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सफलता के चरण

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5377
आईएसबीएन :0

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सफल जीवन के महत्वपूर्ण चरण...

Saphalta Ke Charan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

 

सफल जीवन के विषय में मतभेद हो सकता है। आर्थिक सम्पन्नता भी सफल जीवन का लक्षण है और मानसिक तथा आत्मिक निर्मलता भी इसका लक्षण कही जा सकती है। यह भी कहा जाता है कि आर्थिक सम्पन्नता से दूसरी बातें भी सम्भव हैं। अतः इस विषय को न छूते हुए सफल जीवन की ओर बढ़ने के पगों पर ही इस पुस्तक को लिखने का यत्न किया गया है।

जीवन की सफलता, आर्थिक, मानसिक अथवा आत्मिक कुछ भी हो, उसको प्राप्त करने के लिए मार्ग एक ही है। इस ओर ले जाने के लिए प्रथम चरण है अपने ध्येय में दृढ़ निष्ठा। निष्ठाहीन व्यक्ति पथ में छोटी-सी भी बाधा उपस्थित होने पर विचलित होकर चलना छोड़ देता है। सब महापुरुष लगन के द्वारा महानता प्राप्त कर सके हैं। लगन निष्ठा का दूसरा नाम है।

लगन अर्थात् सिद्धि प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्न, सफलता के लिए आवश्यक होता हुआ भी ऐसा नहीं है कि सिद्धि दिला ही देगा। इसके लिए जिस पर चरण उठाए जाएँ, पथ भी उचित ही होना चाहिए। मिथ्या मार्ग पर चलनेवाला निष्ठावान व्यक्ति लक्ष्य से दूर हो जाएगा। एक परिश्रम करनेवाला व्यक्ति चोरी, ठगी, धोखा तथा झूठ बोलकर भी तो परिश्रम करता है। अतः परिश्रम करने में लगन भी, परिश्रम की दिशा मिथ्या होने पर, ध्येय तक पहुँचाने में सफल नहीं हो सकती। मार्ग उचित दिशा का ही होना चाहिए।

दिशा निश्चय करने के लिए विवेक अर्थात् युक्तियुक्त व्यवहार परमावश्यक है। युक्ति के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि विकारों से मन को रिक्त होना चाहिए। युक्ति मन का विषय है। उक्त पाँच विकार मन को मलिन कर युक्ति में बाधा बन जाते हैं। अतएव मार्ग निश्चय करने में निर्मल मन ही समर्थ हो सकता है।
मार्ग निश्चय हो जाए, उस पर चलने अर्थात् ध्येयप्राप्ति में लगन भी हो जाए तो फिर अगला पग है गति। गति इतनी धीमी भी हो सकती है कि जीवन-काल में सफलता न मिले। अतः सफलता के चरणों में चलने की गति का भी ध्यान रखना योग्य है। ध्येय की ओर बढ़ने में गति लाने के उपायों में प्रायः भूल हो जाती है। इस भूल से बचने के लिए धर्माचरण की आवश्यकता है। धर्मानुकूल व्यवहार रखकर ही गति-सहित बढ़ना वांछनीय है।
ये हैं सफलता के चरण। प्रस्तुत उपन्यास इसी विषय पर लिखा गया है।

 

गुरुदत्त

 

प्रथम परिच्छेद

 


‘‘निर्धनता महान् अभिशाप है।’ इस कथन को रामसुमन ने कभी भी स्वीकार नहीं किया। जब वह दूसरों को यह कहते सुनता था तो वह उन्हें कहा करता था, ‘‘सुख-दुःख, अच्छाई-बुराई, मान-अपमान, ये सब मन की अवस्थाएँ हैं। इनका धन के होने अथवा न होने से कोई सम्बन्ध नहीं है।’’
रामसुमन का यह दृढ़ मत था कि धनियों का धन, बलवानों का बल और प्रभुओं का प्रभुत्व भगवान की कृपा का ही परिणाम है। उसका ही प्रताप सर्वत्र विद्यामान रहता है। अतः मुख्य बात राम की कृपा है, शेष सब गौण हैं। उसके मुख पर प्रायः यह दोहा रहता था—


