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विविध उपन्यास >> सुमति

सुमति

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5389
आईएसबीएन :000

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भाग्य और पुरुषार्थ में क्या प्रबल है ? यह विवाद नया नहीं है।

Sumati

भूमिका

भाग्य और पुरुषार्थ में क्या प्रबल है ? यह विवाद नया नहीं है। यह आदिकाल से चला आता है। दोनों पक्ष-विपक्षों में प्रमाण तथा युक्तियाँ दी जाती हैं। कदाचित् यह विवाद अनन्तकाल तक चलता ही रहेगा। क्योंकि मनुष्य की दृष्टि अतिसीमित है। इसकी दृष्टि की सीमा जन्म और मरण से पीछे अथवा आगे नहीं जाती। जो लोग केवल दृष्टि पर भरोसा करते हैं, वे जीवन के बहुत से रहस्यों से अनभिज्ञ रह जाते हैं। यह भाग्य और परिश्रम का विवाद उनका ही खड़ा किया हुआ है।

बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को उलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता। परन्तु सब यंत्रों की भांति इसकी सफाई, इसको तेल देना तथा इसकी मरम्मत होती रहनी चाहिए।

सफाई के लिए तो यम नियमों का विधान है और तेल देने तथा मरम्मत करने के लिए सत्संग तथा सत्-साहित्य सहायक होते हैं। इन दोनों को प्राप्त करने का माध्यम शिक्षा है। माध्यम स्वयं कुछ नहीं करता। जैसे बिजली का तार तो कुछ नहीं, यद्यपि यह महान् शक्ति के लिए मार्ग प्रस्तुत करता है। इसमें पॉजिटिव विद्युत का प्रवाह भी हो सकता है और निगेटिव का भी। दोनों शक्ति के रूप में हैं। परन्तु इससे जो मशीनें चलती हैं उनकी दिशी का निश्चय होता है। इसी प्रकार शिक्षा के माध्यम से सत्संग और सत्-साहित्य भी प्राप्त हो सकता है और कुसंग तथा कुसाहित्य भी। सत्संग और सत्-साहित्य से सुमति प्राप्त होती है और कुसंग तथा कुत्सित साहित्य से दुर्मति।

इस पुस्तक का यही विषय है। शिक्षा के माध्यम से सत्संग तथा सत्साहित्य कार्य करते हैं। इससे सुमति प्राप्त होती है। तब पुरुषार्थ सौभाग्य का सहायक हो जाता है।

-गुरुदत्त

प्रथम परिच्छेद


नई दिल्ली में गुरुद्वारा रोड स्थित एक कोठी के एक कमरे में बैठा हुआ एक युवक एक निमन्त्रण-पत्र पढ़ रहा था। निमन्त्रण-पत्र इस प्रकार था :
‘‘श्रीमती तथा श्रीमान कश्मीरीलाल आपको सपरिवार, अपने सुपुत्र प्रोफेसर सुदर्शनलाल के, राव राजा हिम्मत सिंह की सुपुत्री सौभाग्यकांक्षिणी सुमति के साथ शुभविवाह के अवसर पर आमंत्रित करते हैं। कृपया निम्नलिखित कार्यक्रम के अनुसार पधारकर कृतार्थ करें।’’

निमन्त्रण-पत्र पढ़ने वाला प्रो. सुदर्शनलाल स्वयं था। निमन्त्रण-पत्र की छपाई तथा कार्ड की श्रेष्ठता इत्यादि देखने के लिए उसने लिफाफे में से उसे निकालकर पढ़ा था। पढ़ते-पढ़ते अपनी होने वाली पत्नी सुमति का चन्द्रमुख उसके ध्यान में आ गया। सुमति अति सुन्दर थी। सुदर्शनलाल ने उसकी सगाई से एक दिन पूर्व उसे देखा था और देखकर मंत्रमुग्ध व स्तब्ध रह गया था।

यों तो उसकी छोटी बहन निष्ठा ने उसको पहले से ही सूचित कर रखा था कि सुमति सोलह वर्ष की अति सुन्दर लड़की है। इस अति सुन्दर शब्द के प्रयोग-मात्र से सन्तुष्ट न हो, उसने निष्ठा से पूछा था—‘‘कैसी सुन्दर है ?’’ तो निष्ठा ने बताया था :

‘अनाघ्रात पुष्पं किसलयमलूनं कररुहैः
अनाविद्धं रत्नं मधुनवमनास्वादितरसम्
अखण्डं पुण्यानं फलमिव च तद्रूपमनघं
न जाने भोक्तारं किमिह समुप्स्थास्यति विधिः।।’

