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अस्ताचल की ओर - भाग 2

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5424
आईएसबीएन :9789386336538

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एक ऐतिहासिक उपन्यास...

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Astachal Ki Or (2) a hindi book by Gurudutt - अस्ताचल की ओर (भाग-दो) - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

द्वितीय खण्ड

प्रथम परिच्छेद

हिमालय की सुरम्य घाटी में मार्तण्ड नामक बस्ती में मार्तण्ड भवन के कुछ अन्तर पर नदी के किनारे एक पक्की कुटिया है। कुटिया के बाहर चबूतरे पर मृगचर्म पर पालथी मारे पण्डित शिवकुमार विराजमान थे। सूर्योदय का समय था, पण्डित शिवकुमार सूर्याभिमुख ध्यानस्थ बैठे थे और उदीयमान सूर्य की किरणें उनकी मुख छवि को द्योतित कर रही थीं।
निश्चित अवधि में पण्डितजी की साधना सम्पूर्ण हुई और उन्होंने नेत्रों को उन्मीलित कर देखा तो पाया कि सूर्य उदित होकर ऊपर की ओर बढ़ रहा है। इससे उनको सन्तोष हुआ। पण्डितजी ने उदीयमान सूर्यदेव को प्रणाम किया और फिर आसन से उठकर महर्षि मार्तण्ड के आश्रम की ओर अभिमुख होकर नमस्कार किया।
तदनन्तर वहीं पर खड़े-खड़े उन्होंने पुकारा, ‘‘देवी !’’
कुटिया के भीतर से सुनायी दिया, ‘‘आयी देव !’’

कुछ क्षण उपरान्त चन्द्रमुखी गरम दूध लेकर उपस्थित हो गयी। चन्द्रमुखी का यह नित्य का अभ्यास था। अतः पण्डितजी की उपासना का समय समाप्त होने तक वह दूध उबालकर तैयार रखती थी और पण्डितजी के पुकारने के कुछ क्षण उपरान्त दूध लेकर उपस्थित हो जाया करती थी।
थाली में दो कटोरे रखे थे और उन दोनों में दूध था। आसन के समीप पहुँच कर पत्नी ने एक कटोरा उठाकर अपने पति के सम्मुख रख दिया। पण्डितजी आवाज देने के उपरान्त पुनः आसन पर आ विराजमान हो गये थे। पण्डितजी ने दूध पीना आरम्भ किया।
चन्द्रमुखी ने पूछा, ‘देव ! आप कह रहे थे कि आज वृहस्पति आने वाला है, वह किस समय आयेगा ?’’
‘‘मेरा अनुमान है कि दो घड़ी तक वह यहाँ पहुँच जायेगा। इस समय वह लगभग एक कोस के अन्तर पर है और इस ओर ही चलता हुआ आ रहा है। किन्तु वह अकेला नहीं है ?’’
‘‘तो क्या सूर्य आदि भी उसके साथ ही आ रहे हैं?’’

‘‘सूर्य आदि नहीं, वे कोई अन्य हैं। मैं समझता हूँ कि वे कल्याणी और मृदुला हो सकती हैं।’’
अपने योगाभ्यास द्वारा अर्जित दिव्य दृष्टि के आधार पर शिवकुमार यह सब देख पा रहा था। चन्द्रमुखी ने पूछा, ‘‘उसको ये कल्याणी और मृदुला कहाँ मिल गयी हैं ?’’
‘‘यह तो उनके यहाँ पहुँचने पर ही विदित हो पायेगा।’’
शिवकुमार अर्द्धरात्रि के उपरान्त पाटलिपुत्र से चला था और सूर्योदय होने तक वह पाटलिपुत्र से दस कोस पश्चिम की ओर पहुँच गया था। सूर्योदय होने पर गंगा के तट पर उन्होंने कुछ विश्राम करने का विचार किया। सारथी ने रथ से घोड़ों को खोलकर गंगा तट पर छोड़ दिया। घोड़ों ने जल पिया और फिर किनारे की रेत पर लोट लगाकर अपनी थकान मिटाने लगे। सारथी ने भी स्वयं हाथ-मुख धोया और अपने थैले में से भुने चने निकालकर चबाने लगा।
शिवकुमार का परिवार भी एक पेड़ की छाया में कपड़ा बिछाकर विश्राम करने लगा। चन्द्रमुखी अपने बच्चों के लिए सत्तू और गुड़ लायी थी। उसने पानी के छीटें देकर सत्तू भिगोये और लड्डू बना कर बच्चों को पकड़ा दिये। उसके साथ एक-एक डली गुड़ की भी दे दी।

