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प्रेयसी

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :190
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5405
आईएसबीएन :0000

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एक सामाजिक उपन्यास...

Preyasee

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जिसे देखकर आँखों में नशा-सा आ जाय,
मन में जलतरंग बज उठे, रोम-रोम में
महक भर जाय, वही प्रेयसी है। मगर....

क्या कोई पत्नी भी प्रयसी हो सकती है ?
पत्नी होने पर भी एक प्रेयसी का होना
क्या अनिवार्य है ? प्रेयसी अगर पत्नी बनने
में ही कल्याण समझे तो क्या वह तब भी
प्रेयसी रह सकती है ? भारतीय समाज में
क्या क्या कोई नारी प्रेयसी के रूप में खप सकती है ?
इस अत्यन्त रोचक तथा अनुपम विषय
पर इस उपन्यास की रचना की गई है।
रचनाकार है श्री गुरुदत्त।

प्रथम परिच्छेद
:1:


शकुन्तला अपने कार्यालय से निकली तो क्लब को चल पड़ी। बम्बई की सड़को पर स्कूटर, मोटरें, टैक्सियाँ बेशुमार चलती हैं और पुराने शहर से बाहर सड़के चौड़ी होने पर भी सड़क से आर-पार जाना पैदल चलने वालों के लिए सुगम नहीं। प्रायः पैदल चलने वाले राही फुटपाथ पर चलते हैं और जब सड़क पार करते हैं तो वहाँ जा पहुँचते है जहाँ से पैदल चलने वालों के सड़क पार करने के लिए स्थान बने रहते हैं। दो-दो मिनट के उपरान्त सड़क पार भाग-दौड़ करनेवाली गाड़ियों के लिए आधा मिनट के लिए मार्ग बना दिया जाता है।

शकुन्तला इसी प्रकार के एक स्थान पर सड़क निर्बाध होने की प्रतिक्षा में खड़ी थी, कि उसे अनुभव हुआ, सड़क पार करनेवाली भीड़ में दाहिनी ओर एक युवक उससे सटकर खड़ा हो रहा है। वह उसे भला प्रतीत नहीं हुआ, परन्तु वहाँ खड़ी भीड़ में दूसरी ओर हटने को भी तो स्थान नहीं था। उधर एक मोटेराम सेठों के-से वस्त्र पहने सर्वथा समीप खड़े थे। इस कारण वह बिना किसी प्रकार का रोष प्रकट किये खड़ी रही और सड़क पर चल रहे ट्राफिक के लिए लाल बत्ती होने की प्रतीक्षा करती रही।

पैदल चलनेवालों के लिए हरी बत्ती हुई तो वह लम्बे-लम्बे डग भरती हुई सड़क पार करने लगी। उसके दाहिनी ओर खड़ा युवक क़दम-ब-क़दम उसके साथ ही था। शकुन्तला को समझ आया कि वह युवक उसका पीछा कर रहा है।
सड़क पार कर वह दाहिनी ओर घूमी तो वह युवक एक क्षण ठहर उसके जाने के लिए मार्ग छोड़ने लगा। शकुन्तला समझती थी कि वहाँ से सौं-दो-सौ पग ही तो क्लब है। अतः उसके लिए मार्ग छोड़, खड़े युवक की ओर ध्यान न दे वह क्लब की ओर चल पड़ी।

वह अनुभव कर रही थी कि उसका पीछा किया जा रहा है। इसपर भी उसने मुड़कर उसकी ओर देखने का विचार नहीं किया। वह अपनी क्लब के द्वार पर पहुँची और पीछा करनेवाले की ओर ध्यान दिये बिना भीतर चली गयी।
एक बड़ी-सी इमारत के ग्राउण्ड-फ्लोर पर एक बड़े-से हॉल में प्रवेश के लिए द्वार सड़क पर था और द्वार के एक ओर पीतल की प्लेट पर अग्रेज़ी में लिखा था-‘Lib women’s club ’

