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विकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5429
आईएसबीएन :0000

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एक सामाजिक उपन्यास...

Vikar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

भारतवर्ष में स्वराज्य-प्राप्ति के उपरान्त भौतिकवादियों का नया युग आया है। यों तो इसका बीजारोपण अंग्रेजी राज्य-काल में ही हो गया था, परन्तु इसका विस्तार स्वराज्य-प्राप्ति के उपरान्त ही हुआ है। आधार में भौतिकतावादी शिक्षा होने से यह विस्तार हुआ है।

भौतिकतावादी शिक्षा का अर्थ है भौतिक उन्नति को लक्ष्य बनाकर निर्माण किया गया पाठ्यक्रम और उसको पढ़ने से सुख की प्राप्ति की आकांक्षा। भौतिकवादी लक्ष्य से अर्थ है मानव से यह स्वीकार कराना कि वह केवलमात्र शरीर है और शारीरिक सुख की उपलब्धि ही परम साध्य है।

इस भौतिकवादी शिक्षा का परिणाम यह हो रहा है कि सामाजिक और पारिवारिक जीवन समाप्त हो रहा है और मनुष्य एक पशु के समान स्वयं अपनी उदर-पूर्ति तथा भोग-विलास तक ही संकुचित रखने लगा है।
यह है विकार, जो मनुष्य में उत्पन्न हो रहा है।

गुरुदत्त

विकार
एक


मास की पहली तारीख थी। शनिवार का दिन था और समय लगभग चार बजे सायंकाल। एक स्त्री गर्भभार से लदी हुई दिल्ली परिवहन की 29 नम्बर बस से वैस्ट पटेलनगर के स्टैंड पर उतरी। उसने एक हाथ में एक पुस्तक, दो कापियाँ और पैन्सिल पकडी़ हुई थीं। दूसरे हाथ में जनाना छाता और पर्स था। बस से उतर, धीरे-धीरे चलती हुई वह ब्लाक नम्बर 63 में एक मकान के सम्मुख आ खड़ी हुई। बस स्टैंट से यह मकान लगभग एक फर्लांग के अन्तर पर था और इसी में वह हॉफ गई थी। अभी तो उसे ऊपर की मंजिल पर भी चढ़ना था। इस कारण सीढ़ियों के सामने, छाता बन्द कर उसका आश्रय लेकर वह खड़ी हो गई। लगभग दो मिनट में वह श्वास स्थिर कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। छाते का आश्रय लेती हुई, ऊपर चढ़कर वह पहली मंजिल पर पहुँच, एक कमरे के द्वार के बाहर जा खाड़ी हुई।

कमरे को ताला लगा था। उसने छाता तथा पुस्तक-काँपियाँ बगल में दबाई और अपने पर्स से चाबियों का गुच्छा निकालकर ताला खोला। द्वार खोल भीतर जा, अपने हाथ का सामान एक तिपाई पर फेंक, वह धम्म से सोफ़े  पर बैठ गई। यह कमरा ड्राइंग-रूम की भाँति सजा हुआ था। सोफ़ा-सेट, दरी, कालीन, सेण्टर टेबल और उस पर एक फूलदान, जिसमें कागज़ के बनें फूलों का गुलदस्ता, दीवार पर दो चित्र—एक ताजमहल का और दूसरा पहाड़ी का कोई दृश्य—इस प्रकार कमरा सजाया गया था।
वह स्त्री सोफ़े पर आराम से बैठी सुख अनुभव कर रही थी। आँखें मूँद वह भविष्य के विषय में विचार करने लगी। भविष्य के विचार कुछ अधिक सुखकारक नहीं थे।

