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राम के जीवन पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर यह उपन्यास लिखा गया है।
वैसे तो श्रीराम के जीवन पर सैकड़ों ही नहीं, सहस्रों रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं, इस पर भी जैसा कि कहते हैं
वैसे तो श्रीराम के जीवन पर सैकड़ों ही नहीं, सहस्रों रचनाएँ लिखी जा चुकी हैं, इस पर भी जैसा कि कहते हैं
हरि अनन्त हरि कथा अनन्त।
भगवान राम परमेश्वर का साक्षात अवतार थे अथवा नहीं, इस विषय पर कुछ न कहते
हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य सम्पन्न
किया वह उनको एक अतिश्रेष्ठ मानव के पद पर बैठा देता है। लाखों, करोड़ों
लोगों के आदर्श पुरुष तो वह हैं ही। और केवल भारतवर्ष में ही नहीं बीसियों
अन्य देशों में उनको इस रूप में पूजा जाता है। राम कथा किसी न किसी रूप
में कई देशों में प्रचलित है।
और तो और तथाकथित प्रगतिशील लेखक जो वैचारिक दृष्टि से कम्युनिस्ट ही कहे जा सकते हैं, वे आर्यों को दुष्ट, शराबी, अनाचारी, दशरथ को लम्पट, दुराचारी लिखते हैं परन्तु राम की श्रेष्ठता को नकार नहीं सके।
राम में क्या विशेषता थी, पौराणिक कथा ‘अमृत मंथन’ का क्या महत्व था, राम ने अपने जीवन में क्या कुछ किया, प्रस्तुत उपन्यास में इसी पर प्रकाश डाला गया है।
यह एक तथ्य है कि चाहे सतयुग हो, त्रेता-द्वापर हो अथवा कलियुग हो, मनुष्य की दुर्बलता उसमें उपस्थित पाँच विकार—काम, क्रोध, लोभ मोह तथा अहंकार होती है और इन विकारों के चारों ओर ही मनुष्य का जीवन घूमता है। इन विकारों पर नियंत्रण यदि उसका आत्मा प्रबल है तो उसके द्वारा होनी चाहिए अन्यथा राजदण्ड का निर्माण इसी के लिए हुआ है। परन्तु जब ये विकार किसी शक्तिशाली, प्रभावी राजपुरुष में प्रबल हो जाते हैं जो देश में तथा संसार में अशान्ति का विस्तार होने लगता है और तब श्रेष्ठ सत् पुरुषों को उसके विनाश का आयोजन करना पड़ता है और यही इतिहास बन जाता है। इन्हीं विकारों ने देवासुर संग्राम का बीज बोया, राणव तथा राक्षसों को अनाचार फैलाने की प्रेरणा दी, महाभारत रचा तथा आज के युग में भी देश के भीतर गृहयुद्ध तथा देशों में परस्पर युद्ध करा रहे हैं।
इन विकारों के प्रभाव में दुष्ट पुरुष सदा विद्यमान रहे हैं और आज भी प्रभावी हो रहे हैं। श्रेष्ठ जनों को संगठित होकर उनके विरुद्ध युद्घ के लिए तत्पर होना होगा। जो लोग, देश तथा जाति इस प्रकार के धार्मिक युद्धों से घबराती है वह पतन को ही प्राप्त होती है। दुष्टों के प्रभावी हो जाने से पूर्व ही जब तक उनके विनाश का आयोजन नहीं किया जाता, तब तक युद्धों को रोका नहीं जा सकता और ऐसे युद्धों के लिए सदा तत्पर रहना ही देश में शान्ति स्थिर रख सकता है।
और तो और तथाकथित प्रगतिशील लेखक जो वैचारिक दृष्टि से कम्युनिस्ट ही कहे जा सकते हैं, वे आर्यों को दुष्ट, शराबी, अनाचारी, दशरथ को लम्पट, दुराचारी लिखते हैं परन्तु राम की श्रेष्ठता को नकार नहीं सके।
राम में क्या विशेषता थी, पौराणिक कथा ‘अमृत मंथन’ का क्या महत्व था, राम ने अपने जीवन में क्या कुछ किया, प्रस्तुत उपन्यास में इसी पर प्रकाश डाला गया है।
यह एक तथ्य है कि चाहे सतयुग हो, त्रेता-द्वापर हो अथवा कलियुग हो, मनुष्य की दुर्बलता उसमें उपस्थित पाँच विकार—काम, क्रोध, लोभ मोह तथा अहंकार होती है और इन विकारों के चारों ओर ही मनुष्य का जीवन घूमता है। इन विकारों पर नियंत्रण यदि उसका आत्मा प्रबल है तो उसके द्वारा होनी चाहिए अन्यथा राजदण्ड का निर्माण इसी के लिए हुआ है। परन्तु जब ये विकार किसी शक्तिशाली, प्रभावी राजपुरुष में प्रबल हो जाते हैं जो देश में तथा संसार में अशान्ति का विस्तार होने लगता है और तब श्रेष्ठ सत् पुरुषों को उसके विनाश का आयोजन करना पड़ता है और यही इतिहास बन जाता है। इन्हीं विकारों ने देवासुर संग्राम का बीज बोया, राणव तथा राक्षसों को अनाचार फैलाने की प्रेरणा दी, महाभारत रचा तथा आज के युग में भी देश के भीतर गृहयुद्ध तथा देशों में परस्पर युद्ध करा रहे हैं।
इन विकारों के प्रभाव में दुष्ट पुरुष सदा विद्यमान रहे हैं और आज भी प्रभावी हो रहे हैं। श्रेष्ठ जनों को संगठित होकर उनके विरुद्ध युद्घ के लिए तत्पर होना होगा। जो लोग, देश तथा जाति इस प्रकार के धार्मिक युद्धों से घबराती है वह पतन को ही प्राप्त होती है। दुष्टों के प्रभावी हो जाने से पूर्व ही जब तक उनके विनाश का आयोजन नहीं किया जाता, तब तक युद्धों को रोका नहीं जा सकता और ऐसे युद्धों के लिए सदा तत्पर रहना ही देश में शान्ति स्थिर रख सकता है।
प्रथम परिच्छेद
कुलवन्तसिंह बाबा विष्णुशरण द्वारा कही गई और महिमा तथा गरिमा द्वारा लिखी
गई रामकथा पढ़ रहा था—चित्रकूट का वन अति सुन्दर और बारह मास
विकसित होने वाले पुष्पों से लदा रहता था। तथा मन्दाकिनी में जल-विहार
करते हुए वन पशु ऐसा लुभायमान दृश्य प्रस्तुत करते थे कि सीता आयोध्या को
विस्मरण करने लगी थी।