शकुन्तला का पीछा करने वाला युवक तो द्वार पर ही खड़ा हो गया। कारण यह कि उस क्लब के नाम की प्लेट के नीचे मोटे अक्षरों में लिखा था- ‘पुरुषों के लिए प्रवेश वर्जित है।’
युवक के मुख पर किसी प्रकार का विस्मय नहीं था। वह शकुन्तला को भीतर जाते देख मुस्कराया और फिर सड़क की ओर घूमकर किसी चलती-फिरती टैक्सी की राह देखने लगा।

शकुन्तला एक विधवा माँ की युवा लड़की ‘स्टैनो टाइपिस्ट’ के काम पर बम्बई सरकार के सचिवालय में काम करती थी। उसे क्लब का काम बहुत पसन्द आया था। यह उसके मन के आन्तरिक भावों का बाहरी चित्र ही उपस्थित करता था।
आज से छः मास पूर्व उसने मराठी भाषा में एक दैनिक पत्र पढ़ा था। उसमें ‘लिब वुमैन्स क्लब’ में एक व्याख्यान की सूचना थी। उसमें कहा था कि ‘लिब वुमैन्स मूवमेण्ट’ की कर्मठ कार्य-कर्ता मिस ऐन्थनी स्थिम अपने आन्दोलन के विषय में व्याख्यान देंगी। नीचे समय और स्थान लिखा था। समय था मध्यह्नोत्तर साढ़े चार बजे और स्थान था ‘लिव वुमैन्स क्लब’ 304-मैरिन ड्राइव, बम्बई। विज्ञापन के अन्त में यह भी लिखा था- केवल स्त्रियों को निमन्त्रण है।’
विज्ञापन पढ़कर शकुन्तला को विस्मय हुआ और साथ ही प्रसन्नता भी। उस दिन वह कार्यालय से चार बजे अपना काम समेट, अपने अफ़सर से छुट्टी ले मैरिन ड्राइव की ओर चल पड़ी।

व्याख्यान अग्रेज़ी भाषा में था। सुनने के लिए दो सौ से ऊपर स्त्रियाँ उपस्थित थीं और हॉल खचाखच भरा हुआ था। उनमें डेढ़ सौ से कुछ ही अधिक कुर्सियाँ थीं और कुछ स्त्रियों को खडे-खड़े ही सुनने का अवसर मिला।
शकुन्तला भी हॉल के एक कोने में खड़ी-खड़ी ही व्याख्यान सुनती रही। पूर्ण व्याख्यान का निष्कर्ष यह था-‘स्त्री और पुरुष में भेद है शरीर की बनावट और शारीरिक सामर्थ में। इन दो प्राकृतिक न्यूनताओं के कारण पुरुष-पशु ने स्त्री को दासता की श्रृंखलाओं में बाँध रखा है। वर्तमान शताब्दी में भूमण्डल की स्त्रियों ने विपुल प्रयत्न कर अपनी बहुत-सी असमर्थताओं का निवारण करके मनुष्य की लगाम से अपने को स्वतन्त्र कर लिया है। इस स्वतन्त्रता को पूर्णता तक ले-जाने के लिए ‘लिव वुमैन्स मूवमैन्ट’ चलाया गया है और यह आंदोलन पुरुषों को चैलेंज है कि वे अपने को सुधार लें, अन्यथा मानव-समाज में एक महान् संघर्ष चल पड़ेगा। यह घर-घर में ऐसा विक्षोभ उत्पन्न करेगा कि पूर्ण मानव-समाज पंगु बन रसातल को चला जाएगा।

व्याख्यान तालियों की गडगड़ाहट में समाप्त हुआ। नेता मिस स्थिम कुर्सी पर बैठी तो बम्बई क्लब की मंत्रिणी राधा सोमानी ने जहाँ व्याख्याता का धन्यवाद किया वहाँ श्रोतागण का भी धन्यवाद करते हुए क्लब के सदस्य बनने का निमन्त्र दे दिया।
जब श्रोता गण के चले जाने पर कुर्सियाँ खाली होने लगी तो शकुन्तला जो एक घण्टे-भर से व्याख्यान सुनने के लिए खडी़ थी, एक कुर्सी पर बैठ गयी और क्लब के विषय में और सूचना लेने के लिए विचार करने लगी।
वक्ता गयी तो शकुन्तला क्लब की सैकेट्री के पास जाकर पूछने लगी, ‘‘क्लब का सदस्य बनने के नियमोपनियम कहाँ से मिल सकेंगे ?’’
राधा ने हॉल के बग़ल के एक कमरे की ओर संकेत कर दिया। वहाँ एक स्त्री बैठी थी। उससे पता किया गया तो उसने कह दिया, ‘पचास पैसे में साहित्य बिकता है।’

