कविता संग्रह >> तार सप्तक तार सप्तकसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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कम ही होती हैं काव्य-कृतियाँ जो स्वयं इतिहास का एक अंग बन जाएँ और आगे के लिए दिशादृष्टि दे सकें—बिना अत्युक्तिभय के ‘तार सप्तक’ के लिए कहा जा सकता है।
Taar Saptak
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कम ही होती हैं काव्य-कृतियाँ जो स्वयं इतिहास का एक अंग बन जाएँ और आगे के लिए दिशा-दृष्टि दे सकें—बिना अत्युक्तिभय के ‘तार सप्तक’ के लिए कहा जा सकता है। इसके जो सात कवि 1943 के प्रयोगी थे वे आज के सन्दर्भ में हैं और उनका यह काव्य-संकलन आधुनिक हिन्दी काव्य के इतिहास में एक मील का पत्थर है, एक आलोकशिखा।... ‘तार सप्तक’ एक ऐतिहासिक दस्तावेज तो है ही, परवर्ती काव्य-प्रगति को समझने के लिए भी यह अनिवार्य है। लगभग सत्तर वर्ष पूर्व कवि अपने को अपने समय से किस ढंग से कैसे बाँध रहा था और वह सम्बन्ध किस प्रकार विभिन्न रूप भंगिमाएँ ग्रहण करता कहाँ पहुँचा है, इसके यथार्थ बोध की यह कृति इकाई भी है, दहाई भी। कहना असंगत न होगा कि समकालीन काव्य-इतिहास में ‘तार सप्तक’ ने जो स्थान पाया और जिस अर्थ और भाव में उसका प्रभाव परवर्ती काव्य-विकास में व्याप्त है, उसके व्यक्त-अव्यक्त इतिहास को प्रस्तुत प्रकाशन रेखांकित करता है। प्रत्येक संग्रहालय के लिए आवाश्यक, प्रत्येक समकालीन हिन्दी काव्य के अध्येता एवं जिज्ञासु के लिए अनिवार्य ‘तार सप्तक’ का प्रस्तुत है यह नवीन संस्करण।
परिदृष्टि : प्रतिदृष्टि
दूसरे संस्करण की भूमिका
‘तार सप्तक’ का प्रकाशन सन् 1943 में हुआ था। दूसरे संस्करण की भूमिका सन् 1963 में लिखी जा रही है। बीस वर्ष की एक पीढ़ी मानी जाती है। ‘वयमेव याताः’ के अनिवार्य नियम के अधीन ‘सप्तक’ के सहयोगी जो, 1943 के प्रयोगी थे, सन् 1963 के सन्दर्भ हो गये हैं। दिक्कालजीवी को इसे नियति मान कर ग्रहण करना चाहिए, पर प्रयोगशील कवि के बुनियादी पैंतरे में ही कुछ ऐसी बात थी कि अपने को इस नए रूप में स्वीकार करना उसके लिए कठिन हो। बूढ़े सभी होते हैं, लेकिन बुढ़ापा किस पर कैसा बैठता है, यह इस पर निर्भर रहता है कि उसका अपने जीवन से अपने अतीत और वर्तमान से (और अपने भविष्य से भी क्यों नहीं ?) कैसा सम्बन्ध रहता है। हमारी धारणा है कि ‘तार सप्तक’ ने जिन विविध नयी प्रवृतियों को संकेतित किया था उनमें एक यह भी रही कि कवि का युग-सम्बन्ध सदा के लिए बदल गया था।
इस बात को ठीक ऐसे ही सब कवियों ने सचेत रूप से अनुभव किया था, यह कहना झूठ होगा; बल्कि अधिक सम्भव यही है कि एक स्पष्ट, सुचिन्तित विचार के रूप में यह बात किसी भी कवि के सामने न आयी हो। लेकिन इतना असन्दिग्ध है कि सभी कवि अपने को अपने समय से एक नये ढंग से बाँध रहे थे। ‘उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा’ वाला पैंतरा न किसी कवि के लिए सम्भव रहा था, न किसी को स्वीकार्य था। सभी सबसे पहले समाजजीवी मानव प्राणी थे और ‘समानधर्मा’ का अर्थ उनके लिए ‘कवि-धर्मा’ से पहले मानवधर्मा था। यह भेद किया जा सकता है कि कुछ के लिए आधुनिकधर्मा होने का आग्रह पहले था और अपनी मानव-धर्मिता को वह आधुनिकता से अलग नहीं देख सकते थे, और दूसरे कुछ ऐसे थे जिन के लिए आधुनिकता मानव-धर्मिता का एक आनुपंगिक पहलू अथवा परिणाम था।
‘सप्तक’ के कवियों का विकास अपनी-अपनी अलग दिशा में हुआ है। सृजनशील प्रतिभा का धर्म है कि वह व्यक्तित्व ओढ़ती है। सृष्टियाँ जितनी भिन्न होती हैं स्रष्टा उससे कुछ कम विशिष्ट नहीं होते, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ ही उन की रचना में प्रतिबिम्बित होती हैं। यह बात उन पर भी लागू होती है जिन की रचना प्रबल वैचारिक आग्रह लिये रहती है, जब तक कि वह रचना है, निरा बैचारिक आग्रह नहीं है। कोरे वैचारिक आग्रह में अवश्य ऐसी एकरूपता हो सकती है कि उसमें व्यक्तित्वों को पहचानना कठिन हो जाये। जैसे शिल्पाश्रयी काव्य पर रीति हावी हो सकती है, वैसे ही मताग्रह पर भी रीति हावी हो सकती है। ‘सप्तक’ के कवियों के साथ ऐसा नहीं हुआ, सम्पादक की दृष्टि में यह उनकी अलग-अलग सफलता (या कि स्वस्थता) का प्रमाण है। स्वयं कवियों की राय इससे भिन्न भी हो सकती है-वे जानें।
इन बीस बर्षों में सातों कवियों की परस्पर अवस्थिति में विशेष अन्तर नहीं आया है। तब की सम्भावनाएँ अब की उपलब्धियों में परिणत हो गयी हैं—सभी बोधसत्त्व अब बुद्ध हो गये हैं। पर इन सात नये ध्यानी बुद्धों के परस्पर सम्बन्धों में विशेष अन्तर नहीं आया है। अब भी उनके बारे में उतनी ही सचाई के साथ कहा जा सकता है कि ‘‘उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है-जीवन के विषय में समाज और धर्म और राजनीति के विषय में, काव्य-वस्तु और शैली के, छन्द और तुक के, कवि के दायित्वों के—प्रत्येक विषय में उन का आपस में मतभेद है।’’ और यह बात भी उतनी ही सच है कि ‘‘वे सब परस्पर एक-दूसरे पर, दूसरे की रुचियों, कृतियों और आशाओं-विश्वासों पर और यहाँ तक कि एक-दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हँसते हैं’’ (सिवा इसके की इन पक्तियों को लिखते समय सम्पादक को जहाँ तक ज्ञान है, कुत्ता किसी कवि के पास नहीं है, और हँसी की पहले की सहजता में कभी कुछ व्यंग्य या विद्रूप का भाव भी आ जाता होगा !)
ऐसी परिस्थिति में ऐसा बहुत कम है जो निरपवाद रूप से सभी कवियों के बारे में कहा जा सकता है। ये मन के इतने भिन्न हैं कि सबको किसी एक सूत्र में गूँथने का प्रयास व्यर्थ ही होगा। कदाचित् एक बात—मात्रा-भेद की गुंजाइश रख कर—सब के बारे में कही जा सकती है। सभी चकित हैं कि ‘तार सप्तक’ ने समकालीन काव्य-इतिहास में अपना स्थान बना लिया है। प्रायः सभी ने यह स्वीकार भी कर लिया है। अपने कार्य का या प्रगति का, मूल्यांकन जो भी जैसा भी करा रहा हो, जिस की वर्तमान प्रवृत्ति जो हो, सभी ने यह स्थिति लगभग स्वीकार कर ली है कि उन्हें नगर के चौक में खम्भे से, या मील के पत्थर से बाँध कर नमूना बनाया जाये : ‘‘यह देखो और इससे शिक्षा ग्रहण करो !’’
