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दो लहरों की टक्कर - भाग 2

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :644
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5376
आईएसबीएन :000

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सामाजिक रातनैतिक व सांस्कृतिक समस्याओं पर आधारित उपन्यास..

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Do Lahron Ki Takkar-2 Gurudatt

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम परिच्छेद

:1:

लाहौर में पुरानी अनारकली से चौबुर्जी की ओर जाने वाली कपूरथला रोड और फिरोजपुर रोड के संगम पर एक बड़ी-सी कोठी के ड्रायंग-रूम में एक दम्पत्ति बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे। पति अभी बाजार से लौटा ही था। अप्रैल मास चल रहा था और सायंकाल लगभग छः बजे थे। अभी अन्धेरा नहीं हुआ था। पति जब कमरे में प्रविष्ट हुआ तो पत्नी ने पूछा, ‘‘बहुत देर कर दी आज ?’’
पति ने उत्तर देने के स्थान पूछ लिया, ‘‘विजय घर आया है अथवा नहीं ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘और आनन्द ?’’
‘‘वह आया था और यह कह चला गया है कि वह कलकत्ता जा रहा है। दो मास तक नहीं लौट सकेगा।’’
‘‘कलकत्ता कौन-सी गाड़ी से गया है ?’’

‘‘वह यहाँ बारह बजे के लगभग आया था। ताँगे में आया था और अपना सूटकेस ले, ताँगे में ही चला गया था।’’
पुरुष गम्भीर मुख बनाये विचार करने लगा। यह पुरुष था नलिनीकान्त, और उससे बात कर रही थी उसकी पत्नी सुवर्णा।
‘‘क्या हुआ है ?’’ सुवर्णा ने पति को चिन्तित देख पूछ लिया।
‘‘आज पुलिस ने लूट मचायी है। अनारकली बाजार की कई दुकानें लूट ली गयी हैं।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘पुलिस को भय था कि नगर में विद्रोह हो जायेगा और विद्रोह होने से पूर्व ही नागरिकों को आतंकित करने का यह प्रयास प्रतीत होता है।
‘‘देखो सुवर्णा ! लाला लाजपतराय पकड़ लिये गए हैं और जानकार लोग यह कह रहे हैं कि ‘भारत माता’ के बीस से अधिक नेताओं के वारण्ट हैं। उनमें से बहुत से पकड़े गये हैं और कुछ फरार हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि विजय पकड़ा गया है और आनन्द फरार हो गया है।’’
‘‘और आप इस समय तक कहाँ थे ?’’

‘‘मैं गया तो था आर्य-समाज मन्दिर में। वहाँ मन्त्री जी ने बुलाया था। वे चाहते थे कि ‘आर्य युवक सभा’ के वार्षिक अधिवेशन में युवकों की गोष्ठी में आर्य-समाज के इतिहास पर मैं व्याख्यान दूँ। युवक समाज का प्रधान बिहारीलाल भी वहाँ आया हुआ था। जब मैंने बिहारीलाल को बताया कि मुझे आपत्ति नहीं है, परन्तु कदाचित् आपत्ति डी. ए. वी. कालेज के प्रिन्सिपल को होगी तो वह पूछने लगा, उनको क्या आपत्ति होगी ?
‘‘मैंने उसे उनके प्रिन्सिपल के विचार बताये तो वह गम्भीर हो गया और फिर कुछ विचार कर बोला कि मुझे कल मेरे मकान पर मिलेगा।
‘‘जब बिहारीलाल चला गया तो आर्य-समाज का मन्त्री बोला, ‘उस दिन आर्य-समाज के साप्ताहिक अधिवेशन में इस लड़के ने आपका भाषण सुना तो बहुत प्रभावित हुआ था। आज मुझसे आग्रह कर रहा कि मैं आपसे प्रार्थना करूँ कि आप उनके अधिवेशन में व्याख्यान दें।’’
‘‘मैंने कहा, ‘मैंने ठीक किया है। मुझे विश्वास है कि यह अब न तो मेरे मकान पर मुझसे मिलने आयेगा और न ही आपको पुनः कष्ट देगा।’