शिवकुमार स्वयं गंगाजी में स्नान करने के लिए चला गया। स्नान कर वह पूजा-पाठ में बैठ गया।
मध्याह्नोत्तर तक उन्होंने वहाँ विश्राम किया और फिर जब सूर्य की किरणें कुछ मध्यम हुईं तो उन्होंने आगे की यात्रा आरम्भ की। इस प्रकार दस कोस और निकल जाने पर वे प्रयागराज जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक पंथागार में विश्राम किया।
अश्व और सारथी वहीं तक के लिए भाड़े पर लिये गये थे। उन्हें वहाँ से विदा किया और फिर आगे की यात्रा के लिए दूसरे अश्व और सारथी को किया गया। तब उन्होंने अयोध्यापुरी की ओर अपनी यात्रा आरम्भ की।
मार्ग में शिवकुमार ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘इस बार मैं यह संकल्प करके चला हूँ अब पुनः पाटलिपुत्र नहीं आऊँगा। मैं अपनी विद्वता और कुशलता के आधार पर राज्य और राष्ट्र का कल्याण करने के लिए निकला था, किन्तु वह सम्भव नहीं हो पाया। विपरीत इसके अपना स्वयं का अकल्याण किया और उसका परिणाम यह है कि वहाँ से भागा चला आ रहा हूँ।
‘‘आज से आठ वर्ष पूर्व जब मैं पाटलिपुत्र के पंथागार में पहुँचा था तो उस समय वहाँ का प्रबन्धक मेरी प्रतीक्षा में बैठा था। किन्तु आज आठ वर्ष बाद वहाँ से चला हूँ तो रात्रि में चोरों की भाँति भागकर आया हूँ। इससे मैं स्वयं को बहुत ही छोटा अनुभव कर रहा हूँ। यह तो अब स्पष्ट ही है कि पाटलिपुत्र में धर्म और न्याय की अन्त्येष्टि हो चुकी है।

‘‘मैं मंगला वापिस जाना भी उचित नहीं समझता। क्योंकि यह ठोंगी सम्राट मुझको वहाँ से फिर अपने पास बुलवाने का षड्यन्त्र करेगा। प्रत्यक्ष में तो वह मुझसे मैत्रीभाव रखेगा, मुझे पुरोहित मानने की बात भी कर सकता है किन्तु वह सब वह अपने किसी कार्य की सिद्धि के लिए करेगा, राष्ट्र अथवा राज्य की सेवा के लिए नहीं।
‘‘मैं राष्ट्र-सेवा के उद्देश्य से पाटलिपुत्र गया था। अपनी पूर्ण सामर्थ्य से मैंने राष्ट्र-सेवा करने का यत्न भी किया था। किन्तु जब मैंने देखा कि राष्ट्र का हित इस सम्राट की इच्छा और सूझ-बूझ के विपरीत जाने लगा है तो मैं विचलित हो गया। यह दुर्बलात्मा सम्राट मुझसे स्पष्ट तो नहीं कह पाया कि मैं महामात्य-पद त्याग दूँ, विपरीत इसके मुझ पर मिथ्या दोषारोपण करने लगा।
‘‘मैं ऐसे सम्राट से पुनः सम्पर्क स्थापित नहीं करना चाहता।’’

