विविध उपन्यास >> पंकज पंकजगुरुदत्त
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एक श्रेष्ठ उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रथम परिच्छेद
बनते हुए नगरों में, जहाँ महल और अटारियाँ निर्मित होती हैं, वहाँ दो-चार
गन्दी बस्तियाँ भी बन जाती हैं। नगर-निर्माण कार्य में जहाँ लाखों रुपये
लगाने वाले ठेकेदारों और इमारती सामान बेचने वालों की आवश्यकता रहती हैं,
वहाँ मजदूरों की, जो खुदाई करते हैं, ईंटें ढोते हैं, सड़कें कूटतें हैं
और अन्य अनेकों इसी प्रकार के कार्य करते हैं, भी आवश्यकता रहती हैं।
यह एक प्रचलित उक्ति बन गई है कि नगर-निर्माण कार्य में इन अल्प आय वाले मजदूरों के लिए बनी गन्दी बस्ती के लिये पूँजी-पति, ठेकेदार अथवा व्यापारी उत्तरदायी हैं। यह बात ठीक भी प्रतीत होती है। महल बनाने वालों के मस्तिष्क में कभी यह विचार तक नहीं आता कि दिन भर मेहनत-मजदूरी करने वाले प्राणी को भी सर्दी-होने से बचने, आँधी-वर्षा में सिर छिपाने और फिर रात के समय कहीं एकान्तवास की आवश्यकता रहती है।
वे बेचारे मजदूर, अपनी स्त्री और काम करने योग्य पुत्र-पुत्रियों के साथ, दिन भर के परिश्रम के बाद, जब नगर के बाहर स्वामिहीन भूमि पर बनी कुटिया में, थकावट से लड़खड़ाते पगों से मन्द-मन्द गति से जा रहे होते हैं उन्हें देख जीवन की दूःभर स्थिति पर विचार करने के लिए विवश होना ही पड़ता है।
जब नई दिल्ली का निर्माण हो रहा था, तब यमुना के किनारे एक मजदूरों की बस्ती का भी निर्माण साथ-साथ होता जाता था । पहले नई दिल्ली पुराने नगर के उत्तर की ओर यमुना के किनारे जहाँ आज तिमारपुर है, बनाने का विचार हुआ था। इसके साथ ही नगर में पूर्व की ओर यमुना तट पर एक गन्दी बस्ती का भी निर्माण हो गया। नई दिल्ली के बनाने की घोषणा भारत-सम्राट ने की थी। वाइसराय ने इसके प्रथम भवन का शिलान्यास किया था और इसके निर्माण के लिये देश-विदेश से इंजीनियर तथा ठेकेदार आये थे। परन्तु यमुना तट की इस गन्दी बस्ती को बनाने की न तो किसी ने घोषणा की, न इसका शिलान्यास हुआ है और न ही इसके बनाने के लिये किसी को कर देने अथवा धन लगाने की आवश्यकता हुई। यह स्वयमेव बनती चली गई।
भगतू, जिला रोहतक का एक गरीब भूमिहीन किसान, जब दिल्ली में काम की धूम सुन, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आया और वाइसराय के लिये बनने वाले भवन में ईंटें ढोने का काम पा गया, तो प्रसन्नता से फूला नहीं समाया।
भगतू की पत्नी मनकी को भी काम मिल गया। भगतू को एक रुपया और मनकी को बारह आने प्रतिदिन की मजदूरी की बात हो गई। भगतू ने जब से होश सँभाला था, दो-चार पैसे से अधिक, कभी हाथ में ले कर नहीं देखे थे। यह उसके जीवन का पहला दिन था, जब वह दिन ढलने पर पौने दो रुपये हाथ में पकड़ने और उनको स्वेच्छा से व्यय करने की आशा मन में बाँध बैठा था।
भगतू के पुत्र और पुत्री को कार्य नहीं मिला, क्योंकि वे अभी छोटे ही थे। लड़की ग्यारह वर्ष की थी और लड़का दस वर्ष का। भगतू ने ठेकेदार को कहा भी था कि बच्चे कुछ काम तो कर ही देंगे, जो मन में आये दे दीजिएगा; परन्तु ठेकेदार ने कह दिया, ‘‘नहीं, ये अभी छोटे हैं। इनको काम नहीं दिया जा सकता। कानून ऐसा ही है।’’
परिणामस्वरूप मोहिनी और सन्तू एक पेड़ के नीचे बैठ कंकड़ों से खेलते रहे और भगतू और मनकी काम करते रहे।
दोपहर के समय एक घण्टे की छुट्टी हुई। मनकी गाँव से भुना बाजारा और मकई लाई थी। अपने बच्चों के पास आकर वे उनको चबाने लगे। नमक और लाल मिर्च भी साथ थी। इससे मुख का स्वाद बना लिया जाता था।
बच्चे भूखे थे। माता-पिता ने मेहनत से चार घण्टे कार्य किया था। सबने पेट भर खाया और सो गये। समय का घण्टा बजा और सब मजदूर काम पर जा पहुँचे। मोहिनी और सन्तू वहीं पेड़ के नीचे बैठे रहे। मोहिनी सो गई तो सन्तू वहीं अपने आस-पास नजर दौड़ाने लगा।
उस पेड़ से कुछ अन्तर पर ही वह विशाल भवन बन रहा था, जिसमें भारत-सम्राट का प्रतिनिधि, जिसकी लेखनी की गति से बड़े-बड़े राजा-रईसों के वारे-न्यारे होते रहते थे, आकर रहने वाला था।
बालक के मन में विचार उठ रहा था, ‘‘यह किसके लिए बन रहा है ? कौन बना रहा है ? हमारे लिए क्यों नहीं बन रहा ? इस घर में रहने वाले के माता-पिता क्या करते होंगे ? हमारे माता-पिता भी वैसा क्यों नहीं करते ?’’
