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विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ

ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5917
आईएसबीएन :9789383751914

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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।

 

 

प्राक्कथन

हम कहा करते हैं 'काश हम उन्हें जान जाते!' हम में से अधिकांश पहले से ही यह मानकर चलते हैं कि यदि कोई महान् आध्यात्मिक गुरु मिले तो हम उसे पहचानने के योग्य होंगे। क्या हम ऐसा कर पाएँगे? सम्भवतः हम स्वयं को ही बहलावे से प्रसन्न करते हैं। ... फिर भी इस बात में सहमत होना पड़ेगा कि एक जिवित गुरु उसकी निर्जीव पुस्तक की तुलना में श्रेयस्कर है। निरे मुद्रित शब्द सामान्यतः वक्ता की वाणी की स्वर-शैली को ही सम्प्रेषित नहीं करते तो फिर उस स्वर-शैली के पीछे आध्यात्मिक शक्ति के सम्प्रेषण का तो कहना ही क्या।

परन्तु विवेकानन्द असाधारण अपवादों में से एक हैं। उनके मुद्रित शब्दों को पढ़ते हुए हम उनकी स्वर-शैली को कुछ अंशों में समझ सकते हैं और यहाँ तक कि उनकी शक्ति से सम्पर्क-बोध का अनुभव भी कर सकते हैं। ऐसा क्यों है?

शायद इसलिये कि इन शिक्षाओं में से अधिकतर मूलत: उनके द्वारा लिखी नहीं गयीं परन्तु उनके द्वारा उच्चारित हुई हैं। उनमें वाणी की अनौपचारिकता तथा आग्रह है। इसके अतिरिक्त, विवेकानन्द ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे हम समझ सकें परन्तु इसके बावजूद जो अद्वितीय रूप से उनकी अपनी विवेकानन्द-अंग्रेजी है - वह है अनूठे प्रकार से गढ़े शब्द-समूहों तथा विस्फोटक उद्गारों का चमत्कारपूर्ण शक्तिशाली वाक्व्यवहार।

पचहत्तर वर्ष बाद अब भी यह हमारे लिये उनके व्यक्तित्व का पुनर्निर्माण करता है।

यहाँ स्वामी चेतनानन्द ने हमारे समक्ष मानो स्वामी विवेकानन्द को व्यक्तिगत रूप से इसलिए ला दिया है कि ध्यान कैसे करें। उनकी साहित्यिक रचनाओं से संग्रहीत ये संक्षिप्त स्वयंपूर्ण उद्धरण यह बताते हैं कि धर्म क्या है तथा यह हमारे लिये जीवनप्रद सम्बन्ध वाला क्यों है तथा इसे अपने जीवन का अंग बनाने के लिये क्यों हमें इसका अभ्यास अवश्य करना ही होगा। इस पुस्तक को शुरू से अन्त तक एक साथ पढ़ने की शीघ्रता न करिये। एक उद्धरण लीजिये और इस के बारे में पूर्ण दिवस या पूर्ण सप्ताह- भर विचार करिये। ऐसा आदेश कुछ ही शब्दों का परन्तु अनन्त अनुबोध की माँग करता है।

स्वामी विवेकानन्द की स्पष्टवादिता व्यग्र कर देने वाली है। वे पुराने भर्ती विज्ञापनों के अंकल सैम की तरह अपनी अंगुली सीधे आपकी ओर करते हैं। आप यह दिखावा भी नहीं कर सकते कि वे किसी अन्य से बात कर रहे हैं। उनका आशय आपसे है और बेहतरी इसी में है कि आप सुनें।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि बेहतरी इसी में है की आप सुने क्योंकि आप नहीं जानते कि आप कौन हैं। आप कल्पना करते हैं कि मैं श्री, श्रीमती या कुमारी जोन्स हूँ। यही आपकी मूलभूत विघातक गलती है। स्वयं के बारे में आपका मत भी, चाहे वह श्रेष्ठ हो या ओछा, गलत है; परन्तु यह बात भी गौण महत्त्व की है। आप चाहे सम्राट जोन्स की तरह जीवन भर इठलाते फिरें या गुलाम जोन्स की तरह रेंगते रहें; इस से कोई अन्तर नहीं पड़ता। यदि सम्राट जोन्स नाम का कोई जीव है तो उसकी प्रजा रहेगी और दास जोन्स का स्वामी रहेगा। परन्तु आपका कुछ नहीं है। आप ब्रह्म, चिरन्तन ईश्वर हैं। जहाँ भी दृष्टि डालें, आप उस ब्रह्म को छोड़ और कुछ नहीं देखते जो लाखों ऐसे छद्म रूपों को धारण किये हुए है जिनके नाम आपके ही नाम जितने बेतुके हैं, जैसे कि जोन्स, जुआरेज, जिन्नाह, जुंग, जोको, जान्वियर, जगताई, जाब्लोचोव इत्यादि। इन नामों का एक ही अर्थ है : मैं वह नहीं हूँ जो आप हैं।