चन्द्रमुखी ने यह सब सुना तो उसे अपने पति के दुःखी मन की टीस का अनुभव हुआ। उसने पूछा, ‘‘देव ! यदि मंगला नहीं जाना है तो हम यात्रा कहाँ की ओर कर रहे हैं ? लक्ष्यहीन व्यक्ति को तो कहीं भी शान्ति मिल पाना सम्भव नहीं है।’’
‘‘देवी ! यह यात्रा लक्ष्यहीन नहीं है। अभी तो मेरा लक्ष्य कश्मीर जाना है। कश्मीर पाटलिपुत्र के अन्तर्गत नहीं है। मैं कश्मीर में किसी राज्य-कार्य के निमित्त भी नहीं जा रहा हूँ। मैं वहाँ भी कोई राज्य-कार्य नहीं सम्भालूँगा। मैं अब आत्मोन्नति के लिए कुछ यत्न करना चाहता हूँ। तब मैं ईश्वरप्रदत्त ज्ञान को और भी भली-प्रकार जन-मानस के समक्ष प्रस्तुत कर पाऊँगा।’’
चन्द्रमुखी ने इस पर विचार किया तो उसने भी यही अनुभव किया कि वर्तमान परिस्थिति में यही उचित है। वह समझ गयी थी कि अभी उनकी तपस्या में कुछ कमी रह गयी है, यही कारण है कि मगध सम्राट जैसा बुद्धि-विहीन सम्राट पण्डित शिवकुमार जैसे व्यक्ति पर दोषारोपण करने लगा है।

इस प्रकार निरन्तर यात्रा करते हुए वे एक मास की अवधि में कश्मीर के मार्तण्ड मन्दिर में जा पहुँचे।
उस युग में मार्तण्ड मन्दिर की महान् महिमा थी। वह विद्वानों का अन्वेषण केन्द्र के रूप में प्रख्यात हो रहा था। वहाँ शिवजी का मन्दिर था। मन्दिर के साथ ही एक वृहत् पुस्तकालय भी था। मन्दिर का पुजारी ही उस पुस्तकालय का भी अध्यक्ष था।
उस पुस्तकालय में अलभ्य ग्रन्थ भी उपलब्ध थे, यही कारण था कि देश-देशान्तर से विद्वान् जन उस पुस्तकालय में अध्ययन के लिए आया करते थे। इस प्रकार वह जिज्ञासुओं की ज्ञान पिपासा को तृप्त करने का केन्द्र बन गया था।
मन्दिर के अधीन एक बहुत बड़ा पंथागार भी था। उस पंथागार के साथ-साथ कुछ विद्वानों ने अपने स्थायी निवास के लिए कक्ष बनवा लिये थे।

मार्तण्ड मन्दिर में पहुँचने पर शिवकुमार मन्दिर के पुजारी महोदय की सेवा में उपस्थित हो गया।
मन्दिर के पुजारी स्वामी रामेश्वरानन्दजी मन्दिर के प्रांगण में बने ऊँचे चबूतरे पर बैठे वायु-सेवन कर रहे थे। शिवकुमार ने अपने परिवार को पंथागार में टिकाया और स्वयं पुजारी जी की सेवा में उपस्थित हो उनको प्रणाम कर खड़ा हो गया। सम्मुख एक यात्री को खड़ा देख पुजारी ने पूछा, ‘‘कहिये, कहाँ से पधारे हैं ?’’
‘‘भगवन् ! निवासी तो मैं हस्तिनापुर का हूँ, किन्तु इस समय तो मैं पाटलिपुत्र से आ रहा हूँ।’’
‘‘वहाँ क्या कार्य करते थे ?’’
‘‘राज्य-कार्य में नियुक्त था। किन्तु किसी कारण से राजा से मतभेद हो गया तो वहाँ से चला आया हूँ।’’
‘‘वहाँ का राजा तो सम्राट कहलाता है ?’’
शिवकुमार समझ गया कि पुजारी को सब प्रकार का ज्ञान है। वह इससे सतर्क हो गया और फिर कहने लगा, ‘‘हाँ महाराज ! आपका कहना यथार्थ है। राजा से मेरा अभिप्राय शासक से था। सम्राट भी शासक ही होता है।
‘‘मेरा मतभेद वहाँ के शासक से हुआ तो मैं उस स्थान को छोड़कर चला आया हूँ।’’
‘‘यहाँ किस प्रयोजन से आये हो ?’’