एक मुंशी हाथ में छड़ी लिए, बगल में हाजिरी लेने का रजिस्टर दबाये, आँख पर टेढा़ चश्मा चढा़ये, घूम-घूम कर, मजदूरों को काम करने के लिए कह रहा था। तीन बजे के लगभग मोटर में सवार, सूट तथा हेट पहने एक व्यक्ति और मोटर में बैठे-बैठे ही काम होता देख, मुंशी से बातें कर चला गया।
सन्तू और मोहिनी ने मोटर पहिली बार ही देखी थी। इसे बिना घोड़े के ही चलती देख खड़े-ख़ड़े विस्मति करते रहे। मोटर गई तो मुंशी फिर घूम-घूम कर मजदूरों को डाटने-डपटने में लग गया। पाँच बजे से पूर्व एक सफेदपोश आया और हाथ में फीता ले, बने हुए काम की, कहीं-कहीं से पैमाइश करने लगा।
काम बन्द करते-करते साढे़ पाँच बज गये। मुंशी ने, बाबू को, जो ओवरसियर था, वृत्तान्त बताया। इसी समय भगतू आया और मुंशी की ओर देख कर कहने लगा, ‘‘हजूर ! मजदूरी मिल जाय।’’
‘‘क्यों, कल नहीं आओगे, क्यों ?’’
‘‘आऊँगा, हजूर !’’
‘‘तो मजदूरी शनिवार को मिलेगी।’’
‘‘परन्तु तब तक पेट कैसे भरूँगा ?’’
‘‘यहाँ का कायदा तो यही है कि मजदूरी शनिवार को बँटती है।’’
‘‘आज तो अभी मंगलवार ही है हजूर ! हम तो तब तक भूखों मर जायंगे।’’
‘‘तो मैं क्या करूँ ?’’
इस पर ओवरसियर ने कह दिया-मुंशी जी कुछ खाने-भर को दे दो न।’’
‘‘ठेकेदार नाराज़ होंगे।’’
‘‘क्यों नाराज़ होंगे ? उन्होंने मेहनत की है, अपनी मजदूरी माँग रहे हैं। उनमें से ही तो दोगे ?’’
‘‘पर मेरे पास तो इस समय नगद नहीं है।’’
‘‘अच्छा कितनी मजदूरी बनी है इनकी ?’’
मुँशी ने हाजिरी का रजिस्टर निकाल कर भगतू और उसकी पत्नी की हाजिरी देख कर कहा, ‘‘दोनों के पौने दो रुपये।’’
‘‘यह लो एक रुपए इनको दे दो। कल वापस कर देना।’’
ओवरसियर ने जेब से एक रुपया निकाल मुँशी के हाथ में दे दिया और मुँशी ने अपनी डायरी में कुछ लिखा तथा रुपया भगतू के हाथ में दे दिया।
भगतू ने अगला प्रश्न किया, ‘‘बाबू रसद-पानी कहाँ मिलता है यहाँ ?’’
मुंशी ने हाथ उठा उँगली के संकेत से बताते हुए कहा, ‘‘वह देखो दूर, उस बरगद के पेड़ के नीचे खोखा है। वहां पर मिल जाएगा।’’
भगतू ने देखा, समझा और सलाम कर उस पेड़ के नीचे जा पहुँचा, जहाँ पर वे अपने बच्चों को छोड़ आये थे। मोहिनी वहीं पर थी, किन्तु सन्तू लापता था।
सन्तू दिन-भर का बैठा-बैठा थक गया था। जब मजदूर काम बन्द कर रहे थे, तब सन्तू अपनी बहिन से कह कि ‘‘मैं जरा देखूँ, यह क्या बन रहा है ?’’ वहाँ से तीर की भाँति भागा और उस मकान पर बँधे पाड़ों के बीच जा पहुँचा। जब उसको किसी ने मना नहीं किया तो वह घूम-घूम कर देखने लगा। दीवारें बन चुकी थीं। छतें पड़ रही थीं और पाड़ो का जाल बिछ रहा था सन्तू एक कमरे से दूसरे और तीसरे में घूमता हुआ चला जा रहा था। मोहिनी पहले तो उसे देखती रही, किन्तु कुछ समय बाद वह उसकी दृष्टि से ओझल हो गया।
भगतू ने अपनी लड़की से पूछा, ‘‘सन्तू कहाँ गया है ?’’
‘‘उधर गया था, अब तो दिखाई नहीं देता।’’ उसने संकेत से बताया।
भगतू को कुछ चिन्ता लगी, परन्तु मनकी ने कह दिया, ‘‘आ जाएगा। पहले बताओ रात कहाँ कटेगी ?’’