शकुन्तला ने पचास पैसे निकाल उस स्त्री के सामने मेज़ पर रखे तो उसनें मेज की दरार में से एक लिफ़ाफ़ा निकाल शकुन्तला के हाथ में रख दिया।
इस सतर्कता और सुप्रबन्ध को देख शकुन्तला प्रभावित हुई। वह उस स्त्री से कुछ मौखिक रूप में प्रश्न करना चाहती थी, परन्तु कुछ अन्य स्त्रियाँ भी क्लब के नियमोपनियम लेने आ रही थीं। अतः वहाँ मेज़ के पीछे बैठी स्त्री को अवकाश न देख वह लिफ़ाफ़ा ले घर चली आयी।
इसका परिणाम यह हुआ कि वह क्लब की सदस्या बन गयी। क्लब की सदस्या बनने की फ़ीस पचास रुपये वार्षिक अथवा तेहर रुपये त्रैमासिक थी जो अग्रिम देना होता था। सदस्य दो प्रकार के थे-प्रारम्भिक और दीक्षित। छः मास की परीक्षा और जान पहचान के उपरान्त दीक्षित सदस्य बन सकते थे।

व्याख्यान के दो-तीन दिन उपरान्त शकुन्तला प्रारम्भिक सदस्या बन गयी। परन्तु अब उसे दीक्षित सदस्या स्वीकार कर लिया गया था और वह अब क्लब की गोष्ठियों में सक्रिय भाग लेने लग पड़ी थी। सदस्य की ओर पिकनिक, डिनर, लंच, चाय-पार्टी, स्विमिंग और अन्य खेल-कूद के आयोजन भी करते रहते थे।
जिस दिन शकुन्तला को दीक्षित सदस्या स्वीकार किया गया, उसने वर्षभर का चन्दा अग्रिम जमा कर दिया था।
शकुन्तला को क्लब की दीक्षित सदस्या बने एक मास से ऊपर हो चुका था कि उसे समझ आया, कि कोई उसका पीछा करता-कता क्लब के द्वार तक आया है।

शकुन्तला न तो घबरायी और न ही चिन्तित हुई। उस दिन वह पिंग-पाँग खेलने के कमरे में गई तो उसे राधा सोमानी मिल गयी। उनसे शकुन्तला ने मुस्कराते हुए पूछ लिया, ‘‘बहन जी ! यदि कोई गुण्डा सड़क पर चलते हुए किसी प्रकार तंग करे तो क्या करना चाहिए ?’’
राधा सोमानी का सतर्क उत्तर था, ‘‘अपने सैण्डल से सरे-बाज़ार उसकी मरम्मत करनी चाहिये ?’’
‘‘और यदि वह बलशाली हो, तो ?’’
‘‘पुरुष तो प्रायः स्त्रियों से अधिक बल के स्वामी होते हैं। इस पर भी ये पशु-प्रवृत्ति के लोग भावुक भी होते हैं। एक दुर्बल स्त्री को बलवान पुरुष पर हाथ उठाते देख स्त्री की सहायता के लिए बिना झगड़े का कारण जाने पुरुष को पीटना आरम्भ कर देते हैं। तब स्त्री को वहाँ से खिसक जाना चाहिये। यदि मुआमला पुलिस तक जा पहुँचे तो क्लब में टेलीफोन कर दो। यहाँ से सहायता हो जाएगी। क्यों, क्या बात है ?’’ राधा ने मुस्कराते हुए पूछा।
‘‘आज एक सफेदपोश गुण्डा पीछा करता हुआ क्लब के द्वार तक आया हुआ अनुभव हुआ है। द्वार पर पुरुषों का भीतर आना वर्जित लिखा देख लौट गया प्रतीत होता है।’’