कम से कम एक कवि का मुखर भाव ऐसा है, और कदाचित् दूसरों के मन में भी अव्यक्त रूप से हो, कि अच्छा होता अगर मान लिया जा सकता कि वह ‘तार सप्तक’ में संगृहीत था ही नहीं। इतिहास अपने चरित्रों या कठपुतलों को इसकी स्वतन्त्रता नहीं देता कि वह स्वयं अपने को ‘न हुआ’ मान लें। फिर भी मन का ऐसा भाव लक्ष्य करने लायक और नहीं तो इसलिए भी है कि वह परवर्ती साहित्य पर एक मन्तव्य भी तो है ही-समूचे साहित्य पर नहीं तो कम से कम ‘सप्तक’ के अन्य कवियों की कृतियों पर (और उससे प्रभावित दूसरे लेखन पर) तो अवश्य ही। असम्भव नहीं कि संकलित कवियों को अब इस प्रकार एक-दूसरे से सम्पृक्त हो कर लोगों के सामने उपस्थित होना कुछ अजब या असमंजसकारी लगता हो। लेकिन ऐसा है भी, तो उस असमंजस के बावजूद वे इस सम्पर्क को सह लेने को तैयार हो गये हैं। इसे सम्पादक अपना सौभाग्य मानता है। अपनी ओर से वह यह भी नहीं कहना चाहता कि स्वयं उसे इस सम्पृक्ति से कोई संकोच नहीं है। परवर्ती कुछ प्रवृत्तियाँ उसे हीन अथवा आपत्तिजनक भी जान पड़ती हैं, और निस्सन्देह इन में से कुछ सूत्र ‘तार सप्तक’ से जोड़ा जा सकता है या जोड़ दिया जायेगा; तथापि, सम्पादक की धारणा है कि ‘तार सप्तक’ ने अपने प्रकाशन का औचित्य प्रमाणित कर लिया। उसका पुनर्मुद्रण केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज को उपलभ्य बनाने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए भी संगत है कि परवर्ती काव्य-प्रगति को समझने के लिए इस का पढ़ना आवश्यक है। इन सात कवियों का एकत्रित होना अगर केवल संयोग भी था तो भी वह ऐसा ऐतिहासिक संयोग हुआ जिसका प्रभाव परवर्ती काव्य-विकास में दूर तक व्याप्त है।
इसी समकालीन अर्थवत्ता की पुष्टि के लिए प्रस्तुत संस्करण को केवल पुनर्मुद्रण तक सीमित न रख कर नया संवर्द्धित रूप देने का प्रयत्न किया गया है। ‘तार सप्तक’ के ऐतिहासिक रूप की रक्षा करते हुए जहाँ पहले की सब सामग्री—काव्य और वक्तव्य—अविकल रूप से दी जा रही है, वहाँ प्रत्येक कवि से उसकी परवर्ती प्रवृत्तियों पर भी कुछ विचार प्राप्त किये गये हैं। सम्पादक का विश्वास है कि यह प्रत्यवलोकन प्रत्येक कवि के कृतित्व को समझने के लिए उपयोगी होगा और साथ ही ‘तार सप्तक’ के पहले प्रकाशन से अब तक के काव्य-विकास पर भी नया प्रकाश डालेगा। एक पीढ़ी का अन्तराल पार करने के लिए प्रत्येक कवि की कम से कम एक-एक नयी रचना भी दे दी गयी है। इसी नयी सामग्री को पाप्त करने के प्रयत्न में ‘सप्तक’ इतने वर्षों तक अनुपलभ्य रहा। जिनके देर करने का डर था उनसे सहयोग तुरन्त मिला; जिनकी अनुकूलता का भरोसा था उन्होंने ही सबसे देर की—आलस्य या उदासीनता के कारण भी, असमंजस के कारण भी, और शायद अनभिव्यक्त आक्रोश के कारण भी : ‘जो पास रहे वे ही तो सबसे दूर रहे’। सम्पादक ने वह हठधर्मिता (बल्कि बेहयाई !) ओढ़ी होती जो पत्रकारिता (और सम्पादन) धर्म का अंग है, तो ‘सप्तक’ का पुनर्मुद्रण कभी न हो पाता : यह जहाँ अपने परिश्रम का दावा है, वहाँ अपनी हीनतर स्थिति का स्वीकार भी है।
पु्स्तक के बहिरंग के बारे में अधिक कुछ कहना आवश्यक नहीं है। पहले संस्करण में जो आदर्शवादिता झलकती थी, उसकी छाया कम से कम सम्पादक पर अब भी है, किन्तु काव्य-प्रकाशन के व्यावहारिक पहलू पर नया विचार करने के लिए अनुभव ने सभी को बाध्य किया है। पहले संस्करण से ‘उपलब्धि’ के नाम पर कवियों को केवल पुस्तक की कुछ प्रतियाँ ही मिलीं; बाकी जो कुछ उपलब्धि हुई वह भौतिक नहीं थी ! ‘सम्भाव्य आय को इसी प्रकार से दूसरे संकलन में लगाने’ का विचार भी उत्तम होते हुए भी वर्तमान परिस्थति में अनावश्यक हो गया है। रूप-सज्जा के बारे में भी स्वीकार करना होगा कि नये संस्करण पर परवर्ती ‘सप्तकों’ का प्रभाव पड़ा है। जो अतीत की अनुरूपता के प्रति विद्रोह करते हैं, वे प्रायः पाते हैं कि उन्होंने भावी की अनुरूपता पहले से स्वीकार कर ली थी ! विद्रोह की ऐसी विडम्बना कर सकना इतिहास के उन बुनियादी अधिकारों में से है जिस का वह बड़े निर्ममत्व से उपयोग करता है। नये संस्करण से उपलब्धि कुछ तो होगी, ऐसी आशा की जा सकती है। उसका उपयोग कौन कैसे करेगा यह योजनाधीन न होकर कवियों के विकल्प पर छोड़ दिया गया। वे चाहें तो उसे ‘तार सप्तक’ का प्रभाव मिटाने में या उसके संसर्ग की छाप धो डालने में भी लगा सकते हैं !
इस बात को ठीक ऐसे ही सब कवियों ने सचेत रूप से अनुभव किया था, यह कहना झूठ होगा; बल्कि अधिक सम्भव यही है कि एक स्पष्ट, सुचिन्तित विचार के रूप में यह बात किसी भी कवि के सामने न आयी हो। लेकिन इतना असन्दिग्ध है कि सभी कवि अपने को अपने समय से एक नये ढंग से बाँध रहे थे। ‘उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा’ वाला पैंतरा न किसी कवि के लिए सम्भव रहा था, न किसी को स्वीकार्य था। सभी सबसे पहले समाजजीवी मानव प्राणी थे और ‘समानधर्मा’ का अर्थ उनके लिए ‘कवि-धर्मा’ से पहले मानवधर्मा था। यह भेद किया जा सकता है कि कुछ के लिए आधुनिकधर्मा होने का आग्रह पहले था और अपनी मानव-धर्मिता को वह आधुनिकता से अलग नहीं देख सकते थे, और दूसरे कुछ ऐसे थे जिन के लिए आधुनिकता मानव-धर्मिता का एक आनुपंगिक पहलू अथवा परिणाम था।
‘सप्तक’ के कवियों का विकास अपनी-अपनी अलग दिशा में हुआ है। सृजनशील प्रतिभा का धर्म है कि वह व्यक्तित्व ओढ़ती है। सृष्टियाँ जितनी भिन्न होती हैं स्रष्टा उससे कुछ कम विशिष्ट नहीं होते, बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएँ ही उन की रचना में प्रतिबिम्बित होती हैं। यह बात उन पर भी लागू होती है जिन की रचना प्रबल वैचारिक आग्रह लिये रहती है, जब तक कि वह रचना है, निरा बैचारिक आग्रह नहीं है। कोरे वैचारिक आग्रह में अवश्य ऐसी एकरूपता हो सकती है कि उसमें व्यक्तित्वों को पहचानना कठिन हो जाये। जैसे शिल्पाश्रयी काव्य पर रीति हावी हो सकती है, वैसे ही मताग्रह पर भी रीति हावी हो सकती है। ‘सप्तक’ के कवियों के साथ ऐसा नहीं हुआ, सम्पादक की दृष्टि में यह उनकी अलग-अलग सफलता (या कि स्वस्थता) का प्रमाण है। स्वयं कवियों की राय इससे भिन्न भी हो सकती है-वे जानें।
इन बीस बर्षों में सातों कवियों की परस्पर अवस्थिति में विशेष अन्तर नहीं आया है। तब की सम्भावनाएँ अब की उपलब्धियों में परिणत हो गयी हैं—सभी बोधसत्त्व अब बुद्ध हो गये हैं। पर इन सात नये ध्यानी बुद्धों के परस्पर सम्बन्धों में विशेष अन्तर नहीं आया है। अब भी उनके बारे में उतनी ही सचाई के साथ कहा जा सकता है कि ‘‘उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है-जीवन के विषय में समाज और धर्म और राजनीति के विषय में, काव्य-वस्तु और शैली के, छन्द और तुक के, कवि के दायित्वों के—प्रत्येक विषय में उन का आपस में मतभेद है।’’ और यह बात भी उतनी ही सच है कि ‘‘वे सब परस्पर एक-दूसरे पर, दूसरे की रुचियों, कृतियों और आशाओं-विश्वासों पर और यहाँ तक कि एक-दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हँसते हैं’’ (सिवा इसके की इन पक्तियों को लिखते समय सम्पादक को जहाँ तक ज्ञान है, कुत्ता किसी कवि के पास नहीं है, और हँसी की पहले की सहजता में कभी कुछ व्यंग्य या विद्रूप का भाव भी आ जाता होगा !)