क्योंकि आप अज्ञान में रह रहे हैं इसलिये आप नहीं जानते कि आप कौन हैं। अनेक अवसरों पर यह अज्ञान सुखद लग सकता है। परन्तु यह तो अनिवार्यतः बन्धन की अवस्था है अत: यह दुःख है। आपके दुःख का प्रादुर्भाव इसी कारण होता है कि जोन्स रूपी जोन्स को तो मरना ही है जबकि ब्रह्म शाश्वत है; और वह जोन्स रूपी जोन्स तो जुआरेज, जिन्नाह तथा अन्य सभी से भिन्न है जबकि उन सभी में विराजमान ब्रह्म एक ही है। जोन्स को पृथकता के भ्रम के कारण ही भिन्न प्रतीत होने वाले अपने इर्द गिर्द के जीवों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष तथा भय जैसे भावों का सन्ताप सहना पड़ता है या फिर वह इच्छा या मोहवश उनमें से कुछ के प्रति आकर्षण का अनुभव करता है और उन्हें प्राप्त करने या उनसे पूर्णतया एकाकार न हो सकने के कारण सन्ताप रहता है।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि यह पार्थक्य भ्रम है जिसे हममें तथा हम सभी में स्थित शाश्वत ब्रह्म के प्रेम द्वारा दूर करना होगा। अतः धर्म का आचरण तो पार्थक्य का अस्वीकार करके इस (पार्थक्य) के उद्देश्यो कीर्ति, धन तथा दूसरों पर प्रभुत्व का त्याग करना है।

मैं - श्री या श्रीमती जोन्स इन कथनों से विचलित हो उठते हैं। मैं अपनी सम्पत्तियों के लिये कार्य करता हूँ तथा उन्हें छोड़ नहीं सकता। मुझे जोन्स होने पर गर्व है। तथा मुझे जोब्लोचोव होने में घृणा होगी; इसके अतिरिक्त मैं उस पर सन्देह करता हूँ कि वह मेरी सम्पत्तियों को मुझ से हड़पने की योजना बना रहा है। और अब मैं कोई पुराना जोन्स थोड़े ही हूँ, अब तो मैं प्रसिद्ध विशेष जोन्स हूँ अतः अब मैं स्वयं को सर्वव्यापी अ-व्यक्ति (निर्वैयक्तिक सत्ता ब्रह्म) सोचने के लिये अनिच्छुक हूँ। मैं 'प्रेम' शब्द को पूर्णरूपेण अनुमोदित करता हूँ। परन्तु मेरे लिये प्रेम का अर्थ जेन या जोन्स स्त्री या पुरुष है तथा वही मेरी सम्पत्तियों में सर्वोपरि प्रिय है जिसे मैं स्वयं से अनन्य रूप से आत्मीय हृदयनिधि सोच सकता हूँ।

दूसरी ओर मेरा विवेक मुझे स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अस्वीकार न करने की सलाह देता है। मेरा वास्तविक असमञ्जस इस स्वीकृति में है कि वे जो कहते हैं वह आंशिक रूप से सत्य है। जब मैं भविष्य के बारे में सोचता हूँ तो मैं निश्चय ही तनावपूर्ण तथा हतोत्साह हो जाता हूँ। मेरे डॉक्टरों ने मुझे उपशामक औषधियों का निर्देश दिया है। परन्तु वे मुझे निश्चेष्ट अपितु केवल सुस्त तथा निद्रालु ही बनाती हैं। अतः क्यों न प्रतिदिन कुछ मिनट इस ध्यान को समर्पित करें। सचमुच, यह एक प्रकार का बीमा है।