‘‘राज्य-कार्य से दूर रहकर चित्त की शान्ति की खोज करना चाहता हूँ। यहाँ के ज्ञान भण्डार का भी उपयोग कर अपने ज्ञान में कुछ वृद्धि करने का यत्न करना चाहता हूँ।’’
‘‘पहले भी कुछ अध्ययन किया है ?’’
‘‘हाँ महाराज ! काशी विद्यापीठ से न्यायभूषण की उपाधि अर्जित की थी। उसके बाद भी दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ और वेद आदि का अध्ययन करता रहा हूँ।’’
‘‘अकेले हो ?’’
‘‘नहीं महाराज ! पत्नी और तीन बच्चे भी साथ में हैं।’’
‘‘निर्वाह का साधन है ?’’
‘‘हाँ महाराज ! अपने जीवन के लिए पर्याप्त है।’’
‘‘तो कहाँ रहना चाहते हो ?’’

‘‘यदि किसी एकान्त स्थान पर कोई भूमिखण्ड बता दिया जाय तो वहाँ पर अपने लिए कुटिया का निर्माण कर लूँगा।’’
‘‘इस मन्दिर से दो कोस की परिधि में चारों ओर ही मन्दिर की भूमि है। कुछ भूमि पर तो फलोद्यान हैं, कुछ पर अन्न उत्पन्न करने का प्रबन्ध है। उसके अतिरिक्त कोई स्थान देख लो, आकर मुझे बताओ, तब मैं देखूँगा कि वहाँ पर कुटिया बनाने की स्वीकृति दी जा सकती है अथवा कि नहीं।’’
शिवकुमार ने पुजारी को प्रणाम किया और पंथागार में वापिस आ गया।
पंथागार में आकर भोजन की व्यवस्था की, विश्राम किया और फिर कुछ शान्त होने पर पत्नी आदि को साथ लेकर मन्दिर की भूमि की परिक्रमा करने चल दिया।
इस प्रकार घूमते हुए नदी के तट पर एक सुन्दर सपाट स्थान देखकर वहाँ पर रुककर उसने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘यहाँ पर यदि कुटिया बनायी जाय तो कैसा रहे ?’’
पत्नी के मन में भी कुछ इसी प्रकार की बात आ रही थी। उसने जब अपने पति को भी अपने अनुकूल पाया तो तुरन्त बोल पड़ी, ‘‘स्थान तो बहुत ही सुरम्य है।’’

‘‘ठीक है, अभी स्वामीजी के पास जाकर इसकी स्वीकृति माँगता हूँ।’’
इस प्रकार स्थान का निश्चय कर वह सपरिवार वापिस आया और पत्नी को पंथागार में छोड़ स्वयं पुजारी जी के समक्ष उपस्थित होकर बोला, ‘‘महाराज, नदी तट पर एक स्थान को देख आया हूँ, अब आपकी स्वीकृति चाहता हूँ।’’
पुजारी ने अपने कर्मचारी को आवाज दी, ‘‘मातंग !’’
‘‘मातंग ने उपस्थित होकर कहा, ‘‘जी महाराज !’’
‘‘देखो, पण्डितजी के साथ जाकर देखो कि इन्होंने अपनी कुटिया के लिए कौन-सा स्थान पसन्द किया है। फिर आकर मुझको बताओ। तब मैं निश्चय कर पाऊँगा कि वह दिया जा सकता है अथवा नहीं।’’
शिवकुमार मातंग को साथ लेकर गंगा के तट पर वह स्थान दिखाने ले गया। मातंग ने स्थान देखा और घड़ी भर बाद लौटकर उसने पुजारी से कहा, ‘‘महाराज ! वह स्थान अच्छा है और अभी तक खाली भी है। उसकी स्वीकृति देने में किसी प्रकार की हानि नहीं है।’’

‘‘ठीक है, वह भूमि इनके नाम पर लिख दो।’’ फिर उसने शिवकुमार को कहा, ‘‘पण्डितजी ! मन्दिर कोष में बीस रजत जमा करवा दीजिये। वहीं से आपको उस भूमि का पट्टा मिल जायेगा। प्रतिवर्ष इसी प्रकार बीस रजत उस भूमि का भाड़ा देना होगा। आप जब तक चाहें उस भूमि पर कुटिया अथवा भवन बनाकर रह सकते हैं।’’
इस प्रकार पण्डित शिवकुमार उस स्थान पर जाकर टिक गया। छः मास लगे पक्की कुटिया बनवाने में।
पाटलिपुत्र के सम्राट समुद्रगुप्त को यह बात स्वप्न में भी नहीं सूझी कि शिवकुमार कश्मीर पहुँच सकता है। यद्यपि उसने शिवकुमार के गाँव मंगला, फिर प्रयागराज, हरिद्वार, वाराणसी, अयोध्या, उज्जयिनी आदि स्थानों पर उसकी खोज करवाई थी, किन्तु जब कहीं उसका अता-पता नहीं मिला तो उसने उसका ध्यान ही छोड़ दिया।
कश्मीर में रहते हुए वृहस्पति ने तो वहाँ के पुस्तकालय में अपने को खपा दिया और इस प्रकार वह अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त करने लगा और शिवकुमार ने योगाभ्यास करना आरम्भ कर दिया।
पाटलिपुत्र से कश्मीर आये दो वर्ष हो गये थे कि एक दिन चन्द्रमुखी ने कहा, ‘देव ! अपने परिजनों का कुशल समाचार जानने की लालसा हो रही है।’’