ऐसी परिस्थिति में ऐसा बहुत कम है जो निरपवाद रूप से सभी कवियों के बारे में कहा जा सकता है। ये मन के इतने भिन्न हैं कि सबको किसी एक सूत्र में गूँथने का प्रयास व्यर्थ ही होगा। कदाचित् एक बात—मात्रा-भेद की गुंजाइश रख कर—सब के बारे में कही जा सकती है। सभी चकित हैं कि ‘तार सप्तक’ ने समकालीन काव्य-इतिहास में अपना स्थान बना लिया है। प्रायः सभी ने यह स्वीकार भी कर लिया है। अपने कार्य का या प्रगति का, मूल्यांकन जो भी जैसा भी करा रहा हो, जिस की वर्तमान प्रवृत्ति जो हो, सभी ने यह स्थिति लगभग स्वीकार कर ली है कि उन्हें नगर के चौक में खम्भे से, या मील के पत्थर से बाँध कर नमूना बनाया जाये : ‘‘यह देखो और इससे शिक्षा ग्रहण करो !’’
कम से कम एक कवि का मुखर भाव ऐसा है, और कदाचित् दूसरों के मन में भी अव्यक्त रूप से हो, कि अच्छा होता अगर मान लिया जा सकता कि वह ‘तार सप्तक’ में संगृहीत था ही नहीं। इतिहास अपने चरित्रों या कठपुतलों को इसकी स्वतन्त्रता नहीं देता कि वह स्वयं अपने को ‘न हुआ’ मान लें। फिर भी मन का ऐसा भाव लक्ष्य करने लायक और नहीं तो इसलिए भी है कि वह परवर्ती साहित्य पर एक मन्तव्य भी तो है ही-समूचे साहित्य पर नहीं तो कम से कम ‘सप्तक’ के अन्य कवियों की कृतियों पर (और उससे प्रभावित दूसरे लेखन पर) तो अवश्य ही। असम्भव नहीं कि संकलित कवियों को अब इस प्रकार एक-दूसरे से सम्पृक्त हो कर लोगों के सामने उपस्थित होना कुछ अजब या असमंजसकारी लगता हो। लेकिन ऐसा है भी, तो उस असमंजस के बावजूद वे इस सम्पर्क को सह लेने को तैयार हो गये हैं। इसे सम्पादक अपना सौभाग्य मानता है। अपनी ओर से वह यह भी नहीं कहना चाहता कि स्वयं उसे इस सम्पृक्ति से कोई संकोच नहीं है। परवर्ती कुछ प्रवृत्तियाँ उसे हीन अथवा आपत्तिजनक भी जान पड़ती हैं, और निस्सन्देह इन में से कुछ सूत्र ‘तार सप्तक’ से जोड़ा जा सकता है या जोड़ दिया जायेगा; तथापि, सम्पादक की धारणा है कि ‘तार सप्तक’ ने अपने प्रकाशन का औचित्य प्रमाणित कर लिया। उसका पुनर्मुद्रण केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज को उपलभ्य बनाने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए भी संगत है कि परवर्ती काव्य-प्रगति को समझने के लिए इस का पढ़ना आवश्यक है। इन सात कवियों का एकत्रित होना अगर केवल संयोग भी था तो भी वह ऐसा ऐतिहासिक संयोग हुआ जिसका प्रभाव परवर्ती काव्य-विकास में दूर तक व्याप्त है।
इसी समकालीन अर्थवत्ता की पुष्टि के लिए प्रस्तुत संस्करण को केवल पुनर्मुद्रण तक सीमित न रख कर नया संवर्द्धित रूप देने का प्रयत्न किया गया है। ‘तार सप्तक’ के ऐतिहासिक रूप की रक्षा करते हुए जहाँ पहले की सब सामग्री—काव्य और वक्तव्य—अविकल रूप से दी जा रही है, वहाँ प्रत्येक कवि से उसकी परवर्ती प्रवृत्तियों पर भी कुछ विचार प्राप्त किये गये हैं। सम्पादक का विश्वास है कि यह प्रत्यवलोकन प्रत्येक कवि के कृतित्व को समझने के लिए उपयोगी होगा और साथ ही ‘तार सप्तक’ के पहले प्रकाशन से अब तक के काव्य-विकास पर भी नया प्रकाश डालेगा। एक पीढ़ी का अन्तराल पार करने के लिए प्रत्येक कवि की कम से कम एक-एक नयी रचना भी दे दी गयी है। इसी नयी सामग्री को पाप्त करने के प्रयत्न में ‘सप्तक’ इतने वर्षों तक अनुपलभ्य रहा। जिनके देर करने का डर था उनसे सहयोग तुरन्त मिला; जिनकी अनुकूलता का भरोसा था उन्होंने ही सबसे देर की—आलस्य या उदासीनता के कारण भी, असमंजस के कारण भी, और शायद अनभिव्यक्त आक्रोश के कारण भी : ‘जो पास रहे वे ही तो सबसे दूर रहे’। सम्पादक ने वह हठधर्मिता (बल्कि बेहयाई !) ओढ़ी होती जो पत्रकारिता (और सम्पादन) धर्म का अंग है, तो ‘सप्तक’ का पुनर्मुद्रण कभी न हो पाता : यह जहाँ अपने परिश्रम का दावा है, वहाँ अपनी हीनतर स्थिति का स्वीकार भी है।
पु्स्तक के बहिरंग के बारे में अधिक कुछ कहना आवश्यक नहीं है। पहले संस्करण में जो आदर्शवादिता झलकती थी, उसकी छाया कम से कम सम्पादक पर अब भी है, किन्तु काव्य-प्रकाशन के व्यावहारिक पहलू पर नया विचार करने के लिए अनुभव ने सभी को बाध्य किया है। पहले संस्करण से ‘उपलब्धि’ के नाम पर कवियों को केवल पुस्तक की कुछ प्रतियाँ ही मिलीं; बाकी जो कुछ उपलब्धि हुई वह भौतिक नहीं थी ! ‘सम्भाव्य आय को इसी प्रकार से दूसरे संकलन में लगाने’ का विचार भी उत्तम होते हुए भी वर्तमान परिस्थति में अनावश्यक हो गया है। रूप-सज्जा के बारे में भी स्वीकार करना होगा कि नये संस्करण पर परवर्ती ‘सप्तकों’ का प्रभाव पड़ा है। जो अतीत की अनुरूपता के प्रति विद्रोह करते हैं, वे प्रायः पाते हैं कि उन्होंने भावी की अनुरूपता पहले से स्वीकार कर ली थी ! विद्रोह की ऐसी विडम्बना कर सकना इतिहास के उन बुनियादी अधिकारों में से है जिस का वह बड़े निर्ममत्व से उपयोग करता है। नये संस्करण से उपलब्धि कुछ तो होगी, ऐसी आशा की जा सकती है। उसका उपयोग कौन कैसे करेगा यह योजनाधीन न होकर कवियों के विकल्प पर छोड़ दिया गया। वे चाहें तो उसे ‘तार सप्तक’ का प्रभाव मिटाने में या उसके संसर्ग की छाप धो डालने में भी लगा सकते हैं !
विवृति और पुरावृत्ति
प्रथम संस्करण की भूमिका
‘तार सप्तक’ में सात युवक कवियों (अथवा कवि-युवकों) की रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ कैसे एक जगह संगृहीत हुईं, इसका एक इतिहास है। कविता या संग्रह के विषय में कुछ कहने से पहले उस इतिहास के विषय में जान लेना उपयोगी होगा।
दो वर्ष हुए, जब दिल्ली में ‘अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन’ की आयोजना की गयी थी। उस समय कुछ उत्साही बन्धुओं ने विचार किया कि छोटे-छोटे फुटकर संग्रह छापने की बजाय एक संयुक्त संग्रह छापा जाये, क्योंकि छोटे-छोटे संग्रहों की पहले तो छपाई एक समस्या होती है, फिर छप कर भी वे सागर में एक बूँद-से खो जाते हैं। इन पंक्तियों का लेखक ‘योजना-विश्वासी’ के नाम से पहले ही बदनाम था, अतः यह नयी योजना तत्काल उसके पास पहुँची, और उसने अपने नाम (‘ब़दनाम होंगे तो क्या नाम न होगा !) के अनुसार उसे स्वीकार कर लिया।
आरम्भ में योजना का क्या रूप था, और किन-किन कवियों की बात उस समय सोची गयी थी, यह अब प्रसंग की बात नहीं रही। किन्तु यह सिद्धान्त रूप से मान लिया गया था कि योजना का मूल आधार सहयोग होगा, अर्थात् उसमें भाग लेने वाला प्रत्येक कवि पुस्तक का साक्षी होगा। चन्दा करके इतना धन उगाहा जायेगा कि काग़ज़ का मूल्य चुकाया जा सके; छपाई के लिए किसी प्रेस का सहयोग माँगा जायेगा की बिक्री की प्रतीक्षा करे या चुकाई में छपी हुई प्रतियाँ ले ले ! दूसरा मूल सिद्धान्त यह था कि संगृहीत कवि सभी ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं—जो यह दावा नहीं करते कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है, केवल अन्वेषी ही अपने को मानते हैं।
इस आधार पर संग्रह को व्यावहारिक रूप देने का दायित्व मेरे सिर पर डाला गया।
‘तार सप्तक’ का वास्तविक इतिहास यहीं से आरम्भ होता है; किन्तु जब कह चुका हूँ कि इसकी बुनियाद यहयोग पर खड़ी हुई, तब उसकी कमी की शिकायत करना उचित नहीं होगा। वह हम लोगों की आपस की बात है—पाठक के लिए सहयोग का लिए इतना प्रमाण काफ़ी है कि पुस्तक छप कर उसके सामने है !
