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गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1983
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5364
आईएसबीएन :000

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गुरुदत्त का एक रोचक उपन्यास

Avtaran a hindi book by Gurudutt - अवतरण - गुरुदत्त

कागज संस्करण

क्यों ?

हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
एक बार हमारे मुहल्ले के एक मन्दिर में महाभारत की कथा रखायी गयी। यह वे दिन थे, जब आर्यसमाज और सनातनधर्म सभा में शास्त्रार्थों की धूम थी। मुहल्ले के कुछ सनातनधर्मी युवको में धर्म ने जोश मारा और वे हिन्दुओं की प्रसिद्ध धर्म-पुस्तक महाभारत की कथा कराने लगे।

उस समय एक वयोवृद्ध पण्डित ने कहा था, ‘‘ये नौजवान ठीक नहीं कर रहे। इसका परिणाम ठीक नहीं होगा। हिन्दुओं में रामायण की कथा होती है, परन्तु महाभारत की नहीं।’’
मैं इस बात को इस प्रकार समझा कि प्रचलित हिन्दू-धर्म में कुछ है, जो महाभारत में लिखे हुए के अनुकूल नहीं। मेरे विस्मय का ठिकाना नहीं रहा, जब कथा में आदि पर्व के समाप्त होने से पूर्व ही एक दिन श्रोतागणों में मुक्का-मुक्की हो गयी। बात पुलिस तक गयी और बहुत कठिनाई से दोनों दलों में सन्धि करायी गयी। तब से मैं इस विषय पर बहुत मनन करता हूँ। कई बार महाभारत पढ़ा है। इस किंवदंति और महाभारत के पाठ की, मेंरे मन पर हुई प्रति-क्रिया का परिणाम यह पुस्तक है।

प्रथम परिच्छेद
:१:


बम्बई से दिल्ली लौट रहा था। फ्रन्टियर मेल फर्स्ट क्लास के डिब्बे में सीट रिजर्व कराकर यात्रा हो रही थी। डिब्बे में एक साहब और थे। सायंकाल गाड़ी में सवार हुआ तो बिस्तर लगा दिया। दूसरे यात्री ने पहले ही बर्थ पर बिस्तर लगाया हुआ था। मैंने बिस्तर बिछाया तो वह नीचे सीट पर बैठ गया।
गाड़ी चल पडी। साथी यात्री बार-बार मेंरी ओर देखता और मुस्कराकर कुछ कहने के लिए तैयार होता, परन्तु कहता कुछ नहीं था। ऐसा प्रतीत होता था कि कोई उसको कुछ कहने से रोक रहा है। मैं उसकी इस हिचकिचाहट को देख रहा था, परन्तु स्वयं को उससे सर्वथा अपरिचित जान कुछ कहने का मेंरा भी साहस नहीं हो रहा था।
मैंने अपने अटेची-केस में से ‘रीडर्स डाईजेस्ट’ निकाला और पढ़ना आरंभ कर दिया। वे महाशय सीट पर ही पल्थी मार कर बैठ गये। उनकी आँखें मुँदी हुई थीं, इसलिए मैंने समझा कि वे सन्ध्योपासना कर रहे होंगे। अगले स्टेशन पर गाड़ी खड़ी हुई। भोजन के लिए डाईनिंग कार में जाने के विचार से मैंने ‘रीडर्स डाईजेस्ट’ को अटैची में रख, उसको ताला लगा सीट पर से उठ खड़ा हुआ तो देखा कि सहयात्री भी उतरने के लिए तैयार खड़ा है। मैंने कहा, ‘‘मैं खाना खाने के लिए जा रहा हूँ। और आप....।’’

‘‘मैं भी चल रहा हूँ। हम गार्ड को कहकर ताला लगवा देते हैं।’’
‘‘ठीक है।’’ मैंने कहा और गाड़ी से उतर कर गार्ड के कमपार्टमेंट की ओर चल पड़ा। जब तक गार्ड को कम्पार्टमेंट बन्द करने के लिए लाया, मेंरा साथी धोती कुरता पहने, कन्धे पर अँगोछा डाले तैयार खड़ा था। गार्ड ने डिब्बे को चाबी लगाई तो हम ‘डाइनिंग कार’ में एक-दूसरे के सामने जा बैठे। मैंने सोचा, अब परिचय हो जाना चाहिए। इस कारण यात्रा में परिचय करने का स्वाभाविक ढंग अपनाते हुए मैंने उससे पूछा, ‘‘आप कहाँ तक जा रहे है ?’’
‘‘अमृतसर तक।’’
‘‘आप गुजरात के रहने वाले मालूम होते हैं ?’’
‘‘हाँ, परन्तु मैं आपको जानता हूँ। आज कल तो आप दिल्ली में रहते हैं न ?’’
‘‘जी हाँ ?’’
‘‘चिकित्सक-कार्य करते हैं ?’’