‘‘स्वयं वहाँ जाने की इच्छा है अथवा वहाँ का समाचार जानने की लालसा है ?’’
‘‘कुशल समाचार मिल जाय तो उससे भी मन को शान्ति प्राप्त होगी।’’
शिवकुमार ने कुछ विचार किया और फिर कहा, ‘‘ठीक है, वृहस्पति के संरक्षण में बच्चों को वहाँ का कुशल समाचार जानने के लिए भेज दो।’’
शिवकुमार स्वयं योगाभ्यास में इतना रम गया था कि वह वहाँ से जाना नहीं चाहता था और चन्द्रमुखी अपने पति को छोड़कर एकाकी जाना उपयुक्त नहीं समझती थी।
इस प्रकार वृहस्पति भाई-बहन को लेकर मंगला ग्राम चला गया। वहाँ से आने-जाने तथा कुछ समय वहाँ रहने में एक वर्ष का समय लग गया।
तभी एक दिन की बात है कि आधा प्रहर दिन निकलने पर अपने आसन से उठते हुए शिवकुमार ने अपनी पत्नी को पुकारा, ‘‘देवी !’’

चन्द्रमुखी भी प्रातःकाल के समय अपने स्वामी के आसन के समीप ही अपना आसन डालकर जप किया करती थी और पति के उठने के समय से पूर्व स्वयं उठकर दूध गरम करने चली जाया करती थी।
शिवकुमार ने जब पुकारा तो उस समय वह अपना जप पूर्ण कर दूध गरम करने के लिए गयी हुई थी। पति की आवाज सुनकर उसने अपनी कुटिया से कहा, ‘‘आयी देव !’’
कुछ क्षण उपरान्त एक थाल में दो कटोरी दूध और कुछ बेसन के लड्डू रख कर ले आयी। इस प्रकार अपने पति के आसन के सम्मुख थाल को रखकर वह जब बैठने लगी तो शिवकुमार ने कहा, ‘‘वृहस्पति आ रहा है। वह कल मध्याह्न तक यहाँ पहुँच जायेगा।’’
पति के मुख से ‘वृहस्पति आ रहा है, ‘यह सुनकर उसने पूछा, ‘‘क्या वह अकेला है ?’’
‘‘इस समय तो वह पर्वत के उस पार है। ठीक से दिखायी नहीं दे रहा है। उसके साथ बहुत से व्यक्ति हैं। किन्तु सूर्य और कृष्णा कहीं दिखायी नहीं दे रहे हैं।’’

यह सुन चन्द्रमुखी कुछ चिन्तित-सा अनुभव करने लगी थी। शिवकुमार ने जब यह देखा तो उसने कहा, ‘‘ऐसा लगता है कि सूर्य और कृष्णा नाना के साथ रह गये हैं। मेरी समझ से यह ठीक ही हुआ है। सूर्य की शिक्षा यहाँ ठीक नहीं चल रही थी। कृष्णा को तो घर-गृहस्थी की तैयारी करने के लिए ठहरा लिया होगा।’’
यह सुनकर चन्द्रमुखी कुछ आश्वस्त-सी हुई। इस प्रकार यह बात समाप्त हो गयी।
अगले दिन शिवकुमार ने बताया कि कल्याणी और मृदुला वृहस्पति के साथ हैं।
अल्पाहार समाप्त कर शिवकुमार तो मन्दिर के पुस्तकालय में चला गया। चन्द्रमुखी मन्दिर के समीप ही बाजार जाकर शाक-सब्जी आदि खरीद लायी। मन्दिर के समीप ही ग्वाला रहता था, वह प्रातःकाल दूध दे जाया करता था। बाजार से वह मध्याह्न का भोजन बनाने में जुट गयी। यही उसका नित्य क्रम था।
तृतीय पहर की एक घड़ी बीतने पर शिवकुमार पुस्तकालय से वापस आया। उस दिन जब शिवकुमार पुस्तकालय से बाहर जाने लगा तो उसके साथ चलते हुए एक व्यक्ति ने पूछा, ‘‘विद्वद्वर ! कहाँ के निवासी हैं ?’

