सांस्कृतिक >> बन्धन शादी का बन्धन शादी कागुरुदत्त
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विवाह जैसे पवित्र-बंधन पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गूढ़ से गूढ़ विषय का सरल से सरल विवेचन गुरुदत्त की विशेषता है। इस
उपन्यास में भी उन्होंने विवाह और उससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं का
मनोवैज्ञानिक विवरण प्रस्तुत किया है।
विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है। भारत में ही नहीं विश्व के कई देशों में विवाह का स्थापनापन्न ढूँढ़ने का असफल प्रयत्न हुआ है परन्तु इससे समस्याएँ कम होने की बजाए बढ़ी ही हैं।
‘बन्धन शादी का’ एक ऐसी लड़की की कहानी है जो विदेशी संस्कारों के प्रभाव से विवाह को अनावश्यक मानती है। परन्तु सामाजिक वातावरण के कारण उसके सोचने में जिस प्रकार परिवर्तन आता है उसका सजीव तथा रोचक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है।
उपन्यास का प्रवाह ऐसा है कि उपन्यास शुरू करके समाप्त किए बिना छोड़ा नहीं जा सकता।
विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है। भारत में ही नहीं विश्व के कई देशों में विवाह का स्थापनापन्न ढूँढ़ने का असफल प्रयत्न हुआ है परन्तु इससे समस्याएँ कम होने की बजाए बढ़ी ही हैं।
‘बन्धन शादी का’ एक ऐसी लड़की की कहानी है जो विदेशी संस्कारों के प्रभाव से विवाह को अनावश्यक मानती है। परन्तु सामाजिक वातावरण के कारण उसके सोचने में जिस प्रकार परिवर्तन आता है उसका सजीव तथा रोचक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है।
उपन्यास का प्रवाह ऐसा है कि उपन्यास शुरू करके समाप्त किए बिना छोड़ा नहीं जा सकता।
भूमिका
संसार में सर्वाधिक रसमय संबंध कदाचित् पुरुष-स्त्री का है। इसकी रसमयता
के अतिरिक्त भी इसमें और अन्य संबंधों में अंतर है। अन्य संबंधों में एक
भोक्ता होता है और दूसरा भुक्त। इसमें भोक्ता-भुक्त दोनों ही हैं। इस कारण
यह आदिकाल से चिन्ता और चिन्तन का विषय बना हुआ है।
प्रत्येक रसमय संबंध में भोग का भोग करने वाले पर प्रभाव होता है। यह प्रभाव ही चिन्तन और चिन्ता का विषय है। कारण यह कि इसका प्रभाव तात्कालिक स्वाद और उससे उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख के अतिरिक्त सन्तान के रूप में है। यही सब झगड़े का मूल है।
जो लोग जीवधारियों में किसी आत्म-तत्त्व की उपस्थिति मानते हैं, वे इस बन रहे जीवन के लिए संसार का द्वार बंद करना नहीं चाहते। दूसरे, जो एक जीवधारी और निर्जीव में केवल मात्र प्रकृति की स्थिति का अंतर मानते हैं, वे इस फल को नष्ट कर देने में हानि नहीं समझते।
इस फल के नष्ट करने में भी दो स्थितियाँ हैं। एक यह कि इसे बनने ही न दिया जाए और दूसरी यह कि बन जाने पर नष्ट कर दिया जाए; दोनों ही स्थितियाँ आत्म-तत्त्व मानने वाले स्वीकार नहीं करते। दोनों को पाप मानते हैं।
एक तीसरा पक्ष भी है जो इस फल से बन रहे समाज के विचार से भी इसके बनने में बाधा अथवा बन जाने पर नष्ट करने को चिन्ता का विषय मानते हैं।
इन सब परिणामों पर और उनमें सब दृष्टिकोणों से प्रकाश डालने का यत्न इस पुस्तक में किया गया है।
वास्तविक प्रश्न ये हैं-
1. इस उत्कट स्वाद को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है अथवा नहीं ?
2. विवाह इसको नियंत्रित रखने में कुछ योगदान देता है अथवा नहीं ?
3. इसका रसास्वादन करने वाले आने वाले जीव के प्रति और उससे बनने वाले समाज के प्रति अपना कुछ उत्तरदायित्व समझें अथवा नहीं ?
4. जो पहले आ गए हैं, उनको क्या अधिकार है कि पीछे आने वालों का मार्ग अवरुद्ध करें ?
5. समाज के घटक होने से समाज से लाभ उठाने वाले समाज को श्रेष्ठ बनाने में कुछ ज़िम्मेदारी मानते हैं अथवा नहीं ?
6. इन सब स्थितियों में विवाह का प्रभाव क्या होता है ?
ये सब समस्याएं आदिकाल से चली आती हैं और मानव समाज ने इन समस्याओं को सुलझाने में विवाह से श्रेष्ठ और सबल प्रभाव वाला कोई अन्य उपाय प्रतीत नहीं किया।
अनेक पंथ, वाम मार्ग, भैरवी चक्र और कुपंथ भी विवाह का स्थानापन्न ढूँढ़ने में लीन रहे हैं। परन्तु वेद जैसी सबसे प्राचीन पुस्तक में विवाह-पद्धति की श्रेष्ठता वर्णन होने से लेकर आज भूमण्डल के सब देशों में यही स्वीकार की गई है।
यह पुस्तक एक उपन्यास है। इसमें वर्णित घटनाएँ और व्यक्ति सब काल्पनिक हैं। केवल विषय ही सत्य और विवेचनीय है।
प्रत्येक रसमय संबंध में भोग का भोग करने वाले पर प्रभाव होता है। यह प्रभाव ही चिन्तन और चिन्ता का विषय है। कारण यह कि इसका प्रभाव तात्कालिक स्वाद और उससे उत्पन्न होने वाले सुख-दुःख के अतिरिक्त सन्तान के रूप में है। यही सब झगड़े का मूल है।
जो लोग जीवधारियों में किसी आत्म-तत्त्व की उपस्थिति मानते हैं, वे इस बन रहे जीवन के लिए संसार का द्वार बंद करना नहीं चाहते। दूसरे, जो एक जीवधारी और निर्जीव में केवल मात्र प्रकृति की स्थिति का अंतर मानते हैं, वे इस फल को नष्ट कर देने में हानि नहीं समझते।
इस फल के नष्ट करने में भी दो स्थितियाँ हैं। एक यह कि इसे बनने ही न दिया जाए और दूसरी यह कि बन जाने पर नष्ट कर दिया जाए; दोनों ही स्थितियाँ आत्म-तत्त्व मानने वाले स्वीकार नहीं करते। दोनों को पाप मानते हैं।
एक तीसरा पक्ष भी है जो इस फल से बन रहे समाज के विचार से भी इसके बनने में बाधा अथवा बन जाने पर नष्ट करने को चिन्ता का विषय मानते हैं।
इन सब परिणामों पर और उनमें सब दृष्टिकोणों से प्रकाश डालने का यत्न इस पुस्तक में किया गया है।
वास्तविक प्रश्न ये हैं-
1. इस उत्कट स्वाद को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता है अथवा नहीं ?
2. विवाह इसको नियंत्रित रखने में कुछ योगदान देता है अथवा नहीं ?
