राजनैतिक >> पथिक पथिकगुरुदत्त
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राजनीति पर आधारित उपन्यास..
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
युवावस्था से ही राजनीतिज्ञों से सम्पर्क, क्रान्तिकारियों से समीप का
सम्बन्ध तथा इतिहास का गहन अध्ययन-इन सब की पृष्ठभूमि पर श्री गुरुदत्त ने
कुछ उपन्यास लिखे हैं।
‘स्वाधीनता के पथ पर’ ‘पथिक’ तथा ‘स्वराज्यदान’ राजनीतिक उपन्यासों की श्रृंखला में प्रथम तीन कढ़ियां हैं जिन्होंने उपन्यास जगत् में धूम मचा दी थी। श्री गुरुदत्त चोटी के उपन्यासकार माने जाने लगे।
इन उपन्यासों की श्रृंखला में ही ‘विश्वासघात, ‘देश की हत्या’, ‘दासता के नये रूप’ तथा ‘सदा वत्सले मातृभूमे !’ लिखकर श्री गुरुदत्त ने 1920 से स्वाधीनता आन्दोलन का विवरण उपन्यासों के रूप में अत्यन्त ही रोचक शैली में लिपि-बद्ध कर दिया है
श्री गुरुदत्त का प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ 1942 में प्रकाशित हुआ और इस प्रथम उपन्यास ने ही श्री गुरुदत्त को चोटी के उन्पायसकारों में ला बैठाया। कथावस्तु की दृष्टि से तथा रोचकता की दृष्टि से भी यह उपन्यास अन्यतम है।
श्री गुरुदत्त की ख्याति बढ़ती गई और एक सर्वेक्षण के अनुसार 1960 & 1970 के दशक के वह सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासकार थे।
‘स्वाधीनता के पथ पर’ का नायक मधुसूदन, गांधीवाद, सत्याग्रह, साम्यवाद, आतंकवाद आदि की प्रचंड लहरों के आलोड़न-विलोड़न को देखता और स्वयं भी उनमें पड़कर संघर्ष के थपेड़ों द्वारा पूर्णिमा की मृत्युरूपी कठोर चट्टान पर गिरकर विक्षिप्त हो गया था। वही लेखक के इस दूसरे उपन्यास में ‘पथिक’ के नाम से फिर कार्यक्षेत्र में पर्दापण करता है। आजादी मिली नहीं इसलिए फिर संघर्ष आवश्यक है।
यह पुस्तक हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर स्पष्टत: और स्वतन्त्रता से इस रूप में लिखा गया प्रथम उपन्यास है।
‘स्वाधीनता के पथ पर’ ‘पथिक’ तथा ‘स्वराज्यदान’ राजनीतिक उपन्यासों की श्रृंखला में प्रथम तीन कढ़ियां हैं जिन्होंने उपन्यास जगत् में धूम मचा दी थी। श्री गुरुदत्त चोटी के उपन्यासकार माने जाने लगे।
इन उपन्यासों की श्रृंखला में ही ‘विश्वासघात, ‘देश की हत्या’, ‘दासता के नये रूप’ तथा ‘सदा वत्सले मातृभूमे !’ लिखकर श्री गुरुदत्त ने 1920 से स्वाधीनता आन्दोलन का विवरण उपन्यासों के रूप में अत्यन्त ही रोचक शैली में लिपि-बद्ध कर दिया है
श्री गुरुदत्त का प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ 1942 में प्रकाशित हुआ और इस प्रथम उपन्यास ने ही श्री गुरुदत्त को चोटी के उन्पायसकारों में ला बैठाया। कथावस्तु की दृष्टि से तथा रोचकता की दृष्टि से भी यह उपन्यास अन्यतम है।
श्री गुरुदत्त की ख्याति बढ़ती गई और एक सर्वेक्षण के अनुसार 1960 & 1970 के दशक के वह सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासकार थे।
‘स्वाधीनता के पथ पर’ का नायक मधुसूदन, गांधीवाद, सत्याग्रह, साम्यवाद, आतंकवाद आदि की प्रचंड लहरों के आलोड़न-विलोड़न को देखता और स्वयं भी उनमें पड़कर संघर्ष के थपेड़ों द्वारा पूर्णिमा की मृत्युरूपी कठोर चट्टान पर गिरकर विक्षिप्त हो गया था। वही लेखक के इस दूसरे उपन्यास में ‘पथिक’ के नाम से फिर कार्यक्षेत्र में पर्दापण करता है। आजादी मिली नहीं इसलिए फिर संघर्ष आवश्यक है।
यह पुस्तक हिन्दू-मुस्लिम समस्या पर स्पष्टत: और स्वतन्त्रता से इस रूप में लिखा गया प्रथम उपन्यास है।
पथिक
श्रापित मंदिर
हिमालय की तराई में, ठीक जहाँ से पर्वत-श्रृंखला आरम्भ होती है, एक
छोटा-सा गाँव है। गाँव का नाम देवा है। यह गाँव स्वच्छ, निर्मल जल वाली
नदी के किनारे बसा है। नदी को वहां के लोग पद्मा के नाम से जानते हैं। नदी
के किनारे पर एक आम की बगिया है और बगिया में एक मकान है जो बाहर से देखने
पर मन्दिर प्रतीत होता है। परन्तु इसमें किसी देवता की मूर्ति स्थापित
नहीं की गई है।
इस बगिया अथवा मकान में कोई नहीं रहता। न ही इसमें कोई जाता है। गांव के लोगों की धारणा है कि इसमें भूत रहते हैं। बगिया और वह मकान दोनों ही श्रापित हैं।
इस बगिया और मन्दिर को देवा-गाँव और इस इलाके के ज़मींदार के एक पुरखा ने बनवाया था। उसका नाम लेते हुए भी लोगों का हृदय काँपता है। कारण यह है कि वह अति निर्दयी, दुराचारी, कामी, क्रोधी तथा आततायी था। एक ब्राह्मण की कन्या से दुराचार करने पर, ब्राह्मण ने पद्मा नदी में डूबकर आत्मघात करते समय उसे श्राप दिया था, ‘दुष्ट, तेरे नाम लेने वाले का भी सत्यानाश होगा। ब्राह्मण तो डूबकर मर गया, परन्तु उसका श्राप अभी तक जीवित है।
ज़मींदार को जब श्राप का पता चला तो उसने प्रायश्चित किया, व्रत रखा, यज्ञ करवाया, बाग लगवाया और भगवती का मन्दिर बनवाया। व्रत अधूरा रह गया ज़मींदार ज्वर-ग्रस्त हो गया, यज्ञ पूरा नहीं हो सका और पुरोहित को अर्धांग वात हो गई। मन्दिर बन तो गया, परन्तु देवी की मूर्ति की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी क्योंकि उसके पूर्व ही ज़मींदार का देहान्त हो गया।
कथा यहीं समाप्त नहीं हो गई। ज़मींदार का इकलौता पुत्र भी पिता के देहांत के कुछ ही काल बाद इस संसार से चल बसा। इस प्रकार उनकी जमींदारी किसी दूर के सम्बन्धी को मिली।
नये ज़मींदार ने जब श्राप की कथा सुनी तो उसने अपने घर में और गाँव में मृत ज़मींदार का नाम लेने और मन्दिर तथा बगिया में जाने की मनाही कर दी।
इस दु:खद घटना को हुए एक सौ वर्ष से ऊपर व्यतीत हो चुके थे, परन्तु ज़मींदार के परिवार और देवा ग्राम के लोग उस आततायी का नाम लेने से अभी तक डरते थे। मन्दिर और बगिया को तो लोगों ने ऐसा छोड़ा कि वह भूतों का निवासस्थान ही माना जाने लगा। उन सबको श्रापित विशेषण देकर स्मरण किया जाता था-श्रापित ज़मींदार, श्रापित बगिया तथा श्रापित मन्दिर।
