ऐतिहासिक >> पत्रलता पत्रलतागुरुदत्त
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हर्षवर्द्धन कालीन ऐतिहासिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आधार-भूमि
यह हर्षवर्धन की जीवन-कथा नहीं हैं। यह तो उस काल में प्रचिलत
विचार-धाराओं के संघर्ष और उस संघर्ष से उत्पन्न परिणामों की कहानी है।
महात्मा बुद्ध संसार से भग्नाश हो जीवन-मरण के चक्र से निकलने के लिए पुत्र, पत्नी, माता-पिता और राजपाट को छोड़कर जंगल में चले गए। यहाँ पर पठन-पाठन त्याग-तपस्या और चिन्तन से एक धारणा बना बैठे। वह धारणा थी कि चेतना प्रकृति के प्रवाह में भँवर-मात्र है। सांसारिक दुखों से छूटने का उपाय, इस भँवर को प्रकृति-रूपी प्रशान्त सागर में शान्त कर देना है। जब भँवर निश्चल जल में विलीन हो जाएगा, तब परम सुख प्राप्त होगा।
वास्तव में यह नास्तिक्य की व्याख्या है। नास्तिक्य में जो कुछ अयुक्तिसंगत प्रतीत होता था उसको युक्ति से सिद्ध करने का प्रयास है।
इस व्याख्या के सत्य-असत्य होने का निर्णय करना इस पुस्तक का विषय नहीं है। इस पुस्तक में तो इस व्याख्या की जनमन पर उत्पन्न प्रतिक्रिया और साथ ही उस प्रतिक्रिया का देश में अन्य प्रचलित विचारधाराओं से संघर्ष का उल्लेख है।
भारत-भूमि पर विचार-भेद कोई आश्चर्य अथवा चिन्ता की बात नहीं थी। यह चिन्ता की बात तब बनी, जब राज्य की ओर से किसी एक ही विचारधारा को समर्थन मिला और अन्य का विरोध हुआ।
सर्वप्रथम यह अशोक के काल में हुआ। अशोक अति क्रूर प्रकृति का व्यक्ति था और जब वह बौद्ध हुआ तो उसकी क्रूरता का रूप बदल गया। क्रूरता अपने मन की बात को बलपूर्वक मनवाने को कहते हैं। जहाँ पहले राजा की इच्छा अस्त्र-शस्त्रों के बल से मनवाई जाती थी वहाँ बौद्ध काल में बौद्ध-भिक्षुओं की इच्छा राज्य के बल और धन से मनवाई जाने लगी, अत: बौद्ध विचारधारा का प्रभाव राज्य-बल से बढ़ाया जाने लगा।
इसमें सन्देह नहीं कि प्राचीन वैदिक विचारधारा के मानने वालों का पतन हो गया था। कालान्तर में परिस्थितियाँ बदलीं और विचार-भेद उत्पन्न हो गया। इससे आचरण में भी अन्तर आ गया।
मनुष्य स्वभाव से सुगम मार्ग स्वीकार करना चाहता है और प्राय: सुगम मार्ग की खोज में अपने लक्ष्य को भी भूल, दूसरी ही ओर चल पड़ता है। उन्नति का मार्ग कठिन और दुखमय देख वह सुगम मार्ग, जो प्राय: पतन का मार्ग होता है, स्वीकार कर लेता है।
जीवन में ब्रह्मचर्य, तपस्या तथा स्वाध्याय, कठिन होने के कारण, सुख, वासना और प्रमाद के सम्मुख त्याज्य हो जाते हैं। यही महात्मा बुद्ध के साथ हुआ। जीवन-मरण की समस्या को न सुलझा सकने पर वे परेशान थे। जो मार्ग उपनिषद् इत्यादि ग्रन्थों में वर्णित था, उसका अनुसरण न कर सकने पर छोटे स्तर के लोगों को समझाने में लग गए। संस्कृत भाषा में अपने मन की बात न कह सकने पर जनसाधारण की भाषा में ही बात करने लगे। पठन-पाठन तथा स्वाध्याय अति दुस्तर होने पर उपदेशों से कार्य चलाने लगे। इस प्रकार एक पृथक् मत चलाने में सफल हो गए।
हमारे कथन का प्रमाण यह है कि बौद्ध साहित्य जो महात्मा बुद्ध के जीवनकाल से लेकर अशोक के काल तक निर्माण हुआ, वह न के तुल्य ही है। अशोक के काल के पश्चात् बौद्ध साहित्य बनने लगा तो बौद्ध मत का रूप भी बदलने लगा। बौद्ध मत का यह नवीन रूप महायान कहलाया।
तदन्तर हीनयान, जो महात्मा बुद्ध का मत था और महायान में संघर्ष चल पड़ा। वास्तव में महायान उन आक्षेपों के प्रकाश में, जो ब्राह्माण धर्म ने बौद्ध धर्म पर किए थे, एक अन्य सुगम मार्ग है। परिणाम में यह हीनयान से भी अधिक हानिकर सिद्ध हुआ। कोई मार्ग, जिसका केवल मात्र ध्येय सुगमता स्वीकार करना हो, सदैव पतन की ओर ले जाने वाला होता है।
जब बौद्ध धर्म का विस्तार होने लगा और जब यह अनुभव किया गया कि केवल मात्र भिक्षु निर्माण करने से कुछ नहीं बन सकता, तब महायान की स्थापना हुई। भिक्षु तो बन गए, परन्तु उनके पालन-पोषण के लिए अन्न, वस्त्रादि भी चाहिए थे। उनके लिए जन-साधारण, जो जीवन के लिए आवश्यक सामग्री उत्पन्न करते हों की आवश्यकता पड़ गई।
इसके साथ ही जब गुप्तकाल में ब्राह्मण देवी-देवता और अवतारवाद का प्रचलन हआ तो बौद्धों ने भी उन देवी-देवताओं के खण्डन को कठिन मान भगवान् तथागत को एक अवतार प्रसिद्ध कर लिया। यह महायान हो गया।
यह विचार परिवर्तन तथा सुगमता की ओर भागने की नीति किसी प्रकार भी जाति के लिए हानिकर न होती, यदि सम्राट अशोक और हर्षवर्धन बौद्ध धर्म के प्रचार में राज्य-बल का प्रयोग न करते। अशोक ने तो केवल यह किया कि राज्य की पूर्ण शक्ति बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दी, परन्तु हर्षवर्धन ने तो राज्य-बल से न केवल बौद्ध धर्म का प्रचार किया, प्रत्युत अबौद्धों का विरोध भी किया।
भारत में यह नया प्रचलन था कि विचारधाराएँ विद्वानों की युक्तियों और अनुभवों के आश्रय न रहकर, राज्य-बल का आश्रय पाने लगीं।
अशोक के काल का पूर्ण ज्ञान बौद्ध-लेखकों और अशोक द्वारा निर्मित स्तूपों तथा शिलालखों से ही मिल सका है और उनमें अशोक की प्रशंसा किसी प्रकार भी अकाट्य प्रमाण नहीं हो सकती।
इसी प्रकार हर्षवर्धन के काल का पूर्ण वृत्तान्त बाण, के हर्षवर्धन और ह्वेनसांग के ‘हर्ष जीवन-चरित्र’ से मिलता है। बाण तो अपना ‘हर्षचरित’ समाप्त नहीं कर सका और ह्वेनसांग हर्ष के मरने से पूर्व ही भारत छोड़कर चला गया था। दोनों के कथन अधूरे हैं। बाण हर्ष का वेतनधारी सेवक था और वह जो कुछ हर्ष की प्रशंसा में लिख गया है पूर्णतया सत्य ही है यह नहीं कहा जा सकता। ह्वेनसांग ने अपने कथन में ही परस्पर-विरोध है। ऐसा प्रतीत होता है कि ह्वेनसांग बौद्ध था और वह बौद्ध-सम्राट की प्रशंसा कर बौद्ध धर्म की महिमा बढ़ाना चाहता था।
ह्वेनसांग के लेखों के अप्रामाणिक होने में प्रमाण तो बहुत हैं। यहाँ केवल दो दिए जाते हैं।