‘‘जी।’’
परन्तु मेंरा आपसे परिचय बहुत पुराना है। आप भूल गये हैं। कदाचित् इतने काल की बात स्मरण भी नहीं रह सकती।’’
मुझे हँसी आ गई। अब तक गाड़ी चल पड़ी थी। मुझे हँसता हुआ देख, सामने बैठे यात्री ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘‘इसमें हँसने की क्या बात है ?’’
उसकी मुस्कुराहट में सत्य ही, एक विशेष आकर्षण और माधुर्य था। मैं मंत्रमुग्ध-सा उसके मुख की ओर देखता रहा। इस पर उसने आगे कहा, ‘‘यह जीव का धर्म है कि काल व्यतीत होने के साथ ही वह अपनी पिछली बातें भूल जाता है। देखिये वैधजी ! इस संसार में इतनी धूल उड़ रही है कि कुछ ही काल में मन मुकुर पर एक अति मोटी मिट्टी की तरह बैठ जाती है, जिससे उस दर्पण में मुख भी नहीं देखा जा सकता।’’

मैंने अपने हँसने का कारण बताते हुए कहा, ‘‘आपके इस अलंकार को भली-भाँति समझता हूँ और यह बात सत्य है कि मुझे अभी तक भी स्मरण नहीं आया कि मैंने आपको इससे पूर्व कहाँ देखा है ? मैं हँस इस कारण रहा था कि यदि भूल जाना जीव का धर्म है तो आपको मैं कैसे स्मरण रह गया हूँ ?’’
‘‘वह इस कारण कि मेंरे गुरू ने मुझे एक ऐसा झाड़न प्रदान किया है, जिससे मैं मन के दर्पण पर पड़ी गर्द भली-भाँति झाड़ सकता हूँ। झाड़ देने के पश्चात् मन पुनः निर्मल निकल आता है और उसमें प्रत्येक वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देते लगता है।’’
‘‘तो आपने अपने मस्तिष्क से मिट्टी झाड़कर उसे निर्मल कर लिया है ?’’
इसका उसने कोई उत्तर नहीं दिया और वह मुस्कुराने लगा। इस समय बैरा आर्डर लेने आया तो मैंने उसको ‘सामिष भोजन’ लाने के लिए कह दिया। साथी ने उसको वैसा ही आर्डर दिया। तत्पश्चात् अर्द्ध-निमीलित नेत्रों से, किसी अतीत की स्मृति में विलीन होते हुए, उसने कहना आरम्भ किया, ‘‘एक समय मुझको एक ऐसा कार्य करना पड़ा था कि मैं उस काल के अनेकानेक महापुरूषों के सम्पर्क में आया। कुछ लोगों से मिलने, उनसे बातचीत करने और उनकी संगत में रहने का इतना अवसर मिला था कि उनकी स्मृति मेंरे मन पर अति गहरी छाप छोड़ गई है। उनमें से एक आप भी हैं।’’