लोगों में किंवदन्ती थी कि उस कन्या के पिता की आत्मा भूत बन उस मन्दिर में रहती हैं ग्राम के नर-नारी नित्य पद्मा पर स्नान करने और जल भरने जाते थे। नदी के किनारे पक्का घाट बना है और श्रापित मन्दिर तथा बगिया इस घाट के समीप ही पीछे की ओर हैं। घाट से नदी पूर्व की ओर है और बगिया तथा मन्दिर पश्चिम की ओर। स्नान करने वाले तथा पानी भरने वाले जब वहाँ जाते तो मन्दिर तथा बगिया की ओर आँख उठाकर भी न देखते।
कार्तिक मास के अन्तिम दिन थे। एक दिन प्रात:काल एक स्त्री अपनी छः-सात वर्ष की लड़की के साथ स्नान करने तथा पानी भरने घाट पर आई थी। जाड़े का आरम्भ था। इतने सवेरे स्नान के लिए घाट पर अभी और कोई नहीं पहुँचा था स्त्री धार्मिक विचारों में रत प्रतीत होती थी। स्नान करते-करते विष्णु-सहस्र-नाम का पाठ करती जाती थी। लड़की भी तोतली भाषा में ‘हरे राम ! हरे कृष्ण ! की रट लगा रही थी।
स्नान कर, कपड़े पहन, मां-बेटी गगरी भरने लगीं थीं कि तभी पीछे से अति मधुर स्वर में किसी के गाने का शब्द सुनाई दिया, कोई गा रहा था:
इस बगिया अथवा मकान में कोई नहीं रहता। न ही इसमें कोई जाता है। गांव के लोगों की धारणा है कि इसमें भूत रहते हैं। बगिया और वह मकान दोनों ही श्रापित हैं।
इस बगिया और मन्दिर को देवा-गाँव और इस इलाके के ज़मींदार के एक पुरखा ने बनवाया था। उसका नाम लेते हुए भी लोगों का हृदय काँपता है। कारण यह है कि वह अति निर्दयी, दुराचारी, कामी, क्रोधी तथा आततायी था। एक ब्राह्मण की कन्या से दुराचार करने पर, ब्राह्मण ने पद्मा नदी में डूबकर आत्मघात करते समय उसे श्राप दिया था, ‘दुष्ट, तेरे नाम लेने वाले का भी सत्यानाश होगा। ब्राह्मण तो डूबकर मर गया, परन्तु उसका श्राप अभी तक जीवित है।
ज़मींदार को जब श्राप का पता चला तो उसने प्रायश्चित किया, व्रत रखा, यज्ञ करवाया, बाग लगवाया और भगवती का मन्दिर बनवाया। व्रत अधूरा रह गया ज़मींदार ज्वर-ग्रस्त हो गया, यज्ञ पूरा नहीं हो सका और पुरोहित को अर्धांग वात हो गई। मन्दिर बन तो गया, परन्तु देवी की मूर्ति की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी क्योंकि उसके पूर्व ही ज़मींदार का देहान्त हो गया।
कथा यहीं समाप्त नहीं हो गई। ज़मींदार का इकलौता पुत्र भी पिता के देहांत के कुछ ही काल बाद इस संसार से चल बसा। इस प्रकार उनकी जमींदारी किसी दूर के सम्बन्धी को मिली।
नये ज़मींदार ने जब श्राप की कथा सुनी तो उसने अपने घर में और गाँव में मृत ज़मींदार का नाम लेने और मन्दिर तथा बगिया में जाने की मनाही कर दी।
इस दु:खद घटना को हुए एक सौ वर्ष से ऊपर व्यतीत हो चुके थे, परन्तु ज़मींदार के परिवार और देवा ग्राम के लोग उस आततायी का नाम लेने से अभी तक डरते थे। मन्दिर और बगिया को तो लोगों ने ऐसा छोड़ा कि वह भूतों का निवासस्थान ही माना जाने लगा। उन सबको श्रापित विशेषण देकर स्मरण किया जाता था-श्रापित ज़मींदार, श्रापित बगिया तथा श्रापित मन्दिर।
लोगों में किंवदन्ती थी कि उस कन्या के पिता की आत्मा भूत बन उस मन्दिर में रहती हैं ग्राम के नर-नारी नित्य पद्मा पर स्नान करने और जल भरने जाते थे। नदी के किनारे पक्का घाट बना है और श्रापित मन्दिर तथा बगिया इस घाट के समीप ही पीछे की ओर हैं। घाट से नदी पूर्व की ओर है और बगिया तथा मन्दिर पश्चिम की ओर। स्नान करने वाले तथा पानी भरने वाले जब वहाँ जाते तो मन्दिर तथा बगिया की ओर आँख उठाकर भी न देखते।
कार्तिक मास के अन्तिम दिन थे। एक दिन प्रात:काल एक स्त्री अपनी छः-सात वर्ष की लड़की के साथ स्नान करने तथा पानी भरने घाट पर आई थी। जाड़े का आरम्भ था। इतने सवेरे स्नान के लिए घाट पर अभी और कोई नहीं पहुँचा था स्त्री धार्मिक विचारों में रत प्रतीत होती थी। स्नान करते-करते विष्णु-सहस्र-नाम का पाठ करती जाती थी। लड़की भी तोतली भाषा में ‘हरे राम ! हरे कृष्ण ! की रट लगा रही थी।
स्नान कर, कपड़े पहन, मां-बेटी गगरी भरने लगीं थीं कि तभी पीछे से अति मधुर स्वर में किसी के गाने का शब्द सुनाई दिया, कोई गा रहा था:
बन्दों श्री हरि पद सुखदाई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे,
अंधरे को सब कछु दरसाई...
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे,
अंधरे को सब कछु दरसाई...
लड़की ने पहले सिर उठाकर गाने वाले की ओर देखना चाहा। वह घाट पर जल के
समीप खड़ी थी। किनारा ऊँचा था, इसी कारण वह गाने वाले को नहीं देख सकी। वह
अपनी छोटी-सी गगरी को, जो उसने जल से भरकर सीढ़ी पर रखी थी, वहीं छोड़,
भागकर घाट की सीढ़ियों पर चढ़ गई और बगिया की ओर देखने लगी।
बगिया में मन्दिर के बाहर, चबूतरे की सीढ़ियों पर एक सिर-नंगा, बड़ी-बड़ी दाढ़ी मूँछों वाला आदमी बैठा गा रहा था। लड़की ने अपनी मां और अन्य गाँव वालों से सुना हुआ था कि इस मकान में भूत रहते हैं। अस्तु, इस गाने वाले को उसने भूत समझ लिया और चिल्लाकर माँ से कहने लगी, माँ, भूत ! और उंगली से श्रापित बगिया की ओर संकेत करने लगी।
माँ भी दौड़ती हुई घाट के ऊपर चढ़ आई और गाने वाले की ओर देखने लगी। न जाने गाने वाले ने उनको देख लिया था अथवा वैसे ही, वह मन्दिर की सीढ़ियों से उठा। उठने पर तो उसकी आकृति और भी भयानक प्रतीत होने लगी। वह धीरे-धीरे घाट की ओर आने लगा।
दोनों माँ-बेटी अपने-आप को अकेला जान भय से काँपने लगीं और फिर बिना अपने गीले कपड़ों और गगरियाँ उठाये गाँव की ओर ‘भूत’ ! भूत !’ चिल्लाती हुई भाग खड़ी हुईं। भागते हुए उनको किसी की विकराल हँसी पीछा करती हुई सुनाई दी।
गाँव, नदीं के किनारे से कुछ हटकर, बगिया से दक्षिण की ओर था। आगे-आगे माँ और पीछे-पीछे लड़की को चिल्लाते और भागते हुए देख गाँव में सब लोग घरों से बाहर निकल आये और अचम्भे से उन्हें देखने लगे। माँ-बेटी अपने घर में घुसने वाली थीं कि तभी पड़ोस की कुछ स्त्रियों ने उन्हें रोक लिया। ‘‘अरी, बताती क्यों नहीं ? क्या हुआ है ? भागती हुई क्यों चली आ रही हो ?’’
