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परम्परा

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1988
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5407
आईएसबीएन :000

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परम्परा पुस्तक का कागज संस्करण...

Parampara

कागजी संस्करण

प्राक्कथन

भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर यह उपन्यास लिखा गया है।
वैसे तो श्री राम के जीवन पर सैकड़ों ही नहीं, सहस्रों रचनाएं लिखी जा चुकी हैं, इस पर भी जैसा कि कहते हैं-

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता।

भगवान राम परमेश्वर का साक्षात अवतार थे अथवा नहीं, इस विषय पर कुछ न कहते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य सम्पन्न किया वह उनको एक अतिश्रेष्ठ मानव पद पर बैठा देता है। लाखों, करोड़ों लोगों के आदर्श पुरुष तो वह हैं ही। और भारत वर्ष में ही नहीं बीसियों अन्य देश में उनको इस रूप में पूजा जाता है। राम कथा किसी न किसी रूप में कई देशों में प्रचलित है।
और तो और तथाकथित प्रगतिशील लेखक जो वैचारिक दृष्टि से कम्युनिष्ट कहे जा सकते हैं, वे आर्यों को दुष्ट, शराबी, अनाचारी, दशरथ को लम्पट, दुराचारी लिखते हैं परन्तु राम की श्रेष्ठता को नकार नहीं सके।
राम में क्या विशेषता थी, पौराणिक कथा ‘अमृत मंथन’ का क्या महत्त्व था, राम ने अपने जीवन में क्या कुछ किया, प्रस्तुत उपन्यास में इसी पर प्रकाश डाला गया है।

यह एक तथ्य है कि चाहे सतयुग हो, त्रेता-द्वापर हो अथवा कलियुग हो, मनुष्य की दुर्बलता उसमें उपस्थित पांच विकार—काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार होती है और इन विकारों के चारों ओर ही मनुष्य का जीवन घूमता है। इन विकारों पर नियंत्रण यदि उसका आत्मा प्रबल हो तो उसके द्वारा होनी चाहिए अन्यथा राजदण्ड का निर्माण इसी के लिए हुआ है। परन्तु जब ये विकार किसी शक्तिशाली, प्रभावी राजपुरुष में प्रबल हो जाते हैं तो देश में तथा संसार में अशान्ति का विस्तार होने लगता है और तब श्रेष्ठ सत्पुरुषों को उनके विनाश का आयोजन करना पड़ता है और यही इतिहास बन जाता है। इन्हीं विकारों ने देवासुर संग्राम का बीज बोया, रावण तथा राक्षसों को अनाचार फैलाने की प्रेरणा दी, महाभारत रचा तथा आज के युग में भी देश के भीतर गृहयुद्ध तथा देश में परस्पर युद्ध करा रहे हैं।

इन विकारों के प्रभाव में दुष्ट पुरुष सदा विद्यमान रहे हैं और आज भी प्रभावी हो रहे हैं। श्रेष्ठ जनों को संगठित होकर उनके विरुद्ध युद्ध के लिए तत्पर होना होगा। जो लोग, देश तथा जाति इस प्रकार के धार्मिक युद्धों से घबराती हैं वह पतन को ही प्राप्त होती हैं। दुष्टों के प्रभावी हो जाने से पूर्व ही जब तक उनके विनाश का आयोजन नहीं किया जाता, तब तक युद्धों को रोका नहीं जा सकता और ऐसे युद्धों के लिए सदा तत्पर रहना ही देश में शान्ति स्थिर रख सकता है।