‘‘इतना कह मैं वहाँ से चला आया। मार्ग में नीले गुम्बज की ओर से लोगों की भीड़ भागती हुई आती दिखाई दी। मैं एक किनारे हट कर खड़ा हो गया। तीन-चार सौ युवक थे। वे भागते हुए लाहौरी दरवाजे की ओर चले गये। इनके पीछे-पीछे चालीस-पचास लट्ठ-बंद पुलिस के सिपाही थे। वे भागते हुए लड़कों के पीछे तो नहीं गये, परन्तु वहाँ एक हलवाई की दुकान को लूटने लगे।
एक बजाज की दुकान पर भी हाथ साफ किया गया। इसके बाद सराय के बाहर मुसलमानी ढाबे में घुस गये और वहाँ आराम से खाना खा रहे लोगों को पीटने लगे।
‘‘मैं पुस्तक विक्रेता रामलाल की दुकान में घुस गया था। उस दुकान पर काम करने वाले बाबू ने दुकान भीतर से बन्द कर ली थी।
‘‘जब पुलिस खा-पीकर चली गयी तो दुकान खोली गयी और तब मैं चक्कर काटता हुआ मोहनलाल रोड और चंगर मोहल्ले में से होता हुआ गोल बाग के आगे से होकर यहाँ पहुँचा हूँ।’’
सुवर्णा ने कह दिया, ‘‘विजय की बहू का पत्र बम्बई से आया है।’’
‘‘वह क्या लिखती है ?’’

‘‘उसने कहा है कि उसे अस्पताल से छुट्टी नहीं मिल रही और वह त्याग-पत्र देकर लाहौर आ रही है।’’
‘‘ठीक है, आ जाने दो। इस पर भी यदि मेरा अनुमान ठीक है कि विजय पकड़ा गया तो उसे यहाँ आकर निराशा ही होगी।’’
‘‘ठीक-ठीक पता कैसे चलेगा ?’’
‘‘चन्दनसिंह से कहूँगा कि वह पुलिस-कार्यालय से पता करे कि किस-किस नाम का वारण्ट थे और कौन-कौन पकड़ा जा चुका है ? साथ ही पकड़े हुओं पर कोई मुकदमा इत्यादि चलेगा अथवा बिना मुकद्दमें के ही हिरासत में रखेंगे।’’
‘‘तो बिना मुकद्दमें के भी बन्दी बना सकते हैं ?’’
‘‘हाँ; वह तो मैं भी बनाया जा चुका हूँ। ऐसा कानून अभी भी है। अन्तर इतना है कि उस कानून से वारण्ट वाइसराय हिन्द ही जारी कर सकता है।’’

‘‘तो अब ?’’ सुवर्णा ने पूछा।
‘‘अपना काम तो घड़ी की सुई की भाँति चलता रहेगा। मैं दोनों लड़कों की राजनीति में रुचि देख, यह पहले ही समझ गया था कि ऐसी बात होने वाली है।’’
‘‘ठीक है। यह होना ही था।’’
घर में पति-पत्नी थे। पति की बहन प्रज्ञा थी। वह इस समय विधवा थी, परन्तु पति के देहान्त से पूर्व ही पति को छोड़, भाई के घर रहने चली आई थी। नलिनीकान्त के छोटे लड़के आनन्दस्वरूप की पत्नी प्रभावती इस समय प्रसूति-गृह में थी और उसका बच्चा सात दिन का था। प्रभावती डी. ए. वी. कालेज के एक प्राध्यापक इन्द्रमणि की लड़की थी। इन्द्रमणि गढ़वाल का रहने वाला संस्कृत का एक विद्वान था।
प्रज्ञा प्रसूति-गृह में प्रभावती की देखभाल कर रही थी और खाली समय में उसके पास बैठ, बातों से उसका दिल बहलाया करती थी। एक दिन बातों-ही-बातों में प्रज्ञा ने प्रभावती को बताया, ‘‘मैं जब बम्बई में ज्ञानस्वरूप के पिता के साथ रहती थी, तब की बात है। मेरा विवाह हुए अभी कुछ मास ही हुए थे और अभी ज्ञान भी उत्पन्न नहीं हुआ था। मिस्टर दास आये और बोले, ‘शीघ्र खाना लगवाओ। मुझे एक आवश्यक काम पर जाना है।’’
‘‘मैंने पूछ लिया, कब जाना है ?’’