लड़की का नाम नलिनी था। पकड़े जाने पर वह खड़ी हो गई और हाँफती हुई, आवाक् दूसरों की ओर देखती रही। तब तक गाँव के और लोग भी वहाँ पर एकत्रित हो गये। आखिर नलिनी की माँ को बताना ही पड़ा। वह बोली, ‘‘हमने श्रापित मन्दिर में भूत देखा है।’’
‘‘तुम वहाँ गयी ही क्यों थीं ?’’ एक ने पूछा।
‘‘गयी नहीं थी। घाट पर स्नान कर धोती छाँट रही थी कि बिटिया ने मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठे उसे देखा और फिर मुझे दिखाया। जब हमने उसे अपनी ओर आते देखा तो हम भाग खड़ी हुईं। हाय रे ! बाप रे !! हमारे कपड़े गगरियाँ सब वहीं पर हैं।
बगिया में मन्दिर के बाहर, चबूतरे की सीढ़ियों पर एक सिर-नंगा, बड़ी-बड़ी दाढ़ी मूँछों वाला आदमी बैठा गा रहा था। लड़की ने अपनी मां और अन्य गाँव वालों से सुना हुआ था कि इस मकान में भूत रहते हैं। अस्तु, इस गाने वाले को उसने भूत समझ लिया और चिल्लाकर माँ से कहने लगी, माँ, भूत ! और उंगली से श्रापित बगिया की ओर संकेत करने लगी।
माँ भी दौड़ती हुई घाट के ऊपर चढ़ आई और गाने वाले की ओर देखने लगी। न जाने गाने वाले ने उनको देख लिया था अथवा वैसे ही, वह मन्दिर की सीढ़ियों से उठा। उठने पर तो उसकी आकृति और भी भयानक प्रतीत होने लगी। वह धीरे-धीरे घाट की ओर आने लगा।
दोनों माँ-बेटी अपने-आप को अकेला जान भय से काँपने लगीं और फिर बिना अपने गीले कपड़ों और गगरियाँ उठाये गाँव की ओर ‘भूत’ ! भूत !’ चिल्लाती हुई भाग खड़ी हुईं। भागते हुए उनको किसी की विकराल हँसी पीछा करती हुई सुनाई दी।
गाँव, नदीं के किनारे से कुछ हटकर, बगिया से दक्षिण की ओर था। आगे-आगे माँ और पीछे-पीछे लड़की को चिल्लाते और भागते हुए देख गाँव में सब लोग घरों से बाहर निकल आये और अचम्भे से उन्हें देखने लगे। माँ-बेटी अपने घर में घुसने वाली थीं कि तभी पड़ोस की कुछ स्त्रियों ने उन्हें रोक लिया। ‘‘अरी, बताती क्यों नहीं ? क्या हुआ है ? भागती हुई क्यों चली आ रही हो ?’’
लड़की का नाम नलिनी था। पकड़े जाने पर वह खड़ी हो गई और हाँफती हुई, आवाक् दूसरों की ओर देखती रही। तब तक गाँव के और लोग भी वहाँ पर एकत्रित हो गये। आखिर नलिनी की माँ को बताना ही पड़ा। वह बोली, ‘‘हमने श्रापित मन्दिर में भूत देखा है।’’
‘‘तुम वहाँ गयी ही क्यों थीं ?’’ एक ने पूछा।
‘‘गयी नहीं थी। घाट पर स्नान कर धोती छाँट रही थी कि बिटिया ने मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठे उसे देखा और फिर मुझे दिखाया। जब हमने उसे अपनी ओर आते देखा तो हम भाग खड़ी हुईं। हाय रे ! बाप रे !! हमारे कपड़े गगरियाँ सब वहीं पर हैं।
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इस घटना के बाद उस दिन घाट पर स्नान के लिए कोई नहीं गया। गाँव-भर में
हलचल मच गई। गाँव की पंचायत बुलाई गई और भूत से बचने के उपायों पर विचार
होने लगा। कुछ लोगों ने, गाँव के दक्षिण में, पद्मा पर नया घाट बनवाने का
प्रस्ताव किया। गाँव की ज़मींदार जो लखनऊ ताल्लुकेदार स्कूल से पढ़कर आया
था। वह भूत की कथा पर और गाँव वालों की मूर्खता पर हँसते हुए बोला,
‘‘देखो, भूत-वूत कुछ नहीं होते, यह सब तुम लोगों का
भ्रम
मात्र है। एक पगली स्त्री के कहने पर तुम सब लोग साहस छोड़ बैठे हो। और
फिर घाट एक दिन में तो बनेगा नहीं। तब तक स्नान करने और पानी भरने का क्या
प्रबन्ध होगा ?’’
एक गाँव वाला बोला, ‘‘महाराज ! (वहाँ ज़मींदार को राजा और महाराजा कहकर पुकारा जाता था) यदि आपको खर्चा करने में संकोच हो तो चंदा कर लिया जाये।’’
ज़मींदार बाईस-तेईस वर्ष का युवक। वह इस लाञ्छन से भड़क उठा।
बोला, ‘‘रुपया खर्च करने में संकोच नहीं है, परन्तु केवल एक स्त्री की मूर्खता से हज़ारों रुपये का व्यय करना भी क्या अक्लमन्दी है !’’
‘‘तो क्या भूत नहीं होते ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्या श्रापित ज़मींदार श्राप से नहीं मरा ?’’
‘‘नहीं, वह अपनी मौत मरा है।’’
‘‘बाबू, आप भी उसी मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं।’‘’
खुशामद से अथवा अन्य किसी कारण से बहुत-से लोग ज़मींदार की बात काटने वाले को धिक्कारने लगे। उस आदमी ने फिर कहा, ‘‘यदि भूत नहीं होते तो, महाराज, हमारे आगे-आगे चलकर बगिया और मन्दिर की तलासी करके देखें कि वह कौन है जो वहाँ गा रहा था। मैंने अपने कानों से वहाँ किसी को गाते सुना है।’’
इस पर युवक ज़मीदार ने वहाँ जाना स्वीकार कर लिया। वह और गाँव के कुछ अन्य युवक, लाठियाँ ले, जाने को तैयार हो गये। यद्यपि सब अपने-अपने मन में डरते थे, परन्तु एक-दूसरे के सम्मुख भय प्रकट करने में लज्जा मान, घाट पर चलने को तैयार हो गये। कुछ लोग तो तमाशा देखने के लिए ही चल पड़े थे।
पुरुषों को भय के स्थान पर जाते देख भला स्त्रियाँ कब पीछे रह सकती थीं। जब उनके प्रियजन, पति, पुत्र तथा भाई, अपनी जान हथेली पर रखकर सौ वर्ष के प्रचलित विश्वास की परीक्षा करने जा रहे थे तो वे घरों में बैठी नहीं रह सकती थीं। बिना किसी परामर्श के, बिना संगठन के, बिना किसी प्रकार की लज्जा-संकोच के गाँव की प्रायः सब प्रौढ़ स्त्रियाँ, पुरुषों के पीछे-पीछे घाट की ओर चल पड़ीं। लड़के-लड़कियों ने भी घर बैठे रहना उचित नहीं समझा। वे भी अपनी माताओं के पीछे-पीछे हो लिये।
जब लाठियों से सुसज्जित पुरुषों की टोली के साथ ज़मींदार घाट पर पहुँचा तो उसने वहाँ एक अपरिचित आदमी को गहरी नींद में सोते देखा। उसे देख ज़मींदार ने कहा, ‘‘पूछो तो कहीं नलिनी की माँ इसे ही तो भूत नहीं कह रही थी। यह तो कोई भला मनुष्य प्रतीत होता है।
यह ठीक था कि उस सोये हुए मनुष्य के बाल बड़े-बड़े हो गये थे। उसकी दाढ़ी और मूछें बढ़ रही थीं। उसके कपड़े मैले और फटे हुए थे। जूता घिस गया था और जूते में सुराख हो गये थे। तो भी उसके मुख पर एक विशेष आभा थी। घाट पर नीम के पेड़ के पत्तों में से छनकर आने वाली सूर्य-किरणें उसके मस्तक की दिव्य-ज्योति को दैदीप्यमान कर रही थीं। जब गाँव के लोगों ने उसे देखा तो एक स्वर में कहने लगे, ‘‘यह तो बेचारा पथिक है।’’
ज़मीदार ने स्त्रियों के झुण्ड की ओर देखकर पुकारा, ‘‘नलिनी की माँ, देखो तो यही भूत है क्या ?’’