वहां साधु-सन्त-महात्माओं का एक विशाल समुदाय भी था और उन मुनियों की पत्नियां तथा बालक सीता से हेल-मेल रखने लगे थे। राम को भी वहां का वातावरण और वहां रहने वाले साधु, सन्त, ऋषि, मुनि अनुकूल ही प्रतीत होते थे।
मुनियों के उस समुदाय के एक अध्यक्ष भी थे। वह एक वृद्ध महर्षि थे और कुलपति के नाम से विख्यात थे। प्रायः मध्याह्नोत्तर कुलपति राम की कुटिया के बाहर आ जाते थे और राम तथा लक्ष्मण उससे अनेकानेक विषयों पर वार्तालाप किया करते थे।
एक दिन कुलपति ने उस बस्ती का इतिहास बता दिया। कुलपति ने कहा, ‘‘हम इस बस्ती में लगभग दो सौ प्राणी हैं। हम यहां सदा से नहीं रहते। इससे पूर्व दण्डकारण्य में रहते थे। कुछ वर्ष हुए वहां राक्षसों ने उधम मचाना आरम्भ कर दिया तो हम उस स्थान को छोड़ पूर्व की ओर चल पड़े। पंचवटी से लेकर महर्षि भारद्वाज के आश्रम तक कई सौ योजन का क्षेत्र है जहां मुनि लोग बसे हुए हैं। यह मुनियों की बस्ती पहले दक्षिण में किष्किन्धा तक फैली हुई थी और लंकापुरी में रावण के सिंहासनारूढ़ से पूर्व तो हम लोग दक्षिण के नीलगिरी पर्वत तक फैले हुए थे। रावण के लंका का राजा बनने के साथ ही हमें वह क्षेत्र खाली कर देना पड़ा।’’
‘‘राम ! मैं उन दिनों किष्किन्धा के एक वन में रहता था। वहाँ बाली नाम के एक राजा ने अपने भाई सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक अपने अन्तःपुर में रख लिया और जब उसने सुग्रीव की पत्नी की हत्या करने का यत्न किया तो सुग्रीव राजधानी छोड़ वन में जाकर रहने लगा। बाली उसको ढूँढ़ता रहता है। उसके सैनिक वन-वन सुग्रीव की खोज करते रहते हैं और इस खोज में वनवासी ऋषी-मुनियों को कष्ट देते हैं। अतः मैंने वह स्थान छोड़ दिया। जब वह पंचवटी में पहुँचा तो रावण के सैनिक मुनियों को कष्ट दे रहे दिखायी दिये। उनमें से अधिकांश मुनि इस क्षेत्र को सुरक्षित देख यहां चले आये हैं। यहां रहते हुए हमें पाँच वर्ष के लगभग हो चुके हैं।’’
‘‘तो यहां आपको किसी प्रकार का भय नहीं है ?’’ हमने पूछ लिया।
‘‘अभी तक तो नहीं था, परन्तु दण्डकारण्य से कल कुछ लोग यहां आये हैं और वे बता रहे हैं कि राक्षस लोग इधर भी बढ़ रहे हैं। पिछले वर्ष महिष्मति के राजा अर्जुन का देहान्त हो गया और रावण स्वयं को उसके साथ हुई संधि से मुक्त हो गया और उसके राज्य में भी राक्षसों को भेज रहा है।’’
‘तो अर्जुन का पुत्र उनको रोकता नहीं ?’’
‘‘बात यह है कि राक्षसों की नीति अब युद्ध करने की नहीं है। सेना तो सेना से युद्ध करती है, परन्तु ये राक्षस लुक-छिपकर युद्ध करते हैं। रात के समय अस्त्र-शस्त्र हीन लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। एक परिवार पर पचास-पचास आ धमकते हैं। उनके स्त्री वर्ग को पकड़कर ले जाते हैं और उनका प्रयोग करते हैं। प्रयोग के उपरान्त उनकी हत्या कर उनका मांस खाते हैं। पुरुष, जो बच जाते हैं, वहाँ से भाग खड़े होते हैं। इस प्रकार राक्षस लोग छन-छन कर इस देश में बढ़ रहे हैं। राजा इसमें कुछ कर नहीं सकता। कभी राजा की सेना इधर आती भी है तो ये राक्षस भागकर जंगल में घुस जाते हैं। सैनिक निर्जन स्थानों को देख लौट जाते हैं।’’
‘‘परन्तु परिणाम यह हो रहा है कि धीरे-धीरे मुनि लोग अब दण्डकारण्य छोड़-छोड़ इधर पूर्व की ओर आ रहे हैं।
‘‘दण्डकारण्य के कुछ भागे हुए लोग इधर आये हैं। उनमें से एक तो राक्षसों के बन्दीग्रह से भाग कर आया है। यह बताता है कि राक्षसों को अयोध्या के राजकुमार के इस वन में आकर बस जाने का पता चल गया है और वे आपके यहाँ रहने का अर्थ समझ रहे हैं कि राज्य की ओर से आप इस क्षेत्र को स्थायी रूप से बसाने के लिये भेजे गये हैं। इस कारण पूर्व इसके कि कौशल राज्य यहां अपना अधिकार स्थापित करे, वे इस क्षेत्र को भी हमसे खाली करा कर यहां स्वयं बस जाने का विचार रखते हैं। इस कारण इस स्थान के सब लोग भयभीत हो रहे हैं।’’
राम ने कुलपति को कह दिया, ‘‘मैं समझता हूँ कि मैं अकेला ही सौ-दो-सौ राक्षसों का सामना कर सकता हूँ। मुझे सेना संगठित करने की आवश्यता नहीं।’’
‘‘यह मैं जानता हूँ। आप अपने बल और तेज से सौ-दो-सौ क्या, एक-दो सहस्र को भी भगा सकते हैं। परन्तु उनकी नीति यह है कि वे आपको छुए बिना यहां एक-एक कुटिया पर रात के समय आक्रमण कर उसमें रहनेवालों को मार कर दिन निकलने से पूर्व भाग जायेंगे। आप तो जानते ही हैं कि वन में हम सब एक स्थान पर इकट्ठे होकर रहना नहीं चाहते।’’
‘‘इकट्ठे समीप-समीप होकर रहना, मुनियों को असुविधाजनक प्रतीत होता है। हम लोग नगरों को छोड़ वन में इस कारण आये हैं कि नगर का गन्दा जीवन हमें पसन्द नहीं। हमारे पूजा-पाठ में विघ्न पड़ता है। एक बात और है। वह यह कि एक ही स्थान पर जमा होकर रहना चाहे भी तो तब तक नहीं रह सकते जब तक पक्के मकान, मार्ग और मल-मूत्र को बस्ती से बाहर निकालने का प्रबन्ध न हो जाये। यह तो पुनः राज्य व्यवस्था करने के तुल्य हो जायेगा।’’
‘‘परन्तु हम एक नागरिक के जीवन को अपने मोक्ष मार्ग में बाधक मान ही तो वनों में आकर रह रहे हैं। यदि यहां नगर बनाने हैं तो फिर हम किसी बसे-बसाये नगर में ही क्यों न चले जायें ?’’