श्री भगवतीप्रसाद पांथरी द्वारा लिखित ‘हर्षवर्धन शीलादित्य’ नामक पुस्तक के पृष्ठ 47 पर लिखा है :
‘‘ह्वेनसांग ने कन्नौज का वर्णन देते हुए भूल से हर्ष के पूर्वजों..प्रभाकर वर्धन और राज्यवर्धन को भी कन्नौज का राजा बतलाया है....। ह्वेनसांग के इस भ्रमात्मक विवरण के आधार पर कतिपय विद्वानों ने...।’’
डॉक्टर रमाशंकर त्रिपाठी द्वारा लिखित प्राचीन भारत का इतिहास नामक पुस्तक के पृष्ठ 224 पर लिखा है:
‘‘ह्वेनसांग का वक्तव्य है कि ‘हर्ष, जब तक उसने पाँचों भारतों पर अधिकार न कर लिया, छ: वर्ष तक निरन्तर युद्ध करता रहा,...सर्वथा अयुक्त (अयुक्तिसंगत) है। इसी प्रसंग में ह्वेनसांग के दूसरे वक्तव्य का अनुवाद कि:
‘‘हर्ष ने 30 वर्ष तक बिना अस्त्र उठाए शान्तिपूर्वक शासन किया, ‘ठीक नहीं, क्योंकि, हर्ष को अपने घटना-बहुल शासन के अन्त तक युद्ध करते रहना पड़ा।’’
ह्वेनसांग के लेखों में अनेक भ्रममूलक बातें हैं और वे केवल एक बौद्ध-सम्राट की चारणों की भाँति प्रशंसा मात्र हैं।
इन दोनों लेखकों ने हर्षवर्धन की प्रशंसा के गुण गाए हैं। वास्तव में हर्षवर्धन की नीति देश में भारी वैमनस्य उत्पन्न करने वाली सिद्ध हुई थी।
प्रस्तुत उपन्यास में कई लेखकों के विचारों के विपरीत लेखक ने कुछ बातें लिखी हैं, परन्तु वे ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ही हैं जो इस प्रकार है:
‘‘यह प्रकट है कि हर्षवर्धन ने अपने पैतृक राज्य थानेश्वर और अपनी बहन के साम्राज्य कन्नौज को मिलाया, परन्तु अन्य कोई भारी विजय प्राप्त नहीं की।’’ डॉक्टर रमाशंकर त्रिपाठी अपने ‘प्राचीन भारत का इतिहास’ में पृष्ठ सं. 223 पर इस प्रकार लिखते हैं :
‘‘हर्षवर्धन की दिग्विजयों के विषय में हमें सविस्तार सामग्री उपलब्ध नहीं। ह्वेनसांग ने वृत्तान्त में अवश्य कुछ प्रशंसात्मक विजय-प्रसंग है। उदाहरणतया ‘पूर्व की ओर बढ़कर उसने उन राज्यों पर आक्रमण किया, जिन्होंने उसकी अधीनता, स्वीकार न की थी। छ: वर्षों तक वह पाँचों भारतों के साथ लड़ता रहा।’ इस प्रकार ह्वेनसांग ने किसी राज्य का नाम नहीं बताया, जिसको उसने विजय किया हो। कहीं-कहीं आक्रमण अवश्य किए प्रतीत होते हैं, परन्तु सफलता उतनी नहीं मिली, जितनी कि चीनीयात्री अपने वृत्तान्त में लिखता है।’’
इतिहासकार पुन: लिखता है:
‘‘ह्वेनसांग द्वारा लिखित जीवन से पता चलता है कि हर्ष ने स्वयं महाराष्ट्र के पुलोकिश के विरुद्ध सैन्य-संचालन किया, परन्तु परिणाम विरुद्ध हुआ और दक्षिणाधिप ने उसे बुरी तरह परास्त किया..
‘‘इसमें सन्देह नहीं कि हर्ष शशांक का कुछ बिगाड़ नहीं सका।’’
इस विषय में श्री भगवतीप्रसाद पांथरी लिखते हैं-‘‘किन्तु इतना निश्चय है कि शशांक बिना कोई भारी हानि उठाए अपने राज्य को वापस लौट गया।’’
इतिहास पढ़ने से इतना तो ज्ञात होता है कि हर्ष दिग्विजय पर निकला था परन्तु वह छोटे-छोटे सामन्तों को अपने अधीन कर सकने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सका। न तो मालवा विजित हुआ और न ही गौड़ राज्य। दक्षिण का चालुक्य ज्यों-का-त्यों ही बना रहा।
इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि बाण कब और कहाँ मरा। कदाचित् वह हर्ष की सेवा छोड़कर चला गया था। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ से कुछ ऐसा ही समझ में आता है। यह भी प्रतीत होता है कि बाण उज्जैन से उदासीन होकर चला गया था।
कई इतिहास-लेखकों ने यह लिखा है कि हर्ष ने अपना राज्य पक्षपातरहित होकर चलाया है। लेखक का मत इस कथन के विपरीत है। हर्ष जब कन्नौज में आया तो वह धीरे-धीरे बौद्ध विचारधारा को मानने वाला बनता गया और जब तक वह पूर्ण रूप से बौद्ध सम्प्रदाय के अनुकूल नहीं हो गया, तब तक वह कन्नौज के सिंहासन पर बैठ नहीं सका।
इस कथन में युक्ति यह है कि यद्यपि राज्यश्री मालवा-नरेश और शशांक के अधिकार से छूटते ही बौद्ध भिक्षुणी बन गई थी तो भी हर्ष कई वर्ष तक कन्नौज की राजगद्दी पर बैठ नहीं सका और वह राज्यश्री के स्थान पर राज्य-कार्य चलाता रहा।
ऐसा उल्लेख आता कि पिछले कई वर्ष पीछे, बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर के कहने पर (अर्थात् आज्ञा पर) वह कन्नौज की राजगद्दी पर बैठा। इससे यह सिद्ध होता है कि हर्षवर्धन का परिवार शैव था और कन्नौज में बौद्धों का प्राबल्य था, इस कारण वे हर्ष के राज्यारोहण का विरोध करते रहे। जब हर्ष बौद्ध हो गया तो उनका विरोध समाप्त हो गया और बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर ने राज्यारोहण की स्वीकृति दे दी।
हर्ष बौद्धों की कृपा से राज्यारोहण कर सका था। अतएव वह सदैव उनके पक्ष में रहा और बौद्ध भिक्षु उनके गुण गाते रहे। इस विषय में भगवतीप्रसाद पांथरी अपनी पुस्तक में ‘महात्यागोत्सव’ का वर्णन इस प्रकार करते हैं :
‘‘पहले दिन बुद्ध की मूर्ति स्थापित की गई और सम्राट् शीलादित्य ने बहुमूल्य जवाहरात भेंट किए। मूर्ति की पूजा के पश्चात समस्त राजाओं ने बहुमूल्य वस्तुएँ, वस्त्र और भोग-सामग्री वितरित की और फूल बिखेरे गए।
‘‘दूसरे दिन आदित्य देव की मूर्ति स्थापित की गई और पहले दिन की अपेक्षा आधी वस्तुएँ दान में वितरित की गईं।’’
‘‘तीसरे दिन ईश्वरदेव (महादेव) की मूर्ति स्थापित की गई और दूसरे दिन की तरह दान वितरित किया गया।’’
‘‘चौथे दिन बौद्ध धर्म संघ के 10,000 बौद्ध पण्डितों और भिक्षुओं को दान दिया गया। प्रत्येक बौद्ध पण्डित को दान दिया गया। प्रत्येक बौद्ध पण्डित को 100 स्वर्ण मुद्राएँ, एक मोती, एक सूती वस्त्र, विभिन्न प्रकार के पेय और खाद्य सामग्री तथा इत्र और फूल प्राप्त हुए।
‘‘इसके बाद लगातार 20 दिन तक ब्राह्मणों को दान दिया गया और दस दिन तक अन्य धर्मावलम्बियों को दान दिया गया।’’
यह सब वृत्तान्त ह्वेनसांग के लेखों से लिया गया, ह्वेनसांग ने उक्त वृत्तान्त से यह बात स्पष्ट कर दी कि बौद्धों के साथ अन्य धर्मावलम्बियों से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार किया गया था।
