विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
साधक की योग्यताएँ
सफलताकांक्षी साधक के लिए तीन बातों की आवश्यकता है। पहली है ऐहिक और पारलौकिक इन्द्रिय भोग-वासना का त्याग और केवल भगवान् और सत्य को लक्ष्य बनाना। हम यहाँ सत्य की उपलब्धि के लिए हैं, भोग के लिए नहीं। भोग पशुओं के लिए छोड़ दो, जिनको हमारी अपेक्षा उसमें कहीं अधिक आनन्द मिलता है। मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, और मृत्यु पर विजय तथा प्रकाश को प्राप्त कर लेने तक उसे संघर्ष करते ही रहना चाहिए। उसे फिजूल की बातचीत में अपनी शक्ति नष्ट नहीं करनी चाहिए। समाज की पूजा एवं लोकप्रिय जनमत मूर्ति-पूजा ही है। आत्मा का लिंग, देश, स्थान या काल नहीं होता।
दूसरी है सत्य और भगवत्प्राप्ति की तीव्र आकांक्षा। जल में डूबता मनुष्य जैसे वायु के लिए व्याकुल होता है, वैसे ही व्याकुल हो जाओ केवल ईश्वर को ही चाहो, और कुछ भी स्वीकार न करो, जो आभासी मात्र है, उससे धोखा न खाओ। सबसे विमुख होकर केवल ईश्वर की खोज करो।
तीसरी बात में छ: अभ्यास हैं -
(१) मन को बहिर्मुख न होने देना।
(२) इन्द्रिय-निग्रह।
(३) मन को अन्तर्मुख बनाना।
(४) निर्विरोध सहिष्णुता या पूर्ण तितिक्षा।
(५) मन को एक भाव में स्थिर रखना। ध्येय को सम्मुख रखो, और उसका चिन्तन करो। कभी अलग न करो। समय की गणना न करो।
(६) अपने स्वरूप का सतत चिन्तन करो।
अंधविश्वास का परित्याग कर दो। अपनी तुच्छता के विश्वास में अपने को सम्मोहित न करो। जब तक तुम ईश्वर के साथ एकात्मता की अनुभूति वास्तविक अनुभूति न कर लो, तब तक रात-दिन अपने आपको बताते रहो कि तुम यथार्थतः क्या हो। (४.८०)
क्या हम स्वर्ग के लिए योग्य हैं?
कुछ दीन मछुआ स्त्रियों ने भीषण तूफ़ान में फँस जाने पर एक सम्पन्न व्यक्ति के बगीचे में शरण पायी। उसने उनका दयापूर्वक स्वागत किया, उन्हें भोजन दिया और जिनके सुवास से वायुमंडल परिपूर्ण था, ऐसे पुष्पों से घिरे हुए एक सुन्दर ग्रीष्मवास में विश्राम करने के लिए छोड़ दिया। स्त्रियाँ इस सुगन्धित स्वर्ग में लेटी तो, किन्तु सो न सकीं। उन्हें अपने आप में कुछ खोया हुआ सा जान पड़ा और उसके बिना वे चैन न पा सकीं। अन्त में एक स्त्री उठी और उस स्थान को गयी जहाँ कि वे अपनी मछली की टोकरियाँ छोड़ आयी थीं। वह उन्हें ग्रीष्मावास में ले आयीं और तब एक बार फिर परिचित वास से सुखी होकर वे सब शीघ्र ही गहरी नींद में सो गयीं। (६.२७७)
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