अनेक परिवर्तनों के बाद जिन सात कवियों की रचनाएँ देने का निश्चय हुआ, उनसे हस्त-लिपियाँ प्राप्त करते-करते साल-भर बीत गया; फिर पुस्तक के प्रेस में दिये जाने पर प्रेस में गड़बड़ हुई और मुद्रक महोदय काग़ज़ हजम कर गये। साथ ही आधी पाण्डुलिपि रेलगाड़ी में खो गयी और संकोचवश इसकी सूचना भी किसी को नहीं दी जा सकी।
कुछ महीनों बाद जब कग़ज़ ख़रीदने के साधन फिर जुटने की आशा हुई तब फिर हस्त-लिपियों का संग्रह करने के प्रयत्न आरम्भ हुए और छह महीनों की दौड़-धूप के बाद पुस्तक फिर प्रेस में गयी। अब छप कर वह पाठक के सामने आ रही है। इसकी बिक्री से जो आमदनी होगी, वह पुनः इसी प्रकार के किसी प्रकाशन में लगायी जायेगी, यही सहयोग-योजना का उद्देश्य था-वह प्रकाशन चाहे काव्य हो, चाहे और कुछ। पुस्तक का दाम भी इतना रखा गया है कि बिक्री से लगभग उतनी ही आय हो जितनी की पूँजी उसमें लगी है, ताकि दूसरे ग्रंथ की व्यवस्था हो सके।
यह तो हुआ प्रकाशन का इतिहास। अब कुछ उसके अन्तरंग के विषय में भी कहूँ।
‘तार सप्तक’ में सात कवि संगृहीत हैं। सातों एक-दूसरे के परिचित हैं—बिना इसके इस ढंग का सहयोग कैसे होता है ? किन्तु इससे यह परिणाम न निकाला जाये कि ये कविता के किसी एक ‘स्कूल’ के कवि हैं, या कि साहित्य-जगत् के किसी गुट अथवा दल के सदस्य या समर्थक हैं। बल्कि उनके तो एकत्र होने का कारण ही यही है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं, किसी मंज़िल पर पहुँचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं—राही नहीं, राहों के अन्वेषी। उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है—जीवन के विषय में, समाज और धर्म और राजनीति के विषय में, काव्यवस्तु और शैली के, छन्द और तुक के, कवि के दायित्वों के—प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है। यहाँ तक कि हमारे जगत् के ऐसे सर्वमान्य और स्वयंसिद्ध मौलिक सत्यों को भी वे समान रूप से स्वीकार नहीं करते जैसे लोकतन्त्र की आवश्यकता, उद्योगों का समाजीकरण, यान्त्रिक युद्ध की उपयोगिता, वनस्पति घी की बुराई अथवा काननबाला और सहगल के गानों की उतकृष्टता इत्यादि। वे सब परस्पर एक दूसरे पर, एक दूसरे की रुचियों-प्रवृत्तियों और आशाओं-विश्वासों पर, एक-दूसरे की जीवन-परिपाटी पर और यहाँ तक की एक-दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हँसते हैं।
‘तार सप्तक’ का यह संस्करण बहुत बड़ा नहीं हैं, अतः आशा की जा सकती है कि उस के पाठक सभी न्यूनाधिक मात्रा में एकाधिक कवि से परिचित होंगे; तब वे जानेंगे कि ‘तार सप्तक’ किसी गुट का प्रकाशन नहीं है क्योंकि संगृहीत सात कवियों के साढ़े-सात अलग-अलग गुट हैं, उनके साढ़े सात व्यक्तित्व—साढ़े सात यों कि एक को अपने कवि-व्यक्तित्व के ऊपर संकलनकर्ता का आधा छद्म-व्यक्तित्व और लादना पड़ा है ! ऐसा होते हुए भी वे एकत्र संगृहीत हैं, इसका कारण पहले बताया जा चुका है। काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बाँधता है। इसका यह अभिप्राय नहीं है। कि प्रस्तुत संग्रह की सब रचनाएँ प्रयोगशीलता के नमूने हैं, या कि इन कवियों की रचनाएँ रूढ़ी से अछूती हैं या कि केवल यही कवि प्रयोगशील हैं और बाकी सब घास छीलने वाले, वैसा दावा यहाँ कदापि नहीं; दावा केवल इतना है कि ये सातों अन्वेषी हैं। ठीक यह सप्तक क्यों एकत्र हुआ, इसका उत्तर यह है कि परिचित और सहकार-योजना ने इसे ही सम्भव बनाया। इस नाते तीन-चार नाम और भी सामने आये थे, पर उनमें वह प्रयोगशीलता नहीं थी जिसे कसौटी मान लिया गया था, यद्यपि संग्रह पर उनका भी नाम होने से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती ही, घटती नहीं। संगृहीत कवियों में से ऐसा कोई भी नहीं जिसकी कविता केवल उसके नाम के सहारे खड़ी हो सके। सभी इसके लिए तैयार हैं कि कभी कसौटी हो, क्योंकि सभी अभी उस परमतत्त्व की शोध में ही लगे हैं, जिसे पा लेने पर कसौटी की ज़रूरत नहीं रहती, बल्कि जो कसौटी की ही कसौटी हो जाती है।
संग्रह के बहिरंग के बारे में भी कुछ कहना आवश्यक है। इधर कविता प्रायः चारों ओर बड़े-बड़े हाशिये दे कर सुन्दर सजावट के साथ छपती रही है। अगर कविता को शब्दों की मीनाकारी ही मान लिया जाये तब यह संगत भी है। ‘तार सप्तक’ की कविता वैसी जड़ाऊ कविता नहीं है; वह वैसी हो भी नहीं सकती। ज़माना था जब तलवारें और तोपें भी जड़ाऊ होती थीं; पर अब गहने भी धातु को साँचों में ढाल कर बनाये जाते हैं और हीरे भी तप्त धातु की सिकुड़न के दबाव से बँधे हुए कड़ों से ! ‘तार सप्तक’ में रूप-सज्जा को गौण मान कर अधिक से अधिक सामग्री देने का उद्योग किया गया। इसे पाठक के प्रति ही नहीं, लेखक के प्रति भी कर्तव्य समझा गया है, क्योंकि जो कोई भी जनता के सामने आता है वह अन्ततः दावेदार है, और जब दावेदार है तो अपने पक्ष के लिए उसे पर्याप्त सामग्री ले कर आना चाहिए। योजना थी कि प्रत्येक कवि साधारण छापे का एक फार्म दे अथवा लेगा; इस बड़े आकार में जितनी सामग्री प्रत्येक की है, वह एक फ़ार्म से कम नहीं है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए मानना पड़ेगा कि ‘तार सप्तक’ में उतने ही दामों की तीन पुस्तकों की सामग्री सस्ते और सुलभ रूप में दी जा रही है।
और यदि पाठक सोचे की ऐसा प्रचार प्रकाशकोचित है, सम्पादकोचित नहीं, तो उस का उत्तर स्पष्ट है कि इस सहोद्योगी योजना में ‘तार सप्तक’ के लेखक ही उसके प्रकाशक और सम्पादक भी हैं, और अपने-अपने जीवनीकार भी और प्रवक्ता भी। और (यह धृष्टता नहीं है, केवल अपने कर्म का फल भोगने की तत्परता है !) वे सभी इसके लिए भी तैयार हैं कि ‘तार सप्तक’ के पाठक वे ही रह जायें ! क्योंकि जो प्रयोग करता है, उसे अन्वेषित विषय का मोह नहीं होना चाहिए।
कवियों का अनुक्रम किसी हद तक आकस्मिक है; जहाँ वह इच्छित है वहाँ उसका उद्देश्य यही रहा है कि कुल सामग्री को सर्वाधिक प्रभावोत्पादक ढंग से उपस्थित किया जाये। संकलन कर्ता अन्त में आता है क्योंकि वह संकलनकर्ता है। अनुक्रम मात्र से कवियों के पद-गौरव के बारे में कोई परिणाम निकालना, या उस विषय में संकलनकर्ता की सम्पत्ति की खोज लगाना, मूर्खता होगी।
दो वर्ष हुए, जब दिल्ली में ‘अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन’ की आयोजना की गयी थी। उस समय कुछ उत्साही बन्धुओं ने विचार किया कि छोटे-छोटे फुटकर संग्रह छापने की बजाय एक संयुक्त संग्रह छापा जाये, क्योंकि छोटे-छोटे संग्रहों की पहले तो छपाई एक समस्या होती है, फिर छप कर भी वे सागर में एक बूँद-से खो जाते हैं। इन पंक्तियों का लेखक ‘योजना-विश्वासी’ के नाम से पहले ही बदनाम था, अतः यह नयी योजना तत्काल उसके पास पहुँची, और उसने अपने नाम (‘ब़दनाम होंगे तो क्या नाम न होगा !) के अनुसार उसे स्वीकार कर लिया।
आरम्भ में योजना का क्या रूप था, और किन-किन कवियों की बात उस समय सोची गयी थी, यह अब प्रसंग की बात नहीं रही। किन्तु यह सिद्धान्त रूप से मान लिया गया था कि योजना का मूल आधार सहयोग होगा, अर्थात् उसमें भाग लेने वाला प्रत्येक कवि पुस्तक का साक्षी होगा। चन्दा करके इतना धन उगाहा जायेगा कि काग़ज़ का मूल्य चुकाया जा सके; छपाई के लिए किसी प्रेस का सहयोग माँगा जायेगा की बिक्री की प्रतीक्षा करे या चुकाई में छपी हुई प्रतियाँ ले ले ! दूसरा मूल सिद्धान्त यह था कि संगृहीत कवि सभी ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं—जो यह दावा नहीं करते कि काव्य का सत्य उन्होंने पा लिया है, केवल अन्वेषी ही अपने को मानते हैं।
इस आधार पर संग्रह को व्यावहारिक रूप देने का दायित्व मेरे सिर पर डाला गया।
‘तार सप्तक’ का वास्तविक इतिहास यहीं से आरम्भ होता है; किन्तु जब कह चुका हूँ कि इसकी बुनियाद यहयोग पर खड़ी हुई, तब उसकी कमी की शिकायत करना उचित नहीं होगा। वह हम लोगों की आपस की बात है—पाठक के लिए सहयोग का लिए इतना प्रमाण काफ़ी है कि पुस्तक छप कर उसके सामने है !