प्रथम परिच्छेद
1

दिल्ली करोलबाग लड़कियों के सरकारी स्कूल की प्रधानाचार्या श्रीमती महिमा एम. ए., बी-एड. अपने स्कूल में सर्वप्रिय थी। अध्यापिकाओं, छात्राओं और स्कूल के कर्मचारियों आदि सब में वह आदर और प्रशंसा की पात्रा बनी हुई थी।
महिमा की महिमा यही थी कि वह मृदुभाषी, न्यायप्रिय थी और पढ़ाने में अति परिश्रम और कुशलता से यत्नशील रहती थी।
जब से इस स्कूल में वह आयी थी, स्कूल का परीक्षा-फल अति श्रेष्ठ रहने लगा था और राज्य के प्रशासन में स्कूल की महिमा दिन-प्रतिदिन बढ़ रही थी।
महिमा स्कूल से कुछ अन्तर पर नाईवाड़ा के एक अच्छे, खुले मकान में रहती थी और घर तथा पड़ोस में वह आदर से देखी जाती थी। स्कूल में और स्कूल के बाहर भी उसके परिचित उसको महिमाजी कहकर संबोधित करते थे।
स्कूल में भी तथा घर के पड़ोसियों में भी वह विधवा समझी जाती थी और उससे वर्तालाप करते हुए सब परिचित उसके ससुराल तथा पति का उल्लेख करने में संकोच करते थे।

महिमा के साथ मकान की ऊपर की मंजिल में उसकी छोटी बहन गरिमा अपने पति और बच्चों के साथ रहती थी। गरिमा का पति कुलवन्तसिंह वायु सेना में मेजर था। वह स्क्वाड्रन लीडर था। उसके कमाण्ड में सात हवाई जहाज़ थे और उनमें काम करने वाले इक्कीस वायु-सेना के सैनिक काम करते थे। स्क्वाड्रन लीडर कमाण्डर कतुलवन्तसिंह का कार्यालय तो पालम में था, इस पर भी वह अपने परिवार के साथ करोलबाग में महिमा के मकान में रहता था।
महिमा हिमाचल प्रदेश बिलासपुर की रहनेवाली थी। उसने चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय से इतिहास में एम. ए. तथा बी-एड. किया था। उसे दिल्ली में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हुए पांच वर्ष हो चुके थे। गरिमा का विवाह हिमाचल प्रदेश में ही मण्डी क्षेत्र के रहने वाले एक राजपूत परिवार के कुलवन्तसिंह से हुआ और उसकी ड्यूटी दिल्ली में लगी तो तो वह परिवार सहित महिमा के मकान में आकर रहने लगा था।

गरिमा को महिमा के साथ रहते हुए भी चार वर्ष हो चुके थे। उसके विवाह को छः वर्ष हो चुके थे और जब वह दिल्ली आई थी तो अपने साथ एक शिशु को लायी थी। यह लड़का था और इसकी दादी ने इसका नाम बलबन्त रखा था। दिल्ली आकर गरिमा के लड़की उतपन्न हुई थी।

एक दिन कुलवन्त अपना काम पालम हवाई अड्डे पर समाप्त कर घर आया तो वह मकान की ऊपर की मंजिल पर अपने परिवार में जाने के स्थान, मकान की भूमि की मंजिल पर महिमा के फ्लैट में चला गया। मकान में बैठक घर में वह प्रविष्ठ हुआ तो महिमा स्कूल से आ चाय ले रही थी। उसने मेजर साहब को आते देखा तो चाय का निमन्त्रण दे दिया।
कुलवन्त ने सोफा पर बैठते हुए कहा, ‘‘दीदी ! मेरे स्क्वाड्रन में एक नये पायलट की नियुक्ति हुई है। कुछ दिन हुए मेरे स्क्वाड्रन के एक पायलट के साथ दुर्घटना होने से उसका देहान्त हो गया था और उसका स्थान रिक्त पड़ गया था। एक नया ‘रिक्रूट’ उस स्थान पर आया है। उसका नाम है अमृतलाल।’’
अमृतलाल का नाम सुनते ही महिमा ने हाथ में पकड़ा प्याला सासर में रख दिया और अपने जीजा कुलवन्तसिंह का मुख देखने लगी।