‘‘बहुत अच्छा होता यदि तुम क्लब के द्वार पर ही उसकी मरम्मत कर देतीं। क्लब की उपस्थित सदस्याएँ इस शुभ कार्य में तुम्हारी मदद के लिए पहुँच जातीं।’’
‘‘बहुत ख़ूब। मुझसे भूल हो गयी। परन्तु मैं इस सहायता कि आशा नहीं करती थी।’’
‘‘आगे से याद रखना हम सब एक है और ऐक्य में ही शक्ति है।’’
शकुन्तला पिंग-पाँग खेलने लगी। वह प्रायः बहुत अच्छा खेला करती थी, परन्तु आज वह निरन्तर हार रही थी। उसकी ‘स्ट्रोक्स’ अनियमित और उचित से अधिक बल से लगती थीं और उसका खेल देखने वाले विस्मय कर रहे थे कि शकुन्तला को क्या हो गया है। आख़िर उसके सामने खेलने वाली मिसेज देसाई ने कह दिया, ‘‘शकुन्तला ! आज तुमसे खेलने का मज़ा नहीं आ रहा।’’

‘‘तो छोड़ो खेल को। चलो, एक प्याला चाय पी लें।’’ दोनों क्लब के डायनिंग हॉल में चली गयीं। वहाँ कैटीन का ठेका भी एक स्त्री ने लिया हुआ था। उसने बेयरा के स्थान पर लड़कियाँ ही रखी हुई थीं।
कैण्टीन में पहुँच एक टेबल पर बैठ मिसेज़ देसाई ने पूछा, ‘‘आज कुछ बात है जो तुम अपने स्वाभाविक मूड में प्रतीत नहीं होतीं।’’
शकुन्तला आँखें मूद चाय की प्रतीक्षा कर रही थी। वास्तव में वह अपने मन की अवस्था पर विचार कर रही थी। एक दिन पहले भी उससे ऐसा ही हुआ था। यह तीन-चार महीने की बात थी। उन दिनों वह क्लब की अभी प्रारम्भिक स्तर की सदस्य थी। मिसेज़ देसाई समझ रही थी कि कुछ इस कारण वह चाय की प्रतीक्षा करने लगी। बात है जो इस लड़की के मन में है। वह विचार कर रही थी कि चाय पीती हुई वह अपने मन की बात बातायेगी।

:2:


दो-तीन चुस्की चाय भीतर ले चुकने पर शकुन्तला के मुख पर पुनः प्रफुल्लता आ गयी और उसने अपने मन की बात मिसेज़ देसाई से कह दी।
उसने बताया, ‘‘चाची ! आज से तीन मास पहले की बात है कि एक व्यक्ति ने फ़ुटपाथ पर चलते मेरी ओर देखकर कुछ कहा था-‘क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?’’
‘‘मैंने कहा, ‘मैं चोर नहीं हूँ। जान सकते हैं। मैं शकुन्तला हूँ।’
‘‘उसने आगे कहा, ‘तो शकुन्तला जी ! विवाह करेंगी ?’’
‘‘मैंने माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा, ‘नहीं। और आपसे तो कभी नहीं।’
‘‘उसने पूछा था, ‘क्यों ? मुझमें क्या दोष है ?’ अनायास ही मेरे मुख से निकल गया क्योंकि तुम पुरुष हो।’
‘‘इसपर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘तो तुम किसी स्त्री से विवाह करोगी ?’

‘‘मुझे बात समझ आयी तो मैं भी हँसने लगी। इसपर मैंने कहा, क्षमा करें। मेरा अभिप्राय था कि एक मूर्ख पुरुष हो। यदि मेरे विवाह कि बात करनी हो तो मेरी माँ से करो। मुझसे पूछने पर तुम्हें ऐसा ही उत्तर मिलेगा।’