अनेक परिवर्तनों के बाद जिन सात कवियों की रचनाएँ देने का निश्चय हुआ, उनसे हस्त-लिपियाँ प्राप्त करते-करते साल-भर बीत गया; फिर पुस्तक के प्रेस में दिये जाने पर प्रेस में गड़बड़ हुई और मुद्रक महोदय काग़ज़ हजम कर गये। साथ ही आधी पाण्डुलिपि रेलगाड़ी में खो गयी और संकोचवश इसकी सूचना भी किसी को नहीं दी जा सकी।
कुछ महीनों बाद जब कग़ज़ ख़रीदने के साधन फिर जुटने की आशा हुई तब फिर हस्त-लिपियों का संग्रह करने के प्रयत्न आरम्भ हुए और छह महीनों की दौड़-धूप के बाद पुस्तक फिर प्रेस में गयी। अब छप कर वह पाठक के सामने आ रही है। इसकी बिक्री से जो आमदनी होगी, वह पुनः इसी प्रकार के किसी प्रकाशन में लगायी जायेगी, यही सहयोग-योजना का उद्देश्य था-वह प्रकाशन चाहे काव्य हो, चाहे और कुछ। पुस्तक का दाम भी इतना रखा गया है कि बिक्री से लगभग उतनी ही आय हो जितनी की पूँजी उसमें लगी है, ताकि दूसरे ग्रंथ की व्यवस्था हो सके।
यह तो हुआ प्रकाशन का इतिहास। अब कुछ उसके अन्तरंग के विषय में भी कहूँ।
‘तार सप्तक’ में सात कवि संगृहीत हैं। सातों एक-दूसरे के परिचित हैं—बिना इसके इस ढंग का सहयोग कैसे होता है ? किन्तु इससे यह परिणाम न निकाला जाये कि ये कविता के किसी एक ‘स्कूल’ के कवि हैं, या कि साहित्य-जगत् के किसी गुट अथवा दल के सदस्य या समर्थक हैं। बल्कि उनके तो एकत्र होने का कारण ही यही है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं, किसी मंज़िल पर पहुँचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं—राही नहीं, राहों के अन्वेषी। उनमें मतैक्य नहीं है, सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर उनकी राय अलग-अलग है—जीवन के विषय में, समाज और धर्म और राजनीति के विषय में, काव्यवस्तु और शैली के, छन्द और तुक के, कवि के दायित्वों के—प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है। यहाँ तक कि हमारे जगत् के ऐसे सर्वमान्य और स्वयंसिद्ध मौलिक सत्यों को भी वे समान रूप से स्वीकार नहीं करते जैसे लोकतन्त्र की आवश्यकता, उद्योगों का समाजीकरण, यान्त्रिक युद्ध की उपयोगिता, वनस्पति घी की बुराई अथवा काननबाला और सहगल के गानों की उतकृष्टता इत्यादि। वे सब परस्पर एक दूसरे पर, एक दूसरे की रुचियों-प्रवृत्तियों और आशाओं-विश्वासों पर, एक-दूसरे की जीवन-परिपाटी पर और यहाँ तक की एक-दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हँसते हैं।
‘तार सप्तक’ का यह संस्करण बहुत बड़ा नहीं हैं, अतः आशा की जा सकती है कि उस के पाठक सभी न्यूनाधिक मात्रा में एकाधिक कवि से परिचित होंगे; तब वे जानेंगे कि ‘तार सप्तक’ किसी गुट का प्रकाशन नहीं है क्योंकि संगृहीत सात कवियों के साढ़े-सात अलग-अलग गुट हैं, उनके साढ़े सात व्यक्तित्व—साढ़े सात यों कि एक को अपने कवि-व्यक्तित्व के ऊपर संकलनकर्ता का आधा छद्म-व्यक्तित्व और लादना पड़ा है ! ऐसा होते हुए भी वे एकत्र संगृहीत हैं, इसका कारण पहले बताया जा चुका है। काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बाँधता है। इसका यह अभिप्राय नहीं है। कि प्रस्तुत संग्रह की सब रचनाएँ प्रयोगशीलता के नमूने हैं, या कि इन कवियों की रचनाएँ रूढ़ी से अछूती हैं या कि केवल यही कवि प्रयोगशील हैं और बाकी सब घास छीलने वाले, वैसा दावा यहाँ कदापि नहीं; दावा केवल इतना है कि ये सातों अन्वेषी हैं। ठीक यह सप्तक क्यों एकत्र हुआ, इसका उत्तर यह है कि परिचित और सहकार-योजना ने इसे ही सम्भव बनाया। इस नाते तीन-चार नाम और भी सामने आये थे, पर उनमें वह प्रयोगशीलता नहीं थी जिसे कसौटी मान लिया गया था, यद्यपि संग्रह पर उनका भी नाम होने से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती ही, घटती नहीं। संगृहीत कवियों में से ऐसा कोई भी नहीं जिसकी कविता केवल उसके नाम के सहारे खड़ी हो सके। सभी इसके लिए तैयार हैं कि कभी कसौटी हो, क्योंकि सभी अभी उस परमतत्त्व की शोध में ही लगे हैं, जिसे पा लेने पर कसौटी की ज़रूरत नहीं रहती, बल्कि जो कसौटी की ही कसौटी हो जाती है।
संग्रह के बहिरंग के बारे में भी कुछ कहना आवश्यक है। इधर कविता प्रायः चारों ओर बड़े-बड़े हाशिये दे कर सुन्दर सजावट के साथ छपती रही है। अगर कविता को शब्दों की मीनाकारी ही मान लिया जाये तब यह संगत भी है। ‘तार सप्तक’ की कविता वैसी जड़ाऊ कविता नहीं है; वह वैसी हो भी नहीं सकती। ज़माना था जब तलवारें और तोपें भी जड़ाऊ होती थीं; पर अब गहने भी धातु को साँचों में ढाल कर बनाये जाते हैं और हीरे भी तप्त धातु की सिकुड़न के दबाव से बँधे हुए कड़ों से ! ‘तार सप्तक’ में रूप-सज्जा को गौण मान कर अधिक से अधिक सामग्री देने का उद्योग किया गया। इसे पाठक के प्रति ही नहीं, लेखक के प्रति भी कर्तव्य समझा गया है, क्योंकि जो कोई भी जनता के सामने आता है वह अन्ततः दावेदार है, और जब दावेदार है तो अपने पक्ष के लिए उसे पर्याप्त सामग्री ले कर आना चाहिए। योजना थी कि प्रत्येक कवि साधारण छापे का एक फार्म दे अथवा लेगा; इस बड़े आकार में जितनी सामग्री प्रत्येक की है, वह एक फ़ार्म से कम नहीं है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए मानना पड़ेगा कि ‘तार सप्तक’ में उतने ही दामों की तीन पुस्तकों की सामग्री सस्ते और सुलभ रूप में दी जा रही है।
और यदि पाठक सोचे की ऐसा प्रचार प्रकाशकोचित है, सम्पादकोचित नहीं, तो उस का उत्तर स्पष्ट है कि इस सहोद्योगी योजना में ‘तार सप्तक’ के लेखक ही उसके प्रकाशक और सम्पादक भी हैं, और अपने-अपने जीवनीकार भी और प्रवक्ता भी। और (यह धृष्टता नहीं है, केवल अपने कर्म का फल भोगने की तत्परता है !) वे सभी इसके लिए भी तैयार हैं कि ‘तार सप्तक’ के पाठक वे ही रह जायें ! क्योंकि जो प्रयोग करता है, उसे अन्वेषित विषय का मोह नहीं होना चाहिए।