बैरा सूप लाकर सामने रख गया। मैं उस पर नमक आदि डाल कर पीने के लिए तैयार हो रहा था। मेंरे साथी ने भी नमकदानी उठाई और मेंरे मुख पर ध्यान से देखते हुए कहा, ‘‘प्राचीन परिचितों से पुनर्मिलन कितना मधुर होता !’’
मेरे मन में एक भय-सा समाने लगा था। सभी जानते है कि रेल आदि यात्राओं में ठग बहुत घूमा करते हैं और उनकी बातें भी इसी प्रकार की होती हैं। पुराना परिचय और उसका मधुर स्मरण, वर्तमान में प्रायः घनिष्ठता उत्पन्न करने का प्रथम चरण होता है।
किंचित्मात्र परिचय को घनिष्ठता के रूप में प्रकट करना, किसी दूरस्थ सम्बन्धी का नाम लेकर निकटस्थ होने का दावा करना अथवा परस्पर सुख-दुःख में साथी होने की बात बताना, परिचय को मैत्री की सीमा तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।
यात्रा में ठगा जाना, मैं किसी प्रकार महिमा की बात नहीं मानता। इस कारण मैंने उसकी बातों का उत्तर देने की अपेक्षा सूप पीना उचित समझा। मुझको चुप देख उसने भी सूप की प्लेट में से चम्मच भरकर पीते हुए पूछा, ‘‘आप बम्बई किस काम से आये थे ?’’
‘‘अखिल भारतीय वैध महासभा के प्रधान बम्बई में रहते है। उनसे कुछ काम था। मैं उस सभा का प्रधानमंत्री हूँ।’’
‘‘ओह ! वैधराज श्रीमहीपतिजी ?’’

‘‘जी ! तो आप भारत के बहुत-से वैधों से परिचत हैं ? क्या आप भी वैध हैं ?’’
‘‘जी नहीं ! मैं वकील हूँ। पण्डित महीपति से पूर्व-परिचय था। परन्तु जब मैंने उनको उनसे परिचय का स्थान और काल बताया तो वे खिलखिलाकर हँस पड़े और मुझको ये गोलियाँ दे कर बोले—तीन से छह तक इनका नित्य प्रयोग करूँ और गाय के दूध का अधिक मात्रा में सेवन करूँ। देखिए, ये गोलियाँ हैं।’’
इतना कहकर उसने एक शीशी, जिस पर ‘सर्पिना’ लिखा हुआ था, अपने कुर्ते की जेब में से निकाल कर दिखा दी। मैंने शीशी पर लेबल पढ़ा तो मुस्कराकर सामने बैठे यात्री के मुख की ओर देखने लगा। वह सूप पीता रहा। दो-तीन चम्मच सूप पीकर उसने समीप रखी स्लाईस में से एक ग्रास मुख में लेकर चबाते हुए मेरे मुख की ओर देख पुनः मुस्कराना आरम्भ कर दिया।

‘सर्पिना’ उन्माद की औषध है। इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित महीपति जी ने इस यात्री को उन्माद रोग से ग्रस्त समझा होगा। उसके परिचय की बात को छोड़ मुझको उसके पागल होने का कोई भी लक्षण दिखाई नहीं दिया था। ‘क्या जाने’ मैं विचार करता था, ‘इसको उनका परिचय हो। पण्डित महीपतिजी इतने व्यस्त व्यक्ति हैं कि वे स्वयं भूल गये हो।’ इतनी-सी बात के लिए किसी को पागल की संज्ञा दे देना ठीक नहीं प्रतीत हुआ। परन्तु मैं स्वयं भी अभी तक स्मरण नहीं कर सका था कि मैं इस व्यक्ति से कब मिलता हूँ और कहाँ उसके सम्पर्क में आया था ? इस कारण सतर्क रह मैंने सूप पीना जारी रखा।

बैरा प्लेट उठाने आया तो साथी यात्री ने प्लेट को उठाया और एक ही घूँट में सूप पीकर प्लेट खाली कर दी।
बैरा के चले जाने पर उसने प्रश्न भरी दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए पूछा, ‘‘क्या आपको भी मैं पागल दिखाई देता हूँ ?’’
सूप पीने से कुछ चुस्त हो कर मैंने कहा, ‘‘देखिए जी ! जितने महापुरूष हुए हैं, वे सब अपने काल के जन-साधारण से पागल ही माने जाते रहे हैं। प्रायः महापुरूष तो अपने मरने के पश्चात् ही ख्याति लाभ करते हैं।’’
इस पर वह व्यक्ति खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसका हँसना तो उसके मुस्कराने से अधिक प्रतीत हुआ। वह पागलों की हँसी नहीं थी। उसमें व्यंग्यात्मक ध्वनि थी। मैं आश्चर्य से उसका मुख देखने लगा। उसने केवल ये कहा, ‘‘मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं पागल नहीं हूँ।’’

