लोगों की राय

कविता संग्रह >> मधुबाला

मधुबाला

हरिवंशराय बच्चन

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5679
आईएसबीएन :9788170283560

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

96 पाठक हैं

यौवन के रस और ज्वार से भरपूर कविताओं का यह संग्रह..

Madhubala

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अग्रणी कवि बच्चन की कविता का आरंभ तीसरे दशक के मध्य ‘मधु’ अथवा मदिरा के इर्द-गिर्द हुआ और ‘मधुशाला’ से आरंभ कर ‘मधुबाला’ और ‘मधुकलश’ एक-एक वर्ष के अंतर से प्रकाशित हुए। ये बहुत लोकप्रिय हुए और प्रथम ‘मधुशाला’ ने तो धूम ही मचा दी। यह दरअसल हिन्दी साहित्य की आत्मा का ही अंग बन गई है और कालजयी रचनाओं की श्रेणी में खड़ी हुई है।
इन कविताओं की रचना के समय कवि की आयु 27-28 वर्ष की थी, अत: स्वाभाविक है कि ये संग्रह यौवन के रस और ज्वार से भरपूर हैं। स्वयं बच्चन ने इन सबको एक साथ पढ़ने का आग्रह किया है।

कवि ने कहा है : ‘‘आज मदिरा लाया हूं-जिसे पीकर भविष्यत् के भय भाग जाते हैं और भूतकाल के दुख दूर हो जाते हैं...., आज जीवन की मदिरा, जो हमें विवश होकर पीनी पड़ी है, कितनी कड़वी है। ले, पान कर और इस मद के उन्माद में अपने को, अपने दुख को, भूल जा।’’

 

अपने पाठकों से

 

 

(आठवें संस्करण की भूमिका)

 

‘मधुबाला’ का आठवाँ संस्करण प्रकाशित होने जा रहा है। स्वाभाविक है, इस बात से मुझे बड़ी प्रसन्नता है। नया संस्करण इस बात का सबूत है कि जनता मेरी यह रचना आज भी संग्रह करना चाहती थी, पढ़ना चाहती है और इसका रस लेना चाहती है। जब कभी मुझे उनके समझ आने का अवसर मिला है, यानी कवि-सम्मेलनों या गोष्ठियों में, तो मैंने उसे ‘मधुबाला’ की कविताओं को सुनने के लिए उत्सुक पाया है। मैं स्वयं सब लोगों के प्रति आभारी हूँ जिन्होंने मेरी रचना का आनन्द स्वयं लेकर औरों को भी इसका आनन्द लेने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित किया है। किसी भी पुस्तक के सबसे बड़े प्रचारक उसके पाठक होते हैं। उन्हीं की रसिकता और सहृदयता से यह रचना इतने दिनों से चाव के साथ पढ़ी जाती रही है, और मुझे आशा है, आगे भी पढ़ी जाती रहेगी।

‘मधुबाला’ की कविताओं की रचना 1934-35 में हुई थी, इसका प्रथम संस्करण 1936 में हुआ था। बीस-बाईस वर्ष का समय, विशेषकर तीव्र गति से भागते हुए आधुनिक युग में, जनता की रुचि-रुझान को परिवर्तित कर देने के लिए बहुत पर्याप्त है। फिर भी इन कविताओं की ओर जनता का आकर्षण घटा नहीं। कवि का आदर्श तो यही होना चाहिए कि वह काव्य के ऐसे रमणीय रूप का निर्माण करे जिसमें दिनानुदिन नवीनता का आभास होता रहे। यह बहुत ऊँची बात हुई। लेकिन यदि किसी रचना पर प्राय: चौथाई शताब्दी तक काल की छाया न पड़े तो वह थोड़ी-बहुत बधाई की पात्र तो समझी ही जाएगी।

प्राय: देखने में आता है कि दुनिया में कवि और प्रेमी के प्रति ईर्ष्या रखने वाले, उनसे विरोध करने वाले जितने लोग पैदा हो जाते हैं उतने किसी और के प्रति नहीं :

 

प्रेमियों के प्रति रही है, हाय कितनी क्रूर दुनिया !

