पारिवारिक >> गुंठन गुंठनगुरुदत्त
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एक पारिवारिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
यह एक मध्यम वर्ग के हिन्दू परिवार की कथा है। परिवार एक घेरा है, जिसका
बाहर और भीतर है। इस कारण इस कथा का नाम गुंठन रखा है।
परिवार का घेरा क्या होना चाहिए, यही इस पुस्तक का विषय है। यों तो परिवार-प्रथा के विरोधी भी परिवार रखते हैं, परन्तु उनके परिवार का घेरा पति-पत्नी और छोटे बच्चों तक ही, जब तक वे बड़े होकर कमाने न लग जावें, सीमित होता है। बच्चे बड़े हुए तो उनको अपना पृथक घेरा बनाना होता है। हिन्दू संयुक्त परिवार का घेरा इससे बड़ा है। कहीं-कहीं तो यह घेरा मामा, चाचा, ताऊ, पितामह, पौत्र, प्रपौत्र इत्यादि पर विस्तार पा जाता है।
इस पर भी यूरोपियन सभ्यता में पले भौतिकवादी संयुक्त परिवार को एक पुरानी, गली-सड़ी तथा घुनी हुई प्रथा मानते हैं। कुछ लोग तो इसका विरोध इस कारण करते हैं कि वे हिन्दुओं की प्रत्येक बात के निन्दक होते हैं। विस्मयजनक विरोध तो उनका है, जो राष्ट्र को एक समाजवादी ढाँचे में लाने के समर्थक हैं। इनका विरोध देखकर तो यह सन्देह होने लगता है कि इनके समाजवादी ढाँचे के पीछे देशवासियों के कल्याण की भावना के अतिरिक्त कुछ अन्य भी प्रयोजन है।
संयुक्त-परिवार की प्रथा, वास्तव में उसी सिद्धान्त पर आश्रित है, जिस पर राष्ट्र का समाजवादी ढाँचा बनना सम्भव है। दोनों में अन्तर घेरे के विस्तार का है। परिवार की परिधि में केवल सम्बन्धियों को ही लिया जाता है और राष्ट्र की परिधि में कोटि-कोटि देशवासियों को। दोनों में समानता यह है कि घेरे से भीतर रहने वालों की संयुक्त सम्पत्ति होती है और उसका समान उपभोग किया जाता है।
समाजवादी ढाँचे के वे समर्थक, जिनमें पिता-पुत्र इकठ्ठे नहीं रह सकते अथवा जिनमें पति-पत्नी अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् सम्पति के भोक्ता हैं, समाजवादी ढाँचे के अर्थ क्या समझते हैं, जानना मनोरंजक होगा। जहाँ बड़ी आय वाला पुत्र अपने पिता के साथ, उस आय का भोग करना नहीं चाहता अथवा जहाँ धनी माता-पिता की लड़की सम्पत्ति अपने निर्धन पति से पृथक् रखना चाहती है, वहाँ कोई अपने पड़ोसी अथवा नगर वासी से कैसे, अपनी योग्यता से उत्पन्न आय बाँटकर प्रयोग कर सकता है ? ‘सोशियलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसाइटी’ का आह्नान करने वालों के घरेलू जीवन उनके उद्देश्यों पर प्रकाश डालने वाले होंगे।
लेखक का यह मत है कि राष्ट्र के समाजवादी ढाँचे में संयुक्त परिवार ईंटों का कार्य करेंगे। यह प्रथा वह भावना उत्पन्न करेगी, जिससे राष्ट्र के उत्पादक अंग व्यय करने वाले अंगों को खाने-पहनने के लिए देने के लिए स्वतः तैयार हो जावेंगे। उनसे ऐसा कराने के लिए दण्ड विधान अथवा जेलखानों तथा कन्सेन्ट्रेशन कैंपों की आवश्यकता नहीं होगी।
संयुक्त परिवार और राष्ट्र के समाजवादी ढाँचे को चलाने के लिए प्रजातन्त्रवादी प्रपंच उपयुक्त नहीं हो सकता। प्रजातन्त्र राज्य में संगठित दलों का होना आवश्यक है। परिवार जैसी संस्था में यदि संसदीय दलों की भाँति दल बन जायें तो परिवार उन्नति करने के स्थान में कलह के केन्द्र बन जायेंगे। अतः परिवार का पुरखा कोई अनुभवी, बुद्धिमान, वृद्ध संतुलित विचार रखने वाला व्यक्ति होना आवश्यक है। इस प्रकार यदि राष्ट्र का निर्माण समाजवादी ढाँचे पर करना है तो इसके संचालन के लिए पार्टियों के टिकट पर निर्वाचित सरकार उपयुक्त नहीं हो सकती। पार्टी-राज्य में देश की सम्पत्ति न रह कर एक पार्टी की सम्पत्ति बन जाएगी और सत्तारूढ़ पार्टी इस भय से कि वह कहीं आगामी निर्वाचन में पदच्युत न हो जाय, अपने काल में देश की सम्पत्ति को अधिक-से-अधिक लूटने का यत्न करेगी अथवा भोग करने में लगी रहेगी।
इसी प्रकार संयुक्त-परिवार और समाजवादी ढाँचे वाले राष्ट्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि इसकी परिधि के भीतर आने और इससे बाहर जाने की स्वतन्त्रता हो। इन परिधियों के भीतर किसी को बलपूर्वक बाँधकर रखने से तो लाभ के स्थान हानि की ही संभावना है।
संयुक्त परिवार के सदस्यों को बाँधकर रखने के लिए परस्पर स्नेह की भावना कार्य करती है। इसी प्रकार राष्ट्र को एक करने के लिए राष्ट्रीय भावना आवश्यक है।