मैं इस अन्धविश्वासपूर्ण आशा में अस्पताल-बीमा निकलवा लेता हूँ कि यह सदा के लिये मुझे अस्पताल जाने से बचा लेगा। तो क्यों न विवेकानन्द - बीमे को इस आशा में निकलवा लें कि किसी प्रकार यह जोन्स को मरने तथा उसे अपना व्यक्तित्व खोने से बचा लेगा?

स्वामी विवेकानन्द कृपापूर्ण हास्य सहित कहते हैं, 'बहुत अच्छा।' चाहे यह गलत कारण के लिये ही हो - पर किसी भी प्रकार से प्रारम्भ तो करो। वे अनवरत सुविनोदपूर्ण तथा धैर्यवान् हैं। वे हमें कभी निराश नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं - तथा अपरोक्ष अनुभूति की पक्की निश्चितता सहित जानते हैं कि हमारा वास्तविक स्वरूप ब्रह्म धीरे धीरे हमें अपनी ओर आकृष्ट कर लेगा।

अतः इन छोटी-मोटी पथभ्रष्टताओं इन असफलताओं पर कभी ध्यान मत दो। आदर्श को हजार बार धारण किये रहो और यदि तुम हजार बार असफल रहो तो पुनः प्रयत्न करो आत्मा के समक्ष अनन्त जीवन है। चाहे जितना समय लो, अन्त में आप लक्ष्य प्राप्त करोगे।

यह बात कुछ अधिक ही पुनर्विश्वास, कुछ ज्यादा ही सान्त्वना देती है। क्या वे हमारा मजाक उड़ा रहे हैं? नहीं भी और हाँ भी। वे जो कुछ कहते हैं अर्थपूर्ण कहते हैं, परन्तु वे पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार कह रहे हैं। जब वे कहते हैं कि हम जितना भी समय ले सकते हैं तो उनके कहने का तात्पर्य है कि हम और भी हजारों जन्म तो अविद्या के बन्धन में 'पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं' के चक्कर में रहने को तब तक स्वतन्त्र हैं जब तक हम अपनी पृथकता से पूरी तरह उब कर इस का अन्त करने के लिये गम्भीरतापूर्वक दृढ़सङ्कल्प न हों। यदि आप स्वामी विवेकानन्द के शब्दों को पुनर्विश्वासदायक पाते हैं तो देखिये, हमारे पर ही चुटकुला बन जायेगा।

परन्तु इस वर्तमान जीवनकाल के बारे में क्या कहें? स्वामी विवेकानन्द ने एक बार टिप्पणी की थी :

धर्मजीवन के अभ्यास के प्रयत्न में अस्सी प्रतिशत लोग धोखेबाज बन जाते हैं तथा लगभग पन्द्रह प्रतिशत पागल हो जाते हैं, केवल बाकी बचे हुए पाँच प्रतिशत ही अनन्त सत्य की अपरोक्ष अनुभूति प्राप्त करते हैं।