राम मुनियों के दृष्टिकोण को समझने लगा था। वे लोग ब्राह्मण स्वभाव रखने के कारण राज्य निर्माण नहीं कर सकते। राज्य की और नगरों की सुविधाएँ हैं तो असुविधाएँ भी हैं। ये बेचारे उन असुविधाओं से बचने के लिये वन में कुटिया बना कर रह रहे हैं। प्रत्येक परिवार ने एकान्त पाने के लिये दूर-दूर कुटिया बना रखी हैं।
राम को गम्भीर विचार में मग्न देख कुलपति ने कह दिया, ‘‘वन के मुनि लोग कुछ ऐसा विचार कर रहे हैं कि वे इस स्थान को छोड़ जायें और यमुना के किनारे पर जाकर रहना आरम्भ कर दें। हमारी सम्मति है कि आप भी हमारे साथ ही चल दें।’’
राम ने कह दिया, ‘‘और यदि इन राक्षसों को यह विदित हो गया कि वहाँ भी एक क्षत्रिय निवास करता है तो वहां से भी मुझे भगा देने का यत्न करेंगे। इस प्रकार भागने वालों के लिये तो कोई भी सुरक्षित स्थान नहीं रह जायेगा। यदि स्थान बदलने से भी इन निशाचरों का भय बना रहना है तो मैं यहां से चले जाने में कोई तथ्य नहीं समझता।’’
‘‘तो क्या किया जाये ? आप महाराज भरत को लिख दें कि यहां एक सेना भेज दें। तब ही हमारी रक्षा हो सकती है।’’
‘‘देखिये भगवन् !’’ राम ने कुलपति को अपना निश्चय बता दिया, ‘‘मैं भरत को यह नहीं लिखूँगा। साथ ही यह महिष्मति राज्य का क्षेत्र है। कोई भी दूसरे देश का राजा बिना यहाँ के नरेश की स्वीकृति के सेना भेजेगा तो दो राज्यों में आकरण युद्ध हो जायेगा। इस कारण यदि भरत को कहूँ तो भी वह यहां सैनिक कार्यवाही नहीं कर सकेगा।’’
‘‘इस पर भी मैं आप लोगों की भाँति यहां मोक्ष मार्ग खोज में नहीं आया हूँ। इस कारण मैं यहाँ से पलायन नहीं करूंगा। मेरी प्रवृत्ति ऐसा करने को कहती भी नहीं। इस कारण मैं यही रहूंगा।’’
कुलपति इससे निराश हो मौन हो गया।
वन में रहने का ढंग कुछ ऐसा था कि एक कुटिया दूसरी कुटिया से चौथाई मील के अन्तर पर थी। वहां समीप-समीप रहने की उनमें रुचि नहीं थी। इसका परिणाम यह होता था कि रात के समय एक परिवार की कठिनाई का दूसरे को पता भी नहीं चलता था। दिन चढ़ने पर यदि उस कुटिया की ओर गया तो उसे पता चल गया कि वह उजड़ी हुई है और उसमें रहने वाले मार-पीट कर समाप्त किये जा चुके हैं।
उस पर भी राम यह समझता था कि भाग कर कहां जायेगा ? क्या ये निशाचर वहां नहीं पहुंच जायेंगे।
वहां साधु-सन्त-महात्माओं का एक विशाल समुदाय भी था और उन मुनियों की पत्नियां तथा बालक सीता से हेल-मेल रखने लगे थे। राम को भी वहां का वातावरण और वहां रहने वाले साधु, सन्त, ऋषि, मुनि अनुकूल ही प्रतीत होते थे।
मुनियों के उस समुदाय के एक अध्यक्ष भी थे। वह एक वृद्ध महर्षि थे और कुलपति के नाम से विख्यात थे। प्रायः मध्याह्नोत्तर कुलपति राम की कुटिया के बाहर आ जाते थे और राम तथा लक्ष्मण उससे अनेकानेक विषयों पर वार्तालाप किया करते थे।
एक दिन कुलपति ने उस बस्ती का इतिहास बता दिया। कुलपति ने कहा, ‘‘हम इस बस्ती में लगभग दो सौ प्राणी हैं। हम यहां सदा से नहीं रहते। इससे पूर्व दण्डकारण्य में रहते थे। कुछ वर्ष हुए वहां राक्षसों ने उधम मचाना आरम्भ कर दिया तो हम उस स्थान को छोड़ पूर्व की ओर चल पड़े। पंचवटी से लेकर महर्षि भारद्वाज के आश्रम तक कई सौ योजन का क्षेत्र है जहां मुनि लोग बसे हुए हैं। यह मुनियों की बस्ती पहले दक्षिण में किष्किन्धा तक फैली हुई थी और लंकापुरी में रावण के सिंहासनारूढ़ से पूर्व तो हम लोग दक्षिण के नीलगिरी पर्वत तक फैले हुए थे। रावण के लंका का राजा बनने के साथ ही हमें वह क्षेत्र खाली कर देना पड़ा।’’