ह्वेनसांग ने बहुत-सी बातें लिखी हैं, जिनसे उनकी तत्कालिक देश की अवस्था से भी अनभिज्ञता प्रकट होती है। इस कारण जब वह लिखता है कि हर्ष पक्षपातरहित था, तो वह अपने अज्ञान का ही प्रदर्शन करता है। वास्तविकता तो उसके ‘महात्याग-उत्सव’ से स्पष्ट होती है।
जो कुछ हो यह तो स्पष्ट है ही कि मलाई-मलाई बौद्ध सम्प्रदाय बालों को मिली और खुर्चन अन्य धर्मावलम्बियों को।
महाराज हर्षवर्धन का पक्षापातपूर्ण व्यवहार महाधर्म सम्मेलन में और भी स्पष्ट हो जाता है।
श्री पंथारी इस विषय में लिखते हैं :
‘‘कन्नौज की सभा में भाग लेने के लिए हर्ष के आदेशानुशार देशभर से अट्ठारह-बीस राज्यों के राजा अपने यहाँ के प्रमुख श्रमणों तथा ब्राह्मणों को लेकर पधारे।
‘‘ह्वेनसांग लिखित ‘लाइफ़’ के अनुसार महायान और हीनयान सम्प्रदाय के 300 विद्ग्ध आचार्य, 3000 ब्राह्मण और नालन्दा से लगभग 1000 आचार्य अपने शिष्यों सहित वहाँ पधारे थे।’’
इसका अर्थ यह हुआ कि निमन्त्रण तो बौद्ध-अबौद्ध दोनों को दिया गया था, परन्तु उसकी पुस्तक में आगे चलकर लिखा है:
‘‘किन्तु जो बौद्ध धर्म में आस्था नहीं रखते थे और जिन्हें भवन में जाने नहीं दिया जा सकता था, उन्हें सम्राट के आदेशानुसार भवन में प्रवेश-द्वार के बाहर बैठने को कहा गया।’’
फिर लिखा है—‘‘सभा के मुखिया और प्रमुख वक्ता के रूप में ह्वेनसांग के लिए सम्राट् के निर्देशानुशार एक बहुमूल्य मंच तैयार किया गया।’’
‘रेकाडर्स’ के अनुसार इस सभा के वाद-विवाद में भिन्न विदग्ध पण्डितों ने गम्भीरतापूर्वक तर्क-वितर्क किया। परन्तु प्रमुख वक्ता ह्वनेसांग थे, जिन्होंने महायान धर्म के सिद्धान्तों की व्याख्या की और उसकी महानता पर प्रकाश डाला। इस सम्मेलन का आगे विवरण इस प्रकार है-‘‘पाँच दिन सभा होने के पश्चात हीनयान सम्प्रदाय वालों को जब यह प्रतीत हो गया कि ह्वेनसांग ने उनके मत का खण्डन कर दिया है तो वे रोष से भरकर उसकी हत्या करने का षड्यन्त्र करने लगे। यह बात जब हर्ष को विदित हुई तो उसने एक घोषणा-पत्र प्रेषित किया, जिसमें कहा गया :
‘चीन के धर्माचार्य, जिनका अध्यात्म-ज्ञान विशाल है, जिनकी प्रवचन-शक्ति गुरु-गम्भीर है, जो लोगों को सही बात बताने और महान् धर्म के सत्य रूप का दर्शन कराने व मूर्खों तथा राहभूलों का उद्धार करने यहाँ आए हुए हैं, किन्तु वंचना और असत्य का अनुगमन करने वाले, झूठ का परित्याग करने के स्थान तथा प्रायश्चित करने के स्थान उनके विरुद्ध घातक षड्यन्त्र रचने का विचार कर रहे हैं—अतः यदि कोई धर्माचार्य को क्षति पहुँचायेगा, या छूएगा तो उसका तत्काल सिर उड़ा दिया जायेगा। साथ ही जो कोई उनके विरुद्ध बोलेगा, उसकी जीभ काट ली जाएगी।’’
‘‘इस घोषणा के परिणामस्वरूप असत्यवादियों का बल खिसक गया। सभा के अठारह दिन व्यतीत हो गये परन्तु किसी ने वाद-विवाद में भाग नहीं लिया।
‘‘इसके पश्चात् राजाज्ञा से ह्वेनसांग का बहुत ही मान किया गया। हर्ष शीलादित्य ने ह्वेनसांग को 10,000 स्वर्ण मुद्राएँ, 30,000 रजत मुद्राएँ तथा 100 बहुमूल्य सूती वस्त्र उपहार में दिए....अन्त में हर्ष ने धर्मविजेता ह्वेनसांग की एक विशाल हाथी पर नगर में सवारी निकलवाई और सर्वत्र यह घोषणा की गई कि चीनी धर्माचार्य ने धर्म की विजय स्थापित कर असत्यपूर्ण विरोधी सिद्धान्तों का खण्डन किया...ह्वेनसांग को ‘महायान देव’ की उपाधि से अलंकृत किया गया...।’’
इस विवरण से निम्न परिणामों पर पहुँचा जा सकता है :
1. यह सभा सर्व-धर्म सम्मेलन नहीं थी।
2. इसमें केवल महायान और हीनयान पर विवेचना होती रही।
3. अबौद्धों को मंडप में प्रवेश नहीं दिया गया।
4. हीनयान के विरुद्ध हर्ष ने जली-कटी सुनाईं।
5. बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर की उपस्थिति में ह्वेनसांग की प्रशंसा की गई और उसका ही सबसे अधिक सम्मान किया गया।
6. यह धर्मचर्चा उस प्रकार की नहीं थी, जैसी शंकराचार्य और मंडन मिश्र के भीतर हुई थी। यह तो राजशक्ति से एक पक्ष का पृष्ठपोषण ही था।
7. जब हीनयान वालों ने देखा कि ह्वेनसांग को बलपूर्वक विजयी बनाया जा रहा है, तो उन्होंने ही कदाचित् राजा पर आक्रमण का षड्यन्त्र किया होगा।
8. जब हत्यारे से पूछा गया कि उसके सम्राट् पर आक्रमण क्यों किया तो उसने विधर्मियों का नाम ले दिया।
9. हत्यारे को जो दण्ड दिया गया, उसका कहीं वर्णन नहीं, परन्तु यह वर्णन है कि पाँच सौ ब्राह्मण पकड़ लिए गए और मुख्य नेताओं को प्राणदण्ड देकर शेष को देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी गई।
10. इस घटना के लेखक वही व्यक्ति है, जो स्वयं वैमनस्य का कारण था। पूर्ण सभा का संचालन उसने किया था। पूर्ण उत्सव में झगड़ा तथा वाद-विवाद, हीनयान और महायान वालों में होता रहा और अन्त में केवल मात्र हत्यारे के कहने पर ब्राह्मणों को दोषी मान उनको दण्ड दिया गया।
लेखक का मत है कि जैसे पूर्ण सभा की कार्यवाही पक्षपातपूर्ण थी, वैसे ही सम्राट की हत्या के षड्यन्त्र की बात और ब्राह्मणों पर दोषारोपण की बातें भी पक्षपातपूर्ण ही होंगी।
ब्राह्मणों द्वारा सम्राट् की हत्या में उतना कारण नहीं हो सकता था, जितना हीनयान वालों द्वारा होने में।
हीनयान वालों ने पहले ह्वेनसांग की हत्या का षड्यन्त्र किया और कदाचित् बाद में सम्राट की हत्या का षडयन्त्र भी उन्होंने किया होगा।
सम्भव यह है कि हत्यारे ने अपनी जान छुड़ाने के लिए उसका नाम ले लिया हो, जिन पर संदेह करना सुगम और भयरहित हो। किसी बौद्ध पर दोषारोपण करना सुगम नहीं होगा।
हर्ष के जीवन और उसके काल की अधिकांश घटनाएँ और विशेष रूप से इस सर्वधर्म सम्मेलन का विवरण ह्वेनसांग का लिखा हुआ है। यह सिद्ध किया जा चुका है कि ह्वेनसांग बहुत कुछ भ्रममूलक बातें लिख गया है। इस सभा में तो वह एक पक्ष का पोषक था। वह बौद्ध सम्प्रदाय का समर्थक था। इस कारण, संभव है, कि हत्यारे के कथन पर विश्वास करने से बौद्धों का मान बचाने के लिए ब्राह्मणों को दण्ड देना उचित मान लिया गया हो।
