विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
अनुभव तथा सत्यापन
स्वामीजी - एक दिन दक्षिणेश्वर के मन्दिर-उद्यान में श्रीरामकृष्ण ने मेरे हृदय के स्थान को स्पर्श किया, पहले तो मैं देखने लगा कि घर कमरे, द्वार, खिड़कियाँ, बरामदे - वृक्ष, सूर्य, चन्द्र - सभी द्रुत गति से उड़े जा रहे थे तथा मानो - टुकड़े-टुकड़े होकर परमाणुओं तथा अणुओं में परिवर्तित हो रहे थे और अन्त में आकाश में विलीन हो गये। धीरे धीरे आकाश भी लुप्त हो गया, तत्पश्चात इसके साथ मेरे अहंकार की चेतना भी लुप्त हो गयी; आगे क्या हुआ, मुझे याद नहीं। पहले तो मैं भयभीत हो गया। उस अवस्था से लौटकर मैं पुनः घर, द्वार, खिड़कियाँ, बरामदे तथा अन्य वस्तुएँ देखने लगा। एक अन्य अवसर पर अमेरिका में एक झील के किनारे मुझे बिल्कुल वैसी ही अनुभूति हुई थी।
शिष्य – क्या ऐसी अवस्था मस्तिष्क की विकृति से नहीं हो सकती? तथा मैं यह नहीं समझ सकता कि ऐसी अवस्था की अनुभूति में प्रसन्नता की क्या बात है?
स्वामीजी - दिमाग का पागलपन ! तुम इसे ऐसा कैसे कह सकते हो जबकि यह अवस्था न तो रोगजनित उन्माद के कारण, न मद्यपान के नशे से और न ही अनेकविध विचित्र श्वास-अभ्यासों से उत्पन्न भ्रम है - परन्तु यह अनुभूति सामान्य अवस्थावाले मनुष्य को ही होती है जब वह पूर्ण स्वस्थ तथा सचेत होता है। पुनः, यह अनुभव वेदों के साथ सम्पूर्ण सामञ्जस्य रखता है। यह उच्च भावनाओं से प्रेरित प्राचीन आप्त ऋषियो तथा आचार्यों के अनुभूतिसम्पन्न शब्दों से भी मेल खाता है। (६.१३२)
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