‘‘यहीं पेड़ के नीचे। अभी मैं वहाँ से रसद लाता हूँ, तब तक तुम सूखी लकड़ी बटोर लो। दो ईंट रख चूल्हा बनाओ। मैं देखता हूं कि क्या मिलता है !’’ फिर उसने मोहिनी से कहा, ‘‘मोहिनी ! तुम यहाँ पर बैठी रहना। हम खाने का प्रबन्ध करते हैं।’’
यह एक प्रचलित उक्ति बन गई है कि नगर-निर्माण कार्य में इन अल्प आय वाले मजदूरों के लिए बनी गन्दी बस्ती के लिये पूँजी-पति, ठेकेदार अथवा व्यापारी उत्तरदायी हैं। यह बात ठीक भी प्रतीत होती है। महल बनाने वालों के मस्तिष्क में कभी यह विचार तक नहीं आता कि दिन भर मेहनत-मजदूरी करने वाले प्राणी को भी सर्दी-होने से बचने, आँधी-वर्षा में सिर छिपाने और फिर रात के समय कहीं एकान्तवास की आवश्यकता रहती है।
वे बेचारे मजदूर, अपनी स्त्री और काम करने योग्य पुत्र-पुत्रियों के साथ, दिन भर के परिश्रम के बाद, जब नगर के बाहर स्वामिहीन भूमि पर बनी कुटिया में, थकावट से लड़खड़ाते पगों से मन्द-मन्द गति से जा रहे होते हैं उन्हें देख जीवन की दूःभर स्थिति पर विचार करने के लिए विवश होना ही पड़ता है।
जब नई दिल्ली का निर्माण हो रहा था, तब यमुना के किनारे एक मजदूरों की बस्ती का भी निर्माण साथ-साथ होता जाता था । पहले नई दिल्ली पुराने नगर के उत्तर की ओर यमुना के किनारे जहाँ आज तिमारपुर है, बनाने का विचार हुआ था। इसके साथ ही नगर में पूर्व की ओर यमुना तट पर एक गन्दी बस्ती का भी निर्माण हो गया। नई दिल्ली के बनाने की घोषणा भारत-सम्राट ने की थी। वाइसराय ने इसके प्रथम भवन का शिलान्यास किया था और इसके निर्माण के लिये देश-विदेश से इंजीनियर तथा ठेकेदार आये थे। परन्तु यमुना तट की इस गन्दी बस्ती को बनाने की न तो किसी ने घोषणा की, न इसका शिलान्यास हुआ है और न ही इसके बनाने के लिये किसी को कर देने अथवा धन लगाने की आवश्यकता हुई। यह स्वयमेव बनती चली गई।
भगतू, जिला रोहतक का एक गरीब भूमिहीन किसान, जब दिल्ली में काम की धूम सुन, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आया और वाइसराय के लिये बनने वाले भवन में ईंटें ढोने का काम पा गया, तो प्रसन्नता से फूला नहीं समाया।
भगतू की पत्नी मनकी को भी काम मिल गया। भगतू को एक रुपया और मनकी को बारह आने प्रतिदिन की मजदूरी की बात हो गई। भगतू ने जब से होश सँभाला था, दो-चार पैसे से अधिक, कभी हाथ में ले कर नहीं देखे थे। यह उसके जीवन का पहला दिन था, जब वह दिन ढलने पर पौने दो रुपये हाथ में पकड़ने और उनको स्वेच्छा से व्यय करने की आशा मन में बाँध बैठा था।
भगतू के पुत्र और पुत्री को कार्य नहीं मिला, क्योंकि वे अभी छोटे ही थे। लड़की ग्यारह वर्ष की थी और लड़का दस वर्ष का। भगतू ने ठेकेदार को कहा भी था कि बच्चे कुछ काम तो कर ही देंगे, जो मन में आये दे दीजिएगा; परन्तु ठेकेदार ने कह दिया, ‘‘नहीं, ये अभी छोटे हैं। इनको काम नहीं दिया जा सकता। कानून ऐसा ही है।’’
परिणामस्वरूप मोहिनी और सन्तू एक पेड़ के नीचे बैठ कंकड़ों से खेलते रहे और भगतू और मनकी काम करते रहे।
दोपहर के समय एक घण्टे की छुट्टी हुई। मनकी गाँव से भुना बाजारा और मकई लाई थी। अपने बच्चों के पास आकर वे उनको चबाने लगे। नमक और लाल मिर्च भी साथ थी। इससे मुख का स्वाद बना लिया जाता था।
बच्चे भूखे थे। माता-पिता ने मेहनत से चार घण्टे कार्य किया था। सबने पेट भर खाया और सो गये। समय का घण्टा बजा और सब मजदूर काम पर जा पहुँचे। मोहिनी और सन्तू वहीं पेड़ के नीचे बैठे रहे। मोहिनी सो गई तो सन्तू वहीं अपने आस-पास नजर दौड़ाने लगा।
उस पेड़ से कुछ अन्तर पर ही वह विशाल भवन बन रहा था, जिसमें भारत-सम्राट का प्रतिनिधि, जिसकी लेखनी की गति से बड़े-बड़े राजा-रईसों के वारे-न्यारे होते रहते थे, आकर रहने वाला था।
बालक के मन में विचार उठ रहा था, ‘‘यह किसके लिए बन रहा है ? कौन बना रहा है ? हमारे लिए क्यों नहीं बन रहा ? इस घर में रहने वाले के माता-पिता क्या करते होंगे ? हमारे माता-पिता भी वैसा क्यों नहीं करते ?’’
एक मुंशी हाथ में छड़ी लिए, बगल में हाजिरी लेने का रजिस्टर दबाये, आँख पर टेढा़ चश्मा चढा़ये, घूम-घूम कर, मजदूरों को काम करने के लिए कह रहा था। तीन बजे के लगभग मोटर में सवार, सूट तथा हेट पहने एक व्यक्ति और मोटर में बैठे-बैठे ही काम होता देख, मुंशी से बातें कर चला गया।
सन्तू और मोहिनी ने मोटर पहिली बार ही देखी थी। इसे बिना घोड़े के ही चलती देख खड़े-ख़ड़े विस्मति करते रहे। मोटर गई तो मुंशी फिर घूम-घूम कर मजदूरों को डाटने-डपटने में लग गया। पाँच बजे से पूर्व एक सफेदपोश आया और हाथ में फीता ले, बने हुए काम की, कहीं-कहीं से पैमाइश करने लगा।
काम बन्द करते-करते साढे़ पाँच बज गये। मुंशी ने, बाबू को, जो ओवरसियर था, वृत्तान्त बताया। इसी समय भगतू आया और मुंशी की ओर देख कर कहने लगा, ‘‘हजूर ! मजदूरी मिल जाय।’’
‘‘क्यों, कल नहीं आओगे, क्यों ?’’
‘‘आऊँगा, हजूर !’’