कुछ भी हो, इस घटना का, विशेष रूप से ब्राह्मणों को दण्ड देने का एक भयंकर परिणाम हुआ। देश में ब्राह्मण धर्मानुयायी और बौद्ध धर्मानुयायी परस्पर एक-दूसरे के घोर शत्रु हो गए।
देश में साम्प्रदायिक बातों की ओर प्रजा का ध्यान बँट जाने के कारण राजनीतिक स्थिति अत्यन्त दुर्बल पड़ गयी और तब वह आश्चर्यजनक घटना घटी, जिसकी तुलना इतिहास में कहीं नहीं मिलती।
अशोक के राज्य के पचास-साठ वर्ष पश्चात् ही देश की व्यवस्था इतनी दुर्बल हो गई थी कि शक, पार्थियन इत्यादि विदेशियों ने देश में घुसकर अधिकार कर लिया था। इसी प्रकार हर्षवर्धन के राज्य के कुछ ही काल पश्चात् मुसलमानों के सफल आक्रमण आरम्भ हो गए। आश्चर्यजनक बात यह हुई कि एक विदेशी आक्रमणकारी, ग़ज़नी से चलकर सोमनाथ के मन्दिर तक पहँचा और वहाँ से सहस्त्रों नर-नारियों को पकड़कर उन्हें दास बना, सही-सलामत ग़ज़नी लौट गया। पूर्ण देश के लोग मुख देखते रह गए। यह आक्रमणकारी बार-बार आया और भारत की धन-दौलत लूटकर ले गया, परन्तु जनता के कान पर जूँ तक न रेंगी। यह चमत्कार उस फूट, राजनीतिक शैथिल्य और आलस्य-प्रमाद के कारण ही सम्भव हो सका, जो बौद्धों और वैष्णवों के कारण देश में चल रहा था और जिसका बीजारोपण अशोक के काल में हुआ था तथा जिसकी सिंचाई हर्षवर्धन शीलादित्य के काल में हुई थी।
जब-जब देश में बौद्ध विचारधारा का प्राबल्य हुआ, देश राजनीतिक विचार से दुर्बल हुआ। सामाजिक शान्ति और भ्रममूलक सुरक्षा के मोह में जनता में संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों के विरोध की क्षमता कम हुई।
इसका एक प्रमाण तो भारत के मुसलमानों के राज्य के समय मिला। मुसलमानों के राज्य में बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन कराने के उदाहरण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। इनमें जहाँ सहस्रों ब्राह्मण धर्मावलम्बी खड्ग की धार के नीचे भी धर्म छोड़ने को उद्यत नहीं हुए, वहाँ एक भी बौद्ध धर्मावलम्बी का ऐसा उदाहरण नहीं मिलता, जिसने मरना स्वीकार किया हो परन्तु धर्म-त्याग करना स्वीकार न किया हो।
इसलाम का विरोध कैसे हुआ, किन विचारों के व्यक्तियों ने किन साधनों से किया, यह इस पुस्तक का विषय नहीं है। भारत के इतिहास के पृष्ठों पर सन् 900 से 1800 ई. तक की घटनाएँ लिखी गई हैं। उन पर विचार करने के लिए किसी अन्य पुस्तक का आश्रय लिया जाएगा।
इस पुस्तक का विषय तो उस काल पर प्रकाश डालना है, जिसने भारत को मुसलमानों के सफल आक्रमण के लिए तैयार किया। इसमें उन कारणों पर विवेचना करने का यत्न किया गया है, जिससे वह भारत, जिसने सिकन्दर के आक्रमण का विरोध किया था, ग़ज़नी और गोरी का विरोध करने में असमर्थ हो गया।
सिकंदर का विरोध पांचाल देश की जनता ने किया था। इस विरोध ने मगध आदि किसी बड़े राज्य का हाथ नहीं था। यह तो सर्वविदित ही है कि सिकन्दर की सेना सतलुज तक पहुँचते-पहुँचते थक गई थी; परन्तु महमूद ग़ज़नी के विरोध में जनता का कोई भी हाथ नहीं था। जनता में यह क्लीवता कैसे आ गई, इसी प्रश्न की विवेचना इस पुस्तक का विषय है।
पुस्तक उपन्यास मात्र है। पात्र काल्पनिक हैं। फिर भी ऐतिहासिक पुरुषों का विवरण, जो इस पुस्तक में आया है, इतिहास में लिखे अनुसार ही अंकित करने का यत्न किया गया है।
पुस्तक एक ऐसे विषय पर है, जिस पर पाठकों में मतभेद हो सकता है। लेखक का अपना एक मत है और वह मत किन आधारों पर बना है, इसका उल्लेख यहाँ कर दिया गया है। शेष तो पाठकों के विचार करने की बात है।
महात्मा बुद्ध संसार से भग्नाश हो जीवन-मरण के चक्र से निकलने के लिए पुत्र, पत्नी, माता-पिता और राजपाट को छोड़कर जंगल में चले गए। यहाँ पर पठन-पाठन त्याग-तपस्या और चिन्तन से एक धारणा बना बैठे। वह धारणा थी कि चेतना प्रकृति के प्रवाह में भँवर-मात्र है। सांसारिक दुखों से छूटने का उपाय, इस भँवर को प्रकृति-रूपी प्रशान्त सागर में शान्त कर देना है। जब भँवर निश्चल जल में विलीन हो जाएगा, तब परम सुख प्राप्त होगा।
वास्तव में यह नास्तिक्य की व्याख्या है। नास्तिक्य में जो कुछ अयुक्तिसंगत प्रतीत होता था उसको युक्ति से सिद्ध करने का प्रयास है।
इस व्याख्या के सत्य-असत्य होने का निर्णय करना इस पुस्तक का विषय नहीं है। इस पुस्तक में तो इस व्याख्या की जनमन पर उत्पन्न प्रतिक्रिया और साथ ही उस प्रतिक्रिया का देश में अन्य प्रचलित विचारधाराओं से संघर्ष का उल्लेख है।
भारत-भूमि पर विचार-भेद कोई आश्चर्य अथवा चिन्ता की बात नहीं थी। यह चिन्ता की बात तब बनी, जब राज्य की ओर से किसी एक ही विचारधारा को समर्थन मिला और अन्य का विरोध हुआ।
सर्वप्रथम यह अशोक के काल में हुआ। अशोक अति क्रूर प्रकृति का व्यक्ति था और जब वह बौद्ध हुआ तो उसकी क्रूरता का रूप बदल गया। क्रूरता अपने मन की बात को बलपूर्वक मनवाने को कहते हैं। जहाँ पहले राजा की इच्छा अस्त्र-शस्त्रों के बल से मनवाई जाती थी वहाँ बौद्ध काल में बौद्ध-भिक्षुओं की इच्छा राज्य के बल और धन से मनवाई जाने लगी, अत: बौद्ध विचारधारा का प्रभाव राज्य-बल से बढ़ाया जाने लगा।
इसमें सन्देह नहीं कि प्राचीन वैदिक विचारधारा के मानने वालों का पतन हो गया था। कालान्तर में परिस्थितियाँ बदलीं और विचार-भेद उत्पन्न हो गया। इससे आचरण में भी अन्तर आ गया।
मनुष्य स्वभाव से सुगम मार्ग स्वीकार करना चाहता है और प्राय: सुगम मार्ग की खोज में अपने लक्ष्य को भी भूल, दूसरी ही ओर चल पड़ता है। उन्नति का मार्ग कठिन और दुखमय देख वह सुगम मार्ग, जो प्राय: पतन का मार्ग होता है, स्वीकार कर लेता है।