अब मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘परन्तु श्रीमान् जी ! इस आश्वासन की तो पण्डित महीपतिजी को आवश्यकता थी। आपको चाहिए था कि उन्हें विश्वास दिलाते।’’
‘‘मैंने यह आवश्यक नहीं समझा। कारण यह कि न वे आप हैं और न ही आप वे हैं। जिस काम की आवश्यकता और जिसके सफल होने की आशा आपसे की जा सकती है, वह उनसे नहीं है।’’
मैं इसका अर्थ नहीं समझा। जो मैं समझ सका। वह यह था कि ये महाशय मुझको पण्डित महीपति से अधिक-भोला-भाला अथवा मूर्ख मानते हैं। इस समय बैरा खाने की अन्य वस्तुएं रख गया। मैंने नमक, काली मिर्च डालकर खाना, आरम्भ किया। उसने भी वही किया। कुछ देर तक हम दोनों खाने में लगे रहे। वह आदमी बहुत जल्दी-जल्दी खाता था। मैं अभी एक स्लाईस ही खा पाया था कि उसने तब तक मछली के तीन टुकड़े और दो स्लाईस समाप्त कर दिये थे। मक्खन तो कभी का समाप्त कर चुका था।

मैं अभी खा ही रहा था कि उसने अपना परिचय देना आरम्भ कर दिया। उसने कहा, ‘‘मैं आजकल बम्बई में वकालत करता हूँ। वैसे, मैंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की है।’’
‘‘बम्बई से पूर्व कहाँ प्रैक्टिस करते थे ?’’ मैंने पूछा। यह प्रश्न तो खाते-खाते कुछ बात करने की दृष्टि से ही मैंने पूछा था। वैसे मैं अपने मन में यह निश्चय कर चुका था कि इस व्यक्ति से सतर्क रहना ही ठीक होगा।
उसने कुहनियों को मेज पर रख और दोनों हाथों के पंजे बाँध कर अपनी ठुड्डी के नीचे रख मेरी ओर ध्यान पूर्वक देखते हुए कहा, ‘‘मैं प्रैक्टिस आरम्भ करने से पूर्व दो काम करना चाहता था। एक तो धर्मशास्त्र का अध्ययन करने और दूसरे अपने बाल्यकाल के स्वप्नों का अर्थ समझने के लिए योग-साधना। इस कार्य में तीस वर्ष लग गये। तत्पश्चात् जीवन में स्थिर होने के लिए बम्बई में प्रैक्टिस आरम्भ कर दी।’’

अब मेंरे विस्मय का ठिकाना नहीं रहा। मैं अपने सम्मुख बैठे व्यक्ति की आयु का अनुमान लगाने लगा था। मुझको तो वह पच्चीस-तीस वर्ष की आयु का युवक प्रतीत होता था। मैं उसके मुख की ओर देख विचार कर रहा था कि क्या यह सत्य ही पागल है अथवा उसकी आयु के विषय में मेरा अनुमान गलत है ? जब मैं उसके मुख पर देख रहा था, उस समय वह मुझे देख कर मुस्करा रहा था। उसकी मुस्कराहट से तो वह पागल प्रतीत नहीं होता था। इस समय बैरा प्लेटें उठाने आया। मैंने खाना छोड़ा तो वह प्लेटें उठाकर ले गया।
जब तक बैरा अगला भोज्य पदार्थ लाता, मैंने अपने संशय का निवारण करने के लिए उससे पूछ लिया, ‘‘क्षमा करें, आपकी आयु इस समय कितनी होगी ?’’

उसने कहा, ‘‘साठ वर्ष के लगभग’’
‘‘साठ !’’ मैं आश्चर्य चकित हो उसके मुख की ओर देखने लगा।
‘‘जी हाँ ! आपका आश्चर्यान्वित होना भी स्वाभाविक ही है। मुझे बम्बई में प्रैक्टिस करते हुए पाँच वर्ष हो गये हैं। तीस वर्ष तक मैं तिब्बत के पुंगी नामक ग्राम में एक बौद्ध-विहार में साधना करता रहा हूँ और कानून की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात कलक्ता के एक वकील श्री एस॰ सी॰ सेन से मैंने काम सीखा है।’’
‘‘परन्तु देखने से तो आप पच्चास वर्ष के प्रतीत होते हैं।’’
‘‘हाँ, ऐसा होना ही चाहिए। वास्तव में मुझको मेरे गुरूजी ने सिखा दिया है कि कैसे मैं काल से तटस्थ होकर उसके क्षयकारक प्रभाव से बच सकता हूँ।’’
बैरा चावल और ‘चिकन करी’ ले आया। हम दोनों ने खाना आरम्भ कर दिया। मैंने पुनः अनुभव किया कि वह मुझसे दुगनी गति से खाता है। मैं धीरे-धीरे चबा-चबाकर कर खा रहा था। चबाता तो वो भी प्रतीत होता था, परन्तु जो कार्य मैं दस बार मुख चलाने से कर सकता था, वही कार्य, वह दो तीन बार मुख चलाने से ही कर लेता था।
परिणाम यह हुआ कि मैंने अभी आधी प्लेट ही खाली की थी, जबकि वह पूर्ण प्लेट चट गया। तत्पश्चात् वह पुनः मुझसे बाते करने लगा।