कुलवन्तसिंह गम्भीर भाव में बैठा रहा। एकाएक महिमा अपनी घबराहट को छुपाने के लिये भर्रायी आवाज़ में घर की नौकरानी को बुलाने लगी, ‘‘सुखिया ! ओ सुखिया !!’’ सुखिया एक प्रौढ़ावस्था की विधवा स्त्री थी। यह दिल्ली के एक देहात की रहने वाली थी और जब से महिमा दिल्ली आई थी, उसकी सेवा में थी। सुखिया आयी तो महिमा ने कहा, ‘‘चाय के लिए और पानी स्टोव पर रख दो और ऊपर से गरिमा बहन को कहो कि मेजर साहब नीचे चाय ले रहे हैं और वह भी आ जाये।
‘‘हाँ, तो जीजाजी ! यह आपके पायलट साहब कहाँ के रहने वाले हैं ?’’
‘‘उसके सर्विस-रोल पर तो लिखा है श्रीनगर कश्मीर। परन्तु सूरत-शक्ल से वह कश्मीरी प्रतीत नहीं हुआ। वह मेरे सामने ‘सैल्यूट’ कर खड़ा हुआ तो मैं एक नज़र उसको देख पूछने लगा, ‘‘मिस्टर अमृत ! आप कश्मीरी प्रतीत होते नहीं ?’
‘‘वह चुप कर सामने खड़ा रहा। मैंने मेज के दूसरी ओर रखी कुर्सी पर उसे बैठने का संकेत कर पुनः पूछा, ‘मालूम होता है कि आप ‘डौमिसाइल्ड’ (बसे हुए) कश्मीरी हैं ?’
‘‘उसने एक शब्द में उत्तर दिया, ‘जी’। और मेरे सामने बैठ गया।

‘‘मैंने उसका सर्विस-रोल देखकर पूछा, ‘‘आप ब्राह्मण हैं ?’
‘‘अब उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘जी ! ब्राह्मण का बेटा होने के नाते।’
‘पूर्वज कहाँ के रहने वाले थे ?’ मैंने पुनः पूछा। वह कहने लगा, ‘‘हिमाचल प्रदेश के। बिलासपुर खास का रहने वाला हूँ।’
‘‘मैंने कहा, ‘तब तो भाई, तुम मेरी ससुराल के गाँव के कहे जा सकते हो।’
‘तो आपका विवाह बिलासपुर में हुआ है ?’’
‘‘मैंने बताया, ‘हाँ, वहाँ के एक रिटायर्ड तहसीलदार हैं पंण्डित भृगुदत्त। मेरा विवाह उनके ही घर में हुआ है।
‘‘इस पर वह कुछ देर आँखें मूँद विचार करता रहा और फिर बोला, ‘‘याद नहीं आ रहा। इस नाम के किसी व्यक्ति को मैं जानता नहीं।’

‘‘मैंने पूछा किसके बेटे हो ?’
‘सर्विस-रोल पर पिता का नाम लिखा है। वह एक बहुत ही सामान्य व्यक्ति हैं। उनको कोई जानता नहीं।’
‘‘मैंने उसके सर्विस रोल में पढ़ा तो उसके पिता का नाम  लिखा था पण्डित सुरेश्वर। महिमा दीदी ! वह नाम आपके श्वसुर का है न ?’’
महिमा यह सब सुन आवाक् बैठी रह गयी थी।
इस समय गरिमा अपने दोनों बच्चों को लिये नीचे आ गयी। बड़ा लड़का बलवन्त इस समय साढ़े-चार वर्ष का था और छोटी लड़की अभी एक वर्ष से कम आयु की ही थी।
कुलवन्त ने लड़की गोद में ले लिया और उससे बातें करने लगा। बलवन्त उसके घुटनों में आ खड़ा हुआ। गरिमा ने बहन का पीत मुख देखा तो पूछने लगी, ‘‘दीदी ! क्या बात है ? रंग फीका किसलिए पड़ गया है ?’
उत्तर महिमा ने नहीं दिया। वह भौंचक बहन का और अपने जीजा का मुख देखती हुई बैठी थी। कुलवन्तसिंह ने कहा, ‘‘आज एक व्यक्ति कार्यालय में मिला है। वह पायलट है। नाम है अमृतलाल और वह बिलासपुर के एक पण्डित सुरेश्वर का लड़का है। मैंने यह बात सुनायी है तो दीदी कुछ विचार करने लगी हैं।’’