‘‘ये बोले, ‘सुना है ढाई से तीन बजे के भीतर वह लोगों से मिलता है।’
‘‘उस समय एक बजा था। मैंने बैरा को बुला तुरन्त खाना लगाने के लिये कहा और दास बाबू से पूछने लगी, ‘गवर्नर बहादुर से मिलने जा रहे हैं क्या ?’
‘‘वे हँस पड़े और बोले, ‘तो क्या गवर्नर से मुलाकात में ही समय की पाबन्दी होनी चाहिये, अन्य किसी से यह आवश्यक नहीं ?’

‘‘तो और कौन है जिसके लिये इतनी भागदौड़ हो रही है ?’
‘‘एक गुजराती साधु है। सुना है वह बहुत ही समय का पाबन्द है। वह कलकत्ता से घूमता-घामता बम्बई आ पहुँचा है और वहीं से ही उसको ‘शैडो’ किया जा रहा है।’
‘‘कलकत्ता और गुजराती साधु की बात सुन, मुझे सन्देह हुआ कि हो न हो, वे स्वामी दयानन्द ही होंगे। मैंने नाम पूछा तो उन्होंने मेरे सन्देह की पुष्टि कर दी। इस पर मैंने कहा, ‘मैंने पहले भी उनके दर्शन किये हैं। वे बहुत ही ओजस्वी विद्वान साधु हैं। क्या मैं नहीं चल सकती उनके दर्शन के लिये ?’

‘‘दास बाबू बोले, ‘मैं तो सरकारी काम से जा रहा हूँ।’
‘‘मैं आपके काम में हस्तक्षेप नहीं करूँगी। चुपचाप दर्शन करती रहूँगी।’
‘‘दास बाबू ने एक क्षण तक आँखें मूँद विचार किया और मुझे साथ ले चलने के लिये तैयार हो गये।
‘‘इस प्रकार मैंने स्वामी जी के दूसरी बार दर्शन किये। स्वामी जी के शिविर में किसी स्त्री के प्रवेश की स्वीकृति नहीं थी, परन्तु सौभाग्य से उनके निवास-स्थान का चौकीदार कहीं काम में व्यस्त था और हम दोनों स्वामी जी के सामने जा खड़े हुए। इस पर स्वामी जी विस्मय से हमारा मुख देखते रह गये।

‘‘हमने बताया कि द्वार पर कोई रोकने वाला था नहीं और हमें उनके यहाँ का नियम ज्ञात नहीं है। इस पर स्वामी जी मेरा परिचय पूछने लगे। मैंने अपने पिता और भैया का परिचय दिया तो वे कलकत्ता की बातें करने लगे।
‘‘उनका यही कहना था कि स्त्रियों को गुरुओं तथा साधु-सन्तों के पास नहीं जाना चाहिये। उन्हें अपने पतियों को इन गुरु इत्यादि के पास भेजकर उनके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करनी चाहिये।
‘‘मैंने कहा, ‘आप तो साधु हैं। आपके लिये पुरुष-स्त्री में भेद-भाव नहीं होना चाहिए।’
‘‘स्वामी जी से इस भेंट ने मेरे जीवन की कायापलट कर दी। उनसे जब मैंने अन्तरजातीय विवाह के विषय में पूछा तो वे कहने लगे, ‘जाति मानव है, परन्तु विवाह में विचार-समानता होनी चाहिये। अन्यथा घर कलह-क्लेश का स्थान बन जायेगा।’

‘‘इसी प्रकार मज़हब के विषय में वे बोले, ‘‘मज़हब में दो अंग होते हैं। एक विचारधारा और दूसरा व्यवहार। व्यवहार को कर्म-काण्ड भी कहते हैं। ये दोनों बातें परस्पर सम्बन्धित हैं। विचारों से कर्मों को दिशा मिलती और विचार-भिन्नता से कर्म में भेद आ जाता है। इस व्यवहार भेद से विमुखता उत्पन्न होती है। विमुखता कलह पूर्व-रूप है।’
‘‘दास बाबू को स्वामी जी की बात पसन्द नहीं आयी। वे सुन और समझ नहीं रहे थे। साथ ही वे अपने काम से आये थे। अतः उन्होंने बात बदल दी। वे समाज-सुधार और उसमें सरकार की ओर से प्रयास की बात करने लगे।
‘‘स्वामी जी का स्पष्ट मत था, ‘सरकार को केवल उन धर्मों के पालन में ही हस्तक्षेप करना चाहिये जो सामाजिक हैं। सामाजिक धर्म उनको कहते हैं जो कर्ता के अतिरिक्त किसी दूसरे से सम्बन्ध रखते हों।’

