विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँस्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।
परम लक्ष्य की ओर
जो व्यक्ति सत्य को न जानकर अबोध की भाँति संसार के भोग-विलास में निमग्न हो जाता है, समझ लो कि उसे ठीक मार्ग नहीं मिला, उसका पैर फिसल गया है। दूसरी ओर, जो व्यक्ति संसार को कोसता हुआ वन में चला जाता है, अपने शरीर को कष्ट देता रहता है, धीरे धीरे सुखाकर अपने को मार डालता है, अपने हृदय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है, अपने सभी भावों को कुचल डालता है और कठोर, बीभत्स और रूखा हो जाता है; समझ लो कि वह भी मार्ग भूल गया है। ये दोनों दो छोर की बातें हैं - दोनों ही भ्रम में हैं - एक इस ओर और दूसरा उस ओर। दोनों ही पथभ्रष्ट हैं - दोनों ही लक्ष्यभ्रष्ट हैं। (२.१५४)
दुर्भाग्यवश अधिकांश व्यक्ति इस जगत् में बिना किसी आदर्श के ही जीवन के इस अन्धकारमय पथ पर भटकते फिरते है। जिसका एक निर्दिष्ट आदर्श है, वह यदि एक हजार भूलें करता है, तो यह निश्चित है कि जिसका कोई भी आदर्श नहीं हैं, वह पचास हजार भूलें करेगा। अतएव एक आदर्श रखना अच्छा है। इस आदर्श के सम्बन्ध में जितना हो सके, सुनना होगा; तब तक सुनना होगा, जब तक वह हमारे अन्तर में प्रवेश नहीं कर जाता, हमारे मस्तिष्क में पैठ नहीं जाता, जब तक वह हमारे रक्त में प्रवेश कर उसकी एक एक बूँद में घुल-मिल नहीं जाता, जब तक वह हमारे शरीर के रोम रोम में व्याप्त नहीं हो जाता। अतएव पहले हमें यह आत्म-तत्त्व सुनना होगा। कहा है, "हृदय पूर्ण होने पर मुख बोलने लगता है,” और हृदय के इस प्रकार पूर्ण होने पर हाथ भी कार्य करने लगते हैं। (२.१५६) हम लोग दुखी क्यों होते हैं?
हम जो कुछ दुःख-भोग करते हैं, वह वासना से ही उत्पन्न होता है। मान लो, तुम्हें कुछ चाहिए। और जब वह पूरा नहीं होता, तो फल होता है - दुःख। यदि इच्छा न रहे, तो दुःख भी नहीं होगा। यहाँ भी मुझे गलत समझ लेने की आशंका है, अतः यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि वासनाओं, इच्छाओं के त्याग तथा समस्त दुःख से मुक्त हो जाने से मेरा आशय क्या है। दीवार में कोई वासना नहीं है, वह कभी दुःख नहीं भोगती। ठीक है, पर वह कभी उन्नति भी तो नहीं करती। इस कुर्सी में कोई वासना नहीं है, कोई कष्ट भी उसे नहीं है, परन्तु यह कुर्सी की कुर्सी ही रहेगी। सुख-भोग के भीतर भी एक गरिमा है और दुःख-भोग के भीतर भी।
मैं अपने सम्बन्ध में कह सकता हूँ कि मैं प्रसन्न हूँ कि मैंने कुछ अच्छा तथा बहुत-सी बुराइयाँ की हैं; मैं प्रसन्न हूँ कि मैंने कुछ अच्छा किया है और इसलिये भी प्रसन्न हूँ कि मैंने अनेक गलतियाँ की हैं, क्योंकि उनमें से प्रत्येक ने मुझे कुछ न कुछ उच्च शिक्षा दी है। मैं इस समय जो कुछ हूँ, वह अपने पूर्व कर्मों और विचारों का फलस्वरूप हूँ। प्रत्येक कार्य और विचार का एक न एक फल हुआ है और ये फल ही मेरी उन्नति की समष्टि हैं। (२.१५१)
यथार्थ समाधान यह है : ऐसी बात नहीं कि तुम धन-सम्पत्ति न रखो, आवश्यक वस्तुएँ और विलास की सामग्री न रखो। तुम जो जो आवश्यक समझते हो, सब रखो, यहाँ तक कि उससे अतिरिक्त वस्तुएँ भी रखो - इससे कोई हानि नहीं। पर तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य है - सत्य को जान लेना, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर लेना यह धन किसीका नहीं है। किसी भी पदार्थ में स्वामित्व का भाव मत रखो। उस प्रभु की ही वस्तुएँ हैं। (२.१५२)
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