 

(निशा निमन्त्रण)

 

मेरी इन रचनाओं के प्रति भी बड़ा क्रोध-विरोध प्रकट किया गया था। जो ज़बान चला सकते थे उन्होंने ज़बान चलाई, जो कलम चला सकते थे उन्होंने क़लम चलाई-किन्ही लोगों ने गद्य में, किन्हीं ने पद्य में। इनके ऊपर व्यंग्य-काव्य लिखे गए, पैरोडियाँ लिखी गईं-एक-एक कविता पर एक-एक नहीं, दो-दो, चार-चार। मेरे एक मित्र का कहना है कि मेरी कविताओं पर जितनी पैरोडियाँ लिखी गई हैं उतनी हिन्दी के शायद किसी कवि पर लिखी गई हों। शुरु-शुरु में इन आक्रमणों से मेरे मन को बड़ी चोट पहुँचती थी। सुना होगा, ऐसे ही कटु प्रहारों से अंग्रेज़ी कवि कीट्स को तपेदिक हो गया था, जिसने उन्हें असमय ही संसार से उठा लिया था।

 

इहाँ कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं !

 

इनके विरुद्ध मेरी प्रतिक्रियाएँ जहाँ-तहाँ मेरी रचनाओं में मौजूद हैं। इनसे मेरे प्रेमी पाठकों को भी दुख होता था। बहुत से मुझे सहानुभूति के पत्र लिखते थे।

 

किन्तु अन्त में दुनिया हारी
और हमीं-तुम जीते !

 

(मिलन यामिनी)

 

एक बात का संतोष मुझे तब भी था। मेरी पुस्तकों की बराबर माँग रहती थी और जब सभा-सम्मेलनों में कविताएँ सुनाता था तो जनता उनसे रस लेती थी, उन पर झूमती थी। कविता से एक माँग मैंने हमेशा की है कि वह लिखने वाले को आनन्द दे, सुनाने वाले को आनन्द दे, पढ़नेवाले को आनन्द दे, और कविता को आँख से नहीं, मुँह से पढ़ना चाहिए।
कवि और जनता का संबंध स्वस्थ काव्य के सृजन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यह संबंध तभी बना रह सकता है जब कवि आत्मविश्वासी हो और उसे जनता की सुरुचि में आस्था हो। जहाँ इसका अभाव है वहाँ तरह-तरह के विकार उत्पन्न हो जाते हैं-आप मेरी भूमिका लिख दीजिए, आप मेरी रचना पर सम्मति लिख दीजिए, आप मेरी समालोचना कर दीजिए; कविताएँ तो मैंने उच्च कोटि की लिखीं, पर जनता में उसे समझने की बुद्धि ही नहीं है, मुझे समझने वाली जनता का अभी जन्म ही नहीं हुआ, मुझे तो लोग दो सौ बरस बाद समझेंगे, मेरी कविता इतनी मौलिक है कि परखने के लिए एक विशेष वर्ग का पाठक चाहिए, आदि-आदि। इसका सबसे विकृत रूप आज अनेक ऐसे कवियों में देखा जाता है जिनके पाठक तो हैं तीन, पर समालोचक तेरह ! उनकी कविताओं की चर्चा निर्जीव स्याही से, मुर्दा कागज़ों पर तो बहुत होती है, पर सजीव धड़कते हुए हृदय से उनकी प्रतिध्वनियाँ नहीं आतीं।

मुझे अपने देशवासियों की, हिन्दीभाषियों की, हिन्दी पाठकों की, हिन्दी काव्यप्रेमियों की रुझान, रुचि तथा रसिकता में विश्वास रहा है इस कारण मैंने उनके सामने अपनी कविता रख दी है और चुप रहा हूँ। उसमें यदि कुछ है तो वे खुद देखेंगे, परखेंगे, उसका आनन्द लेंगे। अगर नहीं है तो साक्षात् सरस्वती की सौगन्ध खाने से भी न मानेंगे। प्रजातन्त्र की स्वतंत्रता साहित्य के राज्य का अजेय सिद्धान्त है। वहाँ न तानाशाही चलती है और न गुरुडम चलता है। जनता ने मेरी कविता से जो प्राप्त किया है वही वास्तव में मेरा दान हैं-शेष मेरा दम्भ है, मेरी असफलता है। जो उन्हें नहीं मिला, उसके देने की साखी स्वयं चित्रगुप्त भी भरें तो मुझे विश्वास नहीं होगा। मेरा दावा इसके अलावा कुछ नहीं है कि मैं एक जीवित, जाग्रत, संवेदनशील जनसमूह के साथ हूँ, कभी अपने अन्त:स्वर से उसे मुखरित करते, कभी उसके अन्त:स्वर से स्वयं मुखरित होते।