‘‘राम ! मैं उन दिनों किष्किन्धा के एक वन में रहता था। वहाँ बाली नाम के एक राजा ने अपने भाई सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक अपने अन्तःपुर में रख लिया और जब उसने सुग्रीव की पत्नी की हत्या करने का यत्न किया तो सुग्रीव राजधानी छोड़ वन में जाकर रहने लगा। बाली उसको ढूँढ़ता रहता है। उसके सैनिक वन-वन सुग्रीव की खोज करते रहते हैं और इस खोज में वनवासी ऋषी-मुनियों को कष्ट देते हैं। अतः मैंने वह स्थान छोड़ दिया। जब वह पंचवटी में पहुँचा तो रावण के सैनिक मुनियों को कष्ट दे रहे दिखायी दिये। उनमें से अधिकांश मुनि इस क्षेत्र को सुरक्षित देख यहां चले आये हैं। यहां रहते हुए हमें पाँच वर्ष के लगभग हो चुके हैं।’’
‘‘तो यहां आपको किसी प्रकार का भय नहीं है ?’’ हमने पूछ लिया।
‘‘अभी तक तो नहीं था, परन्तु दण्डकारण्य से कल कुछ लोग यहां आये हैं और वे बता रहे हैं कि राक्षस लोग इधर भी बढ़ रहे हैं। पिछले वर्ष महिष्मति के राजा अर्जुन का देहान्त हो गया और रावण स्वयं को उसके साथ हुई संधि से मुक्त हो गया और उसके राज्य में भी राक्षसों को भेज रहा है।’’
‘तो अर्जुन का पुत्र उनको रोकता नहीं ?’’
‘‘बात यह है कि राक्षसों की नीति अब युद्ध करने की नहीं है। सेना तो सेना से युद्ध करती है, परन्तु ये राक्षस लुक-छिपकर युद्ध करते हैं। रात के समय अस्त्र-शस्त्र हीन लोगों पर आक्रमण कर देते हैं। एक परिवार पर पचास-पचास आ धमकते हैं। उनके स्त्री वर्ग को पकड़कर ले जाते हैं और उनका प्रयोग करते हैं। प्रयोग के उपरान्त उनकी हत्या कर उनका मांस खाते हैं। पुरुष, जो बच जाते हैं, वहाँ से भाग खड़े होते हैं। इस प्रकार राक्षस लोग छन-छन कर इस देश में बढ़ रहे हैं। राजा इसमें कुछ कर नहीं सकता। कभी राजा की सेना इधर आती भी है तो ये राक्षस भागकर जंगल में घुस जाते हैं। सैनिक निर्जन स्थानों को देख लौट जाते हैं।’’
‘‘परन्तु परिणाम यह हो रहा है कि धीरे-धीरे मुनि लोग अब दण्डकारण्य छोड़-छोड़ इधर पूर्व की ओर आ रहे हैं।
‘‘दण्डकारण्य के कुछ भागे हुए लोग इधर आये हैं। उनमें से एक तो राक्षसों के बन्दीग्रह से भाग कर आया है। यह बताता है कि राक्षसों को अयोध्या के राजकुमार के इस वन में आकर बस जाने का पता चल गया है और वे आपके यहाँ रहने का अर्थ समझ रहे हैं कि राज्य की ओर से आप इस क्षेत्र को स्थायी रूप से बसाने के लिये भेजे गये हैं। इस कारण पूर्व इसके कि कौशल राज्य यहां अपना अधिकार स्थापित करे, वे इस क्षेत्र को भी हमसे खाली करा कर यहां स्वयं बस जाने का विचार रखते हैं। इस कारण इस स्थान के सब लोग भयभीत हो रहे हैं।’’
राम ने कुलपति को कह दिया, ‘‘मैं समझता हूँ कि मैं अकेला ही सौ-दो-सौ राक्षसों का सामना कर सकता हूँ। मुझे सेना संगठित करने की आवश्यता नहीं।’’
‘‘यह मैं जानता हूँ। आप अपने बल और तेज से सौ-दो-सौ क्या, एक-दो सहस्र को भी भगा सकते हैं। परन्तु उनकी नीति यह है कि वे आपको छुए बिना यहां एक-एक कुटिया पर रात के समय आक्रमण कर उसमें रहनेवालों को मार कर दिन निकलने से पूर्व भाग जायेंगे। आप तो जानते ही हैं कि वन में हम सब एक स्थान पर इकट्ठे होकर रहना नहीं चाहते।’’
‘‘इकट्ठे समीप-समीप होकर रहना, मुनियों को असुविधाजनक प्रतीत होता है। हम लोग नगरों को छोड़ वन में इस कारण आये हैं कि नगर का गन्दा जीवन हमें पसन्द नहीं। हमारे पूजा-पाठ में विघ्न पड़ता है। एक बात और है। वह यह कि एक ही स्थान पर जमा होकर रहना चाहे भी तो तब तक नहीं रह सकते जब तक पक्के मकान, मार्ग और मल-मूत्र को बस्ती से बाहर निकालने का प्रबन्ध न हो जाये। यह तो पुनः राज्य व्यवस्था करने के तुल्य हो जायेगा।’’
‘‘परन्तु हम एक नागरिक के जीवन को अपने मोक्ष मार्ग में बाधक मान ही तो वनों में आकर रह रहे हैं। यदि यहां नगर बनाने हैं तो फिर हम किसी बसे-बसाये नगर में ही क्यों न चले जायें ?’’