‘‘इस पर मैंने पूछ लिया, ‘पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार सामाजिक धर्मों की परिधि में आता है क्या ?’
‘‘उनका स्पष्ट उत्तर था, ‘हाँ, परन्तु वह समाज परिवार ही है। अर्थात् पति-पत्नी सम्बन्ध पारिवारिक विषय है और परिवार भी एक समाज है। परिवार की बात परिवार से बाहर समाज में तथा राज्य में तब ही जानी चाहिये, जब कोई परिवार का घटक यह समझे कि घर में उसका निपटारा नहीं हो सकता। जहाँ तक सम्भव हो, इसको परिवार के भीतर ही निपटाना चाहिये।’ ’’
प्रज्ञा प्रभा को बता रही थी, ‘‘यह वार्तालाप था जिसने मेरे वर्तमान जीवन का बीज बोया। बीज मन में अंकुरित ही हो रहा था कि नलिनी भैया बम्बई में आ पहुँचे। मेरे माता-पिता भी उनके साथ थे। भैया ने स्वामी जी द्वारा अंकुरित हो रहे बीज को सींचा और अंकुर वृक्ष बनने लगा। भैया ने कहा था कि परिवार में पति-पत्नी सम्बन्ध एक बात है। पति-पत्नी सम्बन्धों में मुख्य है पंच महायज्ञ करना; परन्तु इसके अतिरिक्त भी पत्नी और पति के कुछ धर्म हैं। उनका सम्बन्ध है उनके आत्मा के साथ। इसमें परमात्मा की उपासना और धृति, दम, शौच, धी : और विद्या आते हैं। मुसीबत में धैर्य से रहना; अपनी कामनाओं का दमन करना; शरीर, मन और आत्मा को शुद्ध-पवित्र रखना; योग से बुद्धि को निर्मल और तीक्ष्ण करते रहना एवं ज्ञान प्राप्त करना—ये कर्म हैं जिनसे आत्मा उन्नत होती है और परमात्मा की उपासना होती है। बस मैंने एक वीणा मोल ले ली और उससे लगी साधना करने।

‘‘इस बात को अब तीस वर्ष हो चुके हैं और इसी उपासना के आश्रय, मैंने अपना यह जीवन अति आनन्द में व्यतीत किया है।’’
वास्तव में देश की अवस्था और प्रभा को व्यक्तिगत धर्मों में अभ्यास की बहुत बड़ी आवश्यकता पड़ने वाली है। वह उसे, भावी कष्ट-प्रद जीवन में, कष्टों को हँसते-खेलते सहन करने के लिये तैयार कर रही थी।


:2:

 


लॉर्ड कर्ज़न भारत का वाइसराय बनकर आया तो उसने कुछ अच्छे काम भी किये। सर्वप्रथम उसने देश में पुरातत्त्व-विभाग खोला था। सब प्राचीन भवनों को सुरक्षित स्मारक घोषित कर, उनकी मरम्मत इत्यादि का उसने प्रबन्ध कराया। यद्यपि इससे देश का भारी कल्याण हुआ है, परन्तु कर्ज़न साहब की नीयत देश का कल्याण करने की नहीं थी। लॉर्ड कर्ज़न हिन्दुओं से अत्यन्त घृणा करता था और समझता था कि इन स्मारक भवनों की रक्षा करके, वह इस्लामी राज्य की हिन्दुस्तान में प्रभुता की रक्षा कर रहा है। उसको यह आशा नहीं थी कि निकट भविष्य में ही ऐसे लोग उत्पन्न हो जायेंगे, जो इन भवनों के इस्लाम से सम्बन्ध के विषय में चुनौती देकर यह सिद्ध कर देंगे कि ये भवन, हिन्दू राजाओं द्वारा ही निर्मित हैं।
लॉर्ड कर्ज़न के काल तक भारत सरकार की हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य डालने की नीति, ज़ोरों से चलने लगी थी। बंगाल का विभाजन कर पूर्वी पाकिस्तान बनाने का प्रथम प्रयास कर्ज़न ने ही किया था। उसके विचार से पूर्वी बंगाल में ढाका का क्षेत्र और समूचा भी सम्मिलित होना चाहिये था। इस प्रकार बंगाल का यह क्षेत्र अलग करके भी, वह उसे हिन्द की सरकार के अधीन ही रखना चाहता था।

