लोगों की राय

कविता संग्रह >> सन्नाटे में दूर तक

सन्नाटे में दूर तक

अमृता भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 573
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

44 पाठक हैं

अमृता भारती की श्रेष्ठ कविताओं का संग्रह..

Sannate Main Dur Tak - A hindi Book by - Amrita Bharti सन्नाटे में दूर तक - अमृता भारती

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मेरी कविताओं में दुनिया बहुत कम है-यदि है तो किसी ‘निहितार्थ’ के अन्दर, या किसी प्रतिभास के रूप में। पर इसका कारण न तो अनजानापन है न निरासक्ति का भाव, न संवेदनशीलता की कमी- बल्कि एक प्रतीक्षा है- मेरे और इस दुनिया के बीच किसी सच्चे प्रयोजन की प्रतीक्षा।
‘एक कारण और भी है- वह है मेरे अन्दर भाव या अभाव के रूप में किसी और की ‘उपस्थिति’ का निरन्तर बने रहना, जो मेरी चेतना में एक ऐसी विद्यमानता को रचती है कि मेरा सारा जुड़ाव वहीं केंद्रित हो जाता है।
‘कविता का कोई अलग सत्य नहीं होता- मेरा सत्य ही कविता का सत्य है, और वह सदा ही अन्वेषणीय है- नित्य नवीन रूप से।
‘इतने छोटे से प्रकाश में
मुझे लिखनी है
अँधेरे में रखी वह इतनी बड़ी कविता’
ये शब्द हैं अमृता भारती के अपने, जो व्यक्त करते हैं प्रस्तुत संग्रह की कविताओं के रचना प्रयोजन को और उनके स्वरूप और सन्दर्भ को।
अमृता भारती की रचना ‘मैं तट पर हूँ’ के बाद, सहृदय पाठकों को समर्पित है उनकी यह नवीनतम कृति ‘सन्नाटे में दूर तक’।

दो शब्द


मैं और मेरी कविता के बीच फ़ासला इतना कम या नहीं के बराबर है कि कविता के बारे में कुछ कहना अपने ही बारे में कहने जैसा ही हो जाता है और यह एक संकटपूर्ण स्थित है। जब कविताओं में दुनिया हो, तब कहना आसान होता है, क्योंकि तब दृष्टि बाहर की तरफ़ होती है और वह चीज़ों को उस रूप में प्रस्तुत कर देती है जहाँ वे हैं—पर जब दृष्टि अन्दर की तरफ़ हो तो वह चीज़ों को वहाँ देखना शुरू कर देती है जहाँ उन्हें होना चाहिए—मनुष्य को, समाज को, दुनिया को, सम्बन्धों को—यहां तक कि वस्तुओं को भी—इनकी मूल या मौलिक प्रकृति के अन्दर।

मेरी कविताओं में दुनिया बहुत कम है—यदि है तो किसी ‘निहितार्थ’ के अन्दर, या किसी प्रतिभास के रूप में। पर इसका कारण न तो अनजानापन है, न निरासक्ति का भाव, न संवेदनशीलता की कमी—बल्कि एक प्रतीक्षा है, मेरे और इस दुनिया के बीच, किसी सच्चे प्रयोजन की प्रतीक्षा।...अभी इस क्षण, जैसे मैं दुनिया में गहरे पैठ नहीं पाती हूँ, वैसे ही उसे भी अपने अन्दर बहुत दूर तक खींच नहीं पाती हूँ, इसीलिए कविताओं में भी उसकी प्रवेश ऊपरी परतों तक ही सीमित हो जाता है—वक्तव्य, प्रतिबिम्बित या प्रतिक्रिया के रूप में—जबकि ये तीनों ही चीज़ें कविता नहीं हैं या पूर्ण कविता नहीं हैं।
मुझे एक कारण और भी मिलता है—वह मेरे अन्दर ‘भाव’ या ‘अभाव’ के रूप में किसी और ‘उपस्थिति’ का निरन्तर बने रहना, जो मेरे चेतना में एक ऐसी विद्यमानता को रचती है कि मेरा सारा जुड़ाव वहीं केन्द्रित हो जाता है। ‘एक संन्यासी के प्रति कुछ अन्तरस्थ क्षण’ उसी व्यक्त या अव्यक्त उपस्थिति की कविताएँ हैं।