राम मुनियों के दृष्टिकोण को समझने लगा था। वे लोग ब्राह्मण स्वभाव रखने के कारण राज्य निर्माण नहीं कर सकते। राज्य की और नगरों की सुविधाएँ हैं तो असुविधाएँ भी हैं। ये बेचारे उन असुविधाओं से बचने के लिये वन में कुटिया बना कर रह रहे हैं। प्रत्येक परिवार ने एकान्त पाने के लिये दूर-दूर कुटिया बना रखी हैं।
राम को गम्भीर विचार में मग्न देख कुलपति ने कह दिया, ‘‘वन के मुनि लोग कुछ ऐसा विचार कर रहे हैं कि वे इस स्थान को छोड़ जायें और यमुना के किनारे पर जाकर रहना आरम्भ कर दें। हमारी सम्मति है कि आप भी हमारे साथ ही चल दें।’’
राम ने कह दिया, ‘‘और यदि इन राक्षसों को यह विदित हो गया कि वहाँ भी एक क्षत्रिय निवास करता है तो वहां से भी मुझे भगा देने का यत्न करेंगे। इस प्रकार भागने वालों के लिये तो कोई भी सुरक्षित स्थान नहीं रह जायेगा। यदि स्थान बदलने से भी इन निशाचरों का भय बना रहना है तो मैं यहां से चले जाने में कोई तथ्य नहीं समझता।’’
‘‘तो क्या किया जाये ? आप महाराज भरत को लिख दें कि यहां एक सेना भेज दें। तब ही हमारी रक्षा हो सकती है।’’
‘‘देखिये भगवन् !’’ राम ने कुलपति को अपना निश्चय बता दिया, ‘‘मैं भरत को यह नहीं लिखूँगा। साथ ही यह महिष्मति राज्य का क्षेत्र है। कोई भी दूसरे देश का राजा बिना यहाँ के नरेश की स्वीकृति के सेना भेजेगा तो दो राज्यों में आकरण युद्ध हो जायेगा। इस कारण यदि भरत को कहूँ तो भी वह यहां सैनिक कार्यवाही नहीं कर सकेगा।’’
‘‘इस पर भी मैं आप लोगों की भाँति यहां मोक्ष मार्ग खोज में नहीं आया हूँ। इस कारण मैं यहाँ से पलायन नहीं करूंगा। मेरी प्रवृत्ति ऐसा करने को कहती भी नहीं। इस कारण मैं यही रहूंगा।’’
कुलपति इससे निराश हो मौन हो गया।
वन में रहने का ढंग कुछ ऐसा था कि एक कुटिया दूसरी कुटिया से चौथाई मील के अन्तर पर थी। वहां समीप-समीप रहने की उनमें रुचि नहीं थी। इसका परिणाम यह होता था कि रात के समय एक परिवार की कठिनाई का दूसरे को पता भी नहीं चलता था। दिन चढ़ने पर यदि उस कुटिया की ओर गया तो उसे पता चल गया कि वह उजड़ी हुई है और उसमें रहने वाले मार-पीट कर समाप्त किये जा चुके हैं।
उस पर भी राम यह समझता था कि भाग कर कहां जायेगा ? क्या ये निशाचर वहां नहीं पहुंच जायेंगे।
:2:
इस विषय पर चर्चा लक्ष्मण से भी हुई। लक्ष्मण ने कहा,
‘‘भैया ! मुझे यह सब ज्ञात है और मेरे भुजदण्ड इन
निशाचरों से जूझने के लिये व्याकुल हो रहे हैं। परन्तु मैं आपके मनोभावों
को समझता हुआ मौन था।’’
इस पर राम ने कहा, ‘‘लक्ष्मण ! तुम मेरे मन की भावना को ठीक समझे हो। बुराई से भागने पर बुराई पीछा करती है और भागते हुए को पराजित करने में सफल हो जाती है। इस काऱण मैं यहां से भाग नहीं रहा। परन्तु मैं एक और पाठ भी पढ़ा हूँ। वह यह कि आक्रमण करने वाले की प्रतीक्षा करना भी दुर्बलता और पराजय का लक्षण है। इस कारण यदि शत्रु का पता चल जाये कि वह कहां है, तो अपने को उस द्वारा आक्रमण करने की प्रतीक्षा करने के स्थान यह अधिक उचित होगा कि उस पर आक्रमण कर दिया जाये और उसे समाप्त कर दिया जाये। सुरक्षा में लड़ने के स्थान आक्रमण करना अधिक ठीक है।’
‘‘परन्तु भैया ! वे हैं कहां ?’’
‘‘देखो लक्ष्मण ! पंचवटी से कुछ अन्तर पर रावण के भाई खर ने एक जन-स्थान बसाया है। उसमें राक्षस सेना रहती है। हमें वहां ही चलना चाहिये।’’
‘‘परन्तु भैया ! क्या हम इन अस्त्र-शस्त्रों से जो हमारे पास हैं, एक सैनिक जनपद की विजय कर सकेंगे और फिर बिना सेना की सहायता के ?’’
‘‘यह बात विचारणीय है। इस पर भी ऐसा कर सकना असम्भव नहीं। इसके लिये हमें यत्न करना चाहिये। मेरी सूचना है कि दण्डकारण्य में एक शरभंग ऋषि रहते हैं। उन्होंने उस युद्ध में भाग लिया था जिसमें भगवान् विष्णु ने लंका राक्षसों से खाली करायी थी। उनके कार्य से प्रसन्न हो भगवान शिव ने उन्हें कुछ अस्त्र दिये थे जो विष्णु के सुदर्शन के तुल्य घातक तो नहीं, परन्तु देखते-देखते नगरों को समाप्त कर सकते हैं।’’
लक्ष्मण के भुजदण्ड फड़कने लगे और वह उत्तेजना में उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘तो भैया, चलो। यहां व्यर्थ में समय नष्ट करने से क्या लाभ है ?’’