लार्ड कर्ज़न हिन्दू-मुसलमानों में द्वेष उत्पन्न कर हिन्दुस्तान के टुकड़े-टुकड़े करना चाहता था और फिर उन टुकड़ों पर ब्रिटेन की प्रभुसत्ता बनाये रखना चाहता था। हिन्दू इस नीति को समझते थे और इसका विरोध करने लगे थे।
ब्रिटिश सरकार की इस नीति का विरोध हिन्दू दो प्रकार से करने लगे थे। एक ओर हिंसात्मक क्रान्तिकारी आन्दोलन का श्रीगणेश किया गया तथा दूसरी ओर सरकार-भक्तों ने अधिक और अधिक सरकार की मिन्नत-खुशामद करनी आरम्भ कर दी।
नलिनीकान्त सरकार की मिन्नत-खुशामद करने वाले लोगों को देशवासियों के मनों में विकृति उत्पन्न करने वाले मानता था। अतः जब भी उसे अवसर मिलता, वह सदा सरकार-भक्तों की आलोचना करता रहता था।
ऐसा ही एक आलोचनात्मक व्याख्यान ‘आर्य युवक समाज’ के प्रधान बिहारी-लाल ने सुना था। यह व्याख्यान नलिनी ने आर्य-समाज के साप्ताहिक सत्संग में दिया था और इसमें उसने स्वामी जी के राजनीतिक विचारों पर प्रकाश डाला था। इस व्याख्यान में उसने कहा था—
‘‘इण्डियन नैशनल कांग्रेस ब्रिटिश सरकार की योजना का ही एक बालक है। ब्रिटिश सरकार ने पहले इण्डियन नैशनल कांग्रेस के लिये घटक तैयार किये। वर्तमान कालेजों के स्नातक ही वे घटक हैं, और इन घटकों का सक्रिय भाग ही इण्डियन नैशनल कांग्रेस है।
‘‘मैकॉले साहब की योजना आंशिक रूप में ही सफल हो सकी थी। अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे ईसाई तो नहीं हुए, परन्तु वे हिन्दू और हिन्दुस्तानी भी नहीं रहे।’’

नलिनी ने बाबू सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी के अध्यक्षीय भाषण से कुछ वाक्य सुनाये थे। ये वाक्य उन्होंने अहमदाबाद कांग्रेस वार्षिक अधिवेशन पर कहे थे। बाबू सुरेन्द्र बैनर्जी ने कहा था—
‘‘We plead for the permenance of British rule in India.’’

नलिनीकान्त का कहना था कि यह मानसिक अवस्था सरकारी शिक्षा-पद्धति की उपज है। आर्य-समाज ने मैकॉले की शिक्षा में से डंक निकालने का यत्न किया है। इसने डी. ए. वी. स्कूल और कॉलेज खोल कर ब्रिटिश सरकार के लिये वह भक्ति, जिसका प्रदर्शन कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में ब्रिटिश राष्ट्र-गीत गाकर तथा ‘ब्रिटिश सम्राट चिरजीवी हो’ के नारे लगाकर किया जाता है, मिटाने का सफल यत्न किया है। इस पर भी हम अनुभव कर रहे हैं कि डी. ए. वी. कालेज देशभक्त तथा अपने धर्म और अपनी संस्कृति के लिये त्याग तथा तपस्या करने वाले लोग उत्पन्न करने में सफल हो रहा प्रतीत नहीं होता।
डी. ए. वी. कालेज के स्नातक ब्रिटिश सरकार के विरोधी तो कदाचित् हो जायेंगे, परन्तु वे किस विचार-पद्धति के पोषक होंगे, अभी कहना कठिन है। सम्भवतः वे हिन्दू होंगे, परन्तु बिना हिन्दू-धर्म और हिन्दू संस्कृति के विषय में दर्शन ‘अ-आ’ का ज्ञान प्राप्त किये। वे आर्य भी हो सकते हैं, परन्तु रहन-सहन तथा विचारों में पूर्णतः इंग्लैण्ड निवासी बन कर। वे महर्षि स्वामी दयानन्द के गुणानुवाद गायेंगे, परन्तु मैक्समूल्लर के विचारों को, स्वामी जी के विचार मानते हुए। वे शिवाजी तथा राणा प्रताप की कीर्ति गान करेंगे, परन्तु घरों में एक चूहा देख कर भयभीत होते हुए।’’
नलिनी के इतने तीखे वाक्यों से डी. ए. वी. कालेज के प्रिन्सिपल और अनारकली आर्य-समाज तथा प्रादेशिक आर्य-समाज के प्रधान के मन पर गहरी चोट लगी थी।