यह भी लेखक का मत है कि ऐसे परिवार अथवा ऐसे राष्ट्र के संचालन के लिए आस्तिक पुरुष ही हो सकते हैं। लेखक का आस्तिकवाद से अर्थ, सातवें आसमान पर बैठे, आठ-दस हाथ तथा आँखों वाले, शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए इत्यादि ऐसे किसी सबके पिता, पालन-कर्ता में विश्वास नहीं है। ‘गुंठन’ में परिवार को नियन्त्रण में रखने वाले भगवतस्वरूप को लेखक ने किसी देवी-देवता का उपासक नहीं बनाया। इस पर भी उसको एक आस्तिक का रूप दिया है। वह किसी किए हुए कर्म के फल के मिलने को मानता है। वह मानता है कि कोई आत्मा नाम की वस्तु है, जो मनुष्य के जन्म को दूसरे जन्म से बाँधती है।
हिन्दू-समाज ने तो संयुक्त परिवार को सफल बनाकर दिखा दिया था। देश में अनेकों परिवार, इस प्रकार फलते-फूलते रहे हैं। यदि वर्तमान काल में यह चल नहीं रहा तो इसमें मुख्य कारण यूरोपीय भौतिकवाद का इस समाज में घुस आना है इस भौतिकवाद की विद्यमानता में क्या राष्ट्र में भी सामाजवादी ढाँचा लाया जा सकेगा ? विश्वास नहीं आता।
‘गुंठन उपन्यास के रूप में कितना सफल रहा है यह पाठकों के देखने और जानने की बात है। इतना बताना उचित ही है कि यद्यपि अब भी कई संयुक्त हिन्दू-परिवार देश में चल रहे हैं, तो भी इस पुस्तक में लिखे पात्र, स्थान और घटनाएँ काल्पनिक ही हैं।
परिवार का घेरा क्या होना चाहिए, यही इस पुस्तक का विषय है। यों तो परिवार-प्रथा के विरोधी भी परिवार रखते हैं, परन्तु उनके परिवार का घेरा पति-पत्नी और छोटे बच्चों तक ही, जब तक वे बड़े होकर कमाने न लग जावें, सीमित होता है। बच्चे बड़े हुए तो उनको अपना पृथक घेरा बनाना होता है। हिन्दू संयुक्त परिवार का घेरा इससे बड़ा है। कहीं-कहीं तो यह घेरा मामा, चाचा, ताऊ, पितामह, पौत्र, प्रपौत्र इत्यादि पर विस्तार पा जाता है।
इस पर भी यूरोपियन सभ्यता में पले भौतिकवादी संयुक्त परिवार को एक पुरानी, गली-सड़ी तथा घुनी हुई प्रथा मानते हैं। कुछ लोग तो इसका विरोध इस कारण करते हैं कि वे हिन्दुओं की प्रत्येक बात के निन्दक होते हैं। विस्मयजनक विरोध तो उनका है, जो राष्ट्र को एक समाजवादी ढाँचे में लाने के समर्थक हैं। इनका विरोध देखकर तो यह सन्देह होने लगता है कि इनके समाजवादी ढाँचे के पीछे देशवासियों के कल्याण की भावना के अतिरिक्त कुछ अन्य भी प्रयोजन है।
संयुक्त-परिवार की प्रथा, वास्तव में उसी सिद्धान्त पर आश्रित है, जिस पर राष्ट्र का समाजवादी ढाँचा बनना सम्भव है। दोनों में अन्तर घेरे के विस्तार का है। परिवार की परिधि में केवल सम्बन्धियों को ही लिया जाता है और राष्ट्र की परिधि में कोटि-कोटि देशवासियों को। दोनों में समानता यह है कि घेरे से भीतर रहने वालों की संयुक्त सम्पत्ति होती है और उसका समान उपभोग किया जाता है।
समाजवादी ढाँचे के वे समर्थक, जिनमें पिता-पुत्र इकठ्ठे नहीं रह सकते अथवा जिनमें पति-पत्नी अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् सम्पति के भोक्ता हैं, समाजवादी ढाँचे के अर्थ क्या समझते हैं, जानना मनोरंजक होगा। जहाँ बड़ी आय वाला पुत्र अपने पिता के साथ, उस आय का भोग करना नहीं चाहता अथवा जहाँ धनी माता-पिता की लड़की सम्पत्ति अपने निर्धन पति से पृथक् रखना चाहती है, वहाँ कोई अपने पड़ोसी अथवा नगर वासी से कैसे, अपनी योग्यता से उत्पन्न आय बाँटकर प्रयोग कर सकता है ? ‘सोशियलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसाइटी’ का आह्नान करने वालों के घरेलू जीवन उनके उद्देश्यों पर प्रकाश डालने वाले होंगे।
लेखक का यह मत है कि राष्ट्र के समाजवादी ढाँचे में संयुक्त परिवार ईंटों का कार्य करेंगे। यह प्रथा वह भावना उत्पन्न करेगी, जिससे राष्ट्र के उत्पादक अंग व्यय करने वाले अंगों को खाने-पहनने के लिए देने के लिए स्वतः तैयार हो जावेंगे। उनसे ऐसा कराने के लिए दण्ड विधान अथवा जेलखानों तथा कन्सेन्ट्रेशन कैंपों की आवश्यकता नहीं होगी।
संयुक्त परिवार और राष्ट्र के समाजवादी ढाँचे को चलाने के लिए प्रजातन्त्रवादी प्रपंच उपयुक्त नहीं हो सकता। प्रजातन्त्र राज्य में संगठित दलों का होना आवश्यक है। परिवार जैसी संस्था में यदि संसदीय दलों की भाँति दल बन जायें तो परिवार उन्नति करने के स्थान में कलह के केन्द्र बन जायेंगे। अतः परिवार का पुरखा कोई अनुभवी, बुद्धिमान, वृद्ध संतुलित विचार रखने वाला व्यक्ति होना आवश्यक है। इस प्रकार यदि राष्ट्र का निर्माण समाजवादी ढाँचे पर करना है तो इसके संचालन के लिए पार्टियों के टिकट पर निर्वाचित सरकार उपयुक्त नहीं हो सकती। पार्टी-राज्य में देश की सम्पत्ति न रह कर एक पार्टी की सम्पत्ति बन जाएगी और सत्तारूढ़ पार्टी इस भय से कि वह कहीं आगामी निर्वाचन में पदच्युत न हो जाय, अपने काल में देश की सम्पत्ति को अधिक-से-अधिक लूटने का यत्न करेगी अथवा भोग करने में लगी रहेगी।