3. इसका रसास्वादन करने वाले आने वाले जीव के प्रति और उससे बनने वाले समाज के प्रति अपना कुछ उत्तरदायित्व समझें अथवा नहीं ?
4. जो पहले आ गए हैं, उनको क्या अधिकार है कि पीछे आने वालों का मार्ग अवरुद्ध करें ?
5. समाज के घटक होने से समाज से लाभ उठाने वाले समाज को श्रेष्ठ बनाने में कुछ ज़िम्मेदारी मानते हैं अथवा नहीं ?
6. इन सब स्थितियों में विवाह का प्रभाव क्या होता है ?
ये सब समस्याएं आदिकाल से चली आती हैं और मानव समाज ने इन समस्याओं को सुलझाने में विवाह से श्रेष्ठ और सबल प्रभाव वाला कोई अन्य उपाय प्रतीत नहीं किया।
अनेक पंथ, वाम मार्ग, भैरवी चक्र और कुपंथ भी विवाह का स्थानापन्न ढूँढ़ने में लीन रहे हैं। परन्तु वेद जैसी सबसे प्राचीन पुस्तक में विवाह-पद्धति की श्रेष्ठता वर्णन होने से लेकर आज भूमण्डल के सब देशों में यही स्वीकार की गई है।
यह पुस्तक एक उपन्यास है। इसमें वर्णित घटनाएँ और व्यक्ति सब काल्पनिक हैं। केवल विषय ही सत्य और विवेचनीय है।
-गुरुदत्त
प्रथम परिच्छेद
सेठ महेश्वर प्रसाद की पत्नी सत्यवती बम्बई बाईकुला क्षेत्र में एक मकान
की सातवीं मंज़िल पर एक फ्लैट के ड्राइंग रूम में बैठी चाय के लिए पति और
बच्चों की प्रतीक्षा कर रही थी। पति इसी मकान की दूसरी मंजि़ल पर कारोबार
के कार्यालय में काम समाप्त कर आने वाला था।
सत्यवती की एक लड़की और एक लड़का था। लड़का सिद्धेश्वर हायर सैकेण्डरी में पढ़ता था। वह स्कूल से आ चुका था और अपने कमरे में बैठा परिवार के अन्य सदस्यों के चाय के लिए आने की प्रतीक्षा कर रहा था। लड़की लड़के से आठ वर्ष बड़ी थी। वह एम. ए. पास कर राज्य सचिवालय में सेवा-कार्य प्राप्त कर चुकी थी।
वास्तव में रेवा की प्रतीक्षा हो रही थी। पिता भी अपना कार्य समेट लड़की के सचिवालय से आने की प्रतीक्षा कर रहा था।
रेवा सवा पाँच बजे आई और लिफ्ट से ऊपर के फ्लैट को चढ़ गई। पिता ने उसे ऊपर जाते देखा तो वह भी उठा और कार्यालय के चपरासी को कार्यालय बन्द करने को कहने लगा। वह लिफ्ट की ओर चल पड़ा। लिफ्ट लड़की को लेकर ऊपर गई थी, इस कारण सेठ साहब उसके नीचे आने की प्रतीक्षा करने लगे।
चपरासी ने कार्यालय बन्द किया और चाबी सेठ जी को दी ही थी कि लिफ्ट नीचे आ गई। सेठ जी भी उसमें सवार हो, ऊपर जा पहुँचे।
वह घर के ड्राइंग रूम में पहुँचे तो पत्नी एक सोफे पर बैठी थी। सेविका मोहिनी सैण्टर टेबल पर चाय का सामान लगा रही थी।
सेठ जी ने सोफा पर बैठते हुए पूछा, ‘‘रेवा आई थी ?’’
‘‘जी ! आप बैठिए। वह भी आती है।’’
इस समय लड़का सिद्धेश्वर आ गया। बैठते ही बोला, ‘‘पिता जी ! हमारी कल से परीक्षा आरम्भ हो रही है।’’
‘‘और तुम इसके लिए तैयार हो ?’’
‘‘जी ! उत्तीर्ण तो अवश्य ही हो जाऊँगा। सम्भव यह है कि स्कूल में प्रथम रहूँ।’’
‘‘मुझे तुम्हारे उत्तीर्ण होने से मतलब है। प्रथम होने से कुछ विशेष लाभ नहीं होगा। तुम्हारी बहन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने लगी तो फिर उसने पढ़ाई छोड़ी ही नहीं, जब तक आगे पढ़ने के लिए कोई श्रेणी नहीं रही। और फिर मेरे व्यवसाय में सहायक होने के स्थान पर वह सचिवालय में सेवा-कार्य करना पसन्द कर बैठी है।’’
‘‘पर पिता जी ! मैं आपके साथ व्यापार में लग जाऊँगा।’’
इस समय मोहिनी कमरे से बाहर निकल गई। रेवा अभी भी नहीं आई थी और सत्यवती पति तथा लड़के के लिए प्यालों में चाय बनाने लगी।
‘‘और रेवा ?’’ सेठ जी ने पूछा।
‘‘उसकी तबीयत ठीक नहीं है। इस कारण चाय नहीं लेगी।’’
‘‘क्या कष्ट है ?’’
‘‘आप चाय लीजिए। चाय के उपरान्त मैं पता करूँगी।’’
सेठ जी समझे नहीं। परन्तु घर के विषय में, विशेष रूप से बच्चों के विषय में सत्यवती की बात सर्वोपरि होती थी। इस कारण सेठ जी चुप हो गए और चाय लेने लगे। एक-दो घूँट चाय लेकर सेठ जी पुत्र से ही पूछने लगे, ‘‘कब तक परीक्षा समाप्त होगी ?’’
‘‘अप्रैल की दस तारीख को अन्तिम परीक्षा है।’’
‘‘तब ठीक है। मैं यूरोप जा रहा हूँ और जाने से पूर्व तुम को यहाँ कुछ काम समझा देना चाहता हूँ, जिससे तुम यहाँ की सूचना मुझे देते रहा करोगे।’’
सिद्धेश्वर प्रसन्न था। यद्यपि वह श्रेणी में एक योग्य प्रतिभाशाली विद्यार्थी समझा जाता था, परन्तु वह स्कूल कॉलेजों की चक्की से बाहर हो अपनी बुद्धि का और अन्य गुणों का प्रयोग करना चाहता था।
उसने पूछ लिया, ‘‘पिता जी ! कब जाएँगे ?’’