क्या यह बात आपको आघात पहुँचाती है। यदि पहुँचाती है तो कल्पना करो कि आप कैसी प्रतिक्रिया करेंगे जब एक व्यायामशाला का प्रशिक्षक आपको इस प्रकार बताये 'इन व्यायामों का अभ्यास करने के प्रयत्न में मेरे अस्सी प्रतिशत शिष्य कठिन अभ्यासों को सही ढंग से न करके धोखा देते हैं - तथा करीब पन्द्रह प्रतिशत पागलों की तरह आवश्यकता से अधिक इतना व्यायाम करते है कि स्वयं को घायल कर बैठते हैं तथा उन्हें चले जाना पड़ता है; केवल शेष बचे पाँच प्रतिशत ही अपने शरीर-गठन का वास्तव में रूपान्तरण करते हैं।' क्या आप विस्मित होंगे? निश्चित ही नहीं, अपितु आप हतोत्साह भले ही हो जायें। आप तो अपनी दुर्बलता को पहचानते हुए व्यायामशाला में नाम बिल्कुल न लिखाने का ही निर्णय ले सकते है। परन्तु हमारे दुर्बल, अनध्यात्मिक तथा अयोग्य होने के दावे से बढ़कर अकर्मण्यता का दयनीय बहाना और कोई नहीं हो सकता। जब हम ऐसा दावा करते हैं तो स्वामी विवेकानन्द हम पर गरजते हुए कहते कि तुम भेड़ नहीं, सिंह हो, जोन्स नहीं, ब्रह्म हो। तब वे पुनः सौम्य होकर हमें कम से कम कुछ तो करने के लिये, कुछ थोड़ा प्रयत्न करने के लिये स्नेहपूर्वक प्रोत्साहित करते हैं, चाहे हम बूढ़े, रोगी, स्वयं पर आश्रितों तथा सांसारिक कर्तव्यों के भार से दबे, अत्यधिक निराश निर्धन या अत्यधिक निराश धनी ही क्यों न हों। वे हमें स्मरण दिलाते हैं कि सच्चा वैराग्य मानसिक होता है, जरूरी नहीं कि यह शारीरिक हो। हमें अपने पतियों और पत्नियों का परित्याग करने तथा अपने बच्चों को घर से बाहर कर देने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें मात्र जीव मानते हुए नहीं अपितु उन्हें ब्रह्म के ही अधिष्ठान जान कर प्रेम करते हुए हमें अवश्य ही केवल यही समझना होगा कि वास्तव में वे हमारे नहीं हैं। हमें यह भी अवश्य समझना होगा कि हमारी तथाकथित सम्पत्तियाँ खिलौने मात्र हैं जो हमें थोड़ी देर के लिये खेलने के लिये दिये गये हैं। मनकों की माला आकर्षक हो सकती है। वैसे ही हीरे का कण्ठहार भी हो सकता है। जब हमने उन दोनों के मूल्य के अन्तर के बारे में सचेत होना छोड़ दिया हो तो कण्ठहार पहनने में कोई खतरा नहीं है।

स्वामी विवेकानन्द हमें बार बार हँसाते हैं तथा हमें पश्चात्ताप में समय नष्ट न करने, अपने पापों पर रोने-धोने से मना करते हुए उत्सुकतापूर्वक कहते हैं : हमें अपने आँसुओं को पोंछ डालने का आदेश देते हुए इस नकली संसार में तमाशा देखने के लिये कहते हैं जिसे हम इतनी गम्भीरतापूर्वक मान रहे है। इस प्रकार चाहे थोड़ी देर के लिये ही सही, वे हमें साहस से भर देते हैं।

परन्तु स्वामी विवेकानन्द पचानवे प्रतिशत अशक्त-हृदय लोगों को आगे बढ़ाने के लिये अपनी सम्पूर्ण असाधारण शक्ति नहीं लगाते। उन्हें अपने कार्य के लिये ऐसे समर्पित पुरुषों तथा स्त्रियों की आवश्यकता थी जिन पर वे निर्भर हो सकें तथा इनके लिये उन्होंने दुर्बल लोगों में से खोज नहीं की। समय समय पर, अपने व्याख्यान के मध्य में अप्रत्याशित ढंग से वे उन बचे हुए अदूषित पाँच प्रतिशत ओजस्वी मनुष्यों को अपने रोमाञ्चकारी, गुञ्जायमान आग्रहों में से एक में वे कहते हैं :

आज के युग के पुरुषों एवं नारियो ! यदि आप में से कोई पवित्र, नवशोभ है तो स्वयं को ईश्वर की वेदी पर बलि हो जाने दो। यदि आप में से कोई ऐसे हैं जो युवा होते हुए भी संसार में नहीं लौटना चाहते तो उन्हें त्याग करने दो, वैराग्य के पथ पर जाने दो। त्याग - यही आध्यात्मिकता का एकमात्र रहस्य है। इसे करने का साहस करो। इसे करने के लिये उपयुक्त पराक्रमी बनो। ऐसे बलिदानों की आवश्यकता है।