अधिवेशन के उपरान्त ही आर्य-समाज के प्रधान के मन्त्री को बुला कर पूछा, ‘‘वैद्य जी ! यह आपने आज किस पागल को व्याख्यान के लिये खड़ा कर दिया था ?’’
मन्त्री महोदय नगर में आयुर्वेद की चिकित्सा कार्य करते थे और एक
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1. हम चाहते हैं कि हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज्य सदा बना रहे।

आयुर्वेदी फार्मेसी के संचालक थे। नाम था लाला सरदारीलाल। वैद्य जी ने तो समय की गति का ध्यान रख कर ही वक्ता का चयन किया था। देश में सन् 1898 से एक नयी लहर उत्पन्न हुई थी। इससे पहले सरकार के विपरीत सेना में छोटे-मोटे विस्फोट होते रहते थे और एक स्थान पर गाँव वालों ने भी विद्रोह किया था, परन्तु सन् 1898 में पूना के चाफेकर भाइयों ने एक नयी परम्परा डाली थी। उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों को पिस्तौल की गोली का आखेट बनाया था। इस घटना ने देश में सन् 1857 के विद्रोह से भी अधिक हलचल उत्पन्न की थी। यह आतंकवाद था और यह समझ कि आततायी महाभीरु होता है, आतंकवादियों ने ब्रिटिश सरकार के लिये कफन तैयार करना आरम्भ किया था।

सैनिक-संघर्ष में सेनाओं का युद्ध होता है। जिसकी सेना संख्या में अधिक और बढ़िया शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होती है, उसकी विजय होती है। परन्तु इस प्रकार के युद्ध में, जहाँ एक व्यक्ति अपनी जान को हथेली पर लिये हुए दूसरे पर आक्रमण करता है, वहाँ न तो संख्या का प्रश्न उठता है और न ही बढ़िया शस्त्रास्त्रों का। वहाँ तो साहस और विचार-दृढ़ता का प्रश्न ही होता है। आततायी विचार से सदा दुर्बल और भीरु होते हैं। ऐसे ही हिन्दुस्तान में अंग्रेज थे और केवल दो की हत्या से, पेशावर से लेकर कन्याकुमारी तक अंग्रेज़ अफसरों की रात के समय की नींद खराब होने लगी थी। तथा ब्रिटिश पार्लियामेण्ट इस घटना पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने लगी थी।
इस कार्य को और इसकी प्रतिक्रिया को देख, हिन्दुस्तानी युवकों का साहस बढ़ रहा था और स्थान-स्थान पर आतंक उत्पन्न करने के लिये, क्रान्तिकारी दल बन रहे थे।
लाहौर में भी ‘भारत माता’ के नाम से एक संस्था बनी थी। यह संस्था युवकों की मनोवृत्ति बदलने का यत्न करने में लगी हुई थी।

पंजाब, बंगाल, महाराष्ट्र और एक सीमा तक मद्रास में भी यह कार्य होने लगा था।
इस आन्दोलन में असाधारण आर्य-समाजी बहुत रुचि ले रहे थे; परन्तु आर्य-समाज में भी कुछ नेता ऐसे थे, जो स्वयं को, मठाधीशों के समान, निहित हितों के स्वामी मानने लगे थे। वे इस आन्दोलन से भयभीत थे। वास्तव में वे भी मैकॉले साहब की शिक्षा की उपज थे और उन्हें भी ‘इण्डियन नैशनल कांग्रेस’ के नेताओं की भाँति नये क्रान्तिकारी आन्दोलन से भय उत्पन्न होने लगा था।
आर्य-समाज के प्रधान के मन में यही भावना थी। लाखों रुपये की आर्य-समाज तथा डी. ए. वी. कालेज की सम्पत्ति की चिन्ता से ग्रसित हो, वे आर्य-समाज के मंत्री से नलिनीकान्त के विषय में चर्चा करने लगे थे।

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