‘‘तो मजदूरी शनिवार को मिलेगी।’’
‘‘परन्तु तब तक पेट कैसे भरूँगा ?’’
‘‘यहाँ का कायदा तो यही है कि मजदूरी शनिवार को बँटती है।’’
‘‘आज तो अभी मंगलवार ही है हजूर ! हम तो तब तक भूखों मर जायंगे।’’
‘‘तो मैं क्या करूँ ?’’
इस पर ओवरसियर ने कह दिया-मुंशी जी कुछ खाने-भर को दे दो न।’’
‘‘ठेकेदार नाराज़ होंगे।’’
‘‘क्यों नाराज़ होंगे ? उन्होंने मेहनत की है, अपनी मजदूरी माँग रहे हैं। उनमें से ही तो दोगे ?’’
‘‘पर मेरे पास तो इस समय नगद नहीं है।’’
‘‘अच्छा कितनी मजदूरी बनी है इनकी ?’’
मुँशी ने हाजिरी का रजिस्टर निकाल कर भगतू और उसकी पत्नी की हाजिरी देख कर कहा, ‘‘दोनों के पौने दो रुपये।’’
‘‘यह लो एक रुपए इनको दे दो। कल वापस कर देना।’’
ओवरसियर ने जेब से एक रुपया निकाल मुँशी के हाथ में दे दिया और मुँशी ने अपनी डायरी में कुछ लिखा तथा रुपया भगतू के हाथ में दे दिया।
भगतू ने अगला प्रश्न किया, ‘‘बाबू रसद-पानी कहाँ मिलता है यहाँ ?’’
मुंशी ने हाथ उठा उँगली के संकेत से बताते हुए कहा, ‘‘वह देखो दूर, उस बरगद के पेड़ के नीचे खोखा है। वहां पर मिल जाएगा।’’
भगतू ने देखा, समझा और सलाम कर उस पेड़ के नीचे जा पहुँचा, जहाँ पर वे अपने बच्चों को छोड़ आये थे। मोहिनी वहीं पर थी, किन्तु सन्तू लापता था।
सन्तू दिन-भर का बैठा-बैठा थक गया था। जब मजदूर काम बन्द कर रहे थे, तब सन्तू अपनी बहिन से कह कि ‘‘मैं जरा देखूँ, यह क्या बन रहा है ?’’ वहाँ से तीर की भाँति भागा और उस मकान पर बँधे पाड़ों के बीच जा पहुँचा। जब उसको किसी ने मना नहीं किया तो वह घूम-घूम कर देखने लगा। दीवारें बन चुकी थीं। छतें पड़ रही थीं और पाड़ो का जाल बिछ रहा था सन्तू एक कमरे से दूसरे और तीसरे में घूमता हुआ चला जा रहा था। मोहिनी पहले तो उसे देखती रही, किन्तु कुछ समय बाद वह उसकी दृष्टि से ओझल हो गया।
भगतू ने अपनी लड़की से पूछा, ‘‘सन्तू कहाँ गया है ?’’
‘‘उधर गया था, अब तो दिखाई नहीं देता।’’ उसने संकेत से बताया।
भगतू को कुछ चिन्ता लगी, परन्तु मनकी ने कह दिया, ‘‘आ जाएगा। पहले बताओ रात कहाँ कटेगी ?’’
‘‘यहीं पेड़ के नीचे। अभी मैं वहाँ से रसद लाता हूँ, तब तक तुम सूखी लकड़ी बटोर लो। दो ईंट रख चूल्हा बनाओ। मैं देखता हूं कि क्या मिलता है !’’ फिर उसने मोहिनी से कहा, ‘‘मोहिनी ! तुम यहाँ पर बैठी रहना। हम खाने का प्रबन्ध करते हैं।’’
:2:
सन्तू लौटा तो उसके मस्तिष्क में उठने वाले प्रश्नों की संख्या बहुत बढ़
गई थी। वह आया तो माँ लकड़ी बटोरने के लिये और पिता रसद लेने के लिए गया
हुआ था। मोहिनी अभी भी अपने माता-पिता की गठरी के पास बैठी हुई थी।
कुछ-कुछ अँधेरा हो चला था। काम करने वाले जा रहे थे। केवल चौकीदार ही रह गये थे और वे भी अपने खाने-पीने की चिन्ता में थे। किसी ने इन नवागन्तुकों की ओर ध्यान ही नहीं दिया था।
जब भगतू एक हंडिया, सेर भर बाजरा और पाव भर मूँग की दाल, नमक, मिर्च लेकर आया तो सन्तू उस समय मोहिनी को उस मकान का वृत्तान्त सुना रहा था। भगतू ने उसे आया देख पूछा, ‘‘कहाँ गया था सन्तू ?’’
‘‘देखने गया था, बाबा !’’
‘‘ क्या देखने गया था ?’’
‘‘वह जो सामने मकान बन रहा है।’’
‘‘अभी तो बना ही नहीं, खाली दीवारों में क्या देख रहे थे ?’’
‘‘बहुत बड़ा है बाबा ! मैं तो बाहर निकलने का रास्ता ही भूल गया था। जब निकला तो मकान की दूसरी ओर जा पहुँचा। बहुत लम्बा चक्कर काट कर यहाँ आना पड़ा।’’ मनकी ने चूल्हा जलाया तो मोहिनी उठकर बाबा से दियासलाई ले, सूखे पत्ते और पेड़ की पतली-पतली डालियों से चूल्हा जलाने लगी। मनकी ने हँडिया ली और समीप ही के मकान बनाने के लिए लगे नल के पास जाकर उसे धोया और उसमें पानी ले, चूल्हे पर चढ़ा दी। भगतू बाजारा और दाल बीन रहा था। जब तक वह बीन कर खाली हुआ, हँडिया का पानी गरम हो गया था। बाजरा और दाल, नमक और मिर्च हँडिया में डाल दी गई और बाजरे की खिचड़ी बनने लगी।
इसके बाद करने के लिए कुछ काम नहीं रह। मोहिनी चूल्हे के पास बैठी लकड़ियाँ संभालने लगी। अन्य तीनों पेड़ के नीचे बैठे बातें करने लगे।
भगतू बोला, ‘‘यह सब सामान चार आने का आया है, अभी बारह आने बचे हैं।’’
मोहिनी ने पकने के लिए आधा बाजरा और चावल चढ़ाए थे। आधे की एक पोटली बाँध पेड़ की एक डाल से लटका दी गई। भगतू ने पूछा, ‘‘इतने से पेट भर जाएगा क्या ?’’