जीवन में ब्रह्मचर्य, तपस्या तथा स्वाध्याय, कठिन होने के कारण, सुख, वासना और प्रमाद के सम्मुख त्याज्य हो जाते हैं। यही महात्मा बुद्ध के साथ हुआ। जीवन-मरण की समस्या को न सुलझा सकने पर वे परेशान थे। जो मार्ग उपनिषद् इत्यादि ग्रन्थों में वर्णित था, उसका अनुसरण न कर सकने पर छोटे स्तर के लोगों को समझाने में लग गए। संस्कृत भाषा में अपने मन की बात न कह सकने पर जनसाधारण की भाषा में ही बात करने लगे। पठन-पाठन तथा स्वाध्याय अति दुस्तर होने पर उपदेशों से कार्य चलाने लगे। इस प्रकार एक पृथक् मत चलाने में सफल हो गए।
हमारे कथन का प्रमाण यह है कि बौद्ध साहित्य जो महात्मा बुद्ध के जीवनकाल से लेकर अशोक के काल तक निर्माण हुआ, वह न के तुल्य ही है। अशोक के काल के पश्चात् बौद्ध साहित्य बनने लगा तो बौद्ध मत का रूप भी बदलने लगा। बौद्ध मत का यह नवीन रूप महायान कहलाया।
तदन्तर हीनयान, जो महात्मा बुद्ध का मत था और महायान में संघर्ष चल पड़ा। वास्तव में महायान उन आक्षेपों के प्रकाश में, जो ब्राह्माण धर्म ने बौद्ध धर्म पर किए थे, एक अन्य सुगम मार्ग है। परिणाम में यह हीनयान से भी अधिक हानिकर सिद्ध हुआ। कोई मार्ग, जिसका केवल मात्र ध्येय सुगमता स्वीकार करना हो, सदैव पतन की ओर ले जाने वाला होता है।
जब बौद्ध धर्म का विस्तार होने लगा और जब यह अनुभव किया गया कि केवल मात्र भिक्षु निर्माण करने से कुछ नहीं बन सकता, तब महायान की स्थापना हुई। भिक्षु तो बन गए, परन्तु उनके पालन-पोषण के लिए अन्न, वस्त्रादि भी चाहिए थे। उनके लिए जन-साधारण, जो जीवन के लिए आवश्यक सामग्री उत्पन्न करते हों की आवश्यकता पड़ गई।
इसके साथ ही जब गुप्तकाल में ब्राह्मण देवी-देवता और अवतारवाद का प्रचलन हआ तो बौद्धों ने भी उन देवी-देवताओं के खण्डन को कठिन मान भगवान् तथागत को एक अवतार प्रसिद्ध कर लिया। यह महायान हो गया।
यह विचार परिवर्तन तथा सुगमता की ओर भागने की नीति किसी प्रकार भी जाति के लिए हानिकर न होती, यदि सम्राट अशोक और हर्षवर्धन बौद्ध धर्म के प्रचार में राज्य-बल का प्रयोग न करते। अशोक ने तो केवल यह किया कि राज्य की पूर्ण शक्ति बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दी, परन्तु हर्षवर्धन ने तो राज्य-बल से न केवल बौद्ध धर्म का प्रचार किया, प्रत्युत अबौद्धों का विरोध भी किया।
भारत में यह नया प्रचलन था कि विचारधाराएँ विद्वानों की युक्तियों और अनुभवों के आश्रय न रहकर, राज्य-बल का आश्रय पाने लगीं।
अशोक के काल का पूर्ण ज्ञान बौद्ध-लेखकों और अशोक द्वारा निर्मित स्तूपों तथा शिलालखों से ही मिल सका है और उनमें अशोक की प्रशंसा किसी प्रकार भी अकाट्य प्रमाण नहीं हो सकती।
इसी प्रकार हर्षवर्धन के काल का पूर्ण वृत्तान्त बाण, के हर्षवर्धन और ह्वेनसांग के ‘हर्ष जीवन-चरित्र’ से मिलता है। बाण तो अपना ‘हर्षचरित’ समाप्त नहीं कर सका और ह्वेनसांग हर्ष के मरने से पूर्व ही भारत छोड़कर चला गया था। दोनों के कथन अधूरे हैं। बाण हर्ष का वेतनधारी सेवक था और वह जो कुछ हर्ष की प्रशंसा में लिख गया है पूर्णतया सत्य ही है यह नहीं कहा जा सकता। ह्वेनसांग ने अपने कथन में ही परस्पर-विरोध है। ऐसा प्रतीत होता है कि ह्वेनसांग बौद्ध था और वह बौद्ध-सम्राट की प्रशंसा कर बौद्ध धर्म की महिमा बढ़ाना चाहता था।
ह्वेनसांग के लेखों के अप्रामाणिक होने में प्रमाण तो बहुत हैं। यहाँ केवल दो दिए जाते हैं।
श्री भगवतीप्रसाद पांथरी द्वारा लिखित ‘हर्षवर्धन शीलादित्य’ नामक पुस्तक के पृष्ठ 47 पर लिखा है :
‘‘ह्वेनसांग ने कन्नौज का वर्णन देते हुए भूल से हर्ष के पूर्वजों..प्रभाकर वर्धन और राज्यवर्धन को भी कन्नौज का राजा बतलाया है....। ह्वेनसांग के इस भ्रमात्मक विवरण के आधार पर कतिपय विद्वानों ने...।’’
डॉक्टर रमाशंकर त्रिपाठी द्वारा लिखित प्राचीन भारत का इतिहास नामक पुस्तक के पृष्ठ 224 पर लिखा है:
‘‘ह्वेनसांग का वक्तव्य है कि ‘हर्ष, जब तक उसने पाँचों भारतों पर अधिकार न कर लिया, छ: वर्ष तक निरन्तर युद्ध करता रहा,...सर्वथा अयुक्त (अयुक्तिसंगत) है। इसी प्रसंग में ह्वेनसांग के दूसरे वक्तव्य का अनुवाद कि:
‘‘हर्ष ने 30 वर्ष तक बिना अस्त्र उठाए शान्तिपूर्वक शासन किया, ‘ठीक नहीं, क्योंकि, हर्ष को अपने घटना-बहुल शासन के अन्त तक युद्ध करते रहना पड़ा।’’
ह्वेनसांग के लेखों में अनेक भ्रममूलक बातें हैं और वे केवल एक बौद्ध-सम्राट की चारणों की भाँति प्रशंसा मात्र हैं।
इन दोनों लेखकों ने हर्षवर्धन की प्रशंसा के गुण गाए हैं। वास्तव में हर्षवर्धन की नीति देश में भारी वैमनस्य उत्पन्न करने वाली सिद्ध हुई थी।
प्रस्तुत उपन्यास में कई लेखकों के विचारों के विपरीत लेखक ने कुछ बातें लिखी हैं, परन्तु वे ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर ही हैं जो इस प्रकार है:
‘‘यह प्रकट है कि हर्षवर्धन ने अपने पैतृक राज्य थानेश्वर और अपनी बहन के साम्राज्य कन्नौज को मिलाया, परन्तु अन्य कोई भारी विजय प्राप्त नहीं की।’’ डॉक्टर रमाशंकर त्रिपाठी अपने ‘प्राचीन भारत का इतिहास’ में पृष्ठ सं. 223 पर इस प्रकार लिखते हैं :
‘‘हर्षवर्धन की दिग्विजयों के विषय में हमें सविस्तार सामग्री उपलब्ध नहीं। ह्वेनसांग ने वृत्तान्त में अवश्य कुछ प्रशंसात्मक विजय-प्रसंग है। उदाहरणतया ‘पूर्व की ओर बढ़कर उसने उन राज्यों पर आक्रमण किया, जिन्होंने उसकी अधीनता, स्वीकार न की थी। छ: वर्षों तक वह पाँचों भारतों के साथ लड़ता रहा।’ इस प्रकार ह्वेनसांग ने किसी राज्य का नाम नहीं बताया, जिसको उसने विजय किया हो। कहीं-कहीं आक्रमण अवश्य किए प्रतीत होते हैं, परन्तु सफलता उतनी नहीं मिली, जितनी कि चीनीयात्री अपने वृत्तान्त में लिखता है।’’
इतिहासकार पुन: लिखता है:
‘‘ह्वेनसांग द्वारा लिखित जीवन से पता चलता है कि हर्ष ने स्वयं महाराष्ट्र के पुलोकिश के विरुद्ध सैन्य-संचालन किया, परन्तु परिणाम विरुद्ध हुआ और दक्षिणाधिप ने उसे बुरी तरह परास्त किया..