इसी प्रकार संयुक्त-परिवार और समाजवादी ढाँचे वाले राष्ट्र की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि इसकी परिधि के भीतर आने और इससे बाहर जाने की स्वतन्त्रता हो। इन परिधियों के भीतर किसी को बलपूर्वक बाँधकर रखने से तो लाभ के स्थान हानि की ही संभावना है।
संयुक्त परिवार के सदस्यों को बाँधकर रखने के लिए परस्पर स्नेह की भावना कार्य करती है। इसी प्रकार राष्ट्र को एक करने के लिए राष्ट्रीय भावना आवश्यक है।
यह भी लेखक का मत है कि ऐसे परिवार अथवा ऐसे राष्ट्र के संचालन के लिए आस्तिक पुरुष ही हो सकते हैं। लेखक का आस्तिकवाद से अर्थ, सातवें आसमान पर बैठे, आठ-दस हाथ तथा आँखों वाले, शेषनाग की शय्या पर लेटे हुए इत्यादि ऐसे किसी सबके पिता, पालन-कर्ता में विश्वास नहीं है। ‘गुंठन’ में परिवार को नियन्त्रण में रखने वाले भगवतस्वरूप को लेखक ने किसी देवी-देवता का उपासक नहीं बनाया। इस पर भी उसको एक आस्तिक का रूप दिया है। वह किसी किए हुए कर्म के फल के मिलने को मानता है। वह मानता है कि कोई आत्मा नाम की वस्तु है, जो मनुष्य के जन्म को दूसरे जन्म से बाँधती है।
हिन्दू-समाज ने तो संयुक्त परिवार को सफल बनाकर दिखा दिया था। देश में अनेकों परिवार, इस प्रकार फलते-फूलते रहे हैं। यदि वर्तमान काल में यह चल नहीं रहा तो इसमें मुख्य कारण यूरोपीय भौतिकवाद का इस समाज में घुस आना है इस भौतिकवाद की विद्यमानता में क्या राष्ट्र में भी सामाजवादी ढाँचा लाया जा सकेगा ? विश्वास नहीं आता।
‘गुंठन उपन्यास के रूप में कितना सफल रहा है यह पाठकों के देखने और जानने की बात है। इतना बताना उचित ही है कि यद्यपि अब भी कई संयुक्त हिन्दू-परिवार देश में चल रहे हैं, तो भी इस पुस्तक में लिखे पात्र, स्थान और घटनाएँ काल्पनिक ही हैं।
:1:
किसी माता-पिता के लिए जीवन की सबसे अधिक आनन्दप्रिय घड़ी वह होती है, जब
वे अपनी संतान को साफ़-सुथरा, स्वस्थ, सुखी और सब प्रकार से सम्मानित
देखते हैं। किसी सम्राट की भांति—जो प्रजा को धन-धान्य से
सम्पन्न,
सुख-सुविधा से युक्त और निर्भय देखता है—वे भी अपनी सन्तान को
वैसा
ही देखकर सुख का अनुभव करते हैं। वे जानते हैं कि यह उनके जीवन-भर के
परिश्रम का फल है। ये हैं, जो वे निर्माण करने में सफल हुए हैं। ये सुन्दर
हैं, सबल हैं; स्वस्थ हैं, सुखी हैं और लोक में सम्मानित हैं। यह विचार ही
उनको आनन्दित करने के लिए पर्याप्त होता है।
भगवतस्वरूप के मन की यही अवस्था होती थी, जब वह अपने काम से सायंकाल घर आता और सब बाल-बच्चों को अपने चारों ओर एकत्रित कर उनसे बातचीत, हंसी-ठट्टा और विनोद करता था। उसने एक नियम-सा बना लिया था कि रात को वह परिवार में बैठकर ही भोजन करता था और इस प्रकार, जहां उसका चित्त प्रसन्न होता था, वहां बच्चे भी इतने समय पिता की संगत में रहते ।
गृहिणी सुशीलादेवी अपने पति के सुख-दुःख की भागीदार थी। वह निश्चित समय पर भोजन तैयार कर, अपने पति की न केवल स्वयं प्रतीक्षा करती थी, अपितु सब बच्चों को साफ़-सुथरे कपड़े पहनाकर इस अवसर के लिए तैयार रखती थी।
भगवतस्वरूप अब अड़तालीस वर्ष की आयु का था और यह कार्यक्रम तेईस वर्षों से—जब से उसका विवाह हुआ था—चल रहा था। उस समय भगवतस्वरूप के माता-पिता जीवित थे। आरम्भ में तो उन्हें अपने लड़के का यह कार्य कुछ लज्जा-हीन कृत्य प्रतीत हुआ था। उसकी मां ने कहा था-‘‘क्या कहते हो भगवती !
बहू को ? उसको लज्जा लगती है, इस प्रकार तुम्हारे लिए सज-धज कर बैठने पर।’’
पुत्र हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘लज्जा की क्या बात है माँ ! उसके पास अच्छे-अच्छे कपड़े हैं। वे पहिनने के लिए तो हैं। फिर जब मैं आता हूँ तो इससे अच्छा अवसर उनके पहनने का और कब हो सकता है ?’’
‘‘क्या लाभ होगा इससे ? कभी मुहल्ले-टोले में जाना हो, किसी घर खुशी-गमी में अथवा माँ के घर जाना हो, तब तो कपड़े पहिनने ही होते हैं। इसी समय उनको पहिनकर खराब करने से क्या लाभ है ?’’