कवियों का अनुक्रम किसी हद तक आकस्मिक है; जहाँ वह इच्छित है वहाँ उसका उद्देश्य यही रहा है कि कुल सामग्री को सर्वाधिक प्रभावोत्पादक ढंग से उपस्थित किया जाये। संकलन कर्ता अन्त में आता है क्योंकि वह संकलनकर्ता है। अनुक्रम मात्र से कवियों के पद-गौरव के बारे में कोई परिणाम निकालना, या उस विषय में संकलनकर्ता की सम्पत्ति की खोज लगाना, मूर्खता होगी।
मुक्तिबोध, गजानन माधव
[मुक्तिबोध, गजानन माधव : जन्म नवम्बर 1917 में ग्वालियर के एक क़सबे में हुआ, जहाँ सौ साल पहले कवि के पूर्वज आ बसे थे। पिता के पुलिस सब-इन्सपेक्टर होने के कारण और बार-बार बदली होने के कारण मुक्तिबोध की पढ़ाई का सिलसिला टूटता जुड़ता रहा; फलतः 1930 में उज्जैन में मिडिल परीक्षा में असफलता मिली जिसे कवि अपने जीवन की ‘पहली महत्त्वपूर्ण घटना ’ मानता है। उस के बाद पढ़ाई का सिलसिला ठीक चला; और साथ ही जीवन के प्रति नयी संवेदना की जागरूकता बढ़ने लगी। सन् 1935 में (माधव कॉलेज, उज्जैन में) साहित्य-लेखन आरम्भ हुआ। सन् 1938 में बी. ए. पास किया; 1939 में विवाह; उसके बाद ‘‘निम्न-मध्यवर्गीय निष्क्रिय मास्टरी, जो अब तक है।’’
‘‘मालवे के एक औद्योगिक केन्द्र में जिसमें बड़े शहरों के गुणों को छोड़कर उसकी सब विशेषताएँ हैं, यह बन्दा रोज़ ज़िन्दा रहता है। नियमानुकूल बारह बजे दोपहर स्कूल जाता है; लौटती बार अपने पैरों से अपनी सिगरेट पर ज्यादा भरोसा रखता हुआ घर की ओर चल पड़ता है। साँझ सात बजे पान वाले की दुकान पर नित्य मिलता है। उज्जैन के फ़्रीगंज में कहीं भी इस व्यक्ति को मटरगश्ती करते हुए आप पा सकते हैं।’’
1943 से-
‘‘नौकरियाँ पकड़ता-छोड़ता रहा। शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ। निम्न मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवा-दारू, जन्म-मृत्यु ।’’
जीवन की स्मरणीय घटनाओं में विशेष उल्लेखनीय है ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ नामक पुस्तक का प्रकाशन और उस के परिणाम। यह पुस्तक मध्यप्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा पाठ्य-पुस्तक भी स्वीकार हुई और उसी सरकार द्वारा लोक सुरक्षा क़ानून के अधीन अवैध भी घोषित हुई। उस के विरोध में आन्दोलन हुए, परचेबाज़ी हुई, कुछ नगरों में पुस्तक की होली जलायी गयी, सम्प्रदायवादी तत्त्वों ने उग्र विरोध किया। ‘‘किसी लेखक के लिए उसकी पुस्तक का ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया जाना एक विलक्षण अनुभव होता है—प्रेम के अनुभव-जैसा ही तीव्र और अविस्मरणीय !’’
‘कामायनी : एक पुनर्विचार प्रकाशित हो चुकी है। ‘नयी कविता का आत्म-संघर्ष’ नामक निबन्ध संग्रह प्रकाशक के पास है।
‘‘मेरा मन नव-क्लासिकवाद की तरफ दौड़ रहा है, अर्थात् ऐसी काव्य-रचना की ओर जिसका कथ्य व्यापक हो, जिसमें जीवन के विश्लेषित तथ्यों और उन के संश्लिष्ट निष्कर्षों का चित्रण हो। पता नहीं यह मुझसे कहाँ तक सधेगा।’’
11 सितम्बर 1964 को लम्बी बीमारी के बाद मुक्तिबोध का निधन हो गया। कविता संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, निबन्ध-संग्रह ‘एक साहित्यिक की डायरी’, उपन्यास ‘विपात्र’, तथा दो कहानी-संग्रह ‘सतह से उठता आदमी’, और ‘काठ का सपना’ मरणोत्तर प्रकाशित हुए।]
वक्तव्य
मालवे के विस्तीर्ण मनोहर मैदानों में से घूमती हुई क्षिप्रा की रक्त-भव्य साँझें और विविध-रूप वृक्षों को छायाएँ मेरे किशोर कवि की आद्य सौन्दर्य-प्रेरणाएँ थीं। उज्जैन नगर के बाहर का यह विस्तीर्ण निसर्गलोक उस व्यक्ति के लिए, जिसकी मनोरचना में रंगीन आवेग ही प्राथमिक है, अत्यन्त आत्मीय था।
उस के बाद इन्दौर में प्रथमतः ही मुझे अनुभव हुआ कि यह सौन्दर्य ही मेरे काव्य का विषय हो सकता है। इस के पहले उज्जैन में स्व. रमाशंकर शुक्ल के स्कूल की कविताएँ—जो माखनलाल स्कूल की निकली हुई शाखा थी- मुझे प्रभावित करती रहीं, जिन की विशेषता थी बात को सीधा न रखकर उसे केवल सूचित करना। तर्क यह था कि वह अधिक प्रबल होकर आती है। परिणाम यह था कि अभिव्यंजना उलझी हुई प्रतीत होती थी। काव्य का विषय भी मूलतः विरह-जन्य करुणा और जीवन-दर्शन ही था। मित्र कहतें है कि उनका प्रभाव मुझ पर से अब तक नहीं गया है। इन्दौर में मित्रों के सहयोग और सहायता से मैं अपने आन्तरिक क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ और पुरानी उलझन-भरी अभिव्यक्ति और अमूर्त करुणा छोड़ कर नवीन सौन्दर्य-क्षेत्र के प्रति जागरूक हुआ। यह मेरी प्रथम आत्मचेतना थी। उन दिनों भी एक मानसिक संघर्ष था। एक ओर हिन्दी का यह नवीन सौन्दर्य-काव्य था, तो दूसरी ओर मेरे बाल-मन पर मराठी साहित्य के अधिक मानवतामय उपन्यास-लोक का भी सुकुमार परन्तु तीव्र प्रभाव था। तॉल्स्तॉय के मानवीय समस्या-सम्बन्धी उपन्यास—या महादेवी वर्मा ? समय का प्रभाव कहिए या वय की माँग, या दोनों, मैंने हिन्दी के सौन्दर्य-लोक को ही अपना क्षेत्र चुना; और मन की दूसरी माँग वैसे ही पीछे रह गयी जैसे अपने आत्मीय राह में पीछे रह कर भी साथ चले चलते हैं।
मेरे बाल-मन की पहली भूख सौन्दर्य और दूसरी विश्व-मानव का सुख-दुःख—इन दोनों का संघर्ष मेरे साहित्यक जीवन की पहली उलझन थी। इस का स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान मुझे किसी से न मिला। परिणाम था कि इन अनेक आन्तरिक द्वन्दों के कारण एक ही काव्य-विषय नहीं रह सका। जीवन के एक ही बाजू को ले कर मैं कोई सर्वाश्लेषी दर्शन की मीनार खड़ी न कर सका।