‘‘गाँव में तो भर जाया करता था। आज भूख अधिक लग रही है।’’ आज मेहनत भी तो खूब की है ।’’
‘‘वह बाबू भला आदमी निकला। नहीं तो मुंशी कुछ भी देने वाला नहीं था।’’
‘‘वह कौन था ?’’
‘‘ओवरसियर बाबू कहते हैं।’’
‘‘वह क्या होता है ?’’
इसका उत्तर भगतू नहीं जानता था।
सन्तू मन में अलग ही विचार कर रहा था। वह सोचता था, हमारा घर कहाँ है, पिता ने बनाया क्यों नहीं, यहाँ पर कार्य करने वाले अन्य मजदूर कहाँ चले गये हैं, ये चौकीदार यहाँ पर क्यों ठहरे हुए हैं, इत्यादि-इत्यादि।
माता-पिता खाने की चिन्ता कर रहे थे कि सन्तू ने कहा, ‘‘बाबा ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘हम अपना घर कब बयायेंगे ?’’
‘‘मैं क्या जानूँ रे।’’
‘‘तो कौन जानता है ?’’
‘‘भगवान।’’
‘‘पर वह तो गाँव के मन्दिर में रह गया है ?’’ ‘‘इस पर भी जानता वही है।’’
‘‘तुमने उससे पूछा नहीं ?’’
‘‘पूछा था, वह कहता था मेहनत करो, फल मिलेगा।’’
‘‘परन्तु बाबा ! वह जो मोटर में बैठकर आया था, क्या मेहनत कर रहा था ? ईंट, चूना, सीमेंट और रेत तो तुम लोग ढो रहे थे। कुछ लोग दीवार बना रहे थे, मुंशी देख-भाल कर रहा था। उस मोटर में बैठे व्यक्ति ने तो कुछ भी मेहनत नहीं की। इस पर भी सब उसको झुक-झुक कर सलाम कर रहे थे।’’
‘‘बेटा ! सुना है वह बहुत पढा़ लिखा आदमी है। उसको सब बड़ा साहब कहते थे।’’ कहते थे, विलायत से पढ़कर आया है।’’
‘‘विलायत किधर है ?’’
इसका उत्तर भगतू नहीं जानता था। इस कारण वह बितर-बितर अपने पुत्र का मुख देखता रहा।
दिन व्यतीत होने लगे। मार्च का महीना था। दिल्ली में मौसम खुश्क था वर्षा की सम्भावना नहीं थी। इस कारण दोपहर की धूप कड़ी होती थी रात को सर्दी हो जाती थी। भगतू दो चादरें लाया था एक में पति-पत्नी इकट्ठे सो जाते थे और दूसरी में भाई-बहिन। पहले तो चौकीदारों ने उनके वहाँ रहने में आपत्ति की, परन्तु मनकी की आँखों में दया की भावना देख, वे शान्त हो गए।
शनिवार को वेतन वितरित हुआ। मुंशी ने हिसाब गिना और पौने आठ रुपये देकर अँगूठा लगवा लिया। पेशगी दिया हुआ एक रुपया हिसाब में काट लिया गया।
वेतन ले कर जब भगतू पेड़ के पास आया तो मनकी कहने लगी, ‘‘कहीं रहने का ठिकाना करना चाहिए।’’
‘‘यहाँ क्या है ?’’
‘‘एक तो गरमी बढ़ रही है, इससे लू में झुलस जायेंगे। दूसरे वर्षा भी तो अब आने लगेगी। फिर यह पेड़ से रसद लटकाये कब तक बैठे रहेंगे और....और ...और भी तो बात है ?’’
‘‘और क्या बात है ?’’
इस पर मनकी मुस्कराई और मोहिनी की ओर देखती रह गई। भगतू कुछ समझा और कुछ नहीं भी समझा। परन्तु उसने भी यह विचार कर लिया था कि इस प्रकार खानाबदोशी की भाँति रह कर काम नहीं चल सकता। इसलिए उसने मनकी से कहा, ‘‘अच्छा, तुम खाने का प्रबन्ध करो। मैं मकान का पता करके अभी आता हूँ।’’
भगतू वहाँ से उठकर सोहनू चौकीदार के पास चला गया। ईंटों को जोड़ चारदीवारी-सी बना, उसके ऊपर घास-फूस डाल छत वाली कुटिया बनाकर सोहनू उसमें रहता था। वह पहाड़ी था। बीड़ी पीने का बहुत ही शौकीन था। अपनी कुल्ली से बाहर बैठा वह बीड़ी पी रहा था कि भगतू ने उसके समीप पहुँच कर कहा, ‘‘सोहनी यहाँ ! यहाँ कहीं सिर छिपाने के लिए भी स्थान मिल सकता है ?’’
‘‘भैया तुम्हारी बीवी भी मुझ से इस विषय में पूछ रही थी। मैंने उससे कहा कि ऐसी ही एक कुल्ली बना ले। दो-तीन मास तो निकल ही जायेंगे।’’
‘‘उसके बाद क्या होगा ?’’