‘‘यह बात तो मेरी समझ में नहीं आई, माँ ! कपड़े लाकर दूँ मैं और पहिन कर दिखाये मुहल्ले-टोले में। नहीं माँ ! यह नहीं होगा। माँ के घर जायेगी तो वे कपड़े पहिन कर जायेगी, जो इसकी माँ ने दिये हैं। उनको यह सँभालकर रख छोड़े। मैं तो इसको उन कपड़ों में देखना चाहता हूँ, जो मैंने लाकर दिये हैं और उनमें भी जो सबसे बढ़िया हैं।’’
भगवतस्वरूप का पिता साधु-स्वभाव का व्यक्ति था। वह घर की बातों में हस्तक्षेप नहीं करता था। जब भगवतस्वरूप की माँ उत्तर नहीं दे सकी तो यह प्रथा ही बन गई। जिस समय भगवतस्वरूप काम से आकर कपड़े बदल खाने के लिए आता, तब उसकी स्त्री सुशीला देवी अपने सबसे बढ़िया कपड़ों में और भूषणों से अलंकृत हो उसके लिए भोजन लाती। कभी-कभी उसकी माँ भी समीप आ बैठती और सब भोजन करते। इस समय ये कभी घर के सम्बन्ध की, कभी देश-विदेश की और कभी इतिहास की बातें करते।
एक दिन सुशीला ने, जब वे रात के विश्राम के लिए जाने वाले थे, कहा, ‘‘माँजी अभी तक भी आपके इकट्ठे भोजन करने के व्यवहार पर प्रसन्न नहीं हुईं।’’
‘‘शील ! वह इसी प्रकार अपनी स्त्री को बुलाया करता था, ‘‘क्या तुम भी प्रसन्न नहीं हो ?’’
‘‘मुझको को तो कोई कष्ट नहीं होता अब तो स्वभाव बन गया है। सायंकाल का भोजन तैयार कर मुख-हाथ धो, कंघी करने बैठ जाती हूँ। ठीक साढ़े आठ बजे कपडे़ पहिन तैयार हो जाती हूँ और आपके लिए खाना ले आती हूँ।
‘‘पर मैं कष्ट की बात नहीं पूछ रहा। मैं तो यह जानना चाहता हूँ कि तुमको मेरे पास आकर बैठने में प्रसन्नता नहीं होती क्या ?’’
‘‘जब आप मुझको देखकर सन्तोष अनुभव करते हैं तो मन आनन्द से भर जाता है। भला अप्रसन्न होने की बात इसमें कैसे आ सकती है।’’
‘‘तो माँ की बात छोड़ो। वे बड़ी आयु की हो गई हैं। कोई भी नवीन विचार अब सुगमता से उनकी समझ में नहीं आ सकता।’’
इस प्रकार यह प्रथा चली थी और अब इसको तेईस वर्ष हो गये थे। सायंकाल के भोजन का समय घर में एक मेले पर जाने के समान होता था। भोजन के लिए सब ऐसे तैयार होते थे, जैसे वे किसी विवाहोत्सव पर जाने वाले हों।
भगवतस्वरूप की नौकरी विवाह के पूर्व ही लग चुकी थी। उस समय घर में रोटी चौके में ही पीढ़े पर बैठकर खाई जाती थी। चौका छोटा-सा था और एक समय एक व्यक्ति ही वहाँ बैठकर खा सकता था। भोजन के समय के अतिरिक्त यदि कुछ खाना होता था तो हाथ में लेकर बाहर कमरे में खड़े-खड़े ही खाया जा सकता था।
नौकरी लगने पर पहली बात, जो उसने की वह चौके के बाहर रोटी खाने की थी। चौके के बगल में एक कमरा था, जो रात को सोने के लिए प्रयोग में लाया जाता था। उसने इसको भोजन करने का कमरा बना लिया। बाजार से एक चटाई ले आया और उसपर बैठकर भोजन करने लगा। माँ ने कहा, ‘‘बेटा रोटी चौके के बाहर जाते-जाते ठण्डी हो जाती है।’’
‘‘आधे मिनट में क्या ठण्डी होगी माँ।’’
‘‘चौके के बाहर खाने में क्या मिलता है तुमको ?’’
‘‘भीतर जगह बहुत तंग है।’’
‘‘तो यहाँ कौन बीस प्राणी हैं खाने वाले ? एक ही तो हो। तुम्हारे पिता तो प्रातःकाल सात बजे दुकान पर जाते हैं और रात को दस बजे दुकान से लौटते हैं।
‘‘पर माँ और प्राणी भी तो आवेंगे।’’
‘‘जब आवेंगे तब विचार कर लेंगे।’’
‘‘उनके लिए स्थान बनाऊंगा, तभी तो आवेंगे।’’
माँ चुप कर रही। बाहर का कमरा ‘डाईनिंग हाल’ बन गया। फिर उसमें धीरे-धीरे उन्नति होने लगी। वह मैट्रिक पास था और एक अंग्रेजी फर्म में साधारण क्लर्क की नौकरी पा गया था। पचास रूपये मासिक ही वेतन था, इस कारण मकान में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे हो सके थे। इस पर भी जब उसका विवाह हुआ, तब उसके घर में पीतल के बर्तनों के अतिरिक्त कुछ ‘‘क्रॉकरी’ भी आ चुकी थी। इस समय सुशीला देवी आई। भाग्य की बात थी कि उनके आने के साथ ही उसके वेतन में उन्नति होने लगी। वह फर्म में अकाउंटैंट नियुक्त हो गया।
प्रातः नौ बजे उसको काम पर जाना होता था, इस कारण प्रातः- काल का खाना बहुत थोड़ा होता था। मध्याह्न का आहार वह कार्यालय में कर लिया करता था। सायं-काल का भोजन वह अपने घर पर, परिवार में करने का हठ करता था।
आवश्यकता के अनुसार आय बढ़ती गई और उसके साथ धीरे-धीरे घर का प्रबन्ध भी सुधरता गया। सुशीला आई और उसके बच्चे भी आने लगे। अब तक पाँच बच्चे हो चुके थे। भगवतस्वरूप के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। वे अपनी कमाई का बहुत-सा भाग नगद रूपयों के रूप में छोड़ गये थे, जिनसे भगवतस्वरूप अपने पुराने मकान का नव-निर्माण करा सका था।