‘‘हस्तिनापुर का भन्ते !’’
‘‘यहाँ क्या करते हैं ?’’
‘‘आत्मोन्नति का प्रयास।’’
‘‘वह क्या होती है ?’’
अब तक शिवकुमार ने उस व्यक्ति की ओर देखा तक नहीं था। किन्तु जब उसने यह प्रश्न किया तो शिवकुमार ने सिर उठाकर उसकी ओर निहारा। वह व्यक्ति ओजस्वी था और प्रौढ़ आयु का था। वह शिवकुमार के मुख की ओर देखता हुआ मुस्करा रहा था।
उसके प्रश्न का उत्तर देने की अपेक्षा शिवकुमार ने उससे ही प्रश्न किया, ‘‘भगवन् ! क्या परिचय है आपका ?’’
प्रश्न सुनकर वह व्यक्ति हँस दिया और बोला, ‘‘यह मेरे प्रश्न का तो उत्तर नहीं है ?’’
‘‘जी हाँ, उत्तर तो नहीं है। किन्तु उत्तराकांक्षी के उत्तर पाने का अधिकारी होने का ज्ञान प्राप्त करने का यह प्रयास है।’’
‘‘समझ लीजिए किसी सुपात्र ने ही प्रश्न किया है। सर्वान्तर आत्मा तो शुद्ध, बुद्ध, और निर्विकार ही है। आप किस प्रकार उसकी उन्नती का प्रयास कर रहे हैं यही जानने की आकांक्षा है।’’

‘‘परन्तु मैं तो उस आत्मा के विषय में नहीं कह रहा। मेरा अभिप्राय तो ‘गुहां प्रतिष्टावात्मानौ तद्दर्शनात्’ में वर्णित उन दो में से दूसरे आत्म-तत्व के विषय में है।’’
‘‘यह कहाँ का वाक्य है ?’’
‘‘इसी कारण तो श्रीमान का परिचय जानने का यत्न किया था। आत्मोन्नति के विषय में जानने वाले जिज्ञासू का अधिकार जानना चाहता था।’’
तब तक दोनों कुटिया के समीप पहुँच गये थे। पक्की कुटिया के चारों ओर दीवार थी। दीवार के भीतर पुष्प वाटिका के मध्य में पाँच आगार बनाये गये थे। मुख्य द्वार पर पहुँचकर पण्डितजी ने द्वार खोला। वन्यप्राणी आकर पुष्प वाटिका को हानि न पहुँचायें इसलिए यह दीवार और द्वार बनाया गया था।

द्वार खोलते हुए शिवकुमार ने कहा, ‘‘विद्वद्वर ! पधारिये, यह मेरा भोजन का समय है। आपका स्वागत है।’’
उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘भोजन का समय तो है किन्तु यदि मेरे भोजन करने से इस घर का कोई प्राणी भूखा रह गया तो उससे मुझे भारी दुःख होगा।’’
‘‘यह तो मैं बता नहीं सकता कि गृहिणी ने कितना भोजन तैयार किया है। आज कुछ अन्य लोगों के भी भोजन के समय आने की सम्भावना थी। अतः यदि सबके लिए भोजन बना होगा तो पाँच प्राणियों में से एक अधिक हो जाने से किसी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ेगा। इस प्रकार कोई भी इससे भूखा नहीं रहेगा।’’
‘‘देख लीजिये।’’
‘‘आप इसकी चिन्ता न कीजिये। पधारिये।’’
इस प्रकार शिवकुमार उस व्यक्ति को लेकर भीतर प्रविष्ट हुआ।


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