राम ने भी अपना धनुष-बाण उठाया और सीता को ले वे तीनों दण्डकारण्य की ओर चल पड़े। घने वन में आगे-आगे राम, पीछे लक्ष्मण और बीच में सीता आगे बढ़ने लगे।
जब भी अमेरिकन अथवा रूसी उपन्यास पढ़ते-पढ़ते कुलवन्त का जी ऊब जाता, तो वह बाबा का यह हस्तलिखित ग्रन्थ निकाल पढ़ने लगता था। दो बार सम्पूर्ण परायण कर चुका था और अब वह तीसरी बार इसे पढ़ रहा था। जब-जब भी वह इसे पढ़ता उसे इसमें नया रस तथा कुछ न कुछ नयी बातें पता चलतीं जिससे उसके मन में नये विचार प्रस्फुटित होते। लिखित ग्रन्थ में उपरोक्त वृत्तान्त के उपरान्त गरिमा के नाम से प्रश्न लिखा हुआ था। गरिमा ने पूछा था, ‘‘बाबा ! क्या ये वन में रहने वाले ऋषि-मुनि शस्त्रास्त्र रखते थे ?’’
‘‘ऐसा ही प्रतीत होता है।’’ विष्णुशरण का उत्तर था, ‘‘इस पर भी आजकल से उस काल में कुछ विलक्षणता भी थी। विलक्षणता दो दिशाओं में प्रतीत होती है। एक तो यह कि इन अस्त्रों को किसी के द्वारा दिये जाने का अभिप्राय मैं यह समझा हूँ कि इनके निर्माण तथा प्रयोग का ढंग बताना। कुछ ऐसी विधि उन्होंने पता कर ली थी कि अकेला विद्वान कार्य कुशल व्यक्ति उन अस्त्रों को बना सकता था। इसे बनाने की विधि बताना ही अस्त्र देना कहा जाता था। साथ ही इन अस्त्रों में प्रयोग होने वाले बारूद अथवा गोली को ही बनाने की आवश्यकता होती थी और सामान्य धनुषों पर ही तीर की भाँति उनको फेंका जा सकता था। धनुष उस यन्त्र को कहते हैं जो किसी अस्त्र को दूर शत्रु पर फेंक सके।’’
‘‘दूसरी बात जो प्राचीन काल के शस्त्रास्त्र के विषय में पढ़ने में पता चलती है, वह यह कि इन अस्त्रों के रहस्य को कुछ ऋषि-महर्षियों के संरक्षण में ही रखा जाता था। देवता लोग इन शस्त्रास्त्रों के रहस्य को जानते थे। देवताओं के प्रमुख ब्रह्मा प्रायः सब प्रकार के शस्त्रास्त्रों के ज्ञाता थे और जो लोग उसे अपनी त्याग तपस्या से योग्यता सिद्ध कर देते थे, वे इन अस्त्रों के रहस्य को ब्रह्मा से पा जाते थे।’’
‘‘शरभंग ऋषि उनका प्रमुख था जो राक्षसों के अत्याचार से पीड़ित हो लंका राज्य से पलायन कर शिव के पास सहायता के लिये गया था। वह उनके प्रतिनिधि मण्डल को लेकर शिव और वहां से सहायता न मिलने पर विष्णु से सहायता मांगने गया था। तदनन्तर जब विष्णु अपने विमान पर राक्षसों का संहार कर रहा था, तो शरभंग एक छोटी-सी विस्थापितों की सेना के साथ भूमि पर राक्षसों को निःशेष करने में लीन था।’’
‘‘यह सब समाचार जब शिव को मिला तो उन्होंने प्रसन्न हो शरभंग को कुछ दिव्य अस्त्र दे दिये, जिससे वह अपने साथियों की रक्षा कर सकें।’’
‘‘जब तक शरभंग ऋषि युवा रहे तब तक वह राक्षसों के भारतवर्ष पर पदार्पण करने का विरोध करते रहे। ऋषिभारत में शेष रह गये राक्षसों को समाप्त करते रहे।’’
‘परन्तु राक्षस कोई जाति नहीं है। यह एक मानसिक प्रवृत्ति है और उस जाति में भी जो लंका के रहने वाले थे, भले, देवता प्रवृत्ति वाले लोग उपस्थित हैं और उन जातियों में भी जो राक्षस नहीं कहलाती, राक्षस प्रवृत्ति के लोग उत्पन्न हो रहे हैं। इस कारण उसने अपने शस्त्र-अस्त्रों को सुरक्षित स्थान पर रख दिया और स्वयं तपस्या, स्वाध्याय और साधना में लीन हो गया।’’
यह वृत्तान्त राम ने कुलपति से ही सुना था। अतः अब राक्षसों से जूझने का अवसर जान उसने शरभंग ऋषि के आश्रम का पता कर वहां जाना ही उचित समझा।
जिन दिनों कुलवन्त सिंह विष्णुशरण जी के इस ग्रन्थ का तीसरी बार परायण कर रहा था, भारत के पड़ोस पूर्व में लगभग वैसा ही काण्ड हो रहा था जैसा कि उस काल में दण्डकारण्य में घट रहा था।
भारत के एक कोने में पश्चिमी पाकिस्तान है और दूसरे कोने में पूर्वी पाकिस्तान। पाकिस्तान के बनने के समय यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि पाकिस्तान में बसे हुए हिन्दुओं का क्या होगा ? ऐसी किंवदन्ती थी कि उस समय अर्थात् सन् 1946 में हिन्दू महासभा के प्रधान श्री सावरकर थे। कांग्रेस दल के नेता महात्मा मोहनदास कर्मचन्द गाँधी से मिलने गये थे।
दिल्ली में इंग्लैण्ड से ‘केबिनेट मिशन’ आया हुआ था और वह हिन्दुस्तान के नेताओं से बातचीत कर यह निश्चय कर रहा था कि किस प्रकार और किसको राज्य सौंपा जाये ? मुसलमान समुदाय ने सामान्य रूप में ब्रिटिश राज्यकाल में और विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को सहयोग दिया था और उसके प्रतिकार में मुसलमान हिन्दुस्तान के एक क्षेत्र में इस्लामी राज्य की स्थापना चाहते थे। ‘ब्रिटिश केबिनेट मिशन’ भारत में यही जानने आया हुआ था कि किस प्रकार मुसलमानों को हिन्दुस्तानी राज्य में उचित स्थान मिल सकेगा ?
