विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
|
127 पाठक हैं |
प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
प्रत्येक वस्तु में ईश्वर को देखो
बचपन से ही सुनता आ रहा हूँ कि सर्वत्र और सभी में ईश्वर देखने पर ही मैं दुनिया का ठीक ठीक आनन्द उठा पाऊँगा। पर ज्यों ही मैं संसार में लिप्त होकर कुछ मार खाता हूँ त्यों ही मेरी ईश्वरबुद्धि लुप्त हो जाती है। मैं मार्ग में सोचता जा रहा हूँ कि सभी मनुष्यों में ईश्वर विराजमान है।
इतने में एक बलवान मनुष्य मुझे धक्का दे जाता है और मैं चारों कोने चित्त हो जाता हूँ। बस! झट मैं उठता हूँ, सिर में खून चढ़ जाता है, मुट्ठियाँ बँध जाती हैं और मैं विचार-शक्ति खो बैठता हूँ। मैं बिल्कुल पागल-सा हो जाता हूँ। स्मृति का भ्रंश हो जाता है और बस, मैं उस व्यक्ति में ईश्वर के स्थान पर शैतान को देखने लगता हूँ, जन्म से ही हमें सभी में ईश्वर- दर्शन करने के लिये कहा गया है, सभी धर्म यही सिखाते हैं कि सभी वस्तुओं में, सब प्राणियों के अन्दर, सर्वत्र ईश्वरदर्शन करो। (२.१५५)
पहले-पहल सफलता न भी मिले, पर कोई हानि नहीं, यह असफलता तो बिल्कुल स्वाभाविक है, यह मानव-जीवन का सौन्दर्य है। इन असफलताओं के बिना जीवन क्या होता? यदि जीवन में इस असफलता को जय करने की चेष्टा न रहती, तो जीवन धारण करने का कोई प्रयोजन ही न रह जाता। उसके न रहने पर जीवन का कवित्व कहाँ रहता? यह असफलता, यह भूल होने से हर्ज भी क्या? मैंने गाय को कभी झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती। अतएव यदि बार बार असफल हो जाओ, तो भी क्या? कोई हानि नहीं, सहस्र बार इस आदर्श को हृदय में धारण करो, और यदि सहस्र बार असफल हो जाओ, तो एक बार फिर प्रयत्न करो। सब जीवों में ब्रह्मदर्शन ही मनुष्य का आदर्श है। (२.१५६)
|