नलिनी की माँ ने आगे बढ़कर देखा और कहा, ‘‘हाँ, कुछ ऐसा ही प्रतीत होता था।’’
यह सुन सब खिलखिलाकर हँस पड़े। इस हँसी ने और लोगों के परस्पर के वर्तालाप ने सोये हुए पथिक को जगा दिया। वह उठ कर बैठ गया और आँखें मल-मलकर अपने चारों ओर स्त्री-पुरुषों की भीड़ देखने लगा। वह समझ नहीं सका कि ये सब लोग क्यों एकत्रित हुए हैं। उसके मुख से अचम्भा प्रकट हो रहा था। ज़मीदार कुछ आगे बढ़कर पूछने लगा, ‘‘तुम कौन हो ?’’
पथिक ने प्रश्न का उत्तर न देकर स्वयं पूछा, ‘‘तुम सब लोग मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो ?’’
ज़मींदार ने कहा, ‘‘तुम भूत जो हो।’’
पथिक ने और भी अचम्भा प्रकट करते हुए पूछा, ‘‘भूत’’ कौन कहता है ?’’
अब नलिनी की माँ ने अपने-आपको मुक्त करवाने के लिए कह दिया, ‘‘नलिनी कहती थी।’’
‘‘नलिनी ? कौन नलिनी ? कहाँ है वह ?’’
ज़मींदार ने फिर पूछा, ‘‘महाशय, तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो ?’’
इस बात ने पथिक को गम्भीर विचार में डाल दिया। वह प्रश्नकर्ता का मुख देखने लगा। उसका दाहिना हाथ आधा उठकर रह गया, मानों वह कुछ कहने लगा हो, परन्तु कोई बाधा आ पड़ने से रुक गया हो। फिर वह अपने हाथ से सिर खुजलाने लगा। बहुत यत्न के बाद वह बोला, ‘‘आपने पूछा है, मैं कौन हूँ ? मैं भी आपसे यही पूछ रहा हूँ, परन्तु कुछ उत्तर सूझ नहीं पड़ता।’’
‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं बहुत दूर से चला आ रहा हूँ, कुछ दूर तक तो दिखाई देता है। उससे पहले वह मेरी स्मृति में धुँधला-सा प्रतीत होता है, और फिर उससे पूर्व सर्वथा अन्धकार है। मेरी बुद्धि, स्मरण-शक्ति उस अन्धकार को भेदने में असफल है। मुझे कई वर्ष भ्रमण करते हो गये। मैं सैकड़ों स्थानों पर ठहरा हूँ। प्रत्येक स्थान के लोग मुझसे यही पूछते हैं और मैं भी हर बार अपने से पूछता हूँ, परन्तु मैं समझ नहीं पा रहा कि मैं कौन हूँ।
इतना कह कर पथिक नें अपने मस्तक को दोनों हाथों से पकड़ लिया। ज़मींदार और दूसरे लोग अचम्भें में उसकी ओर देख रहे थे। पथिक ने माथे को वैसे ही पकड़े हुए कहना जारी रखा, ‘‘मुझे कुछ याद नहीं आता। जब भी मैं सोचता हूँ, मेरे सिर में घोर वेदना होने लगती है। मैं पागल नहीं हूँ। मैं देख रहा हूँ कि आप लोग मुझे देख रहे हैं। यह नदी बह रही है और वे दूर पर्वत हैं। इस नीम के पेड़ से छन कर आने वाली किरणें बहती हुई नदी पर अठखेलियाँ कर रही है। स्वयं मुझे खुशी होती है, शोक होता है, डर लगता है। अभिप्राय यह है कि मेरी इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं। मैं गाता हूँ, मैं सोता हूँ, और प्रत्येक बात को अपनी इच्छा से करता हूँ। सुन्दर दृश्य मुझे आनन्द देते हैं। योग, ध्यान, साधना, उपासना, कर्म, ज्ञान) सब समझता हूँ। मैं पढ़ा-लिखा भी हूँ, परन्तु जब मैं अपने जीवन-पथ को देखना चाहता हूँ, तो विवश हो जाता हूँ और कुछ नहीं सूझ पड़ता। कुछ लोग मुझे पागल कहते हैं और दूसरे धूर्त। मुझे किसी से शिकायत नहीं। कारण कि मैं स्वयं नहीं जानता कि मैं क्या हूँ।’’
यह परिचय इतना लम्बा होने पर भी ज़मींदार की समझ में नहीं आया। वह अपने मन में यह निश्चय नहीं कर सका कि वह धूर्त है अथवा पागल। प्रश्न के पहले भाग के उत्तर से निराश हो उसने दूसरे भाग को फिर देहराया और पूछा, ‘‘यहाँ किस प्रायोजन से आये हो ?’’
‘‘मैं एक प्रायोजन से घूम रहा हूँ, वह है चित्त की शान्ति। दूर पहाड़ों में योगी, तपस्वी, साधु, महात्मा, अनेक से मिलता चला आता हूँ। जहाँ सुन्दर प्राकृतिक दृश्य देखता हूँ, वहाँ ठहर जाता हूँ। कल गौपुरी से चला था। सायंकाल यहाँ पहुँचा। पश्चिम से सूर्य की किरणें आकर इस नदी की उछलती-कूदती लहरों पर सुनहरी चादर डाल एक विशेष शोभा उत्पन्न कर रही थीं। नदी के पार वे पहाड़ और उनसे दूर और फिर हिम से ढकी हुई चोटियाँ, अस्त होते हुए सूर्य की किरणों से चुम्बन किये जाने पर, लज्जा से लाल हो रही थीं। यह सब मन को इतना आकर्षित कर रहा था कि मैंने यहाँ ठहरने का निश्चय कर लिया। मैं समझा कि वह कोई मन्दिर है, परन्तु पहुँचने पर वीरान पाया। रात चबूतरे पर लेट तो गया, पर सो नहीं सका। मच्छरों ने सोने नहीं दिया। अब घाट पर चलती वायु में नींद आ गई और सो गया था।’’
ज़मींदार ने पथिक से बहुत से प्रश्न पूछे। वह बुद्धिमान, धीर, गम्भीर और सभ्य था, उसके उत्तरों और बोलने के ढंग से प्रतीत होता था कि वह पढ़ा-लिखा, विद्वान और सुशील है। परन्तु जब भी उसके पूर्व निवासस्थान अथवा नाम इत्यादि के विषय में पूछा जाता, तो वह, जैसे किसी जंगल में खो गया हो, भौचक्का हो प्रश्नकर्ता का मुख देखने लगता था। अन्त में ज़मींदार ने कहा, ‘‘तुम बहुत धूर्त प्रतीत होते हो। भला यह कैसे हो सकता है कि अपना पूर्व परिचय देने के समय ही तुम्हारा दिमाग काम करना छोड़ देता है। और बाते तो तुम सब ठीक करते हो। केवल अपना नाम-धाम नहीं बताते, अवश्य ढोंगी हो।’’
पथिक यह लांछन सुनकर चुपचाप ज़मींदार का मुख देखता रहा। बहुत यत्न कर उसने यह कहा, ‘‘आपका ऐसा कहना स्वाभाविक है। मैं स्वयं परेशान हूँ। मैं नहीं जानता कि मुझे क्या हो गया है। केवल एक धुँधला-सा चित्र मेरे मन पर है। एक कोठी में एक घास के लॉन (मैदान) पर एक देवी मुझे चाय पीने को दे रही थी। यह कब था, कहाँ था और वह देवी कौन थी, मैं नहीं जानता। पश्चात्, कश्मीर में एक अति सुन्दर घाटी में एक देवी सेवा-सुश्रूवा करती थी। फिर एक समय कुल्लू में मैं भजन गाता था और लोगों की भीड़ मेरे आसपास एकत्रित हो जाती थी। इसके पश्चात् का चित्र, जो मेरे मन पर अंकित है, अधिक स्पष्ट है। कुल्लू में मुझे एक महात्मा मिले थे। वह मुझे अपने साथ कैलाश यात्रा को ले गये। उनकी संगति ने और उनकी औषधियों ने मेरे मन को कुछ अंशों में स्वस्थ कर दिया है। कैलाश से लौटकर मैं पंजाब की राजधानी लाहौर में पहुँचा। वहाँ सार्वजनिक सेवा में कुछ समय व्यतीत किया। वहाँ पर मुझे यह ज्ञान हुआ कि मेरी विचार शक्ति पूर्णरूप से मेरा साथ नहीं देती। मैं अनेकानेक विषयों पर विचार करता था, परन्तु सर्वसाधारण से भिन्न परिणाम पर पहुँचता था। इससे प्रायः सदैव लोगों से मेरा झगड़ा रहता था। मैं वहाँ से चला आया और नेपाल पहुँचा। वहाँ से मुझे आदेश हुआ कि मैं पुनः मैदानी इलाके में लौट जाऊँ। अतएव घूमता, फिरता, स्थान-स्थान पर चित्त की शांति का साधन ढूंढ़ता हुआ यहाँ पहुँच गया हूँ।’’
‘‘नेपाल से चले जाने का आदेश किसने दिया था ? नेपाल राज्य ने ?’’