भगवतस्वरूप अभी भी, उसी फर्म में नौकर था और उसमें अब मैंनेजर के रूप में काम करता था। उसको अब छः सौ रूपया वेतन मिलता था। मालिक उसकी ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर बहुत प्रसन्न थे और उसको सदैव उन्नति की आशा बनी रहती थी। घर सब प्रकार से सुखकारक, फर्नीचर और धन-धान्य से युक्त था।
सबसे बड़ा लड़का विनोद एम. ए. में पढ़ता था। उससे छोटा भूषण इण्टरमीडिएट में। इससे छोटी तीन लड़कियाँ थीं। कान्ता नवमी श्रेणी में कला पाँचवीं में और शोभा अभी स्कूल में भर्ती हुई ही थी। बच्चों के अतिरिक्त घर में एक नौकरानी थी। नाम था मेलो। यह घर में सफाई और कपड़े धोने, लोहा करने इत्यादि का काम करती थी। रसोई का काम शीला स्वयं करती थी।
जब से भगवतस्वरूप की नौकरी लगी, तब से ही वह अपने जीवन की सफलता का आधार आय और व्यय के संतुलन में ही समझता था। वह बहुत विचार के पश्चात् आय का चालीस प्रतिशत भोजन के लिए, पन्द्रह प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई और अन्य मिश्रित खर्चों पर, पन्द्रह प्रतिशत कपड़ों पर पन्द्रह प्रतिशत जेब खर्चा, दस प्रतिशत बैंक में और पाँच प्रतिशत मकान की मरम्मत और सजावट के लिए खर्च करता था। जब वेतन पचास रूपया था, तब भी और अब, जब वह छः सौ रूपया था, तब भी वह इसी अनुपात में खर्चा चला रहा था। इस प्रकार काम बहुत आनन्दपूर्वक चल रहा था।
भगवतस्वरूप के मन की यही अवस्था होती थी, जब वह अपने काम से सायंकाल घर आता और सब बाल-बच्चों को अपने चारों ओर एकत्रित कर उनसे बातचीत, हंसी-ठट्टा और विनोद करता था। उसने एक नियम-सा बना लिया था कि रात को वह परिवार में बैठकर ही भोजन करता था और इस प्रकार, जहां उसका चित्त प्रसन्न होता था, वहां बच्चे भी इतने समय पिता की संगत में रहते ।
गृहिणी सुशीलादेवी अपने पति के सुख-दुःख की भागीदार थी। वह निश्चित समय पर भोजन तैयार कर, अपने पति की न केवल स्वयं प्रतीक्षा करती थी, अपितु सब बच्चों को साफ़-सुथरे कपड़े पहनाकर इस अवसर के लिए तैयार रखती थी।
भगवतस्वरूप अब अड़तालीस वर्ष की आयु का था और यह कार्यक्रम तेईस वर्षों से—जब से उसका विवाह हुआ था—चल रहा था। उस समय भगवतस्वरूप के माता-पिता जीवित थे। आरम्भ में तो उन्हें अपने लड़के का यह कार्य कुछ लज्जा-हीन कृत्य प्रतीत हुआ था। उसकी मां ने कहा था-‘‘क्या कहते हो भगवती !
बहू को ? उसको लज्जा लगती है, इस प्रकार तुम्हारे लिए सज-धज कर बैठने पर।’’
पुत्र हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘लज्जा की क्या बात है माँ ! उसके पास अच्छे-अच्छे कपड़े हैं। वे पहिनने के लिए तो हैं। फिर जब मैं आता हूँ तो इससे अच्छा अवसर उनके पहनने का और कब हो सकता है ?’’
‘‘क्या लाभ होगा इससे ? कभी मुहल्ले-टोले में जाना हो, किसी घर खुशी-गमी में अथवा माँ के घर जाना हो, तब तो कपड़े पहिनने ही होते हैं। इसी समय उनको पहिनकर खराब करने से क्या लाभ है ?’’
‘‘यह बात तो मेरी समझ में नहीं आई, माँ ! कपड़े लाकर दूँ मैं और पहिन कर दिखाये मुहल्ले-टोले में। नहीं माँ ! यह नहीं होगा। माँ के घर जायेगी तो वे कपड़े पहिन कर जायेगी, जो इसकी माँ ने दिये हैं। उनको यह सँभालकर रख छोड़े। मैं तो इसको उन कपड़ों में देखना चाहता हूँ, जो मैंने लाकर दिये हैं और उनमें भी जो सबसे बढ़िया हैं।’’
भगवतस्वरूप का पिता साधु-स्वभाव का व्यक्ति था। वह घर की बातों में हस्तक्षेप नहीं करता था। जब भगवतस्वरूप की माँ उत्तर नहीं दे सकी तो यह प्रथा ही बन गई। जिस समय भगवतस्वरूप काम से आकर कपड़े बदल खाने के लिए आता, तब उसकी स्त्री सुशीला देवी अपने सबसे बढ़िया कपड़ों में और भूषणों से अलंकृत हो उसके लिए भोजन लाती। कभी-कभी उसकी माँ भी समीप आ बैठती और सब भोजन करते। इस समय ये कभी घर के सम्बन्ध की, कभी देश-विदेश की और कभी इतिहास की बातें करते।
एक दिन सुशीला ने, जब वे रात के विश्राम के लिए जाने वाले थे, कहा, ‘‘माँजी अभी तक भी आपके इकट्ठे भोजन करने के व्यवहार पर प्रसन्न नहीं हुईं।’’
‘‘शील ! वह इसी प्रकार अपनी स्त्री को बुलाया करता था, ‘‘क्या तुम भी प्रसन्न नहीं हो ?’’
‘‘मुझको को तो कोई कष्ट नहीं होता अब तो स्वभाव बन गया है। सायंकाल का भोजन तैयार कर मुख-हाथ धो, कंघी करने बैठ जाती हूँ। ठीक साढ़े आठ बजे कपडे़ पहिन तैयार हो जाती हूँ और आपके लिए खाना ले आती हूँ।
‘‘पर मैं कष्ट की बात नहीं पूछ रहा। मैं तो यह जानना चाहता हूँ कि तुमको मेरे पास आकर बैठने में प्रसन्नता नहीं होती क्या ?’’