‘‘मई मास के मध्य में।’’
चाय के साथ देसी मिठाई थी। तीनों, पिता, माँ और पुत्र मज़े में लेते रहे।
चाय समाप्त हुई। सेठ जी उठकर कुछ मिनट के लिए आराम करने अपने बैडरूम में चले गए। लड़का भी उठा और अपने पढ़ाई के कमरे में चला गया।
माँ उठकर लड़की के कमरे में जा पहुँची। लड़की पलंग पर लेटी हुई थी।
‘‘क्या बात है रेवा !’’ माँ ने कमरे में प्रवेश करते हुए पूछा।
रेवा माँ का मुख देखती हुई लेटी रही। उसने उत्तर नहीं दिया।
माँ ने पलंग के समीप कुर्सी खिसका, उस पर बैठते हुए कहा, ‘‘मोहिनी कह रही थी कि तुम खाया-पिया उलट रही थी।’’
‘‘हाँ, माँ ! मध्याह्न का खाया छाती पर अटका रखा था। अभी लिफ्ट से ऊपर आते हुए मितली हुई और यहाँ पहुँच बाथरूम में जा सब निकाल आई हूँ।’’
‘‘मैं दो तीन दिन से तुम्हारे मुख पर विवर्णता देख रही हूँ।’’
‘‘माँ असल बात यह है कि मुझे दिन चढ़ गए हैं। मुझे रजस्वला हुए दो मास से ऊपर हो चुके हैं।’’
‘‘ओह ! यह कैसे हो गया ?’’ माँ आश्चर्य से रेवा का मुख देखती रह गई।’’
‘‘मैं समझती हूँ कि वैसे ही हुआ होगा जैसे सब औरतों को होता है। मैं चाहती तो नहीं थी, परन्तु कहीं भूल हो गई है और यह हो गया है।
‘‘मैं आज आधे दिन की छुट्टी लेकर डॉक्टर के पास गई थी। डॉक्टर ने परीक्षा कर बताया है कि दो मास का गर्भ है।
‘‘मैंने उसे गर्भपात के लिए कहा है, परन्तु उसकी राय है कि यह ठीक नहीं होगा।
‘‘वैसे मुझसे एफिडेविट लेकर वह यत्न कर सकती थी, परन्तु उसने मुझे राय दी कि मैं ऐसा न कराऊँ। मेरा भावी जीवन बिगड़ सकता है।’’
‘‘और यह किसका है ?’’
‘‘बता नहीं सकती।’’
इस पर तो माँ पीत-मुख लड़की की ओर देखती रह गई। उसने पूछा, ‘‘तो तुम एक से अधिक पुरुषों की संगत में रहती हो ?’’
‘‘यही तो कह रही हूँ।’’
‘‘तुमने बहुत बुरा किया है।’’
‘‘क्या बुरा किया है ? माँ ! यह एक भूल तो हुई है कि असावधान हो गई थी और सन्तान निरोध का उचित उपाय प्रयुक्त नहीं हुआ। परन्तु यह कुछ बुरा हुआ है, ऐसा मैं नहीं मानती।’’
‘‘मैं यह नहीं कह रही हूँ। मैं तो यह कह रही हूँ कि तुमने विवाह किए बिना किसी पुरुष की संगत का लाभ उठाया है। यह बुराई है।’’
अब लड़की उठकर बैठ गई। लेटे-लेटे वह भलीभांति युक्ति नहीं कर पा रही थी। उसने बैठते हुए कहा, ‘‘देखो माँ ! पिछले वर्ष मैं गुरु जी के आश्रम में गई थी। वहाँ दो दिन उनका प्रवचन सुनती रही थी। उनका मत था कि विवाह का विधान मानवसमाज के घोर पतन का कारण हो गया है। उन्होंने यह भी कहा था कि आदिकाल में मनुष्यों में विवाह का विधान नहीं था और पुरुष स्त्री स्वेच्छा से तथा स्वतन्त्रता से विचरते थे।
‘‘तब पिता जी भी मेरे साथ थे और उन्होंने भी आचार्य जी के प्रवचन को सुनकर पसन्द किया था।’’
‘‘तब से ही मैंने अपना व्यवहार बदला है। सन्तान न हो, इसकी शिक्षा बर्थ कन्ट्रोल क्लीनिक वालों ने दी थी। वहाँ मैंने बताया था कि कुछ ही दिनों में मेरा विवाह होने वाला है और मैं अभी सन्तान नहीं चाहती। इस कारण वहाँ काम करने वाली लेडी डॉक्टर ने बहुत परिश्रम से मुझे इस विषय में सब कुछ समझा दिया था।’’
माँ यह कथा सुन अवाक् हो लड़की का मुख देखती रह गई। आखिर उसने बिखर गए दूध का विचार छोड़ जो कुछ बचा है, उसकी रक्षा के विषय में विचार करना आरम्भ कर दिया। उसने पूछा, ‘‘तो अब क्या करोगी ?’’
‘‘माँ ! अभी तो दस-पन्द्रह दिन की कार्यालय से छुट्टी लेकर अपनी पाचन शक्ति को ठीक करूँगी। तदनन्तर मैं कार्यालय जाया करूँगी। डॉक्टर मिस रमज़ान से बातकर आई हूँ। मुझे वह अपने क्लीनिक में प्रसव से पूर्व भरती कर लेगी और फिर मेरे स्वस्थ होने तक वह वहाँ रखेगी। मैंने उससे होने वाले बच्चे के ‘डिस्पोज़ल’ के विषय में भी विचार किया है। उसने वचन दिया है कि इसके विषय में भी वह मेरी सहायता करने का यत्न करेगी। इस सबका वह दो हज़ार रुपया माँगती है। औषधि इत्यादि का मूल्य पृथक होगा और यदि किसी अन्य डॉक्टर की सहायता की आवश्यकता पड़ी तो उसकी फ़ीस भी पृथक देनी पड़ेगी।’’
‘‘और तुम मान आई हो ?’’
‘‘हाँ ! और कह आई हूँ कि मैं कल उसे कुछ पेशगी जमा करा दूँगी।’’
‘‘तो तुम्हारे पास रुपया है ?’’
‘‘हाँ, माँ ! मैं इसके लिए तुमसे अथवा पिता जी से नहीं मागूँगी।’’
‘‘तो डॉक्टर से मिलने कब जाओगी ?’’
‘‘माँ ! मैं तुमको साथ नहीं ले जाऊँगी। मैंने वहाँ अपना नाम और पता भी मिथ्या लिखवाया है। मैं नहीं चाहती थी कि इस घटना से पिता जी के नाम पर किसी प्रकार का लांछन लगे।’’
सत्यवती कितनी देर तक लड़की के पलंग के समीप कुर्सी पर गम्भीर विचारों में निमग्न बैठी रही।
आखिर वह उठी और एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर बोली, ‘‘किसी मूर्ख के प्रवचन को अपनी मलिन बुद्धि से विचार कर घोर नरक की ओर चल पड़ी हो। परमात्मा तुम्हारी रक्षा करे।’’
रेवा की हँसी निकल गई। वह माँ को सांत्वना देने के लिए बोल उठी, ‘‘माँ ! तुम चिन्ता न करो। मैं पिता जी और पिता जी के परिवार को इससे बाहर रखना चाहती हूँ। और तुम तो जानती ही हो कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, वैसा ही कर्म का फल भोगता है। इस कारण तुमको मेरे इस कर्म से भयभीत नहीं होना चाहिए। तुम अपने विचार से इसके फल से अछूती रहोगी।
‘‘यद्यपि मैं ऐसा नहीं मानती। मैं तो एक समाजवादी जीव हूँ। मैं और मेरे समाज के लोग अपना एक नया समाज बना रहे हैं और मेरी नौका इस भवसागर को पार करने की क्षमता रखती प्रतीत होती है।’’
माँ न तो लड़की जितनी पढ़ी थी और न ही वह कभी अपने पति के गुरु के प्रवचन सुनने गई थी वह एक निष्ठावन हिन्दू परिवार की कन्या थी।
जब उसने सुना कि लड़की उसके पति के गुरु की शिष्या बन बिना विवाह के किसी अज्ञात पुरुष के बीज को अपने पेट में सींचने लगी है तो वह कमरे से निकल आई।
रेवा के कमरे से वह सेठ जी के कमरे में गई। सेठ जी सायंकाल के भ्रमण के लिए जाने वाले थे और वह पत्नी को साथ ले जाने के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
सत्यवती आई तो पूछने लगे, ‘‘क्या है रेवा को ?’’