इन दिनों जब सावरकर ‘केबिनेट मिशन’ से भेंट के लिये दिल्ली आये हुए थे तो उन्होंने गांधी जी से मिलना भी उचित समझा।
दोनों नेताओं में ‘बिरला हाउस’ दिल्ली में भेंट हुई। वार्तालाप पृथक् में हुआ। सावरकर जी ने पूछ लिया, ‘‘आप पाकिस्तान बनने के पक्ष में हैं ?’’
‘‘मेरे पक्ष में होने न होने का प्रश्न नहीं है। यह तो मुसलमान समुदाय की माँग का प्रश्न है। मैं इसका बनना रोक नहीं सकता।’’ गांधी जी का कहना था।
‘‘इसको रोका जा सकता है।’’ सावरकर का कहना था।
‘‘कैसे ?’’
‘‘उस गृह-युद्ध में डट जाने से जो मुसलमानों ने आरम्भ कर रखा है।’’
‘‘मुझे तो यह कहीं दिखायी नहीं देता।’’
‘‘महात्मा जी ! मैं तो यह गृह-युद्ध सन् 1885 से आरम्भ हुआ समझता हूँ। मुसलमान यहां सात-आठ सौ वर्ष तक शासक रहे हैं; इस कारण वे अंग्रेजों से एक पराजित शासक के नाते विशेष सुविधायें चाहते हैं। मैं इसे ही युद्ध का आरम्भ समझता हूँ।’’
‘‘परन्तु क्या यह उनका दावा असत्य है ?’’
इस पर राम ने कहा, ‘‘लक्ष्मण ! तुम मेरे मन की भावना को ठीक समझे हो। बुराई से भागने पर बुराई पीछा करती है और भागते हुए को पराजित करने में सफल हो जाती है। इस काऱण मैं यहां से भाग नहीं रहा। परन्तु मैं एक और पाठ भी पढ़ा हूँ। वह यह कि आक्रमण करने वाले की प्रतीक्षा करना भी दुर्बलता और पराजय का लक्षण है। इस कारण यदि शत्रु का पता चल जाये कि वह कहां है, तो अपने को उस द्वारा आक्रमण करने की प्रतीक्षा करने के स्थान यह अधिक उचित होगा कि उस पर आक्रमण कर दिया जाये और उसे समाप्त कर दिया जाये। सुरक्षा में लड़ने के स्थान आक्रमण करना अधिक ठीक है।’
‘‘परन्तु भैया ! वे हैं कहां ?’’
‘‘देखो लक्ष्मण ! पंचवटी से कुछ अन्तर पर रावण के भाई खर ने एक जन-स्थान बसाया है। उसमें राक्षस सेना रहती है। हमें वहां ही चलना चाहिये।’’
‘‘परन्तु भैया ! क्या हम इन अस्त्र-शस्त्रों से जो हमारे पास हैं, एक सैनिक जनपद की विजय कर सकेंगे और फिर बिना सेना की सहायता के ?’’
‘‘यह बात विचारणीय है। इस पर भी ऐसा कर सकना असम्भव नहीं। इसके लिये हमें यत्न करना चाहिये। मेरी सूचना है कि दण्डकारण्य में एक शरभंग ऋषि रहते हैं। उन्होंने उस युद्ध में भाग लिया था जिसमें भगवान् विष्णु ने लंका राक्षसों से खाली करायी थी। उनके कार्य से प्रसन्न हो भगवान शिव ने उन्हें कुछ अस्त्र दिये थे जो विष्णु के सुदर्शन के तुल्य घातक तो नहीं, परन्तु देखते-देखते नगरों को समाप्त कर सकते हैं।’’
लक्ष्मण के भुजदण्ड फड़कने लगे और वह उत्तेजना में उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘तो भैया, चलो। यहां व्यर्थ में समय नष्ट करने से क्या लाभ है ?’’
राम ने भी अपना धनुष-बाण उठाया और सीता को ले वे तीनों दण्डकारण्य की ओर चल पड़े। घने वन में आगे-आगे राम, पीछे लक्ष्मण और बीच में सीता आगे बढ़ने लगे।
जब भी अमेरिकन अथवा रूसी उपन्यास पढ़ते-पढ़ते कुलवन्त का जी ऊब जाता, तो वह बाबा का यह हस्तलिखित ग्रन्थ निकाल पढ़ने लगता था। दो बार सम्पूर्ण परायण कर चुका था और अब वह तीसरी बार इसे पढ़ रहा था। जब-जब भी वह इसे पढ़ता उसे इसमें नया रस तथा कुछ न कुछ नयी बातें पता चलतीं जिससे उसके मन में नये विचार प्रस्फुटित होते। लिखित ग्रन्थ में उपरोक्त वृत्तान्त के उपरान्त गरिमा के नाम से प्रश्न लिखा हुआ था। गरिमा ने पूछा था, ‘‘बाबा ! क्या ये वन में रहने वाले ऋषि-मुनि शस्त्रास्त्र रखते थे ?’’