‘‘जब आप मुझको देखकर सन्तोष अनुभव करते हैं तो मन आनन्द से भर जाता है। भला अप्रसन्न होने की बात इसमें कैसे आ सकती है।’’
‘‘तो माँ की बात छोड़ो। वे बड़ी आयु की हो गई हैं। कोई भी नवीन विचार अब सुगमता से उनकी समझ में नहीं आ सकता।’’
इस प्रकार यह प्रथा चली थी और अब इसको तेईस वर्ष हो गये थे। सायंकाल के भोजन का समय घर में एक मेले पर जाने के समान होता था। भोजन के लिए सब ऐसे तैयार होते थे, जैसे वे किसी विवाहोत्सव पर जाने वाले हों।
भगवतस्वरूप की नौकरी विवाह के पूर्व ही लग चुकी थी। उस समय घर में रोटी चौके में ही पीढ़े पर बैठकर खाई जाती थी। चौका छोटा-सा था और एक समय एक व्यक्ति ही वहाँ बैठकर खा सकता था। भोजन के समय के अतिरिक्त यदि कुछ खाना होता था तो हाथ में लेकर बाहर कमरे में खड़े-खड़े ही खाया जा सकता था।
नौकरी लगने पर पहली बात, जो उसने की वह चौके के बाहर रोटी खाने की थी। चौके के बगल में एक कमरा था, जो रात को सोने के लिए प्रयोग में लाया जाता था। उसने इसको भोजन करने का कमरा बना लिया। बाजार से एक चटाई ले आया और उसपर बैठकर भोजन करने लगा। माँ ने कहा, ‘‘बेटा रोटी चौके के बाहर जाते-जाते ठण्डी हो जाती है।’’
‘‘आधे मिनट में क्या ठण्डी होगी माँ।’’
‘‘चौके के बाहर खाने में क्या मिलता है तुमको ?’’
‘‘भीतर जगह बहुत तंग है।’’
‘‘तो यहाँ कौन बीस प्राणी हैं खाने वाले ? एक ही तो हो। तुम्हारे पिता तो प्रातःकाल सात बजे दुकान पर जाते हैं और रात को दस बजे दुकान से लौटते हैं।
‘‘पर माँ और प्राणी भी तो आवेंगे।’’
‘‘जब आवेंगे तब विचार कर लेंगे।’’
‘‘उनके लिए स्थान बनाऊंगा, तभी तो आवेंगे।’’
माँ चुप कर रही। बाहर का कमरा ‘डाईनिंग हाल’ बन गया। फिर उसमें धीरे-धीरे उन्नति होने लगी। वह मैट्रिक पास था और एक अंग्रेजी फर्म में साधारण क्लर्क की नौकरी पा गया था। पचास रूपये मासिक ही वेतन था, इस कारण मकान में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे हो सके थे। इस पर भी जब उसका विवाह हुआ, तब उसके घर में पीतल के बर्तनों के अतिरिक्त कुछ ‘‘क्रॉकरी’ भी आ चुकी थी। इस समय सुशीला देवी आई। भाग्य की बात थी कि उनके आने के साथ ही उसके वेतन में उन्नति होने लगी। वह फर्म में अकाउंटैंट नियुक्त हो गया।
प्रातः नौ बजे उसको काम पर जाना होता था, इस कारण प्रातः- काल का खाना बहुत थोड़ा होता था। मध्याह्न का आहार वह कार्यालय में कर लिया करता था। सायं-काल का भोजन वह अपने घर पर, परिवार में करने का हठ करता था।
आवश्यकता के अनुसार आय बढ़ती गई और उसके साथ धीरे-धीरे घर का प्रबन्ध भी सुधरता गया। सुशीला आई और उसके बच्चे भी आने लगे। अब तक पाँच बच्चे हो चुके थे। भगवतस्वरूप के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। वे अपनी कमाई का बहुत-सा भाग नगद रूपयों के रूप में छोड़ गये थे, जिनसे भगवतस्वरूप अपने पुराने मकान का नव-निर्माण करा सका था।
भगवतस्वरूप अभी भी, उसी फर्म में नौकर था और उसमें अब मैंनेजर के रूप में काम करता था। उसको अब छः सौ रूपया वेतन मिलता था। मालिक उसकी ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर बहुत प्रसन्न थे और उसको सदैव उन्नति की आशा बनी रहती थी। घर सब प्रकार से सुखकारक, फर्नीचर और धन-धान्य से युक्त था।
सबसे बड़ा लड़का विनोद एम. ए. में पढ़ता था। उससे छोटा भूषण इण्टरमीडिएट में। इससे छोटी तीन लड़कियाँ थीं। कान्ता नवमी श्रेणी में कला पाँचवीं में और शोभा अभी स्कूल में भर्ती हुई ही थी। बच्चों के अतिरिक्त घर में एक नौकरानी थी। नाम था मेलो। यह घर में सफाई और कपड़े धोने, लोहा करने इत्यादि का काम करती थी। रसोई का काम शीला स्वयं करती थी।
जब से भगवतस्वरूप की नौकरी लगी, तब से ही वह अपने जीवन की सफलता का आधार आय और व्यय के संतुलन में ही समझता था। वह बहुत विचार के पश्चात् आय का चालीस प्रतिशत भोजन के लिए, पन्द्रह प्रतिशत बच्चों की पढ़ाई और अन्य मिश्रित खर्चों पर, पन्द्रह प्रतिशत कपड़ों पर पन्द्रह प्रतिशत जेब खर्चा, दस प्रतिशत बैंक में और पाँच प्रतिशत मकान की मरम्मत और सजावट के लिए खर्च करता था। जब वेतन पचास रूपया था, तब भी और अब, जब वह छः सौ रूपया था, तब भी वह इसी अनुपात में खर्चा चला रहा था। इस प्रकार काम बहुत आनन्दपूर्वक चल रहा था।
:2:
परन्तु सब दिन एक समान नहीं चलते। निर्जीव वस्तुओं को कोई जहाँ भी उठाकर
रख दे, वहीं रखी रह जावेंगी। सजीवों का व्यवहार इस प्रकार चल नहीं सकता।
भगवतस्वरूप के परिवार में भी परिवर्तन आया। जिस स्मृतिकार ने यह नियम
बनाया था कि लड़की दूसरे घर में विवाही जावे, उसने परिवार भंग करने का
बीजारोपण कर दिया था। यह बीज भगवतस्वरूप के घर में भी बोया गया।
विनोद ने एम. ए. पास किया और एक स्थानीय कॉलेज में प्रोफेसर लग गया। वह लड़कों को अर्थशास्त्र पढ़ाता था। हिन्दू समाज में लड़का काम में लगा की सगाइयाँ आने लगीं। यही विनोद के साथ होने लगा।
स्त्रियाँ सुशीला के पास आने लगीं, पुरूष भगवतस्वरूप के पास जाने लगे और लड़कियों ने विनोद को सीधे डोरे डालने आरम्भ कर दिये। बात घर की ‘कौंसिल’ में उपस्थित हुई।
सुशीला ने रात के भोजन के समय बात चला दी। विनोद वार्त्तालाप में अपना नाम सुनकर सतर्क हो गया-‘‘मधु की माँ कई दिनों से आ रही है। वह विनोद के विषय में कहती थी।’’
‘‘क्या कहती थी कि ?’’ भगवतस्वरूप ने पूछा।
‘‘कहती थी विनोद बहुत अच्छा लड़का है और मधु अब सज्ञान हो गई है।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मधु दसवीं कक्षा पास कर चुकी है और घर के काम-काज में बहुत निपुण है।’’
‘और इधर लाला सुखदेवराज अपनी लड़की के लिए कह रहे हैं।’’
‘‘कौन सुखदेवराज ?’’