हरि माया कृत दोष गुण, बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिय राम तजि काम सब, अस विचारि मन माहिं।।


रामसुमन सेठ कमलापति की कोठी में चौकीदार था। उसे सेठ जी की कोठी में काम करते सत्रह वर्ष हो गए थे, अतः वह घर का एक अंग-सा ही दिखने लगा था। रामसुमन का बड़ा लड़का रामनिरंजन तो पिता से भी अधिक सेठ जी के परिवार में घुला-मिला रहता था और यदि उसका वर्ण भी सेठ जी के बच्चों की भाँति गंदमी होता अथवा वह भी उन जैसे बढ़िया वस्त्र पहनता तो कभी भी कोई बाहरी व्यक्ति उसे सेठ जी के परिवार से बाहर का न समझता। रामनिरंजन गौर-वर्णीय हृष्ट-पु्ष्ट लड़का था और मोटे मशीनी मलेशिया कपड़े के घर के सिले हुए और घर पर ही धुले वस्त्र पहनता था। इस प्रकार सेठ जी के बच्चों के बीच खड़ा वह तो अलग प्रतीत होता था। उसे देखनेवालों के मुख से यही निकलता था, ‘लड़का तो सुन्दर है, परन्तु किसी निर्धन का प्रतीत होता है।’

रामसुमन को सेठ जी की कोठी के पिछवाड़े में नौकरों के क्वार्टरों में स्थान मिला हुआ था। इस गृह में एक कोठी थी, उसके सामने बरामदा और छोटा-सा सेहन था। कोठी की चारदीवारी के भीतर ही यह गृह बना था। इसके सेहन में रामसुमन अपनी गाय बाँधा करता था। गाय के गोबर इत्यादि के कारण स्थान यदि गंदा हो जाता तो इसे साफ-सुथरा रखने के लिए रामसुमन की पत्नी भगवती को विशेष परिश्रम करना पड़ता था।

कोठी के दो अन्य नौकरों के लिए अलग-अलग गृह थे। एक में परशुराम चपरासी रहता था और दूसरे में लेखराज मोटर-ड्राइवर। इन तीन उपगृहों के अतिरिक्त कोठी के इसी कक्ष में मोटर रखने का गैरज भी था। इनमें जहाँ लेखराज और परशुराम सदा ही अपनी निर्धनता पर आँसू बहाया करते थे, वहाँ इनके व्यवहार के विपरीत रामसुमन सदा सन्तुष्ट और प्रसन्न रहता था। रामसुमन के परिवार में अपनी पत्नी भगवती और दो लड़के थे किन्तु चपरासी परशुराम और मोटर-ड्राइवर लेखराज अकेले थे। उनके परिवार के लोग उनके गाँवों में थे। लेखराज और परशुराम को, वेतन भी रामसुमन से अधिक मिलता था।

परन्तु रामसुमन अपने दोनों साथियों की अपेक्षा अधिक सन्तुष्ट रहता था। रामसुमन के पास एक गाय थी, जो उसके बच्चों को दूध देती थी और साथ ही कुछ आय में वृद्ध भी कर देती थी। परन्तु परशुराम और लेखराज बहुत ही दुःखी अवस्था में रहते थे। इन्हीं से रामसुमन की अपने भगवान में निष्ठा की चर्चा होती रहती थी। यद्यपि वे दोनों भी परमात्मा पर अविश्वास तो नहीं करते थे, फिर भी अपने जीवन और उसके बनानेवाले से वे असन्तुष्ट अवश्य थे।

रामनिरंजन सोलह वर्ष का हो गया था। पिता के अथक प्रयत्न और कठोर मितव्ययता के फलस्वरूप वह दसवीं श्रेणी तक शिक्षा प्राप्त कर मैट्रिक की परीक्षा दे चुका था। रामनिरंजन अपनी पढ़ाई मन लगाकर करता था। सेठ जी का लड़का सतीश रुपये-पैसे से उसका सदा सहायक रहता था।