‘‘नहीं, मेरी अन्तरात्मा ने; अथवा यों कहो कि सृष्टि के नियन्ता ने।’’
‘‘सृष्टि के नियन्ता ने ?’’
‘‘हाँ, भगवान् ने।’’
‘‘अब यहाँ कब तक रहोगे ?’’
‘‘नहीं बता सकता। यहाँ रहना अथवा यहाँ से चले जाना मेरे अपने अधीन नहीं है।’’
‘‘किसके अधीन है ?’’
‘‘मनुष्य के जीवन का संचालन करने वाली शक्तियाँ अनेक हैं। मान लो, यदि मुझे यहाँ से निकाल बाहर करने पर आप हठ करें तो मुझे आप लोगों से झगड़ा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।’’
इस स्पष्ट कथन ने ज़मींदार को विचार करने पर मजबूर कर दिया। वह सोचने लगा कि इस विचित्र व्यक्ति को गाँव में ठहरने दें अथवा न दे। इस विषय में अपने साथियों के विचार जानने के लिये उसने गाँव वालों की ओर देखा। गाँव वाले बहुत से लोग वापस चले गये थे। स्त्रियाँ जो प्रातःकाल से स्नान करने अथवा पानी भरने घाट पर नहीं आयी थीं। अपने-अपने घर से गगरी ले आयीं और जल भरने लगी थीं। ज़मींदार के पास कुछ लड़के-लड़कियाँ, जिनमें नलिनी भी थी, और एक-दो गाँव के लोग रह गये थे। इनमें एक वृद्ध व्यक्ति भी था। ज़मींदार ने उसे ही संबोधित कर पूछा, ‘‘काका, तुम ही बताओ, क्या किया जाये ?’’
वह वृद्ध पुरुष कुछ सोच कर बोला, ‘‘बेटा सुरेश, यह रहेगा कहाँ ?’’
ज़मींदार सुरेश ने कुछ व्यंग्य के भाव से और कुछ लोगों के मन में अंकित करने के लिये वह भूत-प्रेत को नहीं मानता, तुरन्त उत्तर दिया, इसी बगिया में रह जाये, अच्छा ही तो है।’’
वृद्ध ने दाहिने हाथ से सिर खुजलाते हुए कहा, ‘‘इस बगिया में ! भला यह कैसे हो सकता है ?’’
सुरेश ने अब कुछ जोश के साथ कहा, ‘‘हो क्यों नहीं सकता ? सुनो, मैं भूत-प्रेत अथवा श्राप, आशीर्वाद को नहीं मानता। इतनी बड़ी बगिया और सुन्दर मकान हम लोगों की मूर्खता से वीरान पड़ा है। यह पथिक यहाँ रह सकता है।’’
वृद्ध चुप रहा। अन्य कोई आपत्ति उठाने वाला था नहीं। सुरेश ने पथिक की ओर देखकर कहा, ‘‘हम लोगों को तुम्हारे रहने में आपत्ति नहीं। हाँ, यदि तुमने कुछ भी उपद्रव किया तो तुम्हारे लिये ठीक नहीं होगा।’’
इतना कह वे लोग वहाँ से चले गये। लड़के-लड़कियाँ भी वहाँ से खिसक रहे थे। नलिनी वहाँ से जाने वालों में सबसे अन्तिम थी। पथिक दोनों हाथों में सिर को रखे, आँखें नीची किये हुए गम्भीर विचार में मग्न था। नलिनी उसके मुख की ओर देख रही थी। एकाएक उसने कह दिया, ‘‘मैं तुम्हें पहचानती हूँ। तुम हो...।’’ जैसे एकाएक वह बोलने लगी थी, वैसे ही चुप रह गयी।
पथिक ने, एक भोली लड़की को यह कहते सुना कि वह उसे पहचानी है मुख ऊपर उठाकर उसकी ओर देखा। वह निरीह बालिका का भोलापन और अद्वितीय सौंदर्य देखकर चकित रह गया। उसने उत्सुक्ता से पूछा, ‘‘तुम मुझे पहचानती हो ? बताओ, मैं कौन हूँ ?’’
लड़की कुछ स्मरण करने का प्रयत्न कर रही थी। आँखे मूँदकर और दाहिने हाथ को कुछ उठाकर, मानो कोई पिछली बात याद करके बतलाने लगी हो, बोली, ‘‘तुम्हें देखा तो जरूर है, पर नाम याद नहीं आता। हाँ, क्या तुम भूतनाथ तो नहीं हो ?’’
पथिक भूतनाथ का नाम सुनकर हँसने लगा। फिर कुछ अपने मन को स्थिर कर पूछने लगा, ‘‘और तुम कौन हो ?’’
‘‘मैं ?’’ अपने विषय में प्रश्न पूछे जाने पर उसे कुछ लज्जा और संकोच अनुभव हुआ। वह दाहिने हाथ की उँगली मुँह में डाल और मुख फेर कर बोली, ‘‘मैं नलिनी हूँ।’’
‘‘ओह ! तुमने ही मुझे सुबह देख भूत समझा था ?’’
नलिनी को अब ज्ञात हुआ कि सब पुरुष और बच्चे घाट पर से चले गये हैं और वह अकेली भूत से बातें कर रही है। यह जानते ही उसके मन में एक अनिश्चित-सा भय उठा। उसने इधर-उधर देखा और वह वहाँ से भाग खड़ी हुई। कुछ दूर जाकर खड़ी हो लौटकर पथिक की ओर देखने लगी। फिर भागी तो सीधे घर पहुँची।
नलिनी घर पहुँची तो कुछ सहमी हुई थी। उसकी माँ ने उसे देखा तो घबराकर पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ ? नलिनी, तेरा मुख पीला क्यों पड़ गया है ?’’
‘‘कुछ नहीं, मैं डर गयी थी।’’
‘‘किससे डर गयी थी ?’’