‘‘इसमें सन्देह नहीं कि हर्ष शशांक का कुछ बिगाड़ नहीं सका।’’
इस विषय में श्री भगवतीप्रसाद पांथरी लिखते हैं-‘‘किन्तु इतना निश्चय है कि शशांक बिना कोई भारी हानि उठाए अपने राज्य को वापस लौट गया।’’
इतिहास पढ़ने से इतना तो ज्ञात होता है कि हर्ष दिग्विजय पर निकला था परन्तु वह छोटे-छोटे सामन्तों को अपने अधीन कर सकने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सका। न तो मालवा विजित हुआ और न ही गौड़ राज्य। दक्षिण का चालुक्य ज्यों-का-त्यों ही बना रहा।
इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि बाण कब और कहाँ मरा। कदाचित् वह हर्ष की सेवा छोड़कर चला गया था। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ से कुछ ऐसा ही समझ में आता है। यह भी प्रतीत होता है कि बाण उज्जैन से उदासीन होकर चला गया था।
कई इतिहास-लेखकों ने यह लिखा है कि हर्ष ने अपना राज्य पक्षपातरहित होकर चलाया है। लेखक का मत इस कथन के विपरीत है। हर्ष जब कन्नौज में आया तो वह धीरे-धीरे बौद्ध विचारधारा को मानने वाला बनता गया और जब तक वह पूर्ण रूप से बौद्ध सम्प्रदाय के अनुकूल नहीं हो गया, तब तक वह कन्नौज के सिंहासन पर बैठ नहीं सका।
इस कथन में युक्ति यह है कि यद्यपि राज्यश्री मालवा-नरेश और शशांक के अधिकार से छूटते ही बौद्ध भिक्षुणी बन गई थी तो भी हर्ष कई वर्ष तक कन्नौज की राजगद्दी पर बैठ नहीं सका और वह राज्यश्री के स्थान पर राज्य-कार्य चलाता रहा।
ऐसा उल्लेख आता कि पिछले कई वर्ष पीछे, बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर के कहने पर (अर्थात् आज्ञा पर) वह कन्नौज की राजगद्दी पर बैठा। इससे यह सिद्ध होता है कि हर्षवर्धन का परिवार शैव था और कन्नौज में बौद्धों का प्राबल्य था, इस कारण वे हर्ष के राज्यारोहण का विरोध करते रहे। जब हर्ष बौद्ध हो गया तो उनका विरोध समाप्त हो गया और बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर ने राज्यारोहण की स्वीकृति दे दी।
हर्ष बौद्धों की कृपा से राज्यारोहण कर सका था। अतएव वह सदैव उनके पक्ष में रहा और बौद्ध भिक्षु उनके गुण गाते रहे। इस विषय में भगवतीप्रसाद पांथरी अपनी पुस्तक में ‘महात्यागोत्सव’ का वर्णन इस प्रकार करते हैं :
‘‘पहले दिन बुद्ध की मूर्ति स्थापित की गई और सम्राट् शीलादित्य ने बहुमूल्य जवाहरात भेंट किए। मूर्ति की पूजा के पश्चात समस्त राजाओं ने बहुमूल्य वस्तुएँ, वस्त्र और भोग-सामग्री वितरित की और फूल बिखेरे गए।
‘‘दूसरे दिन आदित्य देव की मूर्ति स्थापित की गई और पहले दिन की अपेक्षा आधी वस्तुएँ दान में वितरित की गईं।’’
‘‘तीसरे दिन ईश्वरदेव (महादेव) की मूर्ति स्थापित की गई और दूसरे दिन की तरह दान वितरित किया गया।’’
‘‘चौथे दिन बौद्ध धर्म संघ के 10,000 बौद्ध पण्डितों और भिक्षुओं को दान दिया गया। प्रत्येक बौद्ध पण्डित को दान दिया गया। प्रत्येक बौद्ध पण्डित को 100 स्वर्ण मुद्राएँ, एक मोती, एक सूती वस्त्र, विभिन्न प्रकार के पेय और खाद्य सामग्री तथा इत्र और फूल प्राप्त हुए।
‘‘इसके बाद लगातार 20 दिन तक ब्राह्मणों को दान दिया गया और दस दिन तक अन्य धर्मावलम्बियों को दान दिया गया।’’
यह सब वृत्तान्त ह्वेनसांग के लेखों से लिया गया, ह्वेनसांग ने उक्त वृत्तान्त से यह बात स्पष्ट कर दी कि बौद्धों के साथ अन्य धर्मावलम्बियों से अधिक श्रेष्ठ व्यवहार किया गया था।
ह्वेनसांग ने बहुत-सी बातें लिखी हैं, जिनसे उनकी तत्कालिक देश की अवस्था से भी अनभिज्ञता प्रकट होती है। इस कारण जब वह लिखता है कि हर्ष पक्षपातरहित था, तो वह अपने अज्ञान का ही प्रदर्शन करता है। वास्तविकता तो उसके ‘महात्याग-उत्सव’ से स्पष्ट होती है।
जो कुछ हो यह तो स्पष्ट है ही कि मलाई-मलाई बौद्ध सम्प्रदाय बालों को मिली और खुर्चन अन्य धर्मावलम्बियों को।
महाराज हर्षवर्धन का पक्षापातपूर्ण व्यवहार महाधर्म सम्मेलन में और भी स्पष्ट हो जाता है।
श्री पंथारी इस विषय में लिखते हैं :
‘‘कन्नौज की सभा में भाग लेने के लिए हर्ष के आदेशानुशार देशभर से अट्ठारह-बीस राज्यों के राजा अपने यहाँ के प्रमुख श्रमणों तथा ब्राह्मणों को लेकर पधारे।
‘‘ह्वेनसांग लिखित ‘लाइफ़’ के अनुसार महायान और हीनयान सम्प्रदाय के 300 विद्ग्ध आचार्य, 3000 ब्राह्मण और नालन्दा से लगभग 1000 आचार्य अपने शिष्यों सहित वहाँ पधारे थे।’’
इसका अर्थ यह हुआ कि निमन्त्रण तो बौद्ध-अबौद्ध दोनों को दिया गया था, परन्तु उसकी पुस्तक में आगे चलकर लिखा है:
‘‘किन्तु जो बौद्ध धर्म में आस्था नहीं रखते थे और जिन्हें भवन में जाने नहीं दिया जा सकता था, उन्हें सम्राट के आदेशानुसार भवन में प्रवेश-द्वार के बाहर बैठने को कहा गया।’’
फिर लिखा है—‘‘सभा के मुखिया और प्रमुख वक्ता के रूप में ह्वेनसांग के लिए सम्राट् के निर्देशानुशार एक बहुमूल्य मंच तैयार किया गया।’’
‘रेकाडर्स’ के अनुसार इस सभा के वाद-विवाद में भिन्न विदग्ध पण्डितों ने गम्भीरतापूर्वक तर्क-वितर्क किया। परन्तु प्रमुख वक्ता ह्वनेसांग थे, जिन्होंने महायान धर्म के सिद्धान्तों की व्याख्या की और उसकी महानता पर प्रकाश डाला। इस सम्मेलन का आगे विवरण इस प्रकार है-‘‘पाँच दिन सभा होने के पश्चात हीनयान सम्प्रदाय वालों को जब यह प्रतीत हो गया कि ह्वेनसांग ने उनके मत का खण्डन कर दिया है तो वे रोष से भरकर उसकी हत्या करने का षड्यन्त्र करने लगे। यह बात जब हर्ष को विदित हुई तो उसने एक घोषणा-पत्र प्रेषित किया, जिसमें कहा गया :
‘चीन के धर्माचार्य, जिनका अध्यात्म-ज्ञान विशाल है, जिनकी प्रवचन-शक्ति गुरु-गम्भीर है, जो लोगों को सही बात बताने और महान् धर्म के सत्य रूप का दर्शन कराने व मूर्खों तथा राहभूलों का उद्धार करने यहाँ आए हुए हैं, किन्तु वंचना और असत्य का अनुगमन करने वाले, झूठ का परित्याग करने के स्थान तथा प्रायश्चित करने के स्थान उनके विरुद्ध घातक षड्यन्त्र रचने का विचार कर रहे हैं—अतः यदि कोई धर्माचार्य को क्षति पहुँचायेगा, या छूएगा तो उसका तत्काल सिर उड़ा दिया जायेगा। साथ ही जो कोई उनके विरुद्ध बोलेगा, उसकी जीभ काट ली जाएगी।’’