साथ ही जिज्ञासा के विस्तार के कारण कथा की ओर मेरी प्रवृत्ति बढ़ गयी।
इस का द्वन्द्व मन में पहले से ही था। कहानी लेखन आरम्भ करते ही मुझे अनुभव हुआ कि कथा-तत्त्व मेरे उतना ही समीप है जितना काव्य। परन्तु कहानियों में बहुत ही थोड़ा लिखता था, अब भी कम लिखता हूँ। परिणामतः काव्य को मैं उतना ही समीप रखने लगा जितना कि स्पन्दन; इसीलिए काव्य को व्यापक करने की, अपनी जीवन-सीमा से उस की सीमा को मिला देने की चाह दुनिर्वार होने लगी। और मेरे काव्य का प्रवाह बदला।
दूसरी ओर, दार्शनिक प्रवृत्ति-जीवन और जगत् के द्वन्द्व-जीवन के आन्तरिक द्वन्द्व—इन सबको सुलझाने की, और एक अनुभव सिद्ध व्यवस्थित तत्त्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात् कर लेने की दुर्दम प्यास मन में हमेशा रहा करती। आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करने वाला सशक्त कारण यही प्रवृत्ति थी। सन् 1935 में काव्य आरम्भ किया था, सन् 1936 से 1938 तक काव्य के पीछे कहानी चलती रही। 1938 से 1942 तक के पाँच साल मानसिक संघर्ष और बर्गसोनीय व्यक्तिवाद के वर्ष थे। आन्तरिक विनष्ट शान्ति के और शारीरिक ध्वंस के इस समय में मेरा व्यक्तिवाद कवच की भाँति काम करता था। बर्गसों की स्वतन्त्र क्रियमाण ‘जीवन-शक्ति’ (elan vital) के प्रति मेरी आस्था बढ़ गयी थी। परिणामतः काव्य और कहानी नये रूप प्राप्त करते हुए भी अपने ही आस-पास घूमते थे, उन की गति ऊर्ध्वमुखी न थी।
सन् 1942 के प्रथम और अन्तिम चरण में एक ऐसी विरोधी शक्ति के सम्मुख आया, जिस की प्रतिकूल आलोचना से मुझे बहुत कुछ सीखना था। सुजालपुर की अर्ध नागरिक रम्य एक स्वरता के वातावरण में मेरा वातवरण भी जो मेरी आन्तरिक चीज है-पनपता था। यहाँ लगभग एक साल में मैं ने जो पाँच साल का पुराना जड़त्व निकालने में सफल-असफल कोशिश की, इस उद्योग के लिए प्रेरणा, विवेक और शान्ति मैं ने एक ऐसी जगह से पायी, जिसे पहले मैं विरोधी शक्ति मानता था।
क्रमशः मेरा झुकाव मार्कशवाद की ओर हुआ। अधिक वैज्ञानिक, अधिक मूर्त और अधिक तेजस्वी दृष्टिकोण मुझे प्राप्त हुआ। शुजालपुर में पहले-पहल मैंने कथातत्त्व के सम्बन्ध में आत्म-विश्वास पाया। दूसरे अपने काव्य की अस्पष्टता पर मेरी दृष्टि गयी, तीसरे नये विकास पथ की तलाश हुई।
यहाँ यह स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं की मेरी हर विकास-स्थिति में मुझे घोर असन्तोष रहा और है। मानसिक द्वन्द्व मेरे व्यक्तित्व में बद्धमूल है। यह मैं निकटता से अनुभव करता आ रहा हूँ कि जिस भी क्षेत्र में मैं हूँ वह स्वयं अपूर्ण है, और उसका ठीक-ठीक प्रकटीकरण भी नहीं हो रहा है। फलतः गुप्त अशान्ति मन के अन्दर घर किये रहती है।
लेखन के विषय में :
मैं कलाकार की ‘स्थानान्तरगामी प्रवृत्ति’ (माइग्रेशन इंस्टिक्ट) पर बहुत ज़ोर देता हूँ। आज के वैविध्यमय, उलझन से भरे रंग-बिरंगे जीवन को यदि देखना है, तो अपने वैयक्तिक क्षेत्र से एक बार तो उड़कर बाहर जाना ही होगा। बिना उसके, इस विशाल जीवन-समुद्र की परिसीमा, उस के तट-प्रदेशों के भू-खण्ड, आँखों से ओट ही रह जायेंगे। कला का केन्द्र व्यक्ति है, पर उसी केन्द्र को अब दिशाव्यापी करने की आवश्यकता है। फिर युगसन्धि-काल में कार्यकर्ता उत्पन्न होते हैं, कलाकार नही, इस धारणा को वास्तविकता के द्वारा ग़लत साबित करना ही पड़ेगा।
मेरी कविताओं के प्रान्त-परिवर्तन का कारण है यही आन्तरिक जिज्ञासा। परन्तु इस जिज्ञासु-वृत्ति का वास्तव (ऑब्जेक्टिव) रूप अभी तक कला में नहीं पा सका हूँ। अनुभव कर रहा हूँ कि वह उपन्यास द्वारा ही प्राप्त हो सकेगा। वैसे काव्य में जीवन के चित्र की—यथा वैज्ञानिक ‘टाइप’ की—उद्भावन की, अथवा शुद्ध शब्द-चित्रात्मक कविता हो सकती है। इन्हीं के प्रयोग मैं करना चाहता हूँ। पुरानी परम्परा बिलकुल छूटती नहीं है, पर वह परम्परा है मेरी ही और उस का प्रसार अवश्य होना चाहिए।
जीवन के इस वैविध्यमय विकास-स्रोत को देखने के लिए इन भिन्न-भिन्न काव्य-रूपों को, यहाँ तक की नाट्य-तत्त्व को, कविता में स्थान देने की आवश्यकता है। मैं चाहता हूँ कि इसी दिशा में मेरे प्रयोग हों।
मेरी ये कविताएँ अपना पथ ढूँढ़ने वाले बेचैन मन की ही अभिव्यक्ति हैं। उन का सत्य और मूल्य उसी जीवन-स्थिति में छिपा है।
‘‘मालवे के एक औद्योगिक केन्द्र में जिसमें बड़े शहरों के गुणों को छोड़कर उसकी सब विशेषताएँ हैं, यह बन्दा रोज़ ज़िन्दा रहता है। नियमानुकूल बारह बजे दोपहर स्कूल जाता है; लौटती बार अपने पैरों से अपनी सिगरेट पर ज्यादा भरोसा रखता हुआ घर की ओर चल पड़ता है। साँझ सात बजे पान वाले की दुकान पर नित्य मिलता है। उज्जैन के फ़्रीगंज में कहीं भी इस व्यक्ति को मटरगश्ती करते हुए आप पा सकते हैं।’’
1943 से-
‘‘नौकरियाँ पकड़ता-छोड़ता रहा। शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ। निम्न मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवा-दारू, जन्म-मृत्यु ।’’
जीवन की स्मरणीय घटनाओं में विशेष उल्लेखनीय है ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ नामक पुस्तक का प्रकाशन और उस के परिणाम। यह पुस्तक मध्यप्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा पाठ्य-पुस्तक भी स्वीकार हुई और उसी सरकार द्वारा लोक सुरक्षा क़ानून के अधीन अवैध भी घोषित हुई। उस के विरोध में आन्दोलन हुए, परचेबाज़ी हुई, कुछ नगरों में पुस्तक की होली जलायी गयी, सम्प्रदायवादी तत्त्वों ने उग्र विरोध किया। ‘‘किसी लेखक के लिए उसकी पुस्तक का ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया जाना एक विलक्षण अनुभव होता है—प्रेम के अनुभव-जैसा ही तीव्र और अविस्मरणीय !’’