सत्यवती ने हाथ के संकेत से बैठने को कहा और स्वयं उनके समीप बैठ उसने रेवा की पूर्ण बात बता दी।
सेठ महेश्वर प्रसाद पूर्ण कथा सुन खिलखिलाकर हँस पड़ा। इससे तो सत्यवती को अत्यन्त विस्मय हुआ और वह प्रश्नभरी दृष्टि से पति के मुख की ओर देखने लगी।
सेठ जी ने कहा, ‘‘मुझे स्मरण है गुरु जी ने क्या कहा था और मुझे यह भी स्मरण है कि मैं उस समय मुस्कराया था। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं था कि मुझे उनकी बात पसन्द आई थी। अगले दिन बहुत प्रातःकाल गुरुजी अभी अपनी समाधि पर बैठने की तैयारी कर रहे थे कि, मैं उनको कहने जा पहुँचा था कि उन्होंने अधूरी बात कहकर वहाँ एकत्रित होने वाले युवक-युवतियों को मिथ्या मार्ग पर डालने का यत्न किया है।’’
उनका कहना था, ‘‘मैने अपनी साधना का फल बता दिया है। प्रत्येक साधक की प्रकृति उसका मार्गदर्शन करेगी। यह स्त्री की प्रकृति में है कि वह अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करे।’’
‘‘उन्होंने यह भी बताया था कि विवाह की प्रथा दुर्बलात्मा मनुष्यों ने, विशेष रूप से पुरुषों ने, निर्माण की है। मैं मानव समाज को इस दासता की श्रृंखला से मुक्त करने का उपाय बताता हूँ और यह प्रकृति के स्वभाव में है कि वह क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। यह प्रतिक्रिया अनेकों प्रकार से उत्पन्न हो सकती है।’’
‘‘हम, मेरा मतलब है कि मैं और रेवा तो उसी दिन मध्याह्न को गाड़ी से बम्बई लौट आए थे। इस वर्ष मैं जा नहीं सका।’’
‘‘तो’’, सत्यवती का कहना था, ‘‘यह आपके गुरु जी का विष ही है। मैं कहती हूँ कि इसका फल अति कटु होने वाला है !’’
‘‘नहीं रानी ! मैं इसके फल की दिशा मोड़ दूँगा। तुम निश्चित रहो। क्या नाम बताया है रेवा ने डॉक्टर का ?’’
‘‘डॉक्टर रमज़ान एम. बी. बी. एस.।’’
‘‘ठीक है ! मैंने उसका क्लीनिक देखा है। अच्छा, मैं भ्रमण के लिए जा रहा हूँ। चलोगी ?’’
‘‘इस घटना को सुनकर चित्त नहीं करता।’’
‘‘तुम भी हो तो स्त्री ही न। व्यर्थ की चिन्ता करती रहती हो। जो जैसा करता है, वैसा शुभ-अशुभ उसको प्राप्त होता है।’’
‘‘आप जाइए। मैं आज नहीं जा रही।’’
सेठ जी गए तो वह ड्राइंग रूम में आ गई। वहाँ सिद्धेश्वर अपनी माँ की प्रतीक्षा कर रहा था। उसने पूछा, ‘‘माँ ! रेवा दीदी को क्या है ?’’
‘‘वह बीमार है। उसे औरतों वाली बीमारी है। पुरुषों को इसमें झाँकना नहीं चाहिए।’’
सिद्धेश्वर चुप कर रहा।
रात खाने के समय रेवा को भूख लगी तो वह भी खाने की मेज़ पर आ बैठी।
माँ ने कह दिया, ‘‘संयम से थोड़ा-थोड़ा खाओ। नहीं तो फिर शैंक को भागोगी।’’
‘‘माँ ! मैं सावधान हूँ।’’
भोजन पर भी परिवार के चारों व्यक्ति उपस्थित थे। उस समय रेवा की बीमारी के विषय में किसी प्रकार की बात नहीं हुई। रेवा ने पुदीने की चटनी के साथ आधी चपाती ही ली और फिर खाना बन्द कर दिया।
जब सेठ जी और उनकी पत्नी सोने के कमरे में गए तो सेठजी ने बताया, ‘मैं डॉक्टर मिस रमज़ान से मिल आया हूँ और उसके साथ सब प्रबन्ध कर आया हूँ।’’
‘‘डॉक्टर ने कहा है कि वह गर्भपात के खिलाफ है। यद्यपि उसे गर्भपात करने का लाइसेंस मिला हुआ है। परन्तु वह यह कम यथाशक्ति रोकती है। यही उसने मिस सोमानी को कहा है ?’’
‘‘मिस सोमानी ?’’
‘‘हाँ, यही नाम उसने डॉक्टर को बताया है और उसने अपने रजिस्टर में लिखा है।’’
‘‘और आप किस नाम से उसके साथ मिले हैं।’’
‘‘राम सरोदे। मैं मराठी में ही उससे बात करता रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि उसे विश्वास हो गया है कि मैं मराठा सरकारी अफ़सर हूँ।’’
‘‘उससे आप क्या निश्चय कर आए हैं ?’’
‘‘यही कि यह प्रसवादि सही सलामत हुआ तो दो सहस्र रुपया मैं उसे दूंगा और पीछे बच्चे के एक वर्ष तक पालन पोषण का पूरा व्यय भी दूंगा। जब बच्चा एक वर्ष का होगा। तब उसके विषय में पुनः विचार कर लिया जाएगा। यदि बच्चे दो हुए तो तीन सहस्र दूंगा।’’
‘‘परन्तु प्रसव का खर्चा तो रेवा दो सहस्र रुपये देने का वचन दे चुकी है ?’’
‘‘उसके पास धन फालतू आ रहा है। वह उसको नाली में बहाने का विचार कर रही है तो मैं कैसे मना कर सकता हूँ, परन्तु वह धन दे रही है बच्चे को ‘डिस्पोज़ ऑफ’ करने के लिए। डॉक्टर ने इसका अर्थ समझाया है, वह यह कि पैदा होते ही उसको कुछ खिलाकर उसकी हत्या कर देगी और कह देगी कि बच्चा मरा हुआ उत्पन्न हुआ है। मैं उसे यह सब कुछ दे रहा हूँ बच्चे के सही सलामत उत्पन्न करने और फिर एक वर्ष तक पालन पोषण करने के लिए। एक वर्ष बाद उसके पालन-पोषण का मैं स्वयं प्रबन्ध करूँगा।’’
‘‘देखो रानी ! मेरा इसमें कूद पड़ने का उद्देश्य केवल दयाभाव है। प्रकृति जो कुछ निर्माण करती है, उसमें सहायक होने के लिए डॉक्टर का उद्देश्य मैं यह समझा हूँ कि हज़रत मुहम्मद की उम्मत में एक की वृद्धि करना है। मैं उसमें बाधा खड़ी करना चाहता हूँ।’’
सत्यवती ने कहा, ‘‘यदि वह मुझे बताकर डॉक्टर से निश्चय करती तो मैं गर्भपात कराने का यत्न करती ?’’