: २ :


उसने बताना प्रारम्भ किया, ‘‘मैं जब कलकत्ता में विद्यार्थी ही था तब मैंने स्वामी राधाकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के प्रथम परिचय की कथा सुनी थी। स्वामी रामकृष्णजी दक्षिणेशवर में पीपल के पेड़ के नीचे बैठे कीर्तन कर रहे थे। भक्तगण उनके कीर्तन में साथ दे रहे थे।
‘‘ऐसा कहा जाता है कि उस समय विवेकानन्द, जिसका नाम नरेन्द्र था, अभी विद्यार्थी ही था। वह कुछ विद्यार्थियों के साथ स्वामीजी की हँसी उड़ाने के लिए उस कीर्तन में पहुँच गया। नरेन्द्र उस समय गजलें गाया करते थे। विद्यार्थियों का विचार था कि वे उस दिन नरेन्द्र से कीर्तन करने के लिए कहेंगे और वह गजलें गायेगा। इस पर सब विद्यार्थीगण मिलकर स्वामीजी की हँसी उड़ायेंगे।
‘‘इसके विपरीत बात यह हुई कि जब यह मण्डली कीर्तन-स्थल पर पहुँची तो स्वामी रामकृष्णजी ने कीर्तन बन्द कर नरेन्द्र की ओर उँगली करके कहा, ‘आओ ! आओ नरेन्द्र ! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा हूँ।’
‘‘सब लोग, विशेष रूप से विद्यार्थीगण, विस्मय में स्वामीजी की ओर देखते रह गये। उनके विस्मय का ठिकाना नहीं रहा, जब नरेन्द्र उनके बीच में से निकल कर स्वामीजी के पास चला गया और स्वामीजी के संकेत करने पर उनके समीप जा बैठा। सब भक्तजनों को ऐसा प्रतीत हुआ कि दोनों पूर्व परिचित हैं।

‘‘कीर्तन में स्वामी रामकृष्ण ने नरेन्द्र को भजन सुनाने के लिए कहा, ‘बेटा करो न भजन ?’’ नरेन्द्र गाने लगा—‘हरि बिन मीत न कोऊ।’ पन्द्रह-बीस मिनट तक उसने यह भजन गाया और उसके गाने में विशेष रस प्रकट हुआ। जब सभा समाप्त हुई तो स्वामी रामकृष्ण ने कहा, ‘नरेन्द्र ! फिर आना।’
‘‘ऐसा सुना जाता है कि सभा से लौटते विद्यार्थियों ने नरेन्द्र से पूछा कि उसने गजल क्यों नहीं गाई और भजन क्यो गाया ? नरेन्द्र ने उत्तर दिया कि वह स्वयं नहीं जानता। उसको तो भजन कंठस्थ भी नहीं था। उसने आज तक कभी कोई भजन गाया भी नहीं। जब स्वामीजी के आदेश पर वह गाने लगा तो अनायास ही उसके मुख से इस भजन के स्वर निकल गए। उसको प्रतीत हो रहा था कि इस भजन के स्वर और बोल स्वयं ही उसके मन में प्रस्फुटित हो रहे हैं। मानो उसको कोई भीतर से ही प्रेरित कर रहा हो। जैसे नाटक में ऐक्टरों को ‘प्रौम्प्टर’ उनका पार्ट स्मरण कराता रहता है, ठीक वही स्थिति उसकी भी थी।
‘‘विद्यार्थीगण नरेन्द्र की हँसी उड़ाने लगे। इस घटना ने नरेन्द्र के मन में आश्चर्यकारक परिवर्तन उत्पन्न किया और इस कथा ने मेरे मन में भी एक अनिर्वचनीय उत्सुकता उत्पन्न कर दी। यह उत्सुकता पहले तो सर्वथा धँधुली-सी थी, परन्तु शैनेः-शन एक वह निश्चित रूप धारण करती गई।