‘कामायनी : एक पुनर्विचार प्रकाशित हो चुकी है। ‘नयी कविता का आत्म-संघर्ष’ नामक निबन्ध संग्रह प्रकाशक के पास है।
‘‘मेरा मन नव-क्लासिकवाद की तरफ दौड़ रहा है, अर्थात् ऐसी काव्य-रचना की ओर जिसका कथ्य व्यापक हो, जिसमें जीवन के विश्लेषित तथ्यों और उन के संश्लिष्ट निष्कर्षों का चित्रण हो। पता नहीं यह मुझसे कहाँ तक सधेगा।’’
11 सितम्बर 1964 को लम्बी बीमारी के बाद मुक्तिबोध का निधन हो गया। कविता संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’, निबन्ध-संग्रह ‘एक साहित्यिक की डायरी’, उपन्यास ‘विपात्र’, तथा दो कहानी-संग्रह ‘सतह से उठता आदमी’, और ‘काठ का सपना’ मरणोत्तर प्रकाशित हुए।]
वक्तव्य
मालवे के विस्तीर्ण मनोहर मैदानों में से घूमती हुई क्षिप्रा की रक्त-भव्य साँझें और विविध-रूप वृक्षों को छायाएँ मेरे किशोर कवि की आद्य सौन्दर्य-प्रेरणाएँ थीं। उज्जैन नगर के बाहर का यह विस्तीर्ण निसर्गलोक उस व्यक्ति के लिए, जिसकी मनोरचना में रंगीन आवेग ही प्राथमिक है, अत्यन्त आत्मीय था।
उस के बाद इन्दौर में प्रथमतः ही मुझे अनुभव हुआ कि यह सौन्दर्य ही मेरे काव्य का विषय हो सकता है। इस के पहले उज्जैन में स्व. रमाशंकर शुक्ल के स्कूल की कविताएँ—जो माखनलाल स्कूल की निकली हुई शाखा थी- मुझे प्रभावित करती रहीं, जिन की विशेषता थी बात को सीधा न रखकर उसे केवल सूचित करना। तर्क यह था कि वह अधिक प्रबल होकर आती है। परिणाम यह था कि अभिव्यंजना उलझी हुई प्रतीत होती थी। काव्य का विषय भी मूलतः विरह-जन्य करुणा और जीवन-दर्शन ही था। मित्र कहतें है कि उनका प्रभाव मुझ पर से अब तक नहीं गया है। इन्दौर में मित्रों के सहयोग और सहायता से मैं अपने आन्तरिक क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ और पुरानी उलझन-भरी अभिव्यक्ति और अमूर्त करुणा छोड़ कर नवीन सौन्दर्य-क्षेत्र के प्रति जागरूक हुआ। यह मेरी प्रथम आत्मचेतना थी। उन दिनों भी एक मानसिक संघर्ष था। एक ओर हिन्दी का यह नवीन सौन्दर्य-काव्य था, तो दूसरी ओर मेरे बाल-मन पर मराठी साहित्य के अधिक मानवतामय उपन्यास-लोक का भी सुकुमार परन्तु तीव्र प्रभाव था। तॉल्स्तॉय के मानवीय समस्या-सम्बन्धी उपन्यास—या महादेवी वर्मा ? समय का प्रभाव कहिए या वय की माँग, या दोनों, मैंने हिन्दी के सौन्दर्य-लोक को ही अपना क्षेत्र चुना; और मन की दूसरी माँग वैसे ही पीछे रह गयी जैसे अपने आत्मीय राह में पीछे रह कर भी साथ चले चलते हैं।
मेरे बाल-मन की पहली भूख सौन्दर्य और दूसरी विश्व-मानव का सुख-दुःख—इन दोनों का संघर्ष मेरे साहित्यक जीवन की पहली उलझन थी। इस का स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान मुझे किसी से न मिला। परिणाम था कि इन अनेक आन्तरिक द्वन्दों के कारण एक ही काव्य-विषय नहीं रह सका। जीवन के एक ही बाजू को ले कर मैं कोई सर्वाश्लेषी दर्शन की मीनार खड़ी न कर सका।
साथ ही जिज्ञासा के विस्तार के कारण कथा की ओर मेरी प्रवृत्ति बढ़ गयी।
इस का द्वन्द्व मन में पहले से ही था। कहानी लेखन आरम्भ करते ही मुझे अनुभव हुआ कि कथा-तत्त्व मेरे उतना ही समीप है जितना काव्य। परन्तु कहानियों में बहुत ही थोड़ा लिखता था, अब भी कम लिखता हूँ। परिणामतः काव्य को मैं उतना ही समीप रखने लगा जितना कि स्पन्दन; इसीलिए काव्य को व्यापक करने की, अपनी जीवन-सीमा से उस की सीमा को मिला देने की चाह दुनिर्वार होने लगी। और मेरे काव्य का प्रवाह बदला।
दूसरी ओर, दार्शनिक प्रवृत्ति-जीवन और जगत् के द्वन्द्व-जीवन के आन्तरिक द्वन्द्व—इन सबको सुलझाने की, और एक अनुभव सिद्ध व्यवस्थित तत्त्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात् कर लेने की दुर्दम प्यास मन में हमेशा रहा करती। आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करने वाला सशक्त कारण यही प्रवृत्ति थी। सन् 1935 में काव्य आरम्भ किया था, सन् 1936 से 1938 तक काव्य के पीछे कहानी चलती रही। 1938 से 1942 तक के पाँच साल मानसिक संघर्ष और बर्गसोनीय व्यक्तिवाद के वर्ष थे। आन्तरिक विनष्ट शान्ति के और शारीरिक ध्वंस के इस समय में मेरा व्यक्तिवाद कवच की भाँति काम करता था। बर्गसों की स्वतन्त्र क्रियमाण ‘जीवन-शक्ति’ (elan vital) के प्रति मेरी आस्था बढ़ गयी थी। परिणामतः काव्य और कहानी नये रूप प्राप्त करते हुए भी अपने ही आस-पास घूमते थे, उन की गति ऊर्ध्वमुखी न थी।
सन् 1942 के प्रथम और अन्तिम चरण में एक ऐसी विरोधी शक्ति के सम्मुख आया, जिस की प्रतिकूल आलोचना से मुझे बहुत कुछ सीखना था। सुजालपुर की अर्ध नागरिक रम्य एक स्वरता के वातावरण में मेरा वातवरण भी जो मेरी आन्तरिक चीज है-पनपता था। यहाँ लगभग एक साल में मैं ने जो पाँच साल का पुराना जड़त्व निकालने में सफल-असफल कोशिश की, इस उद्योग के लिए प्रेरणा, विवेक और शान्ति मैं ने एक ऐसी जगह से पायी, जिसे पहले मैं विरोधी शक्ति मानता था।
क्रमशः मेरा झुकाव मार्कशवाद की ओर हुआ। अधिक वैज्ञानिक, अधिक मूर्त और अधिक तेजस्वी दृष्टिकोण मुझे प्राप्त हुआ। शुजालपुर में पहले-पहल मैंने कथातत्त्व के सम्बन्ध में आत्म-विश्वास पाया। दूसरे अपने काव्य की अस्पष्टता पर मेरी दृष्टि गयी, तीसरे नये विकास पथ की तलाश हुई।
यहाँ यह स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं की मेरी हर विकास-स्थिति में मुझे घोर असन्तोष रहा और है। मानसिक द्वन्द्व मेरे व्यक्तित्व में बद्धमूल है। यह मैं निकटता से अनुभव करता आ रहा हूँ कि जिस भी क्षेत्र में मैं हूँ वह स्वयं अपूर्ण है, और उसका ठीक-ठीक प्रकटीकरण भी नहीं हो रहा है। फलतः गुप्त अशान्ति मन के अन्दर घर किये रहती है।
लेखन के विषय में :
मैं कलाकार की ‘स्थानान्तरगामी प्रवृत्ति’ (माइग्रेशन इंस्टिक्ट) पर बहुत ज़ोर देता हूँ। आज के वैविध्यमय, उलझन से भरे रंग-बिरंगे जीवन को यदि देखना है, तो अपने वैयक्तिक क्षेत्र से एक बार तो उड़कर बाहर जाना ही होगा। बिना उसके, इस विशाल जीवन-समुद्र की परिसीमा, उस के तट-प्रदेशों के भू-खण्ड, आँखों से ओट ही रह जायेंगे। कला का केन्द्र व्यक्ति है, पर उसी केन्द्र को अब दिशाव्यापी करने की आवश्यकता है। फिर युगसन्धि-काल में कार्यकर्ता उत्पन्न होते हैं, कलाकार नही, इस धारणा को वास्तविकता के द्वारा ग़लत साबित करना ही पड़ेगा।
मेरी कविताओं के प्रान्त-परिवर्तन का कारण है यही आन्तरिक जिज्ञासा। परन्तु इस जिज्ञासु-वृत्ति का वास्तव (ऑब्जेक्टिव) रूप अभी तक कला में नहीं पा सका हूँ। अनुभव कर रहा हूँ कि वह उपन्यास द्वारा ही प्राप्त हो सकेगा। वैसे काव्य में जीवन के चित्र की—यथा वैज्ञानिक ‘टाइप’ की—उद्भावन की, अथवा शुद्ध शब्द-चित्रात्मक कविता हो सकती है। इन्हीं के प्रयोग मैं करना चाहता हूँ। पुरानी परम्परा बिलकुल छूटती नहीं है, पर वह परम्परा है मेरी ही और उस का प्रसार अवश्य होना चाहिए।
जीवन के इस वैविध्यमय विकास-स्रोत को देखने के लिए इन भिन्न-भिन्न काव्य-रूपों को, यहाँ तक की नाट्य-तत्त्व को, कविता में स्थान देने की आवश्यकता है। मैं चाहता हूँ कि इसी दिशा में मेरे प्रयोग हों।
मेरी ये कविताएँ अपना पथ ढूँढ़ने वाले बेचैन मन की ही अभिव्यक्ति हैं। उन का सत्य और मूल्य उसी जीवन-स्थिति में छिपा है।
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