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विवेकानन्द साहित्य >> ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ

ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5917
आईएसबीएन :9789383751914

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प्रस्तुत है पुस्तक ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ।

निर्भीकता का उपदेश

ईश्वर तथा मनुष्य में, साधु तथा असाधु में प्रभेद किस कारण होता है? केवल अज्ञान से। बड़े से बड़े मनुष्य तथा तुम्हारे पैर के नीचे रेंगनेवाले कीड़े में प्रभेद क्या है? प्रभेद होता है केवल अज्ञान से; साक्षात् अनन्त भगवान् अव्यक्त रूप में है; जरूरत है इसीको व्यक्त करने की। यही आध्यात्मिकता है, यही आत्मविज्ञान है।

बल ही पुण्य है तथा दुर्बलता ही पाप है। उपनिषदों में यदि कोई एक ऐसा शब्द है जो वज्र-वेग से अज्ञान-राशि के ऊपर पतित होता है, और उसे बिल्कुल उड़ा देता है, वह है 'अभी:' - निर्भयता। संसार को यदि किसी एक धर्म की शिक्षा देनी चाहिए तो वह है - निर्भिकता। भय से ही दुःख होता है, यही मृत्यु का कारण है तथा इसी के कारण सारी बुराई होती है। और भय होता क्यों है? - आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण। (५.५७)

हताश न होओ, क्योंकि तुम तो सदैव वही हो; तुम कुछ भी करो, अपने असली स्वरूप को तुम नहीं बदल सकते। और फिर प्रकृति स्वयं ही प्रकृति को नष्ट कैसे कर सकती है? तुम्हारी प्रकृति तो नितान्त शुद्ध है। यह चाहे लाखों वर्ष तक क्यों न छिपी-ढकी रहे, परन्तु अन्ततः इसकी विजय होगी तथा यह अपने को अभिव्यक्त करेगी ही। अतएव अद्वैत प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आशा का संचार करता है, न कि निराशा का। वेदान्त कभी भय से धर्माचरण करने को नहीं कहता। वेदान्त की शिक्षा कभी ऐसे शैतान के बारे में नहीं होती, जो निरन्तर इस ताक में रहता है कि तुम्हारा पदस्खलन हो और वह तुम्हें अपने अधिकार में कर ले। वेदान्त में सैतान का उल्लेख ही नहीं है, वेदान्त की शिक्षा यही है कि अपने भाग्य के निर्माता हम ही हैं। तुम्हारा यह शरीर तुम्हारे ही कर्मों के अनुसार बना है, और किसी ने तुम्हारे लिए वह गठित नहीं किया है। समस्त अच्छाई या बुराई का दायित्व तुम्हारे ही ऊपर है। यही एक बड़ी आशाजनक बात है। जिसे हमने बनाया है, उसको हम बिगाड़ भी सकते हैं। (५.५८)

 

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