‘‘ऐसा ही प्रतीत होता है।’’ विष्णुशरण का उत्तर था, ‘‘इस पर भी आजकल से उस काल में कुछ विलक्षणता भी थी। विलक्षणता दो दिशाओं में प्रतीत होती है। एक तो यह कि इन अस्त्रों को किसी के द्वारा दिये जाने का अभिप्राय मैं यह समझा हूँ कि इनके निर्माण तथा प्रयोग का ढंग बताना। कुछ ऐसी विधि उन्होंने पता कर ली थी कि अकेला विद्वान कार्य कुशल व्यक्ति उन अस्त्रों को बना सकता था। इसे बनाने की विधि बताना ही अस्त्र देना कहा जाता था। साथ ही इन अस्त्रों में प्रयोग होने वाले बारूद अथवा गोली को ही बनाने की आवश्यकता होती थी और सामान्य धनुषों पर ही तीर की भाँति उनको फेंका जा सकता था। धनुष उस यन्त्र को कहते हैं जो किसी अस्त्र को दूर शत्रु पर फेंक सके।’’
‘‘दूसरी बात जो प्राचीन काल के शस्त्रास्त्र के विषय में पढ़ने में पता चलती है, वह यह कि इन अस्त्रों के रहस्य को कुछ ऋषि-महर्षियों के संरक्षण में ही रखा जाता था। देवता लोग इन शस्त्रास्त्रों के रहस्य को जानते थे। देवताओं के प्रमुख ब्रह्मा प्रायः सब प्रकार के शस्त्रास्त्रों के ज्ञाता थे और जो लोग उसे अपनी त्याग तपस्या से योग्यता सिद्ध कर देते थे, वे इन अस्त्रों के रहस्य को ब्रह्मा से पा जाते थे।’’
‘‘शरभंग ऋषि उनका प्रमुख था जो राक्षसों के अत्याचार से पीड़ित हो लंका राज्य से पलायन कर शिव के पास सहायता के लिये गया था। वह उनके प्रतिनिधि मण्डल को लेकर शिव और वहां से सहायता न मिलने पर विष्णु से सहायता मांगने गया था। तदनन्तर जब विष्णु अपने विमान पर राक्षसों का संहार कर रहा था, तो शरभंग एक छोटी-सी विस्थापितों की सेना के साथ भूमि पर राक्षसों को निःशेष करने में लीन था।’’
‘‘यह सब समाचार जब शिव को मिला तो उन्होंने प्रसन्न हो शरभंग को कुछ दिव्य अस्त्र दे दिये, जिससे वह अपने साथियों की रक्षा कर सकें।’’
‘‘जब तक शरभंग ऋषि युवा रहे तब तक वह राक्षसों के भारतवर्ष पर पदार्पण करने का विरोध करते रहे। ऋषिभारत में शेष रह गये राक्षसों को समाप्त करते रहे।’’
‘परन्तु राक्षस कोई जाति नहीं है। यह एक मानसिक प्रवृत्ति है और उस जाति में भी जो लंका के रहने वाले थे, भले, देवता प्रवृत्ति वाले लोग उपस्थित हैं और उन जातियों में भी जो राक्षस नहीं कहलाती, राक्षस प्रवृत्ति के लोग उत्पन्न हो रहे हैं। इस कारण उसने अपने शस्त्र-अस्त्रों को सुरक्षित स्थान पर रख दिया और स्वयं तपस्या, स्वाध्याय और साधना में लीन हो गया।’’
यह वृत्तान्त राम ने कुलपति से ही सुना था। अतः अब राक्षसों से जूझने का अवसर जान उसने शरभंग ऋषि के आश्रम का पता कर वहां जाना ही उचित समझा।
जिन दिनों कुलवन्त सिंह विष्णुशरण जी के इस ग्रन्थ का तीसरी बार परायण कर रहा था, भारत के पड़ोस पूर्व में लगभग वैसा ही काण्ड हो रहा था जैसा कि उस काल में दण्डकारण्य में घट रहा था।
भारत के एक कोने में पश्चिमी पाकिस्तान है और दूसरे कोने में पूर्वी पाकिस्तान। पाकिस्तान के बनने के समय यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि पाकिस्तान में बसे हुए हिन्दुओं का क्या होगा ? ऐसी किंवदन्ती थी कि उस समय अर्थात् सन् 1946 में हिन्दू महासभा के प्रधान श्री सावरकर थे। कांग्रेस दल के नेता महात्मा मोहनदास कर्मचन्द गाँधी से मिलने गये थे।
दिल्ली में इंग्लैण्ड से ‘केबिनेट मिशन’ आया हुआ था और वह हिन्दुस्तान के नेताओं से बातचीत कर यह निश्चय कर रहा था कि किस प्रकार और किसको राज्य सौंपा जाये ? मुसलमान समुदाय ने सामान्य रूप में ब्रिटिश राज्यकाल में और विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को सहयोग दिया था और उसके प्रतिकार में मुसलमान हिन्दुस्तान के एक क्षेत्र में इस्लामी राज्य की स्थापना चाहते थे। ‘ब्रिटिश केबिनेट मिशन’ भारत में यही जानने आया हुआ था कि किस प्रकार मुसलमानों को हिन्दुस्तानी राज्य में उचित स्थान मिल सकेगा ?
इन दिनों जब सावरकर ‘केबिनेट मिशन’ से भेंट के लिये दिल्ली आये हुए थे तो उन्होंने गांधी जी से मिलना भी उचित समझा।
दोनों नेताओं में ‘बिरला हाउस’ दिल्ली में भेंट हुई। वार्तालाप पृथक् में हुआ। सावरकर जी ने पूछ लिया, ‘‘आप पाकिस्तान बनने के पक्ष में हैं ?’’
‘‘मेरे पक्ष में होने न होने का प्रश्न नहीं है। यह तो मुसलमान समुदाय की माँग का प्रश्न है। मैं इसका बनना रोक नहीं सकता।’’ गांधी जी का कहना था।
‘‘इसको रोका जा सकता है।’’ सावरकर का कहना था।
‘‘कैसे ?’’
‘‘उस गृह-युद्ध में डट जाने से जो मुसलमानों ने आरम्भ कर रखा है।’’
‘‘मुझे तो यह कहीं दिखायी नहीं देता।’’
‘‘महात्मा जी ! मैं तो यह गृह-युद्ध सन् 1885 से आरम्भ हुआ समझता हूँ। मुसलमान यहां सात-आठ सौ वर्ष तक शासक रहे हैं; इस कारण वे अंग्रेजों से एक पराजित शासक के नाते विशेष सुविधायें चाहते हैं। मैं इसे ही युद्ध का आरम्भ समझता हूँ।’’
‘‘परन्तु क्या यह उनका दावा असत्य है ?’’
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