‘‘अब वह भी गम्भीर हो गया और बोला, ‘श्रीमती शकुन्तला जी ! मैं आपकी माँ से मिलकर ही आ रहा हूँ। उसे मैंने अपना परिचय दिया है। आपकी माँ का कहना था-ठीक है। मुझे तुम दामाद के रूप में पसन्द हो। परन्तु लड़की सज्ञान है, पढी-लिखी है और आठ सौ रुपये महीना कमाकर लाती है। इस कारण उससे पूछ लो।’
‘‘अतः मैं श्रीमती जी से पूछने आपके कार्यालय गया था। वहाँ आपको कार्यालय से निकल इधर आते देख साथ-साथ चल पड़ा। अभी तक फुटपाथ पर भीड़ अधिक थी। इस कारण आपसे बात करने का अवसर नहीं मिला। यहाँ कुछ एकान्त देख पूछने का साहस किया है।’
‘‘मैंने उससे कहा, ‘‘श्रीमान् जी ! मैं विवाह नहीं करूँगी। यह मेरा निश्चित मत है।’
‘‘उस समय हम क्लब के द्वार पर पहुँच गये थे। मैंने अँगुली से क्लब के नामपट्ठ की ओर संकेत कर दिया, ‘मैं इस क्लब की सदस्या हूँ। इससे आपको सब-कुछ समझ जाना चाहिए।’

‘‘इतना कह मैं उसे नामपट्ट पढ़ते छोड़ भीतर आ गयी। उस दिन भी मैं पिंग-पाँग में हार रही थी। मेरा हाथ नियन्त्रण में नहीं रहा था। आज भी कुछ वैसी ही घटना हुई है। एक युवक मेरा पीछा करता-करता क्लब के द्वार तक आया था और मुझे क्लब में प्रवेश करते देख क्लब की नाम-प्लेट पढ़ने खड़ा हुआ तो मैं भीतर आ गयी। पिंग-पाँग खेलते समय आज भी मेरी वही अवस्था हुई है। मेरे मस्तिष्क का नियन्त्रण मेरे हाथ में नहीं रहा।’’
मिसेज़ देसाई ने पूछा ‘‘और आज से पहलेवाले व्यक्ति के विषय में माँ से पूछा था ?’’
‘‘मैंने स्वयं ही बात चलाई थी। जब मैं रात खाने के समय घर पहुँची तो माँ ने मेरे समीप बैठे भोजन करते हुए पूछा, ‘सोमानी लिमिटेड के विषय में सुना है ?’’

‘‘हाँ, माँ ! उनके विज्ञापन प्रायः समाचारपत्र तथा पत्रिकाओं में निकलते रहते हैं।’’
‘‘उनके परिवार का एक युवक आज आया था। मेरी एक सहेली का पत्र लाया था और कह रहा था कि उसने तुम्हें देखा है और पसन्द किया है। वह तुमसे विवाह करना चाहेगा। मैंने उसका सब वृतान्त जाना है। सहेली के पत्र के अतिरिक्त उसने अपने बैंक की पासबुक भी दिखायी थी। मैंने उसे इस शर्त पर आशीर्वाद दे दिया है कि वह तुम्हें राज़ी कर ले।’’
‘‘मैंने माँ से भी वही बात कह दी थी जो मैं श्रीयुत सोमानी जी से कह चुकी थी। माँ ने यह सुन कि मैं विवाह नहीं करूँगी, पूछने लगी ‘तो क्या जीवन भर टाइप की मशीन ही चलाती रहोगी ?’
‘‘नहीं माँ, मैं बैंक में रुपया जमा कर रही हूँ और शीघ्र ही इतना हो जाएगा कि उसके ब्याज से जीवन भर-निर्वाह कर सकूँगी।’

‘‘माँ ने कहा-‘मेरा यह अभिप्रायः नहीं, शकुन्तला ! मैं पूछ रही हूँ कि यह पुरुषों का काम छोड़ स्त्रियों का काम भी करोगी अथवा नहीं ?’’
‘‘ ‘माँ ! वह तो कर रही हूँ।’
‘‘ ‘कैसे कर रही हो ?’
‘‘मैं माँ को अपने इस आन्दोलन के विषय में बता नहीं सकी। वह बेचारी केवल स्कूल की अध्यापिका के कार्य में जीवन व्यतीत कर चुकी थी वह नए ज़माने की बातों से सर्वथा अपरिचित प्रतीत होती थी। मैं समझती थी कि उसे हमारे इस आंदोलन का कुछ ज्ञान नहीं। मैंने केवल यह कहा-‘मैं स्वतंत्र रहना चाहती हूँ।’
‘‘माँ चुप रही और एक दिन उसने बताया कि रघुबीर सोमानी का विवाह एक मारवाड़ी लड़की से हो गया है। दोनों हनीमून मनाने स्विट्ज़रलैण्ड गए हुए हैं।’’
‘‘मैंने मुस्कराकर माँ से कहाँ- ‘माँ ! मैं अपने वर्तमान से सन्तुष्ट हूँ।’ ’’
‘‘जब यह बात थी तो हाथ नियन्त्रण से बाहर क्यों हो गया था और आज फिर किस लिए हो गया है ?’’ मिसेज़ देसाई ने पूछा।