‘‘मैं समझती हूँ कि यह प्रकृति मायावी है। यह मनुष्य को घेर-घार कर अपने जाल में फँसाकर अपनी सृष्टि में वृद्धि करती रहती है। मैं इस मायावी प्रकृति की माया को भंग करने का यत्न करती।’’
‘‘आपने तो रूढ़िवादी हिन्दुओं के दया भाव से प्रेरत होकर दुर्घटना का मुख मोड़ देने का यत्न किया है।’’
‘‘परन्तु देवी ! मैं यह सन्तान में वृद्धि के लिए नहीं कह रहा। मैं तो जो कुछ निर्माण हो गया है, उसकी रक्षा के लिए ही यत्न कर रहा हूँ। यही तो अहिंसावाद है। इसी से मैं सामान्य हिन्दू से भिन्न हूँ।’’
सत्यवती समझी नहीं, परन्तु इतना समझ गई कि उसकी और पतिदेव की विचार दिशा में अन्तर है। इस कारण वह चुप कर रही।
रेवा को डॉक्टर ने ‘मॉर्निंग सिकनैस’ की औषधि देकर एक सप्ताह में ही कार्यालय में काम-काज करने योग्य कर दिया परन्तु एक पखवाड़ा भर कार्यालय से अनुपस्थित रहकर जब रेवा कार्यालय में पहुँची तो उसके कार्यालय के विभाग के कई साथी, उससे उसकी अनुपस्थिति का कारण पूछने लगे। रेवा के दो प्रकार के उत्तर थे। कुछ को वह कहती थी कि आगामी रविवार सविस्तार बताऊँगी, कुछ अन्य को वह कहती थी कि पेट में पीड़ा हो गई थी। उसकी चिकित्सा में पन्द्रह दिन लग गए हैं और यह उसका सौभाग्य है कि वह शीघ्र ही पुनः सब प्रकार से स्वस्थ हो काम पर आ सकी है।
इन मिज़ाजपुर्सी करने वालों में विभाग के सुपरिन्टेंडेण्ट मिस्टर राबर्ट कार्माइकल भी थे। यह महानुभाव एंग्लो इण्डियन कम्यूनिटी के घटक थे। इनकी माँ एक महाराष्ट्रियन अछूत जाति की थी और पिता एक नीग्रो स्त्री तथा अमेरिकन पुरुष का परिणाम था।
सुपरिन्टेंडेण्ट लंच के समय से पहले आया और खड़े-खड़े रेवा से हाथ मिलाकर पूछने लगा, ‘‘अब तबीयत कैसी है ?’’
‘‘अभी दुर्बलता है। छुट्टी के पहले पाँच दिन में तो भोजन पचता नहीं था। पीछे कुछ पचने लगा था।’’
‘‘तो डॉक्टर से सफाई के लिए नहीं कहा ?’’
‘‘डॉक्टर ने मना कर दिया था। वह कहती थी कि उसके लिए विलम्ब हो चुका है। इस कारण मेरे शरीर को बहुत हानि पहुँच सकती है। और तब शेष जीवन भर कष्ट होगा।’’
‘‘परन्तु इस स्थिति में तो अन्य बहुत-सी कठिनाइयाँ उपस्थिति हो जाएँगी।’’
‘‘क्या कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाएँगी ?’’
‘‘क्या चाय नहीं लोगी ?’’
‘‘जा रही हूँ।’’
‘‘तो आओ। मैं तुमको निमन्त्रण देता हूँ।’’
रेवा उठ सुपरिन्टेंडेण्ट के कमरे में चली गई। उसके जलपान का प्रबन्ध उसके रिटायरिंग रूम में हो रहा था। जब मिस्टर कार्माइकल रेवा के साथ वहाँ पहुँचा तो चाय और कुछ सैण्डविचेज़ टेबल पर तैयार कर रखे हुए थे। कार्माइकल के कहने पर चपरासी ने पहले ही दो व्यक्तियों के लिए चाय का सामान तैयार किया हुआ था। साहब को रेवा के साथ आते देख वह रेवा को सलाम कर कमरे से बाहर निकल गया।
दोनों कुर्सियों पर बैठकर चाय लेने लगे।
सत्यवती की एक लड़की और एक लड़का था। लड़का सिद्धेश्वर हायर सैकेण्डरी में पढ़ता था। वह स्कूल से आ चुका था और अपने कमरे में बैठा परिवार के अन्य सदस्यों के चाय के लिए आने की प्रतीक्षा कर रहा था। लड़की लड़के से आठ वर्ष बड़ी थी। वह एम. ए. पास कर राज्य सचिवालय में सेवा-कार्य प्राप्त कर चुकी थी।
वास्तव में रेवा की प्रतीक्षा हो रही थी। पिता भी अपना कार्य समेट लड़की के सचिवालय से आने की प्रतीक्षा कर रहा था।
रेवा सवा पाँच बजे आई और लिफ्ट से ऊपर के फ्लैट को चढ़ गई। पिता ने उसे ऊपर जाते देखा तो वह भी उठा और कार्यालय के चपरासी को कार्यालय बन्द करने को कहने लगा। वह लिफ्ट की ओर चल पड़ा। लिफ्ट लड़की को लेकर ऊपर गई थी, इस कारण सेठ साहब उसके नीचे आने की प्रतीक्षा करने लगे।
चपरासी ने कार्यालय बन्द किया और चाबी सेठ जी को दी ही थी कि लिफ्ट नीचे आ गई। सेठ जी भी उसमें सवार हो, ऊपर जा पहुँचे।
वह घर के ड्राइंग रूम में पहुँचे तो पत्नी एक सोफे पर बैठी थी। सेविका मोहिनी सैण्टर टेबल पर चाय का सामान लगा रही थी।
सेठ जी ने सोफा पर बैठते हुए पूछा, ‘‘रेवा आई थी ?’’
‘‘जी ! आप बैठिए। वह भी आती है।’’
इस समय लड़का सिद्धेश्वर आ गया। बैठते ही बोला, ‘‘पिता जी ! हमारी कल से परीक्षा आरम्भ हो रही है।’’
‘‘और तुम इसके लिए तैयार हो ?’’
‘‘जी ! उत्तीर्ण तो अवश्य ही हो जाऊँगा। सम्भव यह है कि स्कूल में प्रथम रहूँ।’’
‘‘मुझे तुम्हारे उत्तीर्ण होने से मतलब है। प्रथम होने से कुछ विशेष लाभ नहीं होगा। तुम्हारी बहन प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने लगी तो फिर उसने पढ़ाई छोड़ी ही नहीं, जब तक आगे पढ़ने के लिए कोई श्रेणी नहीं रही। और फिर मेरे व्यवसाय में सहायक होने के स्थान पर वह सचिवालय में सेवा-कार्य करना पसन्द कर बैठी है।’’
‘‘पर पिता जी ! मैं आपके साथ व्यापार में लग जाऊँगा।’’
इस समय मोहिनी कमरे से बाहर निकल गई। रेवा अभी भी नहीं आई थी और सत्यवती पति तथा लड़के के लिए प्यालों में चाय बनाने लगी।
‘‘और रेवा ?’’ सेठ जी ने पूछा।
‘‘उसकी तबीयत ठीक नहीं है। इस कारण चाय नहीं लेगी।’’
‘‘क्या कष्ट है ?’’