गरिमा ने कहा, ‘‘पर अमृत जीजाजी के स्वर्गवास हो जाने का समाचार है। यह वह नहीं हो सकते।’’
‘‘कहाँ देहान्त हुआ था उनका ?’’
‘‘देहान्त तो श्रीनगर में हुआ था। वह घर से लड़कर वहाँ गये थे। उनके विषय में अन्तिम समाचार यह था कि वह वहाँ अपनी प्रेमिका से मिलने गये थे। प्रेमिका ने विवाह कर लिया था। जीजाजी ने प्रेमिका के घर वाले से किसी प्रकार का झगड़ा किया और उस झगड़े में मारे गये। उनके शव को डल झील में फेंक दिया गया था। वह शव सड़ा-गला झील में तैरता पाया गया। शव की जेब से उनकी पाकेटडायरी मिली थी। वह भी गल चुकी थी। परन्तु उसमें जीजाजी के घर का पता लिखा मिल गया था।
जीजाजी के पिता को सूचना भेजी गयी तो वह वहाँ गये। उनके वहाँ पहुँचने से पूर्व शव जला दिया गया था, परन्तु उनके सड़े-गले कपड़े और डायरी पुलिस ने रखी हुई थी। उनको देखकर पिताजी को भी यही समझ आया था कि शव जीजाजी का ही था।
‘‘वहाँ के लोगों से पता चला कि शव मिलने के तीन दिन पूर्व झील के किनारे शव मिलने के स्थान के समीप कुछ लोगों में झगड़ा हुआ था, परन्तु उस झगड़े में घायल कोई नहीं हुआ था। जीजाजी के पिताजी, बस इतना ही समाचार लेकर लौट आए थे। इस बात को आज आठ वर्ष हो चुके हैं।’’
कुलवन्तसिंह ने कहा ‘‘बहुत ही विचित्र है।’’

अब महिमा ने पूछा, ‘‘देखने में कैसा प्रतीत होता है वह व्यक्ति ?’’
‘‘अच्छा, सुन्दर और बहुत ही चुस्त व्यक्ति है। सर्विस-बुक में उसका पता श्रीनगर का लिखा है।’’
‘‘मेरा विचार है कि उसका और उसके पिता का नाम घटनावस वैसा है।’’ महिमा ने मन से बात निकाल देने के लिये कह दिया।
इस समय सुखिया चाय ले आयी। परन्तु कुलवन्तसिंह से दिये समाचार का प्रभाव तीनों बैठे व्यक्तियों पर था और वे चुपचाप चाय ले रहे थे। चाय समाप्त हुई तब भी तीनों अपने-अपने विचारों में निमग्न थे।
महिमा सबसे पहले स्वाभाविक स्थिति में आयी। उसने बात बदलने के लिए कह दिया, ‘‘देश की राजनीतिक स्थिति तो बदलती जाती है।’’
‘‘क्या बदलती जाती है ?’’
‘‘पाकिस्तान से एक अत्यन्त तनाव की स्थिति है। वहाँ पिछले सात वर्ष से तनाव की अवस्था चली आ रही है। एक तानाशाह के हटाये जाने पर एक दूसरे सैनिक तानाशाह गद्दी पर आ गये हैं और अब उनके विरुद्ध भी आन्दोलन और विद्रोह के लक्षण दिखायी देने लगे हैं।’’
‘‘पर वहाँ की स्थिति से हमारा क्या सम्बन्ध है ?’’ गरिमा का प्रश्न था।