‘‘भूत से।’’
माँ हँस पड़ी। बोली, ‘‘तो तू अभी तक वहीं खड़ी थी ! पगली-सी ! वह भूत नहीं है।’’
नलिनी के मुख का रंग ठीक हो रहा था। माँ को निडर देख उसका उत्साह बढ़ रहा था। उसने कहा, ‘‘हाँ माँ वह भूत नहीं है। मैंने उसे पहचान लिया है।’’
माँ ने नलिनी को ऐसी बातें करते पहले कभी नहीं देखा था। वह ऐसे कह रही थी, जैसे किसी भूलती बात के याद आने पर मनुष्य आलौकिक आनन्द अनुभव कर उस बात का वर्णन करने लगता है; जैसे मानो उसने कोई पहेली बूझ ली हो और प्रकट कर वह सारे संसार को चकाचौंध कर देने वाली है।
माँ ने उत्सुक्ता से पूछा, ‘‘तूने पहचान लिया है ? भला, सुनूँ, कौन है वह ?’’
‘‘भूतनाथ...नहीं...हाँ....ऊँ...मुझे नाम याद नहीं रहा। मैंने उसे देखा है।’’
‘‘कहाँ देखा है ?’’
‘‘याद नहीं। नदी के किनारे पर। यह नदी नहीं, माँ, एक बड़े मकान में। बहुत सुन्दर कपड़े पहने हुए।’’
माँ ने समझा, लड़की घबरा गई है। यह सोच कि कहीं उसका दिमाग न हिल जाये, बात को टाल कर कहने लगी, ‘‘पगली-सी, छोड़ इस बात को। देख, किसी से यह कहना नहीं, नहीं तो लोग तुझे पागल कहेंगे। चल, रोटी खा।’’
माँ ने कुछ भुने चावल और अरहर की दाल उसको दे दी। नलिनी खाने लगी, परन्तु उसका ध्यान घाट पर पथिक की ओर था। जब वह चावल-दाल खा चुकी तो कुछ चावल, नमक, हरी मिर्च एक कपड़े के टुकड़े में बाँधने लगी। माँ दूसरे कमरे से आई तो पूछने लगी, ‘‘यह क्या कर रहा है ?’’
‘‘चावल बाँध रही हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘उसके लिए।’’
‘‘किसके लिए ?’’
‘‘भूतनाथ के लिए। उसने कुछ खाया नहीं होगा।’’
‘‘कैसे जानती है, कुछ नहीं खाया ?’’
‘‘वहाँ घाट पर कोई नहीं है, माँ। वह अकेला है।’’
एक गाँव वाला बोला, ‘‘महाराज ! (वहाँ ज़मींदार को राजा और महाराजा कहकर पुकारा जाता था) यदि आपको खर्चा करने में संकोच हो तो चंदा कर लिया जाये।’’
ज़मींदार बाईस-तेईस वर्ष का युवक। वह इस लाञ्छन से भड़क उठा।
बोला, ‘‘रुपया खर्च करने में संकोच नहीं है, परन्तु केवल एक स्त्री की मूर्खता से हज़ारों रुपये का व्यय करना भी क्या अक्लमन्दी है !’’
‘‘तो क्या भूत नहीं होते ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्या श्रापित ज़मींदार श्राप से नहीं मरा ?’’
‘‘नहीं, वह अपनी मौत मरा है।’’
‘‘बाबू, आप भी उसी मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं।’‘’
खुशामद से अथवा अन्य किसी कारण से बहुत-से लोग ज़मींदार की बात काटने वाले को धिक्कारने लगे। उस आदमी ने फिर कहा, ‘‘यदि भूत नहीं होते तो, महाराज, हमारे आगे-आगे चलकर बगिया और मन्दिर की तलासी करके देखें कि वह कौन है जो वहाँ गा रहा था। मैंने अपने कानों से वहाँ किसी को गाते सुना है।’’
इस पर युवक ज़मीदार ने वहाँ जाना स्वीकार कर लिया। वह और गाँव के कुछ अन्य युवक, लाठियाँ ले, जाने को तैयार हो गये। यद्यपि सब अपने-अपने मन में डरते थे, परन्तु एक-दूसरे के सम्मुख भय प्रकट करने में लज्जा मान, घाट पर चलने को तैयार हो गये। कुछ लोग तो तमाशा देखने के लिए ही चल पड़े थे।
पुरुषों को भय के स्थान पर जाते देख भला स्त्रियाँ कब पीछे रह सकती थीं। जब उनके प्रियजन, पति, पुत्र तथा भाई, अपनी जान हथेली पर रखकर सौ वर्ष के प्रचलित विश्वास की परीक्षा करने जा रहे थे तो वे घरों में बैठी नहीं रह सकती थीं। बिना किसी परामर्श के, बिना संगठन के, बिना किसी प्रकार की लज्जा-संकोच के गाँव की प्रायः सब प्रौढ़ स्त्रियाँ, पुरुषों के पीछे-पीछे घाट की ओर चल पड़ीं। लड़के-लड़कियों ने भी घर बैठे रहना उचित नहीं समझा। वे भी अपनी माताओं के पीछे-पीछे हो लिये।
जब लाठियों से सुसज्जित पुरुषों की टोली के साथ ज़मींदार घाट पर पहुँचा तो उसने वहाँ एक अपरिचित आदमी को गहरी नींद में सोते देखा। उसे देख ज़मींदार ने कहा, ‘‘पूछो तो कहीं नलिनी की माँ इसे ही तो भूत नहीं कह रही थी। यह तो कोई भला मनुष्य प्रतीत होता है।
यह ठीक था कि उस सोये हुए मनुष्य के बाल बड़े-बड़े हो गये थे। उसकी दाढ़ी और मूछें बढ़ रही थीं। उसके कपड़े मैले और फटे हुए थे। जूता घिस गया था और जूते में सुराख हो गये थे। तो भी उसके मुख पर एक विशेष आभा थी। घाट पर नीम के पेड़ के पत्तों में से छनकर आने वाली सूर्य-किरणें उसके मस्तक की दिव्य-ज्योति को दैदीप्यमान कर रही थीं। जब गाँव के लोगों ने उसे देखा तो एक स्वर में कहने लगे, ‘‘यह तो बेचारा पथिक है।’’
ज़मीदार ने स्त्रियों के झुण्ड की ओर देखकर पुकारा, ‘‘नलिनी की माँ, देखो तो यही भूत है क्या ?’’
नलिनी की माँ ने आगे बढ़कर देखा और कहा, ‘‘हाँ, कुछ ऐसा ही प्रतीत होता था।’’
यह सुन सब खिलखिलाकर हँस पड़े। इस हँसी ने और लोगों के परस्पर के वर्तालाप ने सोये हुए पथिक को जगा दिया। वह उठ कर बैठ गया और आँखें मल-मलकर अपने चारों ओर स्त्री-पुरुषों की भीड़ देखने लगा। वह समझ नहीं सका कि ये सब लोग क्यों एकत्रित हुए हैं। उसके मुख से अचम्भा प्रकट हो रहा था। ज़मीदार कुछ आगे बढ़कर पूछने लगा, ‘‘तुम कौन हो ?’’
पथिक ने प्रश्न का उत्तर न देकर स्वयं पूछा, ‘‘तुम सब लोग मुझे ऐसे क्यों देख रहे हो ?’’
ज़मींदार ने कहा, ‘‘तुम भूत जो हो।’’
पथिक ने और भी अचम्भा प्रकट करते हुए पूछा, ‘‘भूत’’ कौन कहता है ?’’
अब नलिनी की माँ ने अपने-आपको मुक्त करवाने के लिए कह दिया, ‘‘नलिनी कहती थी।’’
‘‘नलिनी ? कौन नलिनी ? कहाँ है वह ?’’
ज़मींदार ने फिर पूछा, ‘‘महाशय, तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो ?’’
