाय बनाने लगी और वह स्त्री कुर्सी पर बैठ गई। बच्चे को बुलाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए वह उसके मुख को देखने लगी।
युवती अभी चाय ही बना रही थी कि युवक ने प्रौढ़ावस्था की स्त्री को सम्बोधित कर कहा, माँ, कितना प्यारा लगता है मोती।’’
‘‘हां मोहन ! जब तुम इतने बड़े थे तो तुम भी ऐसे लगते थे। तुम्हारे बाल तनिक इससे अधिक काले थे। इसके सुनहरे हैं। तुम्हारे बाल गुच्छेदार और चमकीले थे। ...परन्तु यह तुम्हारी अपेक्षा अधिक बातूनी है। दिन-भर कुछ-न-कुछ कहता अथवा गाता रहता है।’’
‘‘हाँ उस दिन रेडियो पर कोई गाना आ रहा था नः
काले भँवरे-से बालों में
है उलझ गया दिल यह मेरा ,
इस पर भी तुमको कहता
थैंक्यू थैंक्यू थैंक्यू थैंक्यू।
तब से यह दिन-भर ‘थैंक्यू थैंक्यू’ ही कहता रहता है।’’
यह सुनकर तो तीनों ही हँस पड़े। चाय बन गई थी। युवक ने चाय का प्याला लेकर एक चुस्की लगाई।
युवती ने दो प्याले ही बनाए थे। एक स्वयं उठाकर पीने लगी तो बच्चा बोला, ‘‘मम्मी, मैं भी पिऊँगा।’’
उस प्रौढ़ा ने कुर्सी तिपाई के समीप करके बच्चे के लिए बनानी आरम्भ कर दी। युवक ने कहा, ‘‘माँ तुम अपने लिए भी बना लो न !’’
स्त्री ने किसी प्रकार का उत्तर न देते हुए चाय का प्याला बनाकर बच्चे को पिलाना आरम्भ कर दिया। चाय के साथ दाल-बीजी और पकौड़े थे।
युवक ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘माँ, इस चिट्ठी का मतलब है ?’’
‘‘मतलब तो स्पष्ट ही है मैं कल यू० पी० रोडवेज की पहली बस से हरिद्वार जा रही हूँ।’’
‘‘वहाँ क्या है ?’’
‘‘माँ भगवती गंगा का पवित्र जल। उस जल में स्नान से शान्ति-लाभ।’’
‘‘तो ऐसा करो माँ तुम आधा सेर बरफ अपने स्नान के जल में मिलाकर यहीं पर उसे गंगाजल के समान शीतल बना, उसमें स्नान कर लिया करो। घर बैठे ही उस जल से शान्ति-लाभ प्राप्त हो जाएगा।’’
माँ हँसी तो युवक और युवती भी हँसने लगे। माँ ने कहा, ‘‘देखो मोहन, तुम एम०ए० तक पढ़े हो मैंने केवल हिन्दी की परीक्षाएं ही पास की हैं। इस कारण तुमसे बहस करने से तुम्हारी पढ़ाई का अपमान हो जाएगा। परन्तु मैं भी यह जानती हूँ और तुम भी जानते हो कि हब्शी बालक के मुंह पर चाक पोत देने से वह अँग्रेज नहीं बन सकता।
इस पर तो काफी देर तक हँसी का कहकहा लगता रहा। मोती प्याले की कुंडी में अँगुली डाल प्याले को उठा स्वयं चाय पीने का यत्न करने लगा था।
‘‘मां कब तक लौटोगी ?’’ युवक ने पूछ लिया।
‘‘अब नहीं आऊंगी।’’
‘‘क्यों ?
‘‘मोहन तुमको पढ़ा-लिखाकर, योग्य बनाने तथा तुम्हें जीवन में स्थिर करने में इक्तीस वर्ष लग गए और जिस प्रयोजन से मैं हरिद्वार जाना चाहती हूँ वह तो इससे कहीं दुस्तर कार्य है। आशा नहीं कि मरने से पूर्व वह सम्पन्न हो सके।’’
‘‘क्या काम है ऐसा वह, माँ !’’
‘‘मैंने अपने पत्र में लिखा तो है। अब मुझे परलोक सँवारना है।’’
यह सुन युवती बोल उठी, ‘‘माताजी, छोड़िए इस बात को। आप सीधी बात क्यों नहीं कहतीं ? मोती के पालन पोषण में कठिनाई अनुभव कर रही हैं। आप दो वर्ष और ठहर जाइए, तब तक स्कूल जाने लगेगा और.....।’’
इसी समय उसको अपने पेट में एक नवीन जीव की सृष्टि का स्मरण हो आया। वह चुप हो गयी।
माँ मुस्कराती हुई उसके मुख को देख रही थी। उसकों चुप देख बोली, ‘‘हां, हाँ, कहों न आगे। देखों निर्मला, मोहन तीन वर्ष का था जब तुम्हारे ससुर का देहान्त हो गया था। उनके देहान्त के समय घर में दो-सो रुपये से अधिक कुछ नहीं था। उनका दो हजार रुपये का एकत बीमा था। वह मिला तो जीवन-यापन के की योजना बना मैंने स्वयं पढ़ना आरम्भ किया।
‘‘शेष तुम जानती ही हो। मदनहोहन एक स्कूल-मास्टरनी का लड़का है। उस मास्टरनी को जीवन-भर तीस रुपये से साठ रुपये तक वेतन मिलता रहा और इसी में मदनमोहन की एम०ए० तक की पढ़ायी हुई है।
‘‘अब मोती तीन वर्ष का है। परन्तु इस समय की स्थिति में और तब की स्थित में पर्याप्त अन्तर है। अब स्थिति बहुत अच्छी है। उस, समय आय का कोई स्त्रोत नहीं था। अब मदनमोहन ढाई सौ रुपये वेतन लाता है तथा उसकी उन्नति का मार्ग खुला है। मैं समझती हूँ कि मैं तुम्हारे पति को उससे बहुत अच्छी अवस्था में छोड़कर जा रही हूँ, जिसमें मदन के पिता मुझकों छोड़कर गए थे।
‘‘हरिद्वार से क्या मिल सकता है और क्या नहीं, यह मेरी अपनी आत्मा की बात है।’’
मदनमोहन सोचता था कि माँ को जाने देना चाहिए। आखिर वे उसकों बाँधकर रखने वाले कौन होते हैं। ? उसका यह भी अनुमान था कि वह एक-दो मास परिद्वार में रहकर ऊब जाएगी और वापस घर आ जाएगी।
2
मदनमोहन की माँ महादेवी अगले छः बजे गुरुद्वारा रोड
से टैक्सी
में सवार हो अजमेर गेट को चल पडी। उसका लड़का उसे हरिद्वारव की बस में
बैठाने के लिए साथ आया था। मार्ग में उसने माँ से पूछा,
‘‘माँ, खर्च इत्यादि के लिए क्या दे दूँ
?’’
‘‘कुछ नहीं चाहिए मेरे पास हैं।’’
‘‘महीने पर क्या भेज दिया करू ?’’
‘‘जब आवश्यकता पड़ेगी मैं लिख दूंगी। होगा तो भेज देना।’’
‘‘कुछ नहीं चाहिए मेरे पास हैं।’’
‘‘महीने पर क्या भेज दिया करू ?’’
‘‘जब आवश्यकता पड़ेगी मैं लिख दूंगी। होगा तो भेज देना।’’
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