यह सुन सुदर्शनलाल ने हँसते हुए कहा था—‘‘फिर छाँटने लगी हो संस्कृत ! यदि तुम सीधी इन्सानों की भाषा में बात नहीं करोगी तो पिताजी से कहकर तुम्हारा संस्कृत पढ़ना बंद करा दूँगा।’’
निष्ठा ने बी.ए. में संस्कृत ले रखी थी। वह संस्कृत-साहित्य में बहुत रुचि लेती थी। संगीत और चित्रकला भी उसके प्रिय विषय थे। अतः बात करते-करते उसके मुख से साहित्य प्रस्फुटित होने लगता था।
निष्ठा ने जब भैया को, अपनी होने वाली पत्नी के वर्णन में ‘अति सुन्दर’ शब्द से असन्तुष्ट देखा तो कालिदास का वह श्लोक सुना दिया था। इससे तो प्रोफेसर भैया का असन्तोष और भी बढ़ गया था क्योंकि वह संस्कृत का एक शब्द भी नहीं जानता था। अतः निष्ठा ने हँसते हुए पूछ लिया—‘‘भैया ! समझे नहीं !’’
‘‘बिलकुल नहीं।’’ सुदर्शन का कहना था।

‘‘तो सुनो। न सूँघी गई कली, अछूता कोमल पल्लव, न बिधा गया रत्न, न चखा गया मधु। ऐसा पुण्यफल जिसका भोग न हुआ हो। वह किसके पुण्यों का फल है ? भैया ! इसका निर्णय तुमको करना है।’’
बहुत बातें बनाना सीख गई हो निष्ठा। इतना कुछ कह गई हो, परन्तु कुछ भी तो सिर-पैर पता नहीं चला।’’
‘‘तो और सुनो—
;
अलभ्यमान है देह पतली अति न्यारी,
लता प्रयंगु समान है लगती अति प्यारी।
भय आतुर हिरणी-सी आँखें अति सुन्दर,
चितवन भरती मोद सदा मन के अन्दर।
पूर्ण शशि-सा उज्ज्वल केश मयूर समान,
नदी की लहरों सी भौंहें तनी कमान।

‘‘कुछ-कुछ समझ में आने लगा है।’’ प्रोफेसर भैया बोल उठा।
बस सगाई हुई और विवाह की तिथि निश्चित हो गई। सुदर्शन उसके सौंदर्य का बखान सुन और तदनन्तर उसे स्वयं देख इतना मुग्ध हुआ था कि वह उसके विषय में और अधिक जानकारी प्राप्त करना भूल ही गया था।

आज भी, जब विवाह का केवल एक सप्ताह शेष रह गया था, उस निमन्त्रण-पत्र को, जो उसके पिता ने छपवाए थे और सम्बन्धियों तथा मित्रों में वितरित करने के लिए मेज़ पर रखे थे, पढ़कर, न सूँघे गए पुष्प की कल्पना कर वह प्रफुल्लित हो उठा था।

एकाएक उसको अपने एक सहयोगी प्रो. श्रीपति चन्द्रावरकर की बहन नलिनी का स्मरण हो आया। नलिनी को वह नाली में गिरी हुई कली, चखा हुआ मधु, नोचा गया पत्ता ही समझने लगा था। कुछ दिनों से नलिनी उसको प्रोत्साहित कर रही थी कि वह उससे विवाह का प्रस्ताव करे। उसके हाव-भाव तथा प्रेममय वार्तालाप में अग्रसर होने से कई बार वह प्रस्ताव करने के लिए तैयार भी हुआ था, परन्तु आज वह विचार करता था कि यह उसका भाग्य ही था जो उसके ऐसा प्रस्ताव करते समय उसका मुख बन्द कर देता था। सदैव कुछ-न-कुछ ऐसी बात घट जाती थी जिससे वह प्रस्ताव करता-करता रुक जाता था।

प्रो. चन्द्रावरकर महाराष्ट्र का रहने वाला था। उसका पिता भारत सरकार के एक मंत्रालय में साधारण क्लर्क था। जब वह रिटायर हुआ था, तब उसका लड़का और लड़की दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ते थे। अतः वह लौटकर महाराष्ट्र वापस नहीं जा सका। दिल्ली में मदरसा रोड पर एक मकान भाड़े पर लेकर वह रहने लगा। अब लड़का श्रीपति एम.ए. पास कर हिंदू कॉलेज में प्राध्यापक बन गया और नलिनी बी.ए., बी.टी कर मराठा गर्ल्ज स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाने लगी थी।
सुदर्शन और श्रीपति, दोनों लगभग एक ही आयु के थे। सुदर्शन रसायनविज्ञान विषय में एम.एस-सी. कर, डॉक्टरेट के लिए अपना थीसिस दे रखा था। जब से उसको डॉक्टरेट मिलने पर विश्वास हुआ था, उसके मित्र की बहन उस पर डोरे डालने लगी थी।