‘‘इस घोषणा के परिणामस्वरूप असत्यवादियों का बल खिसक गया। सभा के अठारह दिन व्यतीत हो गये परन्तु किसी ने वाद-विवाद में भाग नहीं लिया।
‘‘इसके पश्चात् राजाज्ञा से ह्वेनसांग का बहुत ही मान किया गया। हर्ष शीलादित्य ने ह्वेनसांग को 10,000 स्वर्ण मुद्राएँ, 30,000 रजत मुद्राएँ तथा 100 बहुमूल्य सूती वस्त्र उपहार में दिए....अन्त में हर्ष ने धर्मविजेता ह्वेनसांग की एक विशाल हाथी पर नगर में सवारी निकलवाई और सर्वत्र यह घोषणा की गई कि चीनी धर्माचार्य ने धर्म की विजय स्थापित कर असत्यपूर्ण विरोधी सिद्धान्तों का खण्डन किया...ह्वेनसांग को ‘महायान देव’ की उपाधि से अलंकृत किया गया...।’’
इस विवरण से निम्न परिणामों पर पहुँचा जा सकता है :
1. यह सभा सर्व-धर्म सम्मेलन नहीं थी।
2. इसमें केवल महायान और हीनयान पर विवेचना होती रही।
3. अबौद्धों को मंडप में प्रवेश नहीं दिया गया।
4. हीनयान के विरुद्ध हर्ष ने जली-कटी सुनाईं।
5. बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर की उपस्थिति में ह्वेनसांग की प्रशंसा की गई और उसका ही सबसे अधिक सम्मान किया गया।
6. यह धर्मचर्चा उस प्रकार की नहीं थी, जैसी शंकराचार्य और मंडन मिश्र के भीतर हुई थी। यह तो राजशक्ति से एक पक्ष का पृष्ठपोषण ही था।
7. जब हीनयान वालों ने देखा कि ह्वेनसांग को बलपूर्वक विजयी बनाया जा रहा है, तो उन्होंने ही कदाचित् राजा पर आक्रमण का षड्यन्त्र किया होगा।
8. जब हत्यारे से पूछा गया कि उसके सम्राट् पर आक्रमण क्यों किया तो उसने विधर्मियों का नाम ले दिया।
9. हत्यारे को जो दण्ड दिया गया, उसका कहीं वर्णन नहीं, परन्तु यह वर्णन है कि पाँच सौ ब्राह्मण पकड़ लिए गए और मुख्य नेताओं को प्राणदण्ड देकर शेष को देश-निर्वासन की आज्ञा दे दी गई।
10. इस घटना के लेखक वही व्यक्ति है, जो स्वयं वैमनस्य का कारण था। पूर्ण सभा का संचालन उसने किया था। पूर्ण उत्सव में झगड़ा तथा वाद-विवाद, हीनयान और महायान वालों में होता रहा और अन्त में केवल मात्र हत्यारे के कहने पर ब्राह्मणों को दोषी मान उनको दण्ड दिया गया।
लेखक का मत है कि जैसे पूर्ण सभा की कार्यवाही पक्षपातपूर्ण थी, वैसे ही सम्राट की हत्या के षड्यन्त्र की बात और ब्राह्मणों पर दोषारोपण की बातें भी पक्षपातपूर्ण ही होंगी।
ब्राह्मणों द्वारा सम्राट् की हत्या में उतना कारण नहीं हो सकता था, जितना हीनयान वालों द्वारा होने में।
हीनयान वालों ने पहले ह्वेनसांग की हत्या का षड्यन्त्र किया और कदाचित् बाद में सम्राट की हत्या का षडयन्त्र भी उन्होंने किया होगा।
सम्भव यह है कि हत्यारे ने अपनी जान छुड़ाने के लिए उसका नाम ले लिया हो, जिन पर संदेह करना सुगम और भयरहित हो। किसी बौद्ध पर दोषारोपण करना सुगम नहीं होगा।
हर्ष के जीवन और उसके काल की अधिकांश घटनाएँ और विशेष रूप से इस सर्वधर्म सम्मेलन का विवरण ह्वेनसांग का लिखा हुआ है। यह सिद्ध किया जा चुका है कि ह्वेनसांग बहुत कुछ भ्रममूलक बातें लिख गया है। इस सभा में तो वह एक पक्ष का पोषक था। वह बौद्ध सम्प्रदाय का समर्थक था। इस कारण, संभव है, कि हत्यारे के कथन पर विश्वास करने से बौद्धों का मान बचाने के लिए ब्राह्मणों को दण्ड देना उचित मान लिया गया हो।
कुछ भी हो, इस घटना का, विशेष रूप से ब्राह्मणों को दण्ड देने का एक भयंकर परिणाम हुआ। देश में ब्राह्मण धर्मानुयायी और बौद्ध धर्मानुयायी परस्पर एक-दूसरे के घोर शत्रु हो गए।
देश में साम्प्रदायिक बातों की ओर प्रजा का ध्यान बँट जाने के कारण राजनीतिक स्थिति अत्यन्त दुर्बल पड़ गयी और तब वह आश्चर्यजनक घटना घटी, जिसकी तुलना इतिहास में कहीं नहीं मिलती।
अशोक के राज्य के पचास-साठ वर्ष पश्चात् ही देश की व्यवस्था इतनी दुर्बल हो गई थी कि शक, पार्थियन इत्यादि विदेशियों ने देश में घुसकर अधिकार कर लिया था। इसी प्रकार हर्षवर्धन के राज्य के कुछ ही काल पश्चात् मुसलमानों के सफल आक्रमण आरम्भ हो गए। आश्चर्यजनक बात यह हुई कि एक विदेशी आक्रमणकारी, ग़ज़नी से चलकर सोमनाथ के मन्दिर तक पहँचा और वहाँ से सहस्त्रों नर-नारियों को पकड़कर उन्हें दास बना, सही-सलामत ग़ज़नी लौट गया। पूर्ण देश के लोग मुख देखते रह गए। यह आक्रमणकारी बार-बार आया और भारत की धन-दौलत लूटकर ले गया, परन्तु जनता के कान पर जूँ तक न रेंगी। यह चमत्कार उस फूट, राजनीतिक शैथिल्य और आलस्य-प्रमाद के कारण ही सम्भव हो सका, जो बौद्धों और वैष्णवों के कारण देश में चल रहा था और जिसका बीजारोपण अशोक के काल में हुआ था तथा जिसकी सिंचाई हर्षवर्धन शीलादित्य के काल में हुई थी।
जब-जब देश में बौद्ध विचारधारा का प्राबल्य हुआ, देश राजनीतिक विचार से दुर्बल हुआ। सामाजिक शान्ति और भ्रममूलक सुरक्षा के मोह में जनता में संसार की दुष्ट प्रवृत्तियों के विरोध की क्षमता कम हुई।
इसका एक प्रमाण तो भारत के मुसलमानों के राज्य के समय मिला। मुसलमानों के राज्य में बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन कराने के उदाहरण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। इनमें जहाँ सहस्रों ब्राह्मण धर्मावलम्बी खड्ग की धार के नीचे भी धर्म छोड़ने को उद्यत नहीं हुए, वहाँ एक भी बौद्ध धर्मावलम्बी का ऐसा उदाहरण नहीं मिलता, जिसने मरना स्वीकार किया हो परन्तु धर्म-त्याग करना स्वीकार न किया हो।
इसलाम का विरोध कैसे हुआ, किन विचारों के व्यक्तियों ने किन साधनों से किया, यह इस पुस्तक का विषय नहीं है। भारत के इतिहास के पृष्ठों पर सन् 900 से 1800 ई. तक की घटनाएँ लिखी गई हैं। उन पर विचार करने के लिए किसी अन्य पुस्तक का आश्रय लिया जाएगा।
इस पुस्तक का विषय तो उस काल पर प्रकाश डालना है, जिसने भारत को मुसलमानों के सफल आक्रमण के लिए तैयार किया। इसमें उन कारणों पर विवेचना करने का यत्न किया गया है, जिससे वह भारत, जिसने सिकन्दर के आक्रमण का विरोध किया था, ग़ज़नी और गोरी का विरोध करने में असमर्थ हो गया।