‘‘आप चाय लीजिए। चाय के उपरान्त मैं पता करूँगी।’’
सेठ जी समझे नहीं। परन्तु घर के विषय में, विशेष रूप से बच्चों के विषय में सत्यवती की बात सर्वोपरि होती थी। इस कारण सेठ जी चुप हो गए और चाय लेने लगे। एक-दो घूँट चाय लेकर सेठ जी पुत्र से ही पूछने लगे, ‘‘कब तक परीक्षा समाप्त होगी ?’’
‘‘अप्रैल की दस तारीख को अन्तिम परीक्षा है।’’
‘‘तब ठीक है। मैं यूरोप जा रहा हूँ और जाने से पूर्व तुम को यहाँ कुछ काम समझा देना चाहता हूँ, जिससे तुम यहाँ की सूचना मुझे देते रहा करोगे।’’
सिद्धेश्वर प्रसन्न था। यद्यपि वह श्रेणी में एक योग्य प्रतिभाशाली विद्यार्थी समझा जाता था, परन्तु वह स्कूल कॉलेजों की चक्की से बाहर हो अपनी बुद्धि का और अन्य गुणों का प्रयोग करना चाहता था।
उसने पूछ लिया, ‘‘पिता जी ! कब जाएँगे ?’’
‘‘मई मास के मध्य में।’’
चाय के साथ देसी मिठाई थी। तीनों, पिता, माँ और पुत्र मज़े में लेते रहे।
चाय समाप्त हुई। सेठ जी उठकर कुछ मिनट के लिए आराम करने अपने बैडरूम में चले गए। लड़का भी उठा और अपने पढ़ाई के कमरे में चला गया।
माँ उठकर लड़की के कमरे में जा पहुँची। लड़की पलंग पर लेटी हुई थी।
‘‘क्या बात है रेवा !’’ माँ ने कमरे में प्रवेश करते हुए पूछा।
रेवा माँ का मुख देखती हुई लेटी रही। उसने उत्तर नहीं दिया।
माँ ने पलंग के समीप कुर्सी खिसका, उस पर बैठते हुए कहा, ‘‘मोहिनी कह रही थी कि तुम खाया-पिया उलट रही थी।’’
‘‘हाँ, माँ ! मध्याह्न का खाया छाती पर अटका रखा था। अभी लिफ्ट से ऊपर आते हुए मितली हुई और यहाँ पहुँच बाथरूम में जा सब निकाल आई हूँ।’’
‘‘मैं दो तीन दिन से तुम्हारे मुख पर विवर्णता देख रही हूँ।’’
‘‘माँ असल बात यह है कि मुझे दिन चढ़ गए हैं। मुझे रजस्वला हुए दो मास से ऊपर हो चुके हैं।’’
‘‘ओह ! यह कैसे हो गया ?’’ माँ आश्चर्य से रेवा का मुख देखती रह गई।’’
‘‘मैं समझती हूँ कि वैसे ही हुआ होगा जैसे सब औरतों को होता है। मैं चाहती तो नहीं थी, परन्तु कहीं भूल हो गई है और यह हो गया है।
‘‘मैं आज आधे दिन की छुट्टी लेकर डॉक्टर के पास गई थी। डॉक्टर ने परीक्षा कर बताया है कि दो मास का गर्भ है।
‘‘मैंने उसे गर्भपात के लिए कहा है, परन्तु उसकी राय है कि यह ठीक नहीं होगा।
‘‘वैसे मुझसे एफिडेविट लेकर वह यत्न कर सकती थी, परन्तु उसने मुझे राय दी कि मैं ऐसा न कराऊँ। मेरा भावी जीवन बिगड़ सकता है।’’
‘‘और यह किसका है ?’’
‘‘बता नहीं सकती।’’
इस पर तो माँ पीत-मुख लड़की की ओर देखती रह गई। उसने पूछा, ‘‘तो तुम एक से अधिक पुरुषों की संगत में रहती हो ?’’
‘‘यही तो कह रही हूँ।’’
‘‘तुमने बहुत बुरा किया है।’’
‘‘क्या बुरा किया है ? माँ ! यह एक भूल तो हुई है कि असावधान हो गई थी और सन्तान निरोध का उचित उपाय प्रयुक्त नहीं हुआ। परन्तु यह कुछ बुरा हुआ है, ऐसा मैं नहीं मानती।’’
‘‘मैं यह नहीं कह रही हूँ। मैं तो यह कह रही हूँ कि तुमने विवाह किए बिना किसी पुरुष की संगत का लाभ उठाया है। यह बुराई है।’’
अब लड़की उठकर बैठ गई। लेटे-लेटे वह भलीभांति युक्ति नहीं कर पा रही थी। उसने बैठते हुए कहा, ‘‘देखो माँ ! पिछले वर्ष मैं गुरु जी के आश्रम में गई थी। वहाँ दो दिन उनका प्रवचन सुनती रही थी। उनका मत था कि विवाह का विधान मानवसमाज के घोर पतन का कारण हो गया है। उन्होंने यह भी कहा था कि आदिकाल में मनुष्यों में विवाह का विधान नहीं था और पुरुष स्त्री स्वेच्छा से तथा स्वतन्त्रता से विचरते थे।
‘‘तब पिता जी भी मेरे साथ थे और उन्होंने भी आचार्य जी के प्रवचन को सुनकर पसन्द किया था।’’
‘‘तब से ही मैंने अपना व्यवहार बदला है। सन्तान न हो, इसकी शिक्षा बर्थ कन्ट्रोल क्लीनिक वालों ने दी थी। वहाँ मैंने बताया था कि कुछ ही दिनों में मेरा विवाह होने वाला है और मैं अभी सन्तान नहीं चाहती। इस कारण वहाँ काम करने वाली लेडी डॉक्टर ने बहुत परिश्रम से मुझे इस विषय में सब कुछ समझा दिया था।’’
माँ यह कथा सुन अवाक् हो लड़की का मुख देखती रह गई। आखिर उसने बिखर गए दूध का विचार छोड़ जो कुछ बचा है, उसकी रक्षा के विषय में विचार करना आरम्भ कर दिया। उसने पूछा, ‘‘तो अब क्या करोगी ?’’