‘‘मैं नहीं जानती।’’
‘‘मैं जानती हूँ। यह इस कारण कि मैं विवाहिता हूँ और दो बच्चों की माँ हूँ।’’
‘‘तो यह क्या बात है ?’’
‘‘यह पुरुष-स्त्री का आकर्षण है। मेरे साथ भी यह हुआ था। तुम तो जानती हो कि मेरे पति मिस्टर देसाई एक कपड़ा मिल में मैनेजर है। परन्तु विवाह के समय मेरी माँ ने किसी से यह नहीं कहा था कि लड़की से पूछ लो, उन्होंने देखा, जाँच-पड़ताल की और मुझे बताए बिना विवाह रचा दिया।....
‘‘मैं देख रही थी कि विवाह की तैयारी हो रही है। घर में विवाहने योग्य तो मैं ही थी। इस कारण मैं अनुमान लगा रही थी कि मेरा ही विवाह होने वाला है। इस अनुमान से मैं भी वैसा ही अनुभव करती थी जैसा तुमने बताया है। तुम कह रही हो कि तुम्हारे मस्तिष्क का तुम्हारे हाथ पर नियन्त्रण नहीं रहा था। यह अवस्था मेरी तब तक रही जब तक मैं पति से भली-भाँति सन्तुष्ट नहीं हो गयी। मैं इसे ‘सेक्स ऐट्रेक्शन’ मानती हूँ।...
‘‘विवाह से कुछ दिन पहले मेरी भावज ने पूछा-‘बहुत प्रातः जाग पड़ती हो ?’
‘‘मैंने बताया-‘हाँ भाभी ! नींद खुल जाती है, परन्तु जानती नहीं कि क्या करूँ। इस कारण आराम कुर्सी पर बैठी रहती हूँ।’
‘‘ ‘कुछ पढ़ा करो !’ भाभी ने कहा !

‘‘ ‘पढ़ती हूँ तो समझ नहीं आता कि क्या पढ़ रही हूँ।
‘‘ ‘प्रातः घोड़ा-गाड़ी में घूमने चली जाया करो।’
‘‘ ‘एक दिन गई थी। परन्तु कुछ रसमय नहीं प्रतीत हुआ।’
‘‘ ‘देखो, शकुन्तला ! यह अवस्था तब तक रही जब तक पति का प्यार न पा गयी।’’
‘‘ ‘तो चाची, मुझे विवाह कर लेना चाहिए ?’’
‘‘किसी दिन ऐसी ही अवस्था में विवाह बिना रीति-रिवाज के कर बैठोगी। तब कोई नई मुसीबत मोल ले लोगी।’’
‘‘क्या मोल ले लूँगी ?’’
‘‘यह अभी कैसे बता सकती हूँ ? एक सौ एक मुसीबते हैं जो मार्ग में आ सकती हैं। उनमें से तुम किसमें फँसोगी, अभी कैसे बता सकती हूँ !’’

शकुन्तला चाय समाप्त कर चुकी थी। देसाई अभी भी शकुन्तला का मुख देख रही थी। एकाएक शकुन्तला ने पूछ लिया, ‘‘तो विवाह कर लेना चाहिए ?’’
‘‘रघुवीर सोनामी से कर लेती तो ठीक ही तो था। मैं उसके परिवार को जानती हूँ। यह हमारी क्लब की सैक्रेटरी राधा, रघुवीर की बहन है। इसका विवाह हुए दो वर्ष हो चुके है।’’


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