सतीश रामनिरंजन का सहपाठी था। दोनों सतीश के कमरे में बैठे इकट्ठे पढ़ा करते थे। परिणाम स्वरूप रामनिरंजन को पुस्तकें नहीं खरीदनी पड़ती थीं। घर का काम करने के लिए और स्कूल में लिखने के लिए कापियाँ भी सतीश से मिल जाती थीं। सतीश को रामनिरंजन की सहायता का पुरस्कार भी मिलता रहता था। वह सतीश को स्कूल के पाठ समझाने और उसे स्मरण कराने में सहयोग देता था। अतः सतीश रामनिरंजन के प्रति अभार अनुभव करता था। रामनिरंजन को भी इससे लाभ होता था। इस समझने और समझाने से ही उसको अपने पाठ का भी अभ्यास हो जाता था। परिणाम यह हो रहा था कि सतीश रामनिरंजन का आभारी होता जाता था और रामनिरंजन पढ़ाई में अधिकाधिक योग्य होता जाता था।

ज्यों-ज्यों रामनिरंजन बड़ा होता गया, उसे अपनी निर्धनता की अनुभूति भी उसी प्रकार अधिकाधिक होती गई और अपने तथा सेठ जी के परिवार के मध्य खाई का अनुभव स्पष्ट होता गया। वह सतीश के कमरे में बैठकर सतीश को पाठ स्मरण कराया करता था और स्वयं भी, स्कूल से मिले हुए घर के काम को वहीं बैठकर कर लिया करता था। वह सेठ जी की कोठी की सज-धज और अपने रहने के स्थान में आकाश-पाताल का अन्तर देखता था। एक स्वच्छ, सुसज्जित और लाभप्रद था, दूसरा कमरा जिसमें पूर्ण परिवार रहता था, छोटा, गन्दा, अन्धेरा और आवश्यक सामान से भी रहित था। निर्धनता के अनुभव का श्रीगणेश उसे तब हुआ जब वह दूसरे श्रेणी में पढ़ता था। सतीश की एक बहन थी—रेखा। बहुत ही हँसमुख और मधुर स्वभाव की थी। वह तब चार वर्ष की थी और सतीश तथा रामनिरंजन के कंधों पर चढ़ती-उतरती उनसे खेला करती थी। एक दिन उसने गुड़िया का विवाह रचाने का प्रयत्न किया। उसकी माँ सत्यवती ने उससे पूछा—‘रेखा ! गुड़िया तो तुम्हारी है, पर किससे करोगी इसका विवाह ?’

रेखा चिन्ता में डूब गई। उसने पूछा, ‘‘माँ, तो विवाह अकेले नहीं हो सकता ?’’
‘‘ऊँहूँ। एक गुड़िया होती है और एक गुड्डा, दोनों का विवाह होता है। गुड़िया बहू बनकर गुड्डे के घर चली जाती है।’’
‘‘तो गुड्डा कहाँ से लाऊँ ?’
‘‘मैं क्या जानूँ ?’’ माँ ने मुस्कराते हुए कह दिया।
समीप ही रेखा की बड़ी बहन रानी खड़ी थी। उसने रानी को कहा—‘‘रानी का गुड्डा होगा।’’
‘‘यह कैसे हो सकता है ? बहन-बहन समधिन नहीं बन सकतीं।’’

‘‘अच्छी बात है। मैं निरंजन भैया से कहूंगी कि वह एक गुड्डा बना लें।’’
‘‘ऊँहूँ। एक धनी की गुड़िया निर्धन के गुड्डे से नहीं ब्याही जा सकती।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘इसलिए कि निर्धन के पास तो खाने के लिए भी नहीं होता। वह गुड़िया को खिलाएगा कहाँ से ?’’
रेखा हँस पड़ी। वह जानती थी कि उसकी गुड़िया तो कुछ भी खाती नहीं थी। इस कारण वह किसी के भी घर ब्याही जा सकती है, वह चाहे निर्धन हो, अथवा धनवान। उसी सांयकाल, जब सतीश और रामनिरंजन स्कूल का काम कर रहे थे, उसने रामनिरंजन से अपने मन में उठ रहा प्रश्न पूछ लिया।