जिन दिनों मैं मधुबाला की कविताएँ लिख रहा था, उन दिनों छायावाद के विरोध में प्रगतिवाद की चर्चा यत्र-तत्र सुनाई पड़ने लगी थी। एक प्रगतिशील महोदय ने मुझसे एक दिन कहा, ‘‘बच्चन जी, आप जनवादी कविताएँ क्यों नहीं लिखते ?’’
मैंने कहा, ‘‘मैं तो जनवादी कविताएँ ही लिखता हूँ। जनवादी कविता वह कविता है जिसको जनता पढ़े, सुने, अपनाए। काव्य-प्रेमी जनता वाद-विवाद के चक्कर में नहीं पड़ती, यह तो समालोचकों के चोंचले हैं; वह तो देखती है कि रचना में रस है कि नहीं।’’ और जिसे प्रगतिवादी युग कहा जाता है उसमें यही कविताएँ सबसे अधिक पढ़ी, सुनी, गाई जाती रही हैं।
खैर, ‘मधुबाला’ के नये पाठक से मैं सिर्फ़ इतना जानना चाहूँगा कि आपने इस पुस्तक से जो प्रत्याशाएँ की हों, वे पूरी हों। अगर इसके पहले आपने ‘मधुशाला’ नहीं पढ़ी तो पहले उसे पढ़ लीजिए, तब इसे पढ़िए। फिर ‘मधुकलश’ पढ़िए।
अन्त में इस पुस्तक के प्रूफ़ देखने के लिए मैं अपने शिष्य और सहयोगी श्री अजित शंकर चौधरी का आभारी हूँ।

 

जुलाई, 1956 77, साउथ एवेन्यू, नई दिल्ली

 

-बच्चन

 

मधुबाले,
उस दिन मेरी और अपनी अश्रु-धारा के संगम पर तूने मुझे विश्वास दिलाया था कि तुझे सूनी, अँधेरी और भयावनी मधुशाला से मेरी आर्त पुकार सुन पड़ी थी और तू ही मधु को सागर-तट से लौटा लाई थी, जहाँ वह मुझसे ऊबकर पुन: अपने को सिंधु-तरंगों में विलीन कर देने के लिए तुझे साथ लेकर चला गया था।
मेरी पुकार में इतनी शक्ति है। इसी विश्वास से जी सका था। यद्यपि अब जीवन अभिशाप ही है, तो भी अपने जीवन से संबद्ध चिर-सरल मूर्तियों का ध्यान कर, कृतज्ञता-ज्ञापन के रूप में अपनी यह कृति दृगों के तरल, नीरव, नम्र आशीर्वाद के साथ तुझे समर्पित करता हूँ। मानता हूँ, विश्व के जीवन में मधु का और तेरा सदा स्थान रहे।

 

22 दिसम्बर, 1935

 

चिर-कृतज्ञ
मैं

 

प्रलाप

 

 

उषा प्रति प्रभात में नई साड़ी पहनकर प्राची के प्रांगण में पदार्पण करती है। उसके सस्मित नयनों में रहती है आशा और विश्वास की आभा; आज जो तेरा परिधान संभवत: अवश्य ही पसन्द किया जाएगा- इसी विचार की छाया-सी। परन्तु क्षण-भर में उसे देखकर कोई जैसे कह देता है, नहीं, यह मुझे पसन्द नहीं, कोई दूसरी साड़ी पहनकर आ। और, उषा लौट जाती है, दूसरे दिन एक नूतन पट धारण कर उपस्थित होने की तैयारी करने !

मार्तंड उदय होता है, अपने प्रकाश का भंडार लिए। अपने अगणित करों से दिन भर अवनि और अंबर को ज्योतिर्मय बनाने का अविरल प्रयत्न करता है और सन्ध्या को कोई प्राची के क्षितिज से बोल उठता है, आज भी पृथ्वी पर न जाने कितने स्थानों पर अन्धकार ही छाया रह गया। और, सूर्य चला जाता है लज्जारक्त मुख लेकर, दूसरे दिन और भी अधिक लगन के साथ वसुन्धरा का आँचल प्रकाश से भरने की तैयारी करने !

यामिनी आती है। सारी रात गगन-अट्टालिका को दीपमाला से सुसज्जित करती रहती है। एक-एक दीप यही कहता-सा रहता है कि आज की सजावट तो अवश्य ही प्रियतम को लुभा लेगी। परन्तु, प्रभात में प्राची के वातायन से कोई मुसकराकर कह जाता है, आज का श्रृंगार भी मेरे मन का न हो सका। अश्रु-बिन्दुओं से भू के तृण-तृण को भिगोकर यामिनी विदा लेती है, दूसरी रात्रि में गगन-प्रासाद के दीपों को किसी अन्य प्रकार से सजाने की आयोजना करने !

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book