नलिनी के चरित्र के विषय में चर्चा चलती रहती थी। तदापि सुदर्शन को उसके चरित्र के विषय में किसी विशेष बात का ज्ञान नहीं था, जिससे कि वह उनके अन्य परिचितों को उसके नाम पर नाक चढ़ाने का कोई कारण समझता। हाँ, वह सदा प्रेम, विवाहित जीवन, पति-पत्नी के सम्बन्धों के विषय में बातें करती रहती थी। अंग्रेजी की अध्यापिका होने से वह अमेरिकन उपन्यास पढ़ने में बहुत रुचि रखती थी। यदि कभी सुदर्शन उसके हाथ से कोई उपन्यास देखने का यत्न करता तो वह उसके हाथ से छीन लेती और मुस्करा देती थी।
यों तो वह अच्छी-खासी सुन्दर थी और बनाव-श्रृंगार इस प्रकार करती थी कि कभी बन-ठनकर कनॉट–प्लेस में निकल जाती तो युवक घूरकर उसको देखने लग जाते थे। एक समय तो सुदर्शन भी उसकी चमक-दमक के प्रभाव में आ गया था, परन्तु यह बात सुमति को देखने से पूर्व की थी।

सुदर्शनलाल का पिता कश्मीरीलाल युद्ध के पूर्व चाँदनीचौक में एक छोटी-सी बिसाती की दुकान करता था। युद्ध के दिनों में वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाने से उसको भारी लाभ हुआ था। वह अपने पूर्ण लाभ को पूँजी में परिवर्तित करता गया और ज्योंही युद्ध समाप्ति के लक्षण दृष्टिगोचर हुए, अपने सारे माल को बेंचकर वह लखपति बन गया। प्रथम विश्व-युद्ध के उपरान्त कई व्यापारियों के दिवाले निकलने की घटनाएँ उसने सुन रखी थीं। इसी कारण युद्ध बन्द होने के लक्षण देख, वस्तुओं के मूल्य में कमी आने का अनुमान लगा, उसने पहले ही सब सामान बेच, रुपया नकद कर लिया था।

इस रुपए से उसने ग्यारह हज़ार पगड़ी देकर कनॉट-प्लेस में एक दुकान भाड़े पर ले ली और बीस हज़ार में गुरुद्वारा रोड पर एक बँगला मोल ले लिया। स्वराज्य मिलने से पूर्व कपड़े की दुकान सजा ली और गुरुद्वारा रोड वाले बँगले में रहने लग गया।

कनॉट-प्लेस वाली दुकान पर उसका परिचय राजपुरोहित मधुसूदन से हुआ। मधुसूदन ने कश्मीरीलाल के पुत्र सुदर्शन को देखा तो अपने संरक्षण में पली एक लड़की सुमति से उसके विवाह का प्रस्ताव कर बैठा। सुदर्शनलाल की माँ तथा उसकी बहन निष्ठा लड़की को देखने गईं और निष्ठा द्वारा लड़की के सौंदर्य वर्णन ने सुदर्शन को लड़की देखने के लिए उद्यत कर दिया।

मधुसूदन की पत्नी रामी और उसकी प्रतिपाल्या सुमति कश्मीरीलाल के घर पर निमंत्रण पर आईं। जहाँ पंडितजी की पत्नी ने सुदर्शनलाल को देखा तथा पसन्द किया, वहाँ सुदर्शनलाल ने भी सुमति को देखा। दोनों पक्ष सम्बन्धों के लिए तैयार हुए तो सगाई हो गई और विवाह की तिथि भी निश्चित हो गई।

निमंत्रण-पत्र बाँटे गए और श्रीपति चन्द्रवरकर तथा उसकी बहन नलिनी को भी भेजे गए। सुदर्शनलाल स्वयं ही उनको देने गया। श्रीपति तो निमंत्रण-पत्र पढ़कर खिलखिलाकर हँस पड़ा और नलिनी उसे देख कर डबडबाई आँखों से आधा ही पढ़ सकी। आँखों में पानी आ जाने के कारण निमंत्रण-पत्र के अक्षर दिखाई देने बन्द हो गए थे।


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