सिकंदर का विरोध पांचाल देश की जनता ने किया था। इस विरोध ने मगध आदि किसी बड़े राज्य का हाथ नहीं था। यह तो सर्वविदित ही है कि सिकन्दर की सेना सतलुज तक पहुँचते-पहुँचते थक गई थी; परन्तु महमूद ग़ज़नी के विरोध में जनता का कोई भी हाथ नहीं था। जनता में यह क्लीवता कैसे आ गई, इसी प्रश्न की विवेचना इस पुस्तक का विषय है।
पुस्तक उपन्यास मात्र है। पात्र काल्पनिक हैं। फिर भी ऐतिहासिक पुरुषों का विवरण, जो इस पुस्तक में आया है, इतिहास में लिखे अनुसार ही अंकित करने का यत्न किया गया है।
पुस्तक एक ऐसे विषय पर है, जिस पर पाठकों में मतभेद हो सकता है। लेखक का अपना एक मत है और वह मत किन आधारों पर बना है, इसका उल्लेख यहाँ कर दिया गया है। शेष तो पाठकों के विचार करने की बात है।
-गुरुदत्त
प्रथम परिच्छेद
1
राजभवन के एक विशाल आगार के मध्य में, कन्नौजाधिपति महाराज
ग्रहवर्मन मौखरी एक आसन पर बैठ थे। उनके साथ ही महारानी राज्यश्री गम्भीर
भाव में बैठी ध्यानपूर्वक बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर का उपदेश सुन रही थीं।
बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर महाराज तथा महारानी के सामने एक उच्च आसन पर
विराजमान थे ।
सप्ताह में एक बार महाप्रभु अवलोकितेश्वर राजप्रासाद में ज्ञानोपदेश के लिये आया करते थे। आज भी इसी निमित्त आए हुए थे और महाराज तथा महारानी दोनों आदरयुक्त मुद्रा में उनके सामने बैठे हुए थे।
ज्ञानोपदेश तो समाप्त हो चुका था। इसके पश्चात राज्यकार्य के विषय में वार्तालाप होने लगा था। महाराज ग्रहवर्मन ने राज्य की नवीनतम समस्या का उल्लेख किया था। महाराज ने कहा था, ‘‘मालवाधिराज देवगुप्त ने अपनी सेना में वृद्धि करनी आरम्भ कर दी है। हमने उनके राज्य में अपने गुप्तचर भेजे थे। उनकी सूचना है कि पिछले तीन वर्षों में सेना तीन गुनी हो गई है। अश्व, रथ, हाथी और पैदल सेना इतनी अधिक हो गयी है कि उनको रखने के लिए शिविर कम पड़ने लगे हैं। नगर में, कस्बों में और देहातों में सैनिक-ही-सैनिक दिखाई पड़ते हैं। अस्त्र-शस्त्र भी दिन-रात बनाए जा रहे हैं। इस तैयारी का कारण अभी तक पता नहीं चला। इतना तो विदित हो ही चुका है कि मालव राज्य का मन्त्री समुद्रगुप्त गौड़राज्याधिपति शशांक के पास भेजा गया है।’’
बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर ने इसके उत्तर में कहा, ‘‘ग्रहवर्मन ! तुमने किसी के साथ किसी प्रकार की शत्रुता नहीं की। तुम्हारे मन में किसी को हानि पहुँचाने का विचार-मात्र भी नहीं है। तब कोई तुमसे शत्रुता क्यों करेगा ? यदि किसी ने तुम्हारे राज्य पर आक्रमण किया भी तो अपनी करनी का फल वह स्वयं भोगेगा।’’
‘‘परन्तु भगवन् ! यदि आक्रमण हुआ तो प्रजा दुःखी होगी।’’
‘‘संसार के सुख-दुःख का उत्तरदायित्व तुम पर उसी सीमा तक है, जिस सीमा तक तुम्हारी ओर से धर्मोल्लंघन होता है। धर्म की सीमाओं से बाहर जाकर तुम अपना उत्तरदायित्व निभाओगे तो अपने साथ अन्याय करोगे। तुमने घोर तपस्या से जो निर्वाण-मार्ग पार किया है, वह सब व्यर्थ जाएगा।’’
‘‘तो आप मुझको क्या सम्मति देते हैं ?’’
‘‘अपने मन से भय निकाल दो। यह सांसारिक वैभव मिथ्या है। यदि यह न भी रहा तो भी तुम्हें कुछ हानि न होगी। शान्त-चित्त होकर भगवान् तथागत के पथ के अनुगामी बने रहो। शेष प्रकृति पर छोड़ दो। मन का मन साक्षी है। कोई कारण नहीं कि तुम जैसे सरलचित्त व्यक्ति पर किसी प्रकार का कष्ट आए। तुम्हारी सत्यप्रियता तथा धर्मपरायणता देखकर तो पत्थर भी पिघल जाएँगे। आक्रमण करने वाले तुम्हारा अहिंसा-व्रत देखकर तुम्हारे चरण छुएँगे।’’
सप्ताह में एक बार महाप्रभु अवलोकितेश्वर राजप्रासाद में ज्ञानोपदेश के लिये आया करते थे। आज भी इसी निमित्त आए हुए थे और महाराज तथा महारानी दोनों आदरयुक्त मुद्रा में उनके सामने बैठे हुए थे।
ज्ञानोपदेश तो समाप्त हो चुका था। इसके पश्चात राज्यकार्य के विषय में वार्तालाप होने लगा था। महाराज ग्रहवर्मन ने राज्य की नवीनतम समस्या का उल्लेख किया था। महाराज ने कहा था, ‘‘मालवाधिराज देवगुप्त ने अपनी सेना में वृद्धि करनी आरम्भ कर दी है। हमने उनके राज्य में अपने गुप्तचर भेजे थे। उनकी सूचना है कि पिछले तीन वर्षों में सेना तीन गुनी हो गई है। अश्व, रथ, हाथी और पैदल सेना इतनी अधिक हो गयी है कि उनको रखने के लिए शिविर कम पड़ने लगे हैं। नगर में, कस्बों में और देहातों में सैनिक-ही-सैनिक दिखाई पड़ते हैं। अस्त्र-शस्त्र भी दिन-रात बनाए जा रहे हैं। इस तैयारी का कारण अभी तक पता नहीं चला। इतना तो विदित हो ही चुका है कि मालव राज्य का मन्त्री समुद्रगुप्त गौड़राज्याधिपति शशांक के पास भेजा गया है।’’
बोधिसत्त्व अवलोकितेश्वर ने इसके उत्तर में कहा, ‘‘ग्रहवर्मन ! तुमने किसी के साथ किसी प्रकार की शत्रुता नहीं की। तुम्हारे मन में किसी को हानि पहुँचाने का विचार-मात्र भी नहीं है। तब कोई तुमसे शत्रुता क्यों करेगा ? यदि किसी ने तुम्हारे राज्य पर आक्रमण किया भी तो अपनी करनी का फल वह स्वयं भोगेगा।’’
‘‘परन्तु भगवन् ! यदि आक्रमण हुआ तो प्रजा दुःखी होगी।’’
‘‘संसार के सुख-दुःख का उत्तरदायित्व तुम पर उसी सीमा तक है, जिस सीमा तक तुम्हारी ओर से धर्मोल्लंघन होता है। धर्म की सीमाओं से बाहर जाकर तुम अपना उत्तरदायित्व निभाओगे तो अपने साथ अन्याय करोगे। तुमने घोर तपस्या से जो निर्वाण-मार्ग पार किया है, वह सब व्यर्थ जाएगा।’’
‘‘तो आप मुझको क्या सम्मति देते हैं ?’’
‘‘अपने मन से भय निकाल दो। यह सांसारिक वैभव मिथ्या है। यदि यह न भी रहा तो भी तुम्हें कुछ हानि न होगी। शान्त-चित्त होकर भगवान् तथागत के पथ के अनुगामी बने रहो। शेष प्रकृति पर छोड़ दो। मन का मन साक्षी है। कोई कारण नहीं कि तुम जैसे सरलचित्त व्यक्ति पर किसी प्रकार का कष्ट आए। तुम्हारी सत्यप्रियता तथा धर्मपरायणता देखकर तो पत्थर भी पिघल जाएँगे। आक्रमण करने वाले तुम्हारा अहिंसा-व्रत देखकर तुम्हारे चरण छुएँगे।’’
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