क्या तुम मृत्यु और भौतिकता की लहर नहीं देखते जो इन पश्चिमी देशों पर लोट रही है? क्या तुम वासना और अपवित्रता की शक्ति नहीं देखते जो समाज के महत्वपूर्ण भाग को तबाह कर रही है? मुझ पर विश्वास करो, आप बातचीत से, सुधार के लिये उत्तेजना के आन्दोलनों द्वारा इन्हें रोक नहीं सकते; परन्तु त्याग द्वारा, बरबादी और मौत के मध्य में सदाचरण के पर्वत की नाई दण्डायमान होकर ही इन्हें रोक सकते हैं। वृथा मत बोलो, अपने रोम रोम से पवित्रता की शक्ति, ब्रह्मचर्य की शक्ति, तथा वैराग्य की शक्ति प्रकट होने दो। जो लोग दिन-रात पैसे के लिये छटपटा रहे हैं उनके मन पर इस बात की छाप पड़ने दो कि ऐसा भी कोई है जिसे धन की जरा भी परवाह नहीं है। वासना और धन को दूर रखो। स्वयं का बलिदान कर दो।

परन्तु ऐसा करेगा कौन? जीर्ण-शीर्ण, बूढ़े, समाज के थपेड़े और मार खाये हुए नहीं, परन्तु पृथ्वी पर अभिनवतम, उत्तमोत्तम, ओजपूर्ण, आन्तरिक सौन्दर्य से युक्त नवयुवक ही ऐसा कर पायेंगे। अतः अपने प्राणों को न्यौछावर कर दो। स्वयं को मानवता का सेवक बना लो। मूर्त उपदेश बनो। यही त्याग है, थोथी बातें नहीं।

दूसरों की निन्दा मत करो, क्योंकि सभी सिद्धान्त तथा सभी मत अच्छे हैं; परन्तु अपने जीवन द्वारा उन्हें दिखाओ कि धर्म ग्रन्थों या मतों का नहीं परन्तु आध्यात्मिक अनुभूति का मामला है। इसे वही समझ सकते हैं जिन्होंने इसे देखा है; परन्तु ऐसी आध्यात्मिकता दूसरों को दी जा सकती है चाहे वे इस उपहार से अनभिज्ञ ही क्यों न रहें। केवल उन्हीं महापुरुषों की मानवता के महान् आचार्यों में गणना हो सकती है जिन्होंने दूसरों में (आध्यात्मिकता का संचार करने की ऐसी शक्ति अर्जित कर ली है। वही (ज्ञान के) प्रकाश के शक्ति(-केन्द्र) हैं।

जिस देश में ऐसे व्यक्ति जितने अधिक होंगे, वह देश उतना ही अधिक उन्नत होगा। जहाँ ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है उस स्थान का सर्वनाश नियत है। उसे कोई नहीं बचा सकता। अतः मेरे गुरुदेव का संसार को यही सन्देश है कि, 'तुम सभी आध्यात्मिक बनो! पहले आत्मानुभूति प्राप्त करो!'

तुमने मनुष्य से प्रेम की थोथी बात इतनी की है कि अब यह मात्र शब्दों तक सीमित रह जाने के खतरे में है। अब कार्य करने का समय आ गया है। अब तो यही पुकार है कि करो! कूद कर दरार को पाट दो और संसार को बचा लो !

मैंने स्वयं अपने जीवन में एकबार यथासम्भव अति सरल ढंग से उस चुनौती की प्रतिध्वनी सुनी है। धार्मिक प्रसङ्गों की चर्चा के लिये कुछ व्यक्तियों का समूह जुटा था। उपस्थित मण्डली में से अनेकों ने भगवान् के बारे में वाग्मितापूर्ण लम्बे-चौड़े व्याख्यान दिये। फिर, जब उनमें से अन्तिम महोदय ने अपना वक्तव्य समाप्त किया तो चौदह वर्षीय एक बालक अत्यधिक उत्तेजित यदि यह सब सच है तो हम होकर अचानक चिल्ला उठा : 'परन्तु अन्य कुछ करते ही क्यों हैं?

इस प्रश्न ने हमें चुप कर दिया।

जुलाई १९७४

- क्रिस्टोफर ईशरवुड

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