विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न - गुरु किसे कह सकते हैं?
स्वामी विवेकानन्द - जो तुम्हारे भूत-भविष्य को बता सकें, वे ही तुम्हारे गुरु हैं।
प्रश्न - भक्ति-लाभ किस प्रकार होता है?
स्वामीजी - भक्ति तो तुम्हारे भीतर ही है - केवल उसके ऊपर काम-कांचन का एक आवरण सा पड़ा हुआ है। उसको हटाते ही भीतर की वह भक्ति स्वयमेव प्रकट हो जायगी।
प्रश्न - क्या कुण्डलिनी नाम की कोई वास्तविक वस्तु इस स्थूल शरीर के भीतर है?
स्वामीजी - श्रीरामकृष्ण देव कहते थे, 'योगी जिन्हें पद्म कहते हैं, वास्तव में वे मनुष्य के शरीर में नहीं है। योगाभ्यास से उनकी उत्पत्ति होती है।'
प्रश्न - क्या मूर्ति-पूजा के द्वारा मुक्ति-लाभ हो सकता है?
स्वामीजी - मूर्ति-पूजा से साक्षात् मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर भी वह मुक्ति-प्राप्ति में गौण कारणस्वरूप है - सहायक है। मूर्ति-पूजा की निन्दा करना उचित नहीं, क्योंकि बहुतों के लिए मूर्ति-पूजा ही अद्वैत ज्ञान की उपलब्धि के लिए मन को तैयार कर देती है - और केवल इस अद्वैत-ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य सिद्ध हो सकता है। (१०.३७३)
प्रश्न- मुक्ति क्या है?
स्वामीजी - मुक्ति का अर्थ है पूर्ण स्वाधीनता - शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाना। सोने की कड़ी भी लोहे की कड़ी के समान ही है। श्रीरामकृष्ण देव कहते, पैर में काँटा चुभने पर उसे निकालने के लिए एक दूसरे काँटे की आवश्यकता होती है। काँटा निकल जाने पर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं। इसी तरह सत्प्रवृत्ति के द्वारा असत् प्रवृत्तियों का दमन करना पड़ता है, परन्तु बाद में सत्प्रवृत्तियों पर भी विजय प्राप्त करनी पड़ती है। (१०.३७४)
प्रश्न - वेदान्त के लक्ष्य तक कैसे पहुँचा जा सकता है?
स्वामीजी - 'श्रवण, मनन और निदिध्यासन' द्वारा। किसी सद्गुरु से ही श्रवण करना चाहिए। चाहे कोई नियमित रूप से शिष्य न हुआ हो, पर अगर जिज्ञासु सुपात्र है और वह सद्गुरु के शब्दों का श्रवण करता है, तो उसकी मुक्ति हो जाती है। (१०.३९८)
प्रश्न - ध्यान कहाँ लगाना चाहिए - शरीर के भीतर या बाहर? मन को भीतर समेटना चाहिए अथवा बाह्य प्रदेश में स्थापित करना चाहिए?
स्वामीजी - हमें भीतर ध्यान लगाने का यत्न करना चाहिए। जहाँ तक मन के इधर-उधर भागने का सवाल है, मनोमय कोष में पहुँचने में लम्बा समय लगेगा। अभी तो हमारा संघर्ष शरीर से है। जब आसन सिद्ध हो जाता है, तभी मन से संघर्ष आरम्भ होता है। आसन सिद्ध हो जाने पर अंग-प्रत्यंग निश्चल हो जाते हैं - और साधक चाहे जितने समय तक बैठा रह सकता है।
प्रश्न - कभी कभी जप से थकान मालूम होने लगती है। तब क्या उसकी जगह स्वाध्याय करना चाहिए, या उसी पर आरूढ़ रहना चाहिए?
स्वामीजी - दो कारणों से जप मे थकान मालूम होती है। कभी कभी मस्तिष्क थक जाता है और कभी कभी आलस्य के परिणामस्वरूप ऐसा होता है। यदि प्रथम कारण है, तो उस समय कुछ क्षण तक जप छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हठपूर्वक जप में लगे रहने से विभ्रम या विक्षिप्तावस्था आदि आ जाती हैं। परन्तु यदि द्वितीय कारण है, तो मन को बलात् जप में लगाना चाहिए।
प्रश्न - यदि मन इधर-उधर भागता रहे, तब भी क्या देर तक जप करते रहना ठीक है?
स्वामीजी - हाँ, उसी प्रकार जैसे अगर किसी बदमाश घोड़े की पीठ पर कोई अपना आसन जमाये रखे, तो वह उसे वश में कर लेता है।
प्रश्न- आपने अपने 'भक्तियोग' में लिखा है कि यदि कोई कमजोर आदमी योगाभ्यास का यत्न करता है, तो घोर प्रतिक्रिया होती है। तब क्या किया जाय?
स्वामीजी - यदि आत्मज्ञान के प्रयास में मर जाना पड़े, तो भय किस बात का ! ज्ञानार्जन तथा अन्य बहुत-सी वस्तुओं के लिए मरने में मनुष्य को भय नहीं होता और धर्म के लिए मरने में आप भयभीत क्यों हों? ( १०.४००)
प्रश्न- प्रार्थना की उपादेयता क्या है?
स्वामीजी - सोयी हुई शक्ति प्रार्थना से आसानी से जाग उठती हैं और यदि सच्चे दिल से की जाय, तो सभी इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं; किन्तु अगर सच्चे दिल से न की जाय, दो दस में से एक की पूर्ति होती है परन्तु इस तरह की प्रार्थना स्वार्थपूर्ण होती है, अतः वह त्याज्य है। ( १०.४०१)
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