इस बात ने पथिक को गम्भीर विचार में डाल दिया। वह प्रश्नकर्ता का मुख देखने लगा। उसका दाहिना हाथ आधा उठकर रह गया, मानों वह कुछ कहने लगा हो, परन्तु कोई बाधा आ पड़ने से रुक गया हो। फिर वह अपने हाथ से सिर खुजलाने लगा। बहुत यत्न के बाद वह बोला, ‘‘आपने पूछा है, मैं कौन हूँ ? मैं भी आपसे यही पूछ रहा हूँ, परन्तु कुछ उत्तर सूझ नहीं पड़ता।’’
‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं बहुत दूर से चला आ रहा हूँ, कुछ दूर तक तो दिखाई देता है। उससे पहले वह मेरी स्मृति में धुँधला-सा प्रतीत होता है, और फिर उससे पूर्व सर्वथा अन्धकार है। मेरी बुद्धि, स्मरण-शक्ति उस अन्धकार को भेदने में असफल है। मुझे कई वर्ष भ्रमण करते हो गये। मैं सैकड़ों स्थानों पर ठहरा हूँ। प्रत्येक स्थान के लोग मुझसे यही पूछते हैं और मैं भी हर बार अपने से पूछता हूँ, परन्तु मैं समझ नहीं पा रहा कि मैं कौन हूँ।
इतना कह कर पथिक नें अपने मस्तक को दोनों हाथों से पकड़ लिया। ज़मींदार और दूसरे लोग अचम्भें में उसकी ओर देख रहे थे। पथिक ने माथे को वैसे ही पकड़े हुए कहना जारी रखा, ‘‘मुझे कुछ याद नहीं आता। जब भी मैं सोचता हूँ, मेरे सिर में घोर वेदना होने लगती है। मैं पागल नहीं हूँ। मैं देख रहा हूँ कि आप लोग मुझे देख रहे हैं। यह नदी बह रही है और वे दूर पर्वत हैं। इस नीम के पेड़ से छन कर आने वाली किरणें बहती हुई नदी पर अठखेलियाँ कर रही है। स्वयं मुझे खुशी होती है, शोक होता है, डर लगता है। अभिप्राय यह है कि मेरी इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं। मैं गाता हूँ, मैं सोता हूँ, और प्रत्येक बात को अपनी इच्छा से करता हूँ। सुन्दर दृश्य मुझे आनन्द देते हैं। योग, ध्यान, साधना, उपासना, कर्म, ज्ञान) सब समझता हूँ। मैं पढ़ा-लिखा भी हूँ, परन्तु जब मैं अपने जीवन-पथ को देखना चाहता हूँ, तो विवश हो जाता हूँ और कुछ नहीं सूझ पड़ता। कुछ लोग मुझे पागल कहते हैं और दूसरे धूर्त। मुझे किसी से शिकायत नहीं। कारण कि मैं स्वयं नहीं जानता कि मैं क्या हूँ।’’
यह परिचय इतना लम्बा होने पर भी ज़मींदार की समझ में नहीं आया। वह अपने मन में यह निश्चय नहीं कर सका कि वह धूर्त है अथवा पागल। प्रश्न के पहले भाग के उत्तर से निराश हो उसने दूसरे भाग को फिर देहराया और पूछा, ‘‘यहाँ किस प्रायोजन से आये हो ?’’
‘‘मैं एक प्रायोजन से घूम रहा हूँ, वह है चित्त की शान्ति। दूर पहाड़ों में योगी, तपस्वी, साधु, महात्मा, अनेक से मिलता चला आता हूँ। जहाँ सुन्दर प्राकृतिक दृश्य देखता हूँ, वहाँ ठहर जाता हूँ। कल गौपुरी से चला था। सायंकाल यहाँ पहुँचा। पश्चिम से सूर्य की किरणें आकर इस नदी की उछलती-कूदती लहरों पर सुनहरी चादर डाल एक विशेष शोभा उत्पन्न कर रही थीं। नदी के पार वे पहाड़ और उनसे दूर और फिर हिम से ढकी हुई चोटियाँ, अस्त होते हुए सूर्य की किरणों से चुम्बन किये जाने पर, लज्जा से लाल हो रही थीं। यह सब मन को इतना आकर्षित कर रहा था कि मैंने यहाँ ठहरने का निश्चय कर लिया। मैं समझा कि वह कोई मन्दिर है, परन्तु पहुँचने पर वीरान पाया। रात चबूतरे पर लेट तो गया, पर सो नहीं सका। मच्छरों ने सोने नहीं दिया। अब घाट पर चलती वायु में नींद आ गई और सो गया था।’’
ज़मींदार ने पथिक से बहुत से प्रश्न पूछे। वह बुद्धिमान, धीर, गम्भीर और सभ्य था, उसके उत्तरों और बोलने के ढंग से प्रतीत होता था कि वह पढ़ा-लिखा, विद्वान और सुशील है। परन्तु जब भी उसके पूर्व निवासस्थान अथवा नाम इत्यादि के विषय में पूछा जाता, तो वह, जैसे किसी जंगल में खो गया हो, भौचक्का हो प्रश्नकर्ता का मुख देखने लगता था। अन्त में ज़मींदार ने कहा, ‘‘तुम बहुत धूर्त प्रतीत होते हो। भला यह कैसे हो सकता है कि अपना पूर्व परिचय देने के समय ही तुम्हारा दिमाग काम करना छोड़ देता है। और बाते तो तुम सब ठीक करते हो। केवल अपना नाम-धाम नहीं बताते, अवश्य ढोंगी हो।’’
पथिक यह लांछन सुनकर चुपचाप ज़मींदार का मुख देखता रहा। बहुत यत्न कर उसने यह कहा, ‘‘आपका ऐसा कहना स्वाभाविक है। मैं स्वयं परेशान हूँ। मैं नहीं जानता कि मुझे क्या हो गया है। केवल एक धुँधला-सा चित्र मेरे मन पर है। एक कोठी में एक घास के लॉन (मैदान) पर एक देवी मुझे चाय पीने को दे रही थी। यह कब था, कहाँ था और वह देवी कौन थी, मैं नहीं जानता। पश्चात्, कश्मीर में एक अति सुन्दर घाटी में एक देवी सेवा-सुश्रूवा करती थी। फिर एक समय कुल्लू में मैं भजन गाता था और लोगों की भीड़ मेरे आसपास एकत्रित हो जाती थी। इसके पश्चात् का चित्र, जो मेरे मन पर अंकित है, अधिक स्पष्ट है। कुल्लू में मुझे एक महात्मा मिले थे। वह मुझे अपने साथ कैलाश यात्रा को ले गये। उनकी संगति ने और उनकी औषधियों ने मेरे मन को कुछ अंशों में स्वस्थ कर दिया है। कैलाश से लौटकर मैं पंजाब की राजधानी लाहौर में पहुँचा। वहाँ सार्वजनिक सेवा में कुछ समय व्यतीत किया। वहाँ पर मुझे यह ज्ञान हुआ कि मेरी विचार शक्ति पूर्णरूप से मेरा साथ नहीं देती। मैं अनेकानेक विषयों पर विचार करता था, परन्तु सर्वसाधारण से भिन्न परिणाम पर पहुँचता था। इससे प्रायः सदैव लोगों से मेरा झगड़ा रहता था। मैं वहाँ से चला आया और नेपाल पहुँचा। वहाँ से मुझे आदेश हुआ कि मैं पुनः मैदानी इलाके में लौट जाऊँ। अतएव घूमता, फिरता, स्थान-स्थान पर चित्त की शांति का साधन ढूंढ़ता हुआ यहाँ पहुँच गया हूँ।’’
‘‘नेपाल से चले जाने का आदेश किसने दिया था ? नेपाल राज्य ने ?’’
‘‘नहीं, मेरी अन्तरात्मा ने; अथवा यों कहो कि सृष्टि के नियन्ता ने।’’
‘‘सृष्टि के नियन्ता ने ?’’
‘‘हाँ, भगवान् ने।’’
‘‘अब यहाँ कब तक रहोगे ?’’
‘‘नहीं बता सकता। यहाँ रहना अथवा यहाँ से चले जाना मेरे अपने अधीन नहीं है।’’
‘‘किसके अधीन है ?’’