वह सातवें मास में जा रही थी। दो महीने के उपरान्त  उसका प्रसव-काल था। उस समय का चिन्तन कर रही थी। उस समय उसको किसी सम्बन्धी स्त्री की सहायता की आवश्यकता अनुभव हो रही थी। सम्बन्धी तो बहुत थे परन्तु पिछले दो वर्ष के विवाहित जीवन में उसने कभी किसी से मेल-जोल बनाए रखने की चिन्ता नहीं की थी। उसने कभी किसी के घर किसी की सहायतार्थ  जाने का कष्ट नहीं किया था। वह कर भी नहीं सकती थी। विवाह से पूर्व ही वह म्यूनिसिपल गर्ल्ज़ हायर सेकेण्डरी स्कूल में अध्यापन-कार्य करने लगी थी। जब कभी कोई सम्बन्धी बीमार पड़ा तो वह उसके लिए स्कूल से छुट्टी लेकर, उसकी सहायता के लिए जा नहीं सकी थी। सम्बन्धी बीमार भी तो तभी होते थे, जब उसको स्कूल में काम बहुत अधिक होता था। कभी परीक्षाएँ अथवा टैस्ट चल रहे होते थे और कभी स्कूल में इन्स्पेक्टर आदि अधिकारियों को आना होता था।

स्कूल में अवकाश के दिन भी आते थे, परन्तु प्रायः उन दिनों कोई सम्बन्धी बीमार नहीं पड़ते थे, क्योंकि मौसम स्वास्थ्यप्रद होता था। ग्रीष्म-अवकाश में तो दिल्ली तप रही होती थी और वह तथा उसका पति किसी पहाड़ी स्थान पर चले जाते थे। उसका पति अपने अफ़सर की मिन्नत खुशामद कर उन्हीं दिनों अपनी छुट्टियों का प्रबन्ध कर लेता था।
इस प्रकार वह स्त्री अपनी प्रसव-काल समीप आते देख, चिन्ता अनुभव कर रही थी। विचार करने पर भी कोई मार्ग न पा, वह आँखें मूँदे पड़ी हुई थी।

उसको आए आधे घण्टे से ऊपर हो चुका था कि सीढ़ियों पर किसी पुरुष के चढ़ने की ध्वनि सुनाई पड़ी। उसने अपनी आँखें खोलीं, परन्तु सीधी होकर बैठने में उसका चित् नहीं किया। वह पुरुष, जो एक युवक था मुस्कुराता हुआ कमरे का पर्दा हटाकर भीतर आया और अपनी पत्नी को इस प्रकार सोफ़े की पीठ से ढासना लगाए बैठे देख पूछने लगा, ‘कुन्तल ! इस प्रकार क्यों पड़ी हो ?’’

‘‘आज चाय तक बनाने की हिम्मत नहीं हो रही है। बहुत थकी-थकी अनुभव कर रही हूँ।’’
‘‘तो ऐसा करो, कल से छुट्टी ले लो।’’
‘‘छुट्टी ? अभी तो ढाई महीने पड़े हैं, तेरह दिन प्रसव के और फिर कम-से-कम एक मास उसके उपरान्त। इस प्रकार चार मास की छुट्टी कौन देगा ? सब मिलाकर प्रसव के लिए दो मास की ही छुट्टी मिल सकती है।’’
‘‘तो फिर क्या होगा ? एक–दो मास की बिना वेतन के ले लेना।’’

‘‘ले तो लूँ, परन्तु तीन सौ रुपये की हानि होगी और फिर कोई दूसरी अध्यापिका मेरे स्थान पर अस्थाई रूप से रखी जाएगी, जो दिल लगाकर काम नहीं कर  सकेगी। परिणाम यह होगा कि लड़कियों का रिजल्ट खराब हो जाएगा और मेरी बदनामी होगी। कदाचित् मेरी उन्नति रुक जाए।’’
‘‘क्या होगा, इस समय यह विचारणीय नहीं है। इस समय तो विचारणीय यह है कि जान रहेगी तो जहान रहेगा। कहीं कुछ गड़बड़ हो गई तो लड़कियों को पढ़ाकर क्या करोगी ?’’
‘‘क्या गड़बड़ हो सकती है ?’’