‘‘तब तक यह इमारत बनकर पूर्ण हो जायेगी। हम सबको किसी अन्य स्थान पर जाना ही पड़ेगा तुम भी साथ चल पड़ना।’’ भगतू को विस्मय हुआ कि मनकी ने यह बात उसे नहीं बताई। फिर कुछ विचार कर बोला, ‘‘मैं तो कोई पक्की जगह चाहता हूँ, जहां एक बार बैठ जाऊँ तो फिर वहाँ से कोई उठाने वाला न हो।’’
‘‘मरने पर भी कोई उठाने आए तो नहीं उठना।’’
इस व्यंग्य से भगतू को प्रसन्नता नहीं हुई। परन्तु एक मजदूर का जीवन तो इन सब बातों से ऊपर होता है। उसने कह दिया, ‘‘भैया ! वह तो सब के साथ है। मरने में अभी देरी है। तब तक तो जाने कितनी गरमियाँ, बरसातें और सरदियाँ निकलेंगी ! तब तक रात को निश्चिन्ता से सोने की बात के विषय में सोच रहा हूँ ।’’
‘‘व्यर्थ में रुपया गँवाओगे। कुछ जमा करना चाहिये। न जाने किस समय क्या आवश्यकता आन पड़े।’’
भगतू ने बात बदल कर पूछा, ‘‘ये मजदूर लोग किधर जाया करते हैं ?’’
‘‘उनसे ही पूछ लेते तो ठीक रहता। अब कल तो काम बन्द रहेगा, परसों जब वे लोग आयें तो पूछ लेना।’’
इस प्रकार कुछ निश्चित उत्तर न पा, भगतू अपने ठिकाने की ओर लौटने लगा ही था कि चौकीदार ने कहा, ‘‘वहाँ पेड़ के नीचे इस प्रकार खुले में बीवी को सुलाना ठीक नहीं। उससे कहीं, यहाँ इस कुल्ली में आकर सो जाया करे और हम-तुम बाहर सो जाया करेंगे ।’’
‘‘बात तो ठीक कहते हो भैया ! परन्तु तुमको कष्ट होगा।’’
यह कह कर वह जाने लगा तो सोहनू भी उठकर उसके साथ चल पड़ा। भगतू ठहर गया। उसने पूछ लिया, ‘‘किधर जा रहे हो ?’’
‘‘तुम्हारी समझ में तो कोई बात आती नहीं। अब तुम्हारी बीवी को समझाने के लिए जा रहा हूँ।’’
भगतू झगड़ा करना नहीं चाहता था। जब वह काम की तलाश में गाँव से दिल्ली की ओर चला था, तो गाँव के लाला ने कहा था, ‘‘नगर के लिए चले तो हो, किन्तु बीवी का ध्यान रखना, वहाँ झपटने वाले बहुत रहते हैं।’’
‘‘उस बेचारी को झपटकर कोई क्या करेगा ?’’ भगतू ने कहा था।
‘‘उसकी आँखो में जादू है। उस पर तो परवाने झपटेंगे।’’
भगतू को अपनी पत्नी की आँखों में स्नेह और सरलता दिखाई देती थी। इसलिए उसने लाला की बात की ओर ध्यान नहीं दिया था। आज उसको यह बात याद आ गई। उसने सतर्क हो कहा-‘‘भैया तुम अपनी कुल्ली में ही बैठो। आज तो हम जा नहीं रहे फिर फुरसत के समय समझ लेना।’’
‘‘अरे भैया ! चलो भी।’’
मोहिनी खिचड़ी पका रही थी। सन्तू पेड़ से ढासना लगाये अपनी कल्पना के दुर्ग बना रहा था। उसके मन में रह-रहकर आता था, उसका अपना इतना बड़ा मकान क्यों नहीं हो सकता ?
भगतू अपनी पत्नी के पास आया तो सनकू चौकीदार भी उसके साथ आ गया। मनकी ओढ़ने वाली गुदड़ी की मरम्मत कर रही थी। सोहनू ने आते ही कहा, ‘‘सन्तू की माँ ! यह तुम्हारा मनसेधु कह रहा है यहाँ बाहर नंगे में तुमको बहुत कष्ट हो रहा है। इस कारण मैं कहने के लिए आया हूँ कि वहाँ उस कुल्ली में चल कर रहो। तुम बच्चों के साथ भीतर रहना, हम मर्द बाहर सो जाया करेंगे।’’
इस प्रस्ताव को मनकी, कम से कम कुछ दिनों के लिए तो मान जाती परन्तु इसके पूर्व सोहनू मनकी को एक प्रस्ताव दे चुका था। जब भगतू रसद खरीदने के लिए गया हुआ था, तो वह मनकी के पास आकर बोला था ‘‘मनकी, आज मेरे पीस दो रुपये फालतू हैं।’’
‘‘तो मैं क्या करूँ ?’’ उसने विस्मय से सोहनू का मुख देखते हुए पूछा था।
‘‘मैं ये रुपये तुमको दे देना चाहता हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’
कुछ-कुछ अँधेरा हो चला था। काम करने वाले जा रहे थे। केवल चौकीदार ही रह गये थे और वे भी अपने खाने-पीने की चिन्ता में थे। किसी ने इन नवागन्तुकों की ओर ध्यान ही नहीं दिया था।
जब भगतू एक हंडिया, सेर भर बाजरा और पाव भर मूँग की दाल, नमक, मिर्च लेकर आया तो सन्तू उस समय मोहिनी को उस मकान का वृत्तान्त सुना रहा था। भगतू ने उसे आया देख पूछा, ‘‘कहाँ गया था सन्तू ?’’
‘‘देखने गया था, बाबा !’’
‘‘ क्या देखने गया था ?’’
‘‘वह जो सामने मकान बन रहा है।’’
‘‘अभी तो बना ही नहीं, खाली दीवारों में क्या देख रहे थे ?’’