‘‘निरंजन !’’ इसी नाम से सेठ जी के घर के लोग रामनिरंजन को सम्बोधित किया करते थे, एक निर्धन लड़के से धनी की लड़की का विवाह क्यों नहीं हो सकता ?’’
रामनिरंजन को शरारत सूझा। उसने कहा दिया, ‘‘हो क्यों नहीं सकता ? कौन करेगा विवाह, तुम करोगी ?’’
रेखा ने हँसते हुए कहा, ‘‘मेरी गुड़िया करेगी।’’
‘‘किसके साथ ?’’
‘‘तुम्हारे साथ’’ रेखा ने हँसते हुए कहा।
‘‘मैं तो गुड़िया से विवाह नहीं करूँगा, किसी लड़की से करूँगा।’’
‘‘किसी धनवान की लड़की से ?’’
‘‘हाँ।’’ रामनिरंजन उत्तर देता हुआ मुस्करा रहा था।
‘‘तो उसे खिलाओगे कहाँ से ?’’
‘‘जहाँ से मैं खाता हूँ।’’
‘‘पर तुम क्या मिठाई खाते हो ?’’
‘‘हाँ, नित्य ही।’’
‘‘भूषण हैं तुम्हारे पास ?’’
‘‘बहुत हैं, मैं अपनी पत्नी को पहनाऊँगा।’
‘‘तब तो ठीक है ?’’
‘‘क्या ठीक है ?’
रेखा हँस पड़ी और उठकर वहाँ से भाग गई।

इसके कुछ दिन पश्चात् रेखा अपनी कोठी के पिछवाड़े के ‘लॉन’ में ‘रस्सा-कूद’ खेल रही थी। रामनिरंजन स्कूल से लौटकर, पढ़ने के लिए सतीश के कमरे की ओर जा रहा था कि वहाँ रेखा को रस्से पर कूदते देखने के लिए खड़ा हो गया। चार वर्ष की चंचल लड़की सहज ही रस्सी पर ऐसे कूद रही थी, जैसे कि वह हवा में खड़ी है और रस्सी को उसके पाँव के नीचे से निकलने में किसी प्रकार की बाधा नहीं।
रेखा ने खेलना बंद कर रामनिरंजन से पूछा, ‘‘निरंजन ! तुम इस प्रकार खेल सकते हो ?’’
‘‘नहीं।’’ रामनिरंजन ने मुस्कराते हुआ कहा।
‘‘क्यों नहीं खेल सकते ?’’

‘‘एक निर्धन का बेटा धनी की बेटी के समान नहीं खेल सकता, उसे तो लिखना-पढ़ना है।’’
इस पर रेखा को उस दिन की बात स्मरण हो आई। उसने रामनिरंजन के समीप आकर कहा, ‘‘तुम तो कहते थे कि एक गरीब आदमी धनी की लड़की से विवाह कर सकता है ?’’
‘‘हाँ, क्यों पूछती है ?’’
‘‘मेरी माँ कहती थी, नहीं कर सकता। जब मैंने कहा कि मैं तुमसे विवाह करूँगी तो इस पर उसने कहा था कि यह नहीं हो सकता। फिर मुझे डाँटकर कहा था, ऐसी बात फिर कभी मत कहना।’’
‘‘माँ जी ने ठीक कहा था रेखा ! मैंने भी अपनी माँ से जब कहा था तो मुझे भी उसने मना कर दिया था। जनाती हो क्यों ?’’

‘‘नहीं।’’
‘‘इसलिए कि तुम मेरी बहन हो। बहन का भाई के साथ विवाह नहीं हो सकता।’’
रेखा का मुख फीका पड़ गया। वास्तव में जब उसने अपनी माँ से विवाह न हो सकने का कारण पूछा था तो उसने बताया था कि रामनिरंजन निर्धन का बेटा है। उससे उसका विवाह नहीं हो सकता।



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