‘बीमार पड़ सकती हो, और स्कूल सदा के लिए छोड़ना पड़ सकता है।’’
‘‘अर्थात् मैं मर सकती हूँ।’’ इतना कहते-कहते कुन्तल काँप उठी।
युवक ने दफ़्तर के कपड़े उतारकर कुरता-पाजामा पहन लिया था। वह कुन्तल के समीप एक कुरसी पर बैठते हुए कहने लगा, ‘‘मर जाने की कोई बात तो मैंने कही नहीं। प्रसव में तनिक असावधानी हो जाने से रोग तो मोल लिया ही जा सकता है।’’

‘‘परन्तु देखिए न वेतन के बिना निर्वाह कैसे हो सकेगा ? डेढ़ सौ रुपये मुझे मिलते हैं और सवा दो सौ आप लाते हैं। पौने चार सौ में कठिनाई से निर्वाह होता है। इसमें डेढ़ सौ कम हो गए और वह भी दो महीने तक, तब तो ऋण ही लेना पड़ जाएगा। मैं तो यह विचार कर रही थी कि बिना किसी सम्बन्धी स्त्री को बुलाए काम कैसे चल सकेगा।’
‘‘मैं तो लेडी हार्डिग अस्पताल में तुम्हारा प्रबन्ध करा रहा हूँ।’’

‘‘वहाँ तो तीन-चार दिन से अधिक नहीं रखेंगे। इतने कम समय के पश्चात कोई भी प्रसूता काम करने योग्य नहीं हो पाती। इसी कारण तो प्रसव के बाद एक मास की छुट्टी मिल जाती है। उस काल के लिए और उससे कम-सम-कम पन्द्रह दिन पहले ही काम नहीं हो सकेगा। इस प्रकार दो मास के लिए किसी सहायक की आवश्यकता पड़ेगी। नीचे की मंजिल वालों ने तो एक नर्स रखी थी। वह दो महीने रही थी और दस रुपये प्रतिदिन के हिसाब से छः सौ रुपये नक़द लेकर गई थी।’’
युवक ने दीर्घ निःश्वास छोड़कर कहा, ‘‘इतना तो हम व्यय नहीं कर सकते। नीचे वालों की बात दूसरी है। वह साढ़े सात सौ वेतन पाता है।

इसके अलावा भी इनकी अच्छी-खासी सम्पत्ति है।’
‘‘तभी तो कहती थी कि किसी सम्बन्धी से बनाकर रखना चाहिए।
‘‘तो मैंने कब मना किया था !’’
‘‘मना की बात नहीं। किसी के घर जाओ तो समय बेकार जाता है और फिर व्यर्थ का व्यय होता है। हमारे पास न तो समय है और न ही धन।’’

‘‘मुझको एक उपाय सूझा है। हमारे रिश्ते में एक चाची ‘टोबा टेकसिंह’ में रहती हैं। वह विधवा है और उसके कोई सन्तान भी नहीं है। बचपन से उसने मुझको खिलाया है। मैं उसको लिख देता हूँ कि दो-तीन महीने के लिए आ जाए। यदि आ गई तो काम बन जाएगा। उसको जाते समय विदाई देनी पड़ेगी, परन्तु तुम्हें आराम भी बहुत मिलेगा ।’’
‘‘ठीक है, लिख दीजिए। थोड़ा-बहुत जो देना होगा, दे देंगे। परन्तु तब तक के लिए भी खाना आपको ही बनाना पड़ेगा। मुझसे तो अब हिला-डुला नहीं जाता।’
‘‘यही तो मुसीबत है। मैं विचार कर रहा था कि पड़ोस के होटल वाले से तय कर लूँ ।’’
‘‘कर लीजिए।’’

‘‘तुमको वेतन मिला है ?’’
‘‘हाँ, पर्स में रखा है।’’
पति ने पत्नी का पर्स पकड़ा और उसको खोलकर नोटों का बण्डल बाहर निकाल लिया। उसने गिने तो दस-दस के चौदह नोट थे। कुन्तल ने कह दिया, ‘‘एक सौ चालीस हैं। दस रुपये टीचर्स क्लब का वार्षिक चन्दा दिया है।’’
अब पति महोदय ने अपने कोट की जेब में से अपना पर्स निकाला और उससे नोट निकालते हुए बोला, ‘‘दो सौ हैं। पच्चीस रुपये कैण्टीन वाले का बिल दे दिया है।’’


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