‘‘मनुष्य के जीवन का संचालन करने वाली शक्तियाँ अनेक हैं। मान लो, यदि मुझे यहाँ से निकाल बाहर करने पर आप हठ करें तो मुझे आप लोगों से झगड़ा करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।’’
इस स्पष्ट कथन ने ज़मींदार को विचार करने पर मजबूर कर दिया। वह सोचने लगा कि इस विचित्र व्यक्ति को गाँव में ठहरने दें अथवा न दे। इस विषय में अपने साथियों के विचार जानने के लिये उसने गाँव वालों की ओर देखा। गाँव वाले बहुत से लोग वापस चले गये थे। स्त्रियाँ जो प्रातःकाल से स्नान करने अथवा पानी भरने घाट पर नहीं आयी थीं। अपने-अपने घर से गगरी ले आयीं और जल भरने लगी थीं। ज़मींदार के पास कुछ लड़के-लड़कियाँ, जिनमें नलिनी भी थी, और एक-दो गाँव के लोग रह गये थे। इनमें एक वृद्ध व्यक्ति भी था। ज़मींदार ने उसे ही संबोधित कर पूछा, ‘‘काका, तुम ही बताओ, क्या किया जाये ?’’
वह वृद्ध पुरुष कुछ सोच कर बोला, ‘‘बेटा सुरेश, यह रहेगा कहाँ ?’’
ज़मींदार सुरेश ने कुछ व्यंग्य के भाव से और कुछ लोगों के मन में अंकित करने के लिये वह भूत-प्रेत को नहीं मानता, तुरन्त उत्तर दिया, इसी बगिया में रह जाये, अच्छा ही तो है।’’
वृद्ध ने दाहिने हाथ से सिर खुजलाते हुए कहा, ‘‘इस बगिया में ! भला यह कैसे हो सकता है ?’’
सुरेश ने अब कुछ जोश के साथ कहा, ‘‘हो क्यों नहीं सकता ? सुनो, मैं भूत-प्रेत अथवा श्राप, आशीर्वाद को नहीं मानता। इतनी बड़ी बगिया और सुन्दर मकान हम लोगों की मूर्खता से वीरान पड़ा है। यह पथिक यहाँ रह सकता है।’’
वृद्ध चुप रहा। अन्य कोई आपत्ति उठाने वाला था नहीं। सुरेश ने पथिक की ओर देखकर कहा, ‘‘हम लोगों को तुम्हारे रहने में आपत्ति नहीं। हाँ, यदि तुमने कुछ भी उपद्रव किया तो तुम्हारे लिये ठीक नहीं होगा।’’
इतना कह वे लोग वहाँ से चले गये। लड़के-लड़कियाँ भी वहाँ से खिसक रहे थे। नलिनी वहाँ से जाने वालों में सबसे अन्तिम थी। पथिक दोनों हाथों में सिर को रखे, आँखें नीची किये हुए गम्भीर विचार में मग्न था। नलिनी उसके मुख की ओर देख रही थी। एकाएक उसने कह दिया, ‘‘मैं तुम्हें पहचानती हूँ। तुम हो...।’’ जैसे एकाएक वह बोलने लगी थी, वैसे ही चुप रह गयी।
पथिक ने, एक भोली लड़की को यह कहते सुना कि वह उसे पहचानी है मुख ऊपर उठाकर उसकी ओर देखा। वह निरीह बालिका का भोलापन और अद्वितीय सौंदर्य देखकर चकित रह गया। उसने उत्सुक्ता से पूछा, ‘‘तुम मुझे पहचानती हो ? बताओ, मैं कौन हूँ ?’’
लड़की कुछ स्मरण करने का प्रयत्न कर रही थी। आँखे मूँदकर और दाहिने हाथ को कुछ उठाकर, मानो कोई पिछली बात याद करके बतलाने लगी हो, बोली, ‘‘तुम्हें देखा तो जरूर है, पर नाम याद नहीं आता। हाँ, क्या तुम भूतनाथ तो नहीं हो ?’’
पथिक भूतनाथ का नाम सुनकर हँसने लगा। फिर कुछ अपने मन को स्थिर कर पूछने लगा, ‘‘और तुम कौन हो ?’’
‘‘मैं ?’’ अपने विषय में प्रश्न पूछे जाने पर उसे कुछ लज्जा और संकोच अनुभव हुआ। वह दाहिने हाथ की उँगली मुँह में डाल और मुख फेर कर बोली, ‘‘मैं नलिनी हूँ।’’
‘‘ओह ! तुमने ही मुझे सुबह देख भूत समझा था ?’’
नलिनी को अब ज्ञात हुआ कि सब पुरुष और बच्चे घाट पर से चले गये हैं और वह अकेली भूत से बातें कर रही है। यह जानते ही उसके मन में एक अनिश्चित-सा भय उठा। उसने इधर-उधर देखा और वह वहाँ से भाग खड़ी हुई। कुछ दूर जाकर खड़ी हो लौटकर पथिक की ओर देखने लगी। फिर भागी तो सीधे घर पहुँची।
नलिनी घर पहुँची तो कुछ सहमी हुई थी। उसकी माँ ने उसे देखा तो घबराकर पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ ? नलिनी, तेरा मुख पीला क्यों पड़ गया है ?’’
‘‘कुछ नहीं, मैं डर गयी थी।’’
‘‘किससे डर गयी थी ?’’
‘‘भूत से।’’
माँ हँस पड़ी। बोली, ‘‘तो तू अभी तक वहीं खड़ी थी ! पगली-सी ! वह भूत नहीं है।’’
नलिनी के मुख का रंग ठीक हो रहा था। माँ को निडर देख उसका उत्साह बढ़ रहा था। उसने कहा, ‘‘हाँ माँ वह भूत नहीं है। मैंने उसे पहचान लिया है।’’
माँ ने नलिनी को ऐसी बातें करते पहले कभी नहीं देखा था। वह ऐसे कह रही थी, जैसे किसी भूलती बात के याद आने पर मनुष्य आलौकिक आनन्द अनुभव कर उस बात का वर्णन करने लगता है; जैसे मानो उसने कोई पहेली बूझ ली हो और प्रकट कर वह सारे संसार को चकाचौंध कर देने वाली है।
माँ ने उत्सुक्ता से पूछा, ‘‘तूने पहचान लिया है ? भला, सुनूँ, कौन है वह ?’’
‘‘भूतनाथ...नहीं...हाँ....ऊँ...मुझे नाम याद नहीं रहा। मैंने उसे देखा है।’’
‘‘कहाँ देखा है ?’’
‘‘याद नहीं। नदी के किनारे पर। यह नदी नहीं, माँ, एक बड़े मकान में। बहुत सुन्दर कपड़े पहने हुए।’’
माँ ने समझा, लड़की घबरा गई है। यह सोच कि कहीं उसका दिमाग न हिल जाये, बात को टाल कर कहने लगी, ‘‘पगली-सी, छोड़ इस बात को। देख, किसी से यह कहना नहीं, नहीं तो लोग तुझे पागल कहेंगे। चल, रोटी खा।’’
माँ ने कुछ भुने चावल और अरहर की दाल उसको दे दी। नलिनी खाने लगी, परन्तु उसका ध्यान घाट पर पथिक की ओर था। जब वह चावल-दाल खा चुकी तो कुछ चावल, नमक, हरी मिर्च एक कपड़े के टुकड़े में बाँधने लगी। माँ दूसरे कमरे से आई तो पूछने लगी, ‘‘यह क्या कर रहा है ?’’
‘‘चावल बाँध रही हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘उसके लिए।’’
‘‘किसके लिए ?’’
‘‘भूतनाथ के लिए। उसने कुछ खाया नहीं होगा।’’
‘‘कैसे जानती है, कुछ नहीं खाया ?’’
‘‘वहाँ घाट पर कोई नहीं है, माँ। वह अकेला है।’’
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