‘‘माँ ! अभी तो दस-पन्द्रह दिन की कार्यालय से छुट्टी लेकर अपनी पाचन शक्ति को ठीक करूँगी। तदनन्तर मैं कार्यालय जाया करूँगी। डॉक्टर मिस रमज़ान से बातकर आई हूँ। मुझे वह अपने क्लीनिक में प्रसव से पूर्व भरती कर लेगी और फिर मेरे स्वस्थ होने तक वह वहाँ रखेगी। मैंने उससे होने वाले बच्चे के ‘डिस्पोज़ल’ के विषय में भी विचार किया है। उसने वचन दिया है कि इसके विषय में भी वह मेरी सहायता करने का यत्न करेगी। इस सबका वह दो हज़ार रुपया माँगती है। औषधि इत्यादि का मूल्य पृथक होगा और यदि किसी अन्य डॉक्टर की सहायता की आवश्यकता पड़ी तो उसकी फ़ीस भी पृथक देनी पड़ेगी।’’
‘‘और तुम मान आई हो ?’’
‘‘हाँ ! और कह आई हूँ कि मैं कल उसे कुछ पेशगी जमा करा दूँगी।’’
‘‘तो तुम्हारे पास रुपया है ?’’
‘‘हाँ, माँ ! मैं इसके लिए तुमसे अथवा पिता जी से नहीं मागूँगी।’’
‘‘तो डॉक्टर से मिलने कब जाओगी ?’’
‘‘माँ ! मैं तुमको साथ नहीं ले जाऊँगी। मैंने वहाँ अपना नाम और पता भी मिथ्या लिखवाया है। मैं नहीं चाहती थी कि इस घटना से पिता जी के नाम पर किसी प्रकार का लांछन लगे।’’
सत्यवती कितनी देर तक लड़की के पलंग के समीप कुर्सी पर गम्भीर विचारों में निमग्न बैठी रही।
आखिर वह उठी और एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर बोली, ‘‘किसी मूर्ख के प्रवचन को अपनी मलिन बुद्धि से विचार कर घोर नरक की ओर चल पड़ी हो। परमात्मा तुम्हारी रक्षा करे।’’
रेवा की हँसी निकल गई। वह माँ को सांत्वना देने के लिए बोल उठी, ‘‘माँ ! तुम चिन्ता न करो। मैं पिता जी और पिता जी के परिवार को इससे बाहर रखना चाहती हूँ। और तुम तो जानती ही हो कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, वैसा ही कर्म का फल भोगता है। इस कारण तुमको मेरे इस कर्म से भयभीत नहीं होना चाहिए। तुम अपने विचार से इसके फल से अछूती रहोगी।
‘‘यद्यपि मैं ऐसा नहीं मानती। मैं तो एक समाजवादी जीव हूँ। मैं और मेरे समाज के लोग अपना एक नया समाज बना रहे हैं और मेरी नौका इस भवसागर को पार करने की क्षमता रखती प्रतीत होती है।’’
माँ न तो लड़की जितनी पढ़ी थी और न ही वह कभी अपने पति के गुरु के प्रवचन सुनने गई थी वह एक निष्ठावन हिन्दू परिवार की कन्या थी।
जब उसने सुना कि लड़की उसके पति के गुरु की शिष्या बन बिना विवाह के किसी अज्ञात पुरुष के बीज को अपने पेट में सींचने लगी है तो वह कमरे से निकल आई।
रेवा के कमरे से वह सेठ जी के कमरे में गई। सेठ जी सायंकाल के भ्रमण के लिए जाने वाले थे और वह पत्नी को साथ ले जाने के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
सत्यवती आई तो पूछने लगे, ‘‘क्या है रेवा को ?’’
सत्यवती ने हाथ के संकेत से बैठने को कहा और स्वयं उनके समीप बैठ उसने रेवा की पूर्ण बात बता दी।
सेठ महेश्वर प्रसाद पूर्ण कथा सुन खिलखिलाकर हँस पड़ा। इससे तो सत्यवती को अत्यन्त विस्मय हुआ और वह प्रश्नभरी दृष्टि से पति के मुख की ओर देखने लगी।
सेठ जी ने कहा, ‘‘मुझे स्मरण है गुरु जी ने क्या कहा था और मुझे यह भी स्मरण है कि मैं उस समय मुस्कराया था। परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं था कि मुझे उनकी बात पसन्द आई थी। अगले दिन बहुत प्रातःकाल गुरुजी अभी अपनी समाधि पर बैठने की तैयारी कर रहे थे कि, मैं उनको कहने जा पहुँचा था कि उन्होंने अधूरी बात कहकर वहाँ एकत्रित होने वाले युवक-युवतियों को मिथ्या मार्ग पर डालने का यत्न किया है।’’
उनका कहना था, ‘‘मैने अपनी साधना का फल बता दिया है। प्रत्येक साधक की प्रकृति उसका मार्गदर्शन करेगी। यह स्त्री की प्रकृति में है कि वह अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करे।’’
‘‘उन्होंने यह भी बताया था कि विवाह की प्रथा दुर्बलात्मा मनुष्यों ने, विशेष रूप से पुरुषों ने, निर्माण की है। मैं मानव समाज को इस दासता की श्रृंखला से मुक्त करने का उपाय बताता हूँ और यह प्रकृति के स्वभाव में है कि वह क्रिया की प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है। यह प्रतिक्रिया अनेकों प्रकार से उत्पन्न हो सकती है।’’
‘‘हम, मेरा मतलब है कि मैं और रेवा तो उसी दिन मध्याह्न को गाड़ी से बम्बई लौट आए थे। इस वर्ष मैं जा नहीं सका।’’
‘‘तो’’, सत्यवती का कहना था, ‘‘यह आपके गुरु जी का विष ही है। मैं कहती हूँ कि इसका फल अति कटु होने वाला है !’’
‘‘नहीं रानी ! मैं इसके फल की दिशा मोड़ दूँगा। तुम निश्चित रहो। क्या नाम बताया है रेवा ने डॉक्टर का ?’’
‘‘डॉक्टर रमज़ान एम. बी. बी. एस.।’’
‘‘ठीक है ! मैंने उसका क्लीनिक देखा है। अच्छा, मैं भ्रमण के लिए जा रहा हूँ। चलोगी ?’’
‘‘इस घटना को सुनकर चित्त नहीं करता।’’
‘‘तुम भी हो तो स्त्री ही न। व्यर्थ की चिन्ता करती रहती हो। जो जैसा करता है, वैसा शुभ-अशुभ उसको प्राप्त होता है।’’
‘‘आप जाइए। मैं आज नहीं जा रही।’’
सेठ जी गए तो वह ड्राइंग रूम में आ गई। वहाँ सिद्धेश्वर अपनी माँ की प्रतीक्षा कर रहा था। उसने पूछा, ‘‘माँ ! रेवा दीदी को क्या है ?’’
‘‘वह बीमार है। उसे औरतों वाली बीमारी है। पुरुषों को इसमें झाँकना नहीं चाहिए।’’
सिद्धेश्वर चुप कर रहा।
रात खाने के समय रेवा को भूख लगी तो वह भी खाने की मेज़ पर आ बैठी।
माँ ने कह दिया, ‘‘संयम से थोड़ा-थोड़ा खाओ। नहीं तो फिर शैंक को भागोगी।’’
‘‘माँ ! मैं सावधान हूँ।’’
भोजन पर भी परिवार के चारों व्यक्ति उपस्थित थे। उस समय रेवा की बीमारी के विषय में किसी प्रकार की बात नहीं हुई। रेवा ने पुदीने की चटनी के साथ आधी चपाती ही ली और फिर खाना बन्द कर दिया।
जब सेठ जी और उनकी पत्नी सोने के कमरे में गए तो सेठजी ने बताया, ‘मैं डॉक्टर मिस रमज़ान से मिल आया हूँ और उसके साथ सब प्रबन्ध कर आया हूँ।’’
‘‘डॉक्टर ने कहा है कि वह गर्भपात के खिलाफ है। यद्यपि उसे गर्भपात करने का लाइसेंस मिला हुआ है। परन्तु वह यह कम यथाशक्ति रोकती है। यही उसने मिस सोमानी को कहा है ?’’