अकाउन्टैंट जनरल के दफ्तर में सुपरिन्टेंडेंट हैं। विनोद के पिछले जन्म-दिवस पर आये थे और जिस लड़की के विषय में कहते हैं, वह उस दिन उनके साथ ही थी।’’
‘‘औह, जयन्ती ? उसकी माँ भी तो आती रहती है।’’
‘‘क्यों विनोद क्या इच्छा है ?’’
सायंकाल परिवार के एकत्रित होने से, सबको परस्पर निस्संकोच बात करने का अभ्यास-सा हो गया था। इस कारण विनोद ने कह दिया, ‘‘पिताजी ! प्रोफेसर रैड्डी की लड़की को मैं भली-भाँति जानता हूँ और वह बहुत अच्छी है।’’
इस प्रकार बात समाप्त ही समझी गई। भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘विनोद ! विवाह तुम्हें करना है, इस कारण मुख्य सम्मति तुम्हारी ही होगी। इस पर भी कई बातें विचारणीय हैं, पिताजी ?’’
‘‘लड़की मद्रासी परिवार में पली है। वह पंजाबी परिवार को स्वीकार कर लेगी अथवा नहीं ?’’
‘‘विवाह होते ही हम पृथक परिवार की नींव डालेंगे।’’
‘‘तब तो मेरे और तुम्हारी माता के विचार करने को बहुत कम रह गया है। केवल एक ही बात ही शेष है।’’
‘‘क्या पिताजी ?’’
‘‘जब तुम दोनों ने इतना कुछ पहले ही निश्चय कर लिया है, तो यह भी विचार कर लिया होगा कि एक मास में कितनी बार मिलने आया करोगे ?’’
‘‘जितनी बार माँ उसके पास जाया करेंगी।’’
‘‘देखो विनोद !’’ सुशीला ने कुछ उद्धिग्न होकर कहा, ‘‘तुम अब तेईस वर्ष के हो गये हो और जब से पैदा हुए हो, हम नित्य तुमसे मिलते रहते हैं। अब विवाह के पश्चात् इतने ही काल तक जब तुम हमसे मिल लोगे, तब तुम हमसे बराबरी की बात सोचना।’’
‘‘मैं तो उसकी बात कह रहा हूँ माँ !’’
‘‘मैं उससे मिलकर क्या करूँगी ? हम तुम्हारी बात कह रहे हैं।’’
भगवतस्वरूप हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘एक बार इस कमरे में उस आलने पर चिड़ियों ने घोंसला बना लिया था। चिड़िया ने अण्डे दिये। अंडों से बच्चे हुए। चिड़िया मुख में चोगा ढूँढ़कर लाती और बच्चों को खिलाती। बच्चे बड़े हो गए। एक दिन जब चिड़ा-चिड़ी बच्चों के लिए खाना ढूँढ़ने गए हुए थे, बच्चे फुर्र कर उड़ गए। वे फिर नहीं लौटे। घोसला खाली देख चिड़ा-चिड़ी विस्मय से देखते रह गए। चुर्र-चुर्र कर उनको बुलाते रहे। पश्चात कुछ काल तक शोक-मुद्रा में खाली घोसले को देखते रहे और फिर वे भी घोंसला छोड़कर उड़ गए।’’
सुशीला इस कथा को सुन मुस्कराई और बोली, ‘‘मैं न तो चिड़िया हूँ और न ही विनोद चिड़िया का बच्चा।’’
‘‘माँ !’’ विनोद ने दृढ़ता से कहा, ‘‘संसार में ऐसा ही हो रहा है। हम उससे बाहर नहीं हो सकते।’’
‘‘तो बात निश्चय हो गई समझ लें ?’’ भगवतस्वरूप ने प्रश्न-भरी दृष्टि से विनोद की ओर देखकर पूछा।
‘‘मेरे और नलिनी के भीतर तो बात निश्चय हो चुकी है। उसे अपने माता-पिता से बात करनी है।’’
‘‘तो उसको कहो कि वह भी बात कर ले। हमारी ओर से तुमको पूर्ण स्वतन्त्रता है। यदि इस प्रबन्ध में कुछ विघ्न पड़े तो बताना कि हम उसमें क्या सहायता कर सकते हैं।’’
चौबीस वर्ष के विवाहित जीवन में सुशीला के लिए यह पहला अवसर था, जब उसकी रूचि के विपरीत बात हो रही थी। एकान्त में सुशीला ने भगवतस्वरूप से विनोद के व्यवहार पर चिंता प्रकट की। इस पर भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘ओभोली शील ! जीवन में सुख उसको मिलता है, जो लचकदार बनकर रहता है और समय के घात-प्रतिघात को ऐसे सहता है, जैसे रबड़ का गेंद।’’
विनोद ने एम. ए. पास किया और एक स्थानीय कॉलेज में प्रोफेसर लग गया। वह लड़कों को अर्थशास्त्र पढ़ाता था। हिन्दू समाज में लड़का काम में लगा की सगाइयाँ आने लगीं। यही विनोद के साथ होने लगा।
स्त्रियाँ सुशीला के पास आने लगीं, पुरूष भगवतस्वरूप के पास जाने लगे और लड़कियों ने विनोद को सीधे डोरे डालने आरम्भ कर दिये। बात घर की ‘कौंसिल’ में उपस्थित हुई।
सुशीला ने रात के भोजन के समय बात चला दी। विनोद वार्त्तालाप में अपना नाम सुनकर सतर्क हो गया-‘‘मधु की माँ कई दिनों से आ रही है। वह विनोद के विषय में कहती थी।’’
‘‘क्या कहती थी कि ?’’ भगवतस्वरूप ने पूछा।
‘‘कहती थी विनोद बहुत अच्छा लड़का है और मधु अब सज्ञान हो गई है।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मधु दसवीं कक्षा पास कर चुकी है और घर के काम-काज में बहुत निपुण है।’’
‘और इधर लाला सुखदेवराज अपनी लड़की के लिए कह रहे हैं।’’
‘‘कौन सुखदेवराज ?’’