‘‘बहुत बड़ा है बाबा ! मैं तो बाहर निकलने का रास्ता ही भूल गया था। जब निकला तो मकान की दूसरी ओर जा पहुँचा। बहुत लम्बा चक्कर काट कर यहाँ आना पड़ा।’’ मनकी ने चूल्हा जलाया तो मोहिनी उठकर बाबा से दियासलाई ले, सूखे पत्ते और पेड़ की पतली-पतली डालियों से चूल्हा जलाने लगी। मनकी ने हँडिया ली और समीप ही के मकान बनाने के लिए लगे नल के पास जाकर उसे धोया और उसमें पानी ले, चूल्हे पर चढ़ा दी। भगतू बाजारा और दाल बीन रहा था। जब तक वह बीन कर खाली हुआ, हँडिया का पानी गरम हो गया था। बाजरा और दाल, नमक और मिर्च हँडिया में डाल दी गई और बाजरे की खिचड़ी बनने लगी।
इसके बाद करने के लिए कुछ काम नहीं रह। मोहिनी चूल्हे के पास बैठी लकड़ियाँ संभालने लगी। अन्य तीनों पेड़ के नीचे बैठे बातें करने लगे।
भगतू बोला, ‘‘यह सब सामान चार आने का आया है, अभी बारह आने बचे हैं।’’
मोहिनी ने पकने के लिए आधा बाजरा और चावल चढ़ाए थे। आधे की एक पोटली बाँध पेड़ की एक डाल से लटका दी गई। भगतू ने पूछा, ‘‘इतने से पेट भर जाएगा क्या ?’’
‘‘गाँव में तो भर जाया करता था। आज भूख अधिक लग रही है।’’ आज मेहनत भी तो खूब की है ।’’
‘‘वह बाबू भला आदमी निकला। नहीं तो मुंशी कुछ भी देने वाला नहीं था।’’
‘‘वह कौन था ?’’
‘‘ओवरसियर बाबू कहते हैं।’’
‘‘वह क्या होता है ?’’
इसका उत्तर भगतू नहीं जानता था।
सन्तू मन में अलग ही विचार कर रहा था। वह सोचता था, हमारा घर कहाँ है, पिता ने बनाया क्यों नहीं, यहाँ पर कार्य करने वाले अन्य मजदूर कहाँ चले गये हैं, ये चौकीदार यहाँ पर क्यों ठहरे हुए हैं, इत्यादि-इत्यादि।
माता-पिता खाने की चिन्ता कर रहे थे कि सन्तू ने कहा, ‘‘बाबा ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘हम अपना घर कब बयायेंगे ?’’
‘‘मैं क्या जानूँ रे।’’
‘‘तो कौन जानता है ?’’
‘‘भगवान।’’
‘‘पर वह तो गाँव के मन्दिर में रह गया है ?’’ ‘‘इस पर भी जानता वही है।’’
‘‘तुमने उससे पूछा नहीं ?’’
‘‘पूछा था, वह कहता था मेहनत करो, फल मिलेगा।’’
‘‘परन्तु बाबा ! वह जो मोटर में बैठकर आया था, क्या मेहनत कर रहा था ? ईंट, चूना, सीमेंट और रेत तो तुम लोग ढो रहे थे। कुछ लोग दीवार बना रहे थे, मुंशी देख-भाल कर रहा था। उस मोटर में बैठे व्यक्ति ने तो कुछ भी मेहनत नहीं की। इस पर भी सब उसको झुक-झुक कर सलाम कर रहे थे।’’
‘‘बेटा ! सुना है वह बहुत पढा़ लिखा आदमी है। उसको सब बड़ा साहब कहते थे।’’ कहते थे, विलायत से पढ़कर आया है।’’
‘‘विलायत किधर है ?’’
इसका उत्तर भगतू नहीं जानता था। इस कारण वह बितर-बितर अपने पुत्र का मुख देखता रहा।
दिन व्यतीत होने लगे। मार्च का महीना था। दिल्ली में मौसम खुश्क था वर्षा की सम्भावना नहीं थी। इस कारण दोपहर की धूप कड़ी होती थी रात को सर्दी हो जाती थी। भगतू दो चादरें लाया था एक में पति-पत्नी इकट्ठे सो जाते थे और दूसरी में भाई-बहिन। पहले तो चौकीदारों ने उनके वहाँ रहने में आपत्ति की, परन्तु मनकी की आँखों में दया की भावना देख, वे शान्त हो गए।
शनिवार को वेतन वितरित हुआ। मुंशी ने हिसाब गिना और पौने आठ रुपये देकर अँगूठा लगवा लिया। पेशगी दिया हुआ एक रुपया हिसाब में काट लिया गया।
वेतन ले कर जब भगतू पेड़ के पास आया तो मनकी कहने लगी, ‘‘कहीं रहने का ठिकाना करना चाहिए।’’
‘‘यहाँ क्या है ?’’
‘‘एक तो गरमी बढ़ रही है, इससे लू में झुलस जायेंगे। दूसरे वर्षा भी तो अब आने लगेगी। फिर यह पेड़ से रसद लटकाये कब तक बैठे रहेंगे और....और ...और भी तो बात है ?’’
‘‘और क्या बात है ?’’
इस पर मनकी मुस्कराई और मोहिनी की ओर देखती रह गई। भगतू कुछ समझा और कुछ नहीं भी समझा। परन्तु उसने भी यह विचार कर लिया था कि इस प्रकार खानाबदोशी की भाँति रह कर काम नहीं चल सकता। इसलिए उसने मनकी से कहा, ‘‘अच्छा, तुम खाने का प्रबन्ध करो। मैं मकान का पता करके अभी आता हूँ।’’
भगतू वहाँ से उठकर सोहनू चौकीदार के पास चला गया। ईंटों को जोड़ चारदीवारी-सी बना, उसके ऊपर घास-फूस डाल छत वाली कुटिया बनाकर सोहनू उसमें रहता था। वह पहाड़ी था। बीड़ी पीने का बहुत ही शौकीन था। अपनी कुल्ली से बाहर बैठा वह बीड़ी पी रहा था कि भगतू ने उसके समीप पहुँच कर कहा, ‘‘सोहनी यहाँ ! यहाँ कहीं सिर छिपाने के लिए भी स्थान मिल सकता है ?’’