‘‘जब मैं ‘लॉ, की पढ़ाई समाप्त कर मिस्टर सेन के साथ वकालत का अभ्यस कर रहा था, उस काल में मेरा तिब्बत एक लामा से परिचय हो गया। पहले ही दिन जब मैं उससे मिलने गया तो वह उठकर मेरा स्वागत करने लगा और मुझको आदर से अपने आसन पर बैठाने का आग्रह करने लगा। मैं इससे भारी संकोच में पड़ गया। बहुत आग्रह करने पर वह मुझको अपने आसन पर बैठने के लिए राजी कर सका। तत्पश्चात् उसने कहा, ‘‘मैं आपकी एक मास से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। ’
‘‘ ‘एक मास से, परन्तु मुझको तो आपके विषय में कल ही मेरे एक मित्र मनमोहन सानियाल ने बताया था कि आप बहुत विद्वान् और स्वप्नों का अर्थ बताने वाले व्यक्ति हैं।’
‘‘ ‘यह ठीक है। मिस्टर सानियाल परसों यहाँ आये थे। मैंने उनको उनके बचपन के एक स्वप्न का अर्थ बताया ऐसा प्रतीत होता है। कि उससे अति प्रभावित हुए हैं।
‘‘ ‘इस पर भी आपकी खोज तो बहुत पहले से ही हो रही है। मैं पुँगी के बिहार में एक भिक्षु के रूप में रहता हूँ। पिछले वर्ष हमारे गुरुजी ने मुझको बुलाकर कहा—इस पृथ्वी पर एक महान् आत्मा कलकत्ता में भटक रही है। तुम जाओ और इसको यहाँ ले आओ।

‘‘ ‘मैंने गुरु महाराज से पूछा कि मैं उस आत्मा को किस प्रकार पहचान सकूँगा। इस पर उन्होंने आपके मस्तकपर विद्यमान लक्षण बताये। अतः मैं आपकी खोज में चल पड़ा। कलकत्ता में आये मुझे एक मास से अधिक हो गया है और मैं समझ नहीं पा रहा था कि किसी प्रकार आपकी खोज की जाय।
‘‘ ‘आज आपको स्वयं यहाँ उपस्थिति होते देख मैं अपनी खोज की सफलता पर फूला नहीं समाता। सो अब चलने के लिए तैयार हो जाइये।’

‘‘इस एकाएक नियंत्रण से मैं चकित रह गया। इस पर भी बात टालने के लिए मैंने पूछा, ‘वहाँ चलने से क्या होगा ?’
‘‘ ‘हमारे गुरु जी दो बातों के ज्ञाता हैं। एक तो वे भूतकाल के अन्धकार में ऐसे देख लेते हैं, जैसे अंधेरे में बिल्ली सब-कुछ देख सकती है। दूसरे वे भविष्य के बादलों को छिन्न-भिन्न कर उसके पार की बात जान सकते हैं।’
‘‘ ‘इन दोनों बातों को जानने से क्या होगा ?’
‘‘ ‘यह तो मैं नहीं जानता। आप गुरु जी के पास चलकर पूछ लीजिये।’
‘‘ ‘इतनी सी बात जानने के लिए मुझे पुँगी जाना होगा ? कहाँ है वह स्थान ?’
‘‘ ‘ यहाँ से हम कलिम्पोंग जायेंगे। वहाँ से आगे का मार्ग पैदल का है। दो मास की यात्रा से हम ल्हासा पहुँच जायेंगे। वहाँ से एक सप्ताह पूर्वोत्तर की यात्रा तरपुंगी विहार है। ऐसा कहा जाता है कि गुरु विश्वेश्वरजी वहाँ पर तीन सौ वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इसी के द्वारा मनुष्य योनी में श्रेष्ठ व्यक्तियों की उपस्थिति जान लेते हैं।’



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