अकाउन्टैंट जनरल के दफ्तर में सुपरिन्टेंडेंट हैं। विनोद के पिछले जन्म-दिवस पर आये थे और जिस लड़की के विषय में कहते हैं, वह उस दिन उनके साथ ही थी।’’
‘‘औह, जयन्ती ? उसकी माँ भी तो आती रहती है।’’
‘‘क्यों विनोद क्या इच्छा है ?’’
सायंकाल परिवार के एकत्रित होने से, सबको परस्पर निस्संकोच बात करने का अभ्यास-सा हो गया था। इस कारण विनोद ने कह दिया, ‘‘पिताजी ! प्रोफेसर रैड्डी की लड़की को मैं भली-भाँति जानता हूँ और वह बहुत अच्छी है।’’
इस प्रकार बात समाप्त ही समझी गई। भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘विनोद ! विवाह तुम्हें करना है, इस कारण मुख्य सम्मति तुम्हारी ही होगी। इस पर भी कई बातें विचारणीय हैं, पिताजी ?’’
‘‘लड़की मद्रासी परिवार में पली है। वह पंजाबी परिवार को स्वीकार कर लेगी अथवा नहीं ?’’
‘‘विवाह होते ही हम पृथक परिवार की नींव डालेंगे।’’
‘‘तब तो मेरे और तुम्हारी माता के विचार करने को बहुत कम रह गया है। केवल एक ही बात ही शेष है।’’
‘‘क्या पिताजी ?’’
‘‘जब तुम दोनों ने इतना कुछ पहले ही निश्चय कर लिया है, तो यह भी विचार कर लिया होगा कि एक मास में कितनी बार मिलने आया करोगे ?’’
‘‘जितनी बार माँ उसके पास जाया करेंगी।’’
‘‘देखो विनोद !’’ सुशीला ने कुछ उद्धिग्न होकर कहा, ‘‘तुम अब तेईस वर्ष के हो गये हो और जब से पैदा हुए हो, हम नित्य तुमसे मिलते रहते हैं। अब विवाह के पश्चात् इतने ही काल तक जब तुम हमसे मिल लोगे, तब तुम हमसे बराबरी की बात सोचना।’’
‘‘मैं तो उसकी बात कह रहा हूँ माँ !’’
‘‘मैं उससे मिलकर क्या करूँगी ? हम तुम्हारी बात कह रहे हैं।’’
भगवतस्वरूप हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘एक बार इस कमरे में उस आलने पर चिड़ियों ने घोंसला बना लिया था। चिड़िया ने अण्डे दिये। अंडों से बच्चे हुए। चिड़िया मुख में चोगा ढूँढ़कर लाती और बच्चों को खिलाती। बच्चे बड़े हो गए। एक दिन जब चिड़ा-चिड़ी बच्चों के लिए खाना ढूँढ़ने गए हुए थे, बच्चे फुर्र कर उड़ गए। वे फिर नहीं लौटे। घोसला खाली देख चिड़ा-चिड़ी विस्मय से देखते रह गए। चुर्र-चुर्र कर उनको बुलाते रहे। पश्चात कुछ काल तक शोक-मुद्रा में खाली घोसले को देखते रहे और फिर वे भी घोंसला छोड़कर उड़ गए।’’
सुशीला इस कथा को सुन मुस्कराई और बोली, ‘‘मैं न तो चिड़िया हूँ और न ही विनोद चिड़िया का बच्चा।’’
‘‘माँ !’’ विनोद ने दृढ़ता से कहा, ‘‘संसार में ऐसा ही हो रहा है। हम उससे बाहर नहीं हो सकते।’’
‘‘तो बात निश्चय हो गई समझ लें ?’’ भगवतस्वरूप ने प्रश्न-भरी दृष्टि से विनोद की ओर देखकर पूछा।
‘‘मेरे और नलिनी के भीतर तो बात निश्चय हो चुकी है। उसे अपने माता-पिता से बात करनी है।’’
‘‘तो उसको कहो कि वह भी बात कर ले। हमारी ओर से तुमको पूर्ण स्वतन्त्रता है। यदि इस प्रबन्ध में कुछ विघ्न पड़े तो बताना कि हम उसमें क्या सहायता कर सकते हैं।’’
चौबीस वर्ष के विवाहित जीवन में सुशीला के लिए यह पहला अवसर था, जब उसकी रूचि के विपरीत बात हो रही थी। एकान्त में सुशीला ने भगवतस्वरूप से विनोद के व्यवहार पर चिंता प्रकट की। इस पर भगवतस्वरूप ने कहा, ‘‘ओभोली शील ! जीवन में सुख उसको मिलता है, जो लचकदार बनकर रहता है और समय के घात-प्रतिघात को ऐसे सहता है, जैसे रबड़ का गेंद।’’
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