‘‘सम्बन्ध तो इस युग में अमेरिका से भी है। पाकिस्तान तो उससे अधिक समीप है।’’ महिमा का कहना था।
‘‘वैसे तो,’’ कुलवन्तसिंह ने कह दिया, ‘‘भूमण्डल के सब-के-सब देश इतने समीप-समीप हो गये हैं कि परस्पर प्रभाव डालते रहते हैं। परन्तु आज स्थिति यह है कि बड़ी लड़ाई हो नहीं सकती।’’
महिमा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘जीजाजी से जब भी देश की राजनीति की बातचीत की जाती है तो वह युद्ध की बात करने लगते हैं। मैं यह कह रही हूँ कि दोनों देशों में शान्ति रहनी चाहिये। एक में दुर्व्यवस्था होगी तो उसका प्रभाव दूसरे पर भी होगा।’’

कुलवन्तसिंह ने मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘जब पड़ोस में दुर्व्यवस्था हो तो युद्ध होगा ही। दुर्व्यवस्था का अन्य कोई परिणाम हो ही नहीं सकता।’’
‘‘परन्तु भारत तो लड़ता ही नहीं। इस कारण यदि लड़ाई हुई तो वह दो-चार दिन के लिए ही होगी।’’ गरिमा का विचार था।
जीजाजी ! पूर्वी पाकिस्तान की ओर से सीमा पर नित्य सीमोल्लंघन तथा गोली चलने की घटनायें होती रहती हैं। इन घटनाओं से देशों में युद्ध नहीं हो सकता।’

‘‘ऐसी घटनायें युद्ध के समीप होने के ही तो लक्षण होते हैं। इस पर भी मैं समझता हूं कि पाकिस्तान में यदि कुछ भी सबझ-बूझ है तो युद्ध नहीं करेगा। पाकिस्तान को समझ लेना चाहिये कि भारत अब वह हिन्दुस्तान नहीं है जो महमूद गज़नवी अथवा मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के समय था। अब कोई भी भारत पर आक्रमण करेगा, पहले दस बार विचार करेगा।’’
गरिमा ने अपने पति के आत्मविश्वास की बात सुन कह दिया, ‘‘तो चीन को भी यह विचार करना पड़ेगा कि भारत पर आक्रमण करे अथवा न ?’’

‘‘चीन आक्रमण नहीं करेगा। चीन अथवा अन्य कम्युनिष्ट देश दो प्रकार से ही युद्ध कर सकते हैं। एक तो आत्म-रक्षा और दूसरे किसी देश की किसी अन्य देश से हत्या कर देने पर उसके शव पर गिद्धों की भाँति झपटने में।
‘‘देखो गरिमा ! रूस ने हंगरी पर आक्रमण किया है तो अन्य देशों से मिलकर। अकेले नहीं। इससे पहले युद्ध के दिनों में तथा उसके उपरान्त रूमानिया, बुल्गारिया और पोलैण्ड पर अधिकार किया है तो इस कारण कि इन देशों का पहले जर्मनी द्वारा कचूमर निकाला जा चुका था। साथ ही इन देशों की जो सहायता करने की सामर्थ्य रखते थे, वे इन देशों को रूस की दया पर छोड़ चुके थे।’’
‘‘परन्तु अब चीन और रूस तो परस्पर लड़ने वाले दिखायी देते हैं।’’
‘‘नहीं। वे परस्पर तब तक नहीं लड़ेगे, जब तक कि दोनों में से किसी एक की किसी स्वतन्त्र देश से पिटायी नहीं हो चुकी होगी। इसके विपरीत हमारे अफसरों को अमेरिका के विषय में यह भय लगा रहता है यह इतना मूर्ख देश है कि यह अकारण भी लड़ सकता है।’’