‘‘भैया तुम्हारी बीवी भी मुझ से इस विषय में पूछ रही थी। मैंने उससे कहा कि ऐसी ही एक कुल्ली बना ले। दो-तीन मास तो निकल ही जायेंगे।’’
‘‘उसके बाद क्या होगा ?’’
‘‘तब तक यह इमारत बनकर पूर्ण हो जायेगी। हम सबको किसी अन्य स्थान पर जाना ही पड़ेगा तुम भी साथ चल पड़ना।’’ भगतू को विस्मय हुआ कि मनकी ने यह बात उसे नहीं बताई। फिर कुछ विचार कर बोला, ‘‘मैं तो कोई पक्की जगह चाहता हूँ, जहां एक बार बैठ जाऊँ तो फिर वहाँ से कोई उठाने वाला न हो।’’
‘‘मरने पर भी कोई उठाने आए तो नहीं उठना।’’
इस व्यंग्य से भगतू को प्रसन्नता नहीं हुई। परन्तु एक मजदूर का जीवन तो इन सब बातों से ऊपर होता है। उसने कह दिया, ‘‘भैया ! वह तो सब के साथ है। मरने में अभी देरी है। तब तक तो जाने कितनी गरमियाँ, बरसातें और सरदियाँ निकलेंगी ! तब तक रात को निश्चिन्ता से सोने की बात के विषय में सोच रहा हूँ ।’’
‘‘व्यर्थ में रुपया गँवाओगे। कुछ जमा करना चाहिये। न जाने किस समय क्या आवश्यकता आन पड़े।’’
भगतू ने बात बदल कर पूछा, ‘‘ये मजदूर लोग किधर जाया करते हैं ?’’
‘‘उनसे ही पूछ लेते तो ठीक रहता। अब कल तो काम बन्द रहेगा, परसों जब वे लोग आयें तो पूछ लेना।’’
इस प्रकार कुछ निश्चित उत्तर न पा, भगतू अपने ठिकाने की ओर लौटने लगा ही था कि चौकीदार ने कहा, ‘‘वहाँ पेड़ के नीचे इस प्रकार खुले में बीवी को सुलाना ठीक नहीं। उससे कहीं, यहाँ इस कुल्ली में आकर सो जाया करे और हम-तुम बाहर सो जाया करेंगे ।’’
‘‘बात तो ठीक कहते हो भैया ! परन्तु तुमको कष्ट होगा।’’
यह कह कर वह जाने लगा तो सोहनू भी उठकर उसके साथ चल पड़ा। भगतू ठहर गया। उसने पूछ लिया, ‘‘किधर जा रहे हो ?’’
‘‘तुम्हारी समझ में तो कोई बात आती नहीं। अब तुम्हारी बीवी को समझाने के लिए जा रहा हूँ।’’
भगतू झगड़ा करना नहीं चाहता था। जब वह काम की तलाश में गाँव से दिल्ली की ओर चला था, तो गाँव के लाला ने कहा था, ‘‘नगर के लिए चले तो हो, किन्तु बीवी का ध्यान रखना, वहाँ झपटने वाले बहुत रहते हैं।’’
‘‘उस बेचारी को झपटकर कोई क्या करेगा ?’’ भगतू ने कहा था।
‘‘उसकी आँखो में जादू है। उस पर तो परवाने झपटेंगे।’’
भगतू को अपनी पत्नी की आँखों में स्नेह और सरलता दिखाई देती थी। इसलिए उसने लाला की बात की ओर ध्यान नहीं दिया था। आज उसको यह बात याद आ गई। उसने सतर्क हो कहा-‘‘भैया तुम अपनी कुल्ली में ही बैठो। आज तो हम जा नहीं रहे फिर फुरसत के समय समझ लेना।’’
‘‘अरे भैया ! चलो भी।’’
मोहिनी खिचड़ी पका रही थी। सन्तू पेड़ से ढासना लगाये अपनी कल्पना के दुर्ग बना रहा था। उसके मन में रह-रहकर आता था, उसका अपना इतना बड़ा मकान क्यों नहीं हो सकता ?
भगतू अपनी पत्नी के पास आया तो सनकू चौकीदार भी उसके साथ आ गया। मनकी ओढ़ने वाली गुदड़ी की मरम्मत कर रही थी। सोहनू ने आते ही कहा, ‘‘सन्तू की माँ ! यह तुम्हारा मनसेधु कह रहा है यहाँ बाहर नंगे में तुमको बहुत कष्ट हो रहा है। इस कारण मैं कहने के लिए आया हूँ कि वहाँ उस कुल्ली में चल कर रहो। तुम बच्चों के साथ भीतर रहना, हम मर्द बाहर सो जाया करेंगे।’’
इस प्रस्ताव को मनकी, कम से कम कुछ दिनों के लिए तो मान जाती परन्तु इसके पूर्व सोहनू मनकी को एक प्रस्ताव दे चुका था। जब भगतू रसद खरीदने के लिए गया हुआ था, तो वह मनकी के पास आकर बोला था ‘‘मनकी, आज मेरे पीस दो रुपये फालतू हैं।’’
‘‘तो मैं क्या करूँ ?’’ उसने विस्मय से सोहनू का मुख देखते हुए पूछा था।
‘‘मैं ये रुपये तुमको दे देना चाहता हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’
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