‘‘मिस सोमानी ?’’
‘‘हाँ, यही नाम उसने डॉक्टर को बताया है और उसने अपने रजिस्टर में लिखा है।’’
‘‘और आप किस नाम से उसके साथ मिले हैं।’’
‘‘राम सरोदे। मैं मराठी में ही उससे बात करता रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि उसे विश्वास हो गया है कि मैं मराठा सरकारी अफ़सर हूँ।’’
‘‘उससे आप क्या निश्चय कर आए हैं ?’’
‘‘यही कि यह प्रसवादि सही सलामत हुआ तो दो सहस्र रुपया मैं उसे दूंगा और पीछे बच्चे के एक वर्ष तक पालन पोषण का पूरा व्यय भी दूंगा। जब बच्चा एक वर्ष का होगा। तब उसके विषय में पुनः विचार कर लिया जाएगा। यदि बच्चे दो हुए तो तीन सहस्र दूंगा।’’
‘‘परन्तु प्रसव का खर्चा तो रेवा दो सहस्र रुपये देने का वचन दे चुकी है ?’’
‘‘उसके पास धन फालतू आ रहा है। वह उसको नाली में बहाने का विचार कर रही है तो मैं कैसे मना कर सकता हूँ, परन्तु वह धन दे रही है बच्चे को ‘डिस्पोज़ ऑफ’ करने के लिए। डॉक्टर ने इसका अर्थ समझाया है, वह यह कि पैदा होते ही उसको कुछ खिलाकर उसकी हत्या कर देगी और कह देगी कि बच्चा मरा हुआ उत्पन्न हुआ है। मैं उसे यह सब कुछ दे रहा हूँ बच्चे के सही सलामत उत्पन्न करने और फिर एक वर्ष तक पालन पोषण करने के लिए। एक वर्ष बाद उसके पालन-पोषण का मैं स्वयं प्रबन्ध करूँगा।’’
‘‘देखो रानी ! मेरा इसमें कूद पड़ने का उद्देश्य केवल दयाभाव है। प्रकृति जो कुछ निर्माण करती है, उसमें सहायक होने के लिए डॉक्टर का उद्देश्य मैं यह समझा हूँ कि हज़रत मुहम्मद की उम्मत में एक की वृद्धि करना है। मैं उसमें बाधा खड़ी करना चाहता हूँ।’’
सत्यवती ने कहा, ‘‘यदि वह मुझे बताकर डॉक्टर से निश्चय करती तो मैं गर्भपात कराने का यत्न करती ?’’
‘‘मैं समझती हूँ कि यह प्रकृति मायावी है। यह मनुष्य को घेर-घार कर अपने जाल में फँसाकर अपनी सृष्टि में वृद्धि करती रहती है। मैं इस मायावी प्रकृति की माया को भंग करने का यत्न करती।’’
‘‘आपने तो रूढ़िवादी हिन्दुओं के दया भाव से प्रेरत होकर दुर्घटना का मुख मोड़ देने का यत्न किया है।’’
‘‘परन्तु देवी ! मैं यह सन्तान में वृद्धि के लिए नहीं कह रहा। मैं तो जो कुछ निर्माण हो गया है, उसकी रक्षा के लिए ही यत्न कर रहा हूँ। यही तो अहिंसावाद है। इसी से मैं सामान्य हिन्दू से भिन्न हूँ।’’
सत्यवती समझी नहीं, परन्तु इतना समझ गई कि उसकी और पतिदेव की विचार दिशा में अन्तर है। इस कारण वह चुप कर रही।
रेवा को डॉक्टर ने ‘मॉर्निंग सिकनैस’ की औषधि देकर एक सप्ताह में ही कार्यालय में काम-काज करने योग्य कर दिया परन्तु एक पखवाड़ा भर कार्यालय से अनुपस्थित रहकर जब रेवा कार्यालय में पहुँची तो उसके कार्यालय के विभाग के कई साथी, उससे उसकी अनुपस्थिति का कारण पूछने लगे। रेवा के दो प्रकार के उत्तर थे। कुछ को वह कहती थी कि आगामी रविवार सविस्तार बताऊँगी, कुछ अन्य को वह कहती थी कि पेट में पीड़ा हो गई थी। उसकी चिकित्सा में पन्द्रह दिन लग गए हैं और यह उसका सौभाग्य है कि वह शीघ्र ही पुनः सब प्रकार से स्वस्थ हो काम पर आ सकी है।
इन मिज़ाजपुर्सी करने वालों में विभाग के सुपरिन्टेंडेण्ट मिस्टर राबर्ट कार्माइकल भी थे। यह महानुभाव एंग्लो इण्डियन कम्यूनिटी के घटक थे। इनकी माँ एक महाराष्ट्रियन अछूत जाति की थी और पिता एक नीग्रो स्त्री तथा अमेरिकन पुरुष का परिणाम था।
सुपरिन्टेंडेण्ट लंच के समय से पहले आया और खड़े-खड़े रेवा से हाथ मिलाकर पूछने लगा, ‘‘अब तबीयत कैसी है ?’’
‘‘अभी दुर्बलता है। छुट्टी के पहले पाँच दिन में तो भोजन पचता नहीं था। पीछे कुछ पचने लगा था।’’
‘‘तो डॉक्टर से सफाई के लिए नहीं कहा ?’’
‘‘डॉक्टर ने मना कर दिया था। वह कहती थी कि उसके लिए विलम्ब हो चुका है। इस कारण मेरे शरीर को बहुत हानि पहुँच सकती है। और तब शेष जीवन भर कष्ट होगा।’’
‘‘परन्तु इस स्थिति में तो अन्य बहुत-सी कठिनाइयाँ उपस्थिति हो जाएँगी।’’
‘‘क्या कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाएँगी ?’’
‘‘क्या चाय नहीं लोगी ?’’
‘‘जा रही हूँ।’’
‘‘तो आओ। मैं तुमको निमन्त्रण देता हूँ।’’
रेवा उठ सुपरिन्टेंडेण्ट के कमरे में चली गई। उसके जलपान का प्रबन्ध उसके रिटायरिंग रूम में हो रहा था। जब मिस्टर कार्माइकल रेवा के साथ वहाँ पहुँचा तो चाय और कुछ सैण्डविचेज़ टेबल पर तैयार कर रखे हुए थे। कार्माइकल के कहने पर चपरासी ने पहले ही दो व्यक्तियों के लिए चाय का सामान तैयार किया हुआ था। साहब को रेवा के साथ आते देख वह रेवा को सलाम कर कमरे से बाहर निकल गया।
दोनों कुर्सियों पर बैठकर चाय लेने लगे।
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