‘‘यह क्यों ?’’
‘‘यह इसलिये कि पिछले विश्वयुद्ध में इसने विजय प्राप्त की है और इसने दूसरों के देश में जाकर युद्ध किया है। इसके अपने देश में युद्ध नहीं हुआ है।’’
महिमा ने पुनः विषय बदल दिया। उसने देश की राजनीतिक गतिविधियों पर चर्चा आरम्भ कर दी। उसने कहा, ‘‘वर्तमान राजनीति में एक बात सबसे अधिक सफल होती है। वह यह कि निश्चित बात की जाँच और उसके सत्य-झूठ का विचार छोड़कर उसे साहस के साथ उपस्थित किया जाये।
‘‘प्रजा जड़ होती है। जो कोई इसे दृढ़ता से जिधर को ठोकर मारता है, यह उधर ही चल देती है। अतः किसी नीति से कल्याण होगा अथवा अकल्याण होगा, यह पीछे पता चलेगा। समय पर तो प्रजा उसके साथ हो जाती है जो अपनी बात को निडर होकर लोगों के समक्ष रखता है। जो दृढ़ता से यह कहता है कि उसकी योजना से अधिक-से-अधिक लोगों का कल्याण होगा, वह जनता का नेता बन जाता है।’’
‘‘कांग्रेस ऐसी ही है। एक बात मैं आपको बताता हूं कि यद्यपि निकट भविष्य में युद्ध की आशंका नहीं, परन्तु हमारी सेना में और सैनिक सामग्री के कारखानों में तैयारी ऐसे हो रही है कि मानो युद्ध होने ही वाला है।’’

‘‘इसी को देखकर तो मैं समझती हूं कि युद्ध होगा।’’ महिमा का कथन था, मेरा अभिप्राय है कि भले लोग सदा युद्ध को पसन्द नहीं करते और उसकी अवहेलना करते रहते हैं। इस पर भी युद्ध होते हैं और प्रायः भले लोग युद्ध की तैयारी में पिछड़े रह जाते हैं।’’
‘‘कुलवन्तसिंह हँस पड़ा। वह उठते हुए बोला. ‘‘चलो गरिमा ! दीदी को अब अपना काम करने दो। मैं जब आया था तो यह कुछ पढ़ रही थीं।’’
‘‘आप चलिये। मैं आती हूँ। आप बच्चों को साथ ले चलिये।’’

कुलवन्त समझ गया गरिमा बहन से पृथक् में बात करना चाहती है। उसे विश्वास था कि यदि कुछ भी बात ऐसी होगी जो उसको भी जाननी चाहिए तो वह उसे बता दी जायेगी। पहले भी ऐसा हुआ करता था। इस कारण उसने बच्चों को गोद में लिया और मकान की ऊपर मंजिल पर चला गया।

:2:


‘‘दीदी ! क्या समझी हो ?’
‘किस विषय में पूछ रही हो ?’’
‘‘अमृतलालजी के विषय में।’’
‘‘निश्चय सो तो कुछ कह नहीं सकती। इस पर मुझे पहले भी सन्देह था और अब भी वह सन्देह विश्वास में बदल जाता है कि तुम्हारे जीजाजी मरे नहीं अभी जीवित हैं।’’
‘‘मुझे भी यही समझ में आया है। तो अब क्या किया जाये ?’’
‘‘किस लिए क्या किया जाये ?’’
‘‘जीजाजी के विषय में निश्चय से जानना चाहिये। जब यह बात निश्चय हो जाये कि वह पायलट महाशय जीजाजी ही हैं तो फिर विचार कर निश्चय किया जाये कि उनके प्रति अपना क्या व्यवहार हो ? उनके माता-पिता को सूचना भेजी जाये अथवा नहीं ?’’
‘‘मैं समझती हूँ ?’’ महिमा ने कहा, ‘‘कि हमें कुछ नहीं करना चाहिये। उनकी अवहेलना करनी चाहिये। यदि वह यह पता पा जायें कि मैं दिल्ली में हूँ तो उनसे मेल-मुलाकात से इन्कार कर दूँ।’’
    

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