जो जगत के लिए रहस्यात्मक है, वह मेरे लिए अत्यन्त वास्तविक है। इसलिए मैं कहीं भी अपने को अमूर्त नहीं पाती—न अपने जीवन में, न अपनी कविताओं में। बल्कि कुछ आधिक्य के साथ ही मैंने उस सुसंहति का अनुभव किया है जो मुझे बाहर के संसार में खोयी हुई लगती है। कविता का अलग कोई सत्य नहीं होता—मेरा सत्य ही मेरी कविता का सत्य है-और वह सदा ही अन्वेषणीय है नित्य नवीन रूप से। अपनी कविता में मैं अपने अन्दर निरन्तर बड़े हो रहे सत्य शब्द को दे सकूँ, कवि के रूप में यही मेरी कृतार्थता है।

अमृता भारती

पुरुष-सूक्त : अँधेरे की ऋचा


(एक)


वह एक समय था।
मैं पहाड़ों से चाँदनी की तरह उतरा करती थी
और मैंदानों में नदी की तरह फैल जाती थी
मेरे अन्दर हिम-संस्कृति की गरिमा थी
और हरे दृश्यों की पवित्रता।

मैं प्रेम करना चाहती थी
और रास्ते के
उस किसी भी पेड़, टेकरी या पहाड़ को
गिरा देना चाहती थी
जो मेरी रुकावट बनता था।
वह पेड़ भाई हो सकता था
वह टेकरी बहिन
और वह पहाड़ पिता हो सकता था।

मैं उन्हें याद करती हूँ
व्यक्तिगत अंक से कटे हुए शून्यों की तरह-अपने
प्रेमी या प्रेमपात्रों को,
वे एक या दो या तीन या
असंख्य भी हो सकते हैं।
उनके शरीर पर कवच थे
और पैर घुटनों तक जूते में बँधे थे
उनके सिर पर लोहे के टोप थे
और उनकी तलवारें अपशब्दों की तरह थीं—
जिन्हें वे हवा में उछालते हुए चलते थे।

वे अपने और अपनों के हितों के बारे में
आशंकित रहने वाले लोग थे।
जब कभी
उनकी रोटी, शराब या औरत में
कोई चीज़ कम हो जाती थी
तो वे छाती कूट कर रोते थे
वे अपने मरे हुए पुरखों की उन रातों के लिए भी रोते थे
जो उन्होंने घरेलू कलह के दौरान
औरतों के बिना गुज़ारी थीं
और उनके वंशजों के लिए भी
जिनके पास रोटी तो थी
पर जो अभी शराब और औरत नहीं जुटा पाये थे।

वे शामों और समुद्रों की
तटवर्ती आसक्तियों में प्रवृद्ध हुए लोग थे
गुलाबों और रजनीगन्धा की झालरों में
बार-बार मूर्च्छित होने वाले लोग।

दौड़कर आयी हुई नदी के किनारे
उन्होंने अपनी छतरियाँ तानी थीं
ताकि ठण्डी हवा के झोंकों के बीच
अपना घरेलू चन्दन घिस सकें
और मलबा फेंकने के लिए भी
उन्हें दूर न जाना पड़े।

प्रेम उनके लिए
कभी खिड़की से देखा जानेवाला एक सुन्दर भू-दृश्य होता
कभी भागकर छिपने के लिए मिला
एक निभृत स्थान।
वह नहीं था
धरती में रोपा जानेवाला कोई पौधा
या कोई लतर
जिसे श्रम के जल से सींचना ज़रूरी हो।
जब भी हवा या आकाश की बात होती
वे उसे उस क्षण की अपेक्षा से काटकर
किसी सुदूरवर्ती स्वप्न में ले जाते।

वे प्रकृति के निर्जन सन्नाटों में चल रहे
अभियानों की खबरों से भी जी चुराते थे
कि हस्तगत प्रेमिका की तरफ़ से, जीवन में
किसी भी साहसिक चेतावनी के ख़तरे को
आख़िर तक टाला जा सके।

वे एक ही सम्प्रदाय के लोग थे।
उनकी बातों और आदतों को शायद कहीं अलग किया जा सके
पर उनका स्मृति-प्रभाव
बिना किसी आश्चर्य के एक जैसा है।

वे आज भी ज़िन्दा हैं
सबके भविष्य को
अपने वर्तमान में निचोड़नेवाले लोग
बहते हुए रक्त की यन्त्रणापूर्ण रोशनी से
अपनी नावें सजानेवाले लोग।

वे हमेशा ज़िन्दा रहते हैं।

उन्होंने मुट्ठी भर रेत को रेगिस्तान कहा था
और कच्चे-से काँटे को सूली की संज्ञा दी थी।

मैंने विश्वास की पवित्र शिला पर खड़े होकर
अपने जीवन की आग पर पानी डाला था


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai