संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
तीस
हमारी जनसंख्या स्वाधीनता के उनतीस वर्षों में पच्चीस करोड़ की वृद्धि को
प्राप्त हुई है। बंकिमचन्द्र के 'त्रिंशकोटि कंठ कल कल निनाद कराले' के साथ
इसी से जब इन अतिरिक्त पच्चीस कोटि कंठों के कल कल निनाद के समवेत स्वर में
हम 'भूख-भूख' की कल्पना करते हैं तो हमारा आतंकित होना स्वाभाविक है। आज भारत
की इस तीव्र गति से बढ़ी जनसंख्या के खानपान, भरणपोषण, शिक्षा, नौकरी की
समस्या साधारण समस्याएँ नहीं रह गई हैं। हमारा कितना ही सुप्रयास क्यों न हो
इस समस्या को सुलझाना आज देश के कर्णधारों का सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है।
केन्द्रीय सरकार के सम्मुख परिवार नियोजन कार्यक्रम को कोई कानूनी जामा पहना
अनिवार्य बनाने में अनेक कठिनाइयाँ आई। एक विशेष सम्प्रदाय के उग्र रूप को
देख उसे अपनी नीति में संशोधन करना पड़ा एवं बार-बार यह आश्वासन दुहराया गया
कि सन्तान-संख्या सीमित रखने में नागरिकों को अनिवार्य बाध्यता के नियमों से
पीड़ित नहीं किया जाएगा। किन्तु कुछ राज्यों ने इसे बाध्यतामूलक नीति के रूप
में अपनाया जैसे पंजाब, महाराष्ट्र एवं हरियाणा। किसी भी सम्प्रदाय का
विक्षोभ कितना ही उग्र क्यों न हो, सरकार का कर्तव्य है कि पक्षपात से सर्वथा
मुक्त हो, प्रत्येक भारतीय नागरिक को वह कठोर नियमों से सन्तान-संख्या सीमित
रखने के लिए अनिवार्य रूप से बाध्य करे। नियम भी ऐसे ढुलमुल नहीं कि किसी की
पदोन्नति रोक दी जाए या वेतन रोक लिया जाए। क्योंकि भारत में अभी भी ऐसे अनेक
दिलदार नागरिक हैं जो बिना वेतन या पदोन्नति के भी पिता बनने में समर्थ हैं।
इस नीति को कारगर बनाने के लिए सरकार को अपने राजदंड को अंकुश बनाना होगा,
जनता के उग्र विक्षोभ को, निरर्थक अफवाहों को उसे अपनी उग्र नीति से ही
पराजित करना होगा। इस उग्र नीति को अपनाने में सरकार के सम्मुख व्यावहारिक
दुरूहता अवश्य आएगी-हो सकता है मूर्ख उजड्ड लाठियों के उत्तर में गोलियाँ भी
चलानी पड़ें, कुछ निरीह निर्दोष प्राणों की आहुति भी अनिवार्य बन उठे, किन्तु
जब तक केन्द्रीय सरकार ऐसी कठोर नीति नहीं अपनाती भविष्य की जनसंख्या उसी
आतंकपूर्ण तीव्र गति से निरन्तर बढ़ती रहेगी एवं खाद्याभाव से केवल मानव जीवन
ही नहीं, हमारी वह संस्कृति, जिस पर हमें गर्व है, जनभाराक्रान्त होकर एक दिन
अत्यन्त शोचनीय गति को प्राप्त होगी।
यदि हम ईमानदारी से कहें, तो अपनी उनतीस वर्षों की स्वाधीनता की अवधि के बीच क्या हम अपनी सांस्कृतिक समुन्नति का कोई ऐसा पुष्ट प्रमाण दे पाए हैं? हमारा साहित्य हो या संगीत, योग हो या दर्शन, स्वयं जनसमादर का कोलाहल ही हमें आनन्द के कुछ क्षण दे पाया है, किन्तु यह पूर्वाभ्यास किए गए समादर का कलरव या खोखले प्रदर्शन का आडम्बर किसी भी दृष्टि से हमें किसी स्थायी गरिमा या महिमा से मंडित नहीं कर सकता। भारतीय सांस्कृतिक जीवन पश्चिम की संस्कृति से इस सीमा तक अनुप्राणित होकर एक मान, एक प्राण बन चुका है कि उसकी स्वाभाविकता पर अब किसी को सन्देह भी नहीं होता। किन्तु, इस अनुकृत कृतित्व को हम अपनी प्रगति कह शेखी नहीं बधार सकते। जैसा एक बार भारतेन्दु ने अपने बलिया के ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि एक बेफिकरा मँगनी के कपड़े पहन एक महफिल में गया। उसे आते ही लोगों ने फब्लियाँ कसी 'ये पाजामा तो फलाँ का है,' 'ये टोपी फलाँ की है' तो बेफिकरे ने हँसकर कहा- "घर की तो बस मूंछे ही मूंछे हैं।" वही हाल हम भारतवासियों का भी है। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि अस्सी-नब्बे वर्ष बाद भी हमारी बस घर की मूंछे ही पूँछे रह गई हैं। इसी से आज इन घर की मूंछों को ऊपर उठाए रखना प्रत्येक भारतीय नागरिक का पावन कर्त्तव्य है।
जनसंख्या भाराक्रान्त भारतीय जीवन की समस्या केवल अर्थाभाव या खाद्याभाव की ही समस्या नहीं है, उससे भी बड़ी समस्या है अपनी सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण की। भारतीय जीवन का वटवृक्ष यदि विपुल जनसंख्या वृद्धि से भाराक्रांत होकर टूट गया तो हमारे लिए अपने जातीय चरित्र की प्रतिमा, सांस्कृतिक सौष्ठव को बचा पाना असम्भव हो उठेगा। यह तो प्रकृति का नियम है। इसी से पहाड़ों में सेबों के औचई के अनुभवी विदेशी स्वामी पेड़ों को फलों के अस्वाभाविक भार से अधपके सेब तोड़ भारमुक्त कर देते थे जिससे असमय ही फलभार से पेड़ टूट न जाएँ।
जनसंख्या विपुल होने पर कोई भी जाति प्रेम, सौजन्य, ममत्व के रत्नों को अधिक समय तक आँचल की गाँठ से बाँधकर नहीं रख सकती। नागरिक का स्वभावगत सौजन्य, उसका कर्तव्य-बोध, ट्रेन-बस की भीड़भाड़ में चलनी की जलधार की ही भाँति कैसे बह जाता है, इसका कभी न कभी इनमें से प्रत्येक को अवश्य अनुभव हुआ होगा। उसका निजी स्वार्थ क्यों उसे ऐसे क्षणों में निष्ठर बना देता है? उसकी मानव स्वभावगत कोमल मनोवृत्ति, सौजन्य कहाँ विलुप्त हो जाते हैं? असाधारण परिस्थितियों में ही मानव चित्त विकारग्रस्त होता है। यही कारण है कि तीस वर्ष पूर्व जब केवल त्रिंशकोटि कंठों का ही कल कल निनाद था तब मानव इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना लोलुप नहीं था। क्षणिक भीड़ का धक्कम-धक्का जैसे उसे क्रुद्ध कर उसके आचरण को अविवेकी एवं उग्र बना देता है, ऐसे ही पृथ्वी की यह सम्भावित भीड़ भी उसे निरन्तर अविवेकी, उग्र एवं ममत्वहीन बनाती रहेगी। इसी से खाद्याभाव या अर्थाभाव के आतंक से भी अधिक आतंककर है हमारी सांस्कृतिक अवनति की सम्भावना। अतः केन्द्रीय सरकार का कर्तव्य है कि वह कठोर नीति अपनाए।
हमारी एक बहुत बड़ी दुर्बलता है हम समय रहते नहीं चेतते, जब आग लपलपाने लगती है, तब खाली बाल्टियाँ लेकर सुदूर जलसन्धान को भागते हैं। पहले बाल्टियाँ भरकर रखने में हम विश्वास नहीं करते। जब बाढ़ आती है, तब बाँधों की परिकल्पना करते हैं। ऐसे ही जब पृथ्वी के जनभार से शेषफन डगमगाया तब हमारी प्रगाढ़ निद्रा भंग हुई। यदि तीस वर्ष पूर्व हमने इस दिशा में सामान्य-सा भी प्रयास किया होता तो आज यह दशा न होती। जो काम तीस वर्ष में हम नहीं कर पाए उसे अब कम्प्यूटर के कौशल से निपटा पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। हज्जाम कितना ही व्यवसाय-निपुण क्यों न हो, यदि कतार की कतार में बैठे असंख्य ग्राहकों की हजामत बनाएगा तो तीव्र गति से चल रहे उस्तरे की धार अनेक कपोल-ठोड़ियों को अवश्य रक्तरंजित करेगी। आहत ग्राहक भुनभुनाएगा भी अवश्य। इसी से अब जनसंख्या सीमित करने में हमें प्रतिक्षण जनता के विक्षोभ का भी सामना करना होगा। देखा जाए तो असतर्कता हमारी ही है। इसी से किसी भी मूल्य पर क्यों न हो हमें भी महाराष्ट्र, हरियाणा एवं पंजाब की भाँति कठोर नीति अपनानी होगी।
यदि हम ईमानदारी से कहें, तो अपनी उनतीस वर्षों की स्वाधीनता की अवधि के बीच क्या हम अपनी सांस्कृतिक समुन्नति का कोई ऐसा पुष्ट प्रमाण दे पाए हैं? हमारा साहित्य हो या संगीत, योग हो या दर्शन, स्वयं जनसमादर का कोलाहल ही हमें आनन्द के कुछ क्षण दे पाया है, किन्तु यह पूर्वाभ्यास किए गए समादर का कलरव या खोखले प्रदर्शन का आडम्बर किसी भी दृष्टि से हमें किसी स्थायी गरिमा या महिमा से मंडित नहीं कर सकता। भारतीय सांस्कृतिक जीवन पश्चिम की संस्कृति से इस सीमा तक अनुप्राणित होकर एक मान, एक प्राण बन चुका है कि उसकी स्वाभाविकता पर अब किसी को सन्देह भी नहीं होता। किन्तु, इस अनुकृत कृतित्व को हम अपनी प्रगति कह शेखी नहीं बधार सकते। जैसा एक बार भारतेन्दु ने अपने बलिया के ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि एक बेफिकरा मँगनी के कपड़े पहन एक महफिल में गया। उसे आते ही लोगों ने फब्लियाँ कसी 'ये पाजामा तो फलाँ का है,' 'ये टोपी फलाँ की है' तो बेफिकरे ने हँसकर कहा- "घर की तो बस मूंछे ही मूंछे हैं।" वही हाल हम भारतवासियों का भी है। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि अस्सी-नब्बे वर्ष बाद भी हमारी बस घर की मूंछे ही पूँछे रह गई हैं। इसी से आज इन घर की मूंछों को ऊपर उठाए रखना प्रत्येक भारतीय नागरिक का पावन कर्त्तव्य है।
जनसंख्या भाराक्रान्त भारतीय जीवन की समस्या केवल अर्थाभाव या खाद्याभाव की ही समस्या नहीं है, उससे भी बड़ी समस्या है अपनी सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण की। भारतीय जीवन का वटवृक्ष यदि विपुल जनसंख्या वृद्धि से भाराक्रांत होकर टूट गया तो हमारे लिए अपने जातीय चरित्र की प्रतिमा, सांस्कृतिक सौष्ठव को बचा पाना असम्भव हो उठेगा। यह तो प्रकृति का नियम है। इसी से पहाड़ों में सेबों के औचई के अनुभवी विदेशी स्वामी पेड़ों को फलों के अस्वाभाविक भार से अधपके सेब तोड़ भारमुक्त कर देते थे जिससे असमय ही फलभार से पेड़ टूट न जाएँ।
जनसंख्या विपुल होने पर कोई भी जाति प्रेम, सौजन्य, ममत्व के रत्नों को अधिक समय तक आँचल की गाँठ से बाँधकर नहीं रख सकती। नागरिक का स्वभावगत सौजन्य, उसका कर्तव्य-बोध, ट्रेन-बस की भीड़भाड़ में चलनी की जलधार की ही भाँति कैसे बह जाता है, इसका कभी न कभी इनमें से प्रत्येक को अवश्य अनुभव हुआ होगा। उसका निजी स्वार्थ क्यों उसे ऐसे क्षणों में निष्ठर बना देता है? उसकी मानव स्वभावगत कोमल मनोवृत्ति, सौजन्य कहाँ विलुप्त हो जाते हैं? असाधारण परिस्थितियों में ही मानव चित्त विकारग्रस्त होता है। यही कारण है कि तीस वर्ष पूर्व जब केवल त्रिंशकोटि कंठों का ही कल कल निनाद था तब मानव इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना लोलुप नहीं था। क्षणिक भीड़ का धक्कम-धक्का जैसे उसे क्रुद्ध कर उसके आचरण को अविवेकी एवं उग्र बना देता है, ऐसे ही पृथ्वी की यह सम्भावित भीड़ भी उसे निरन्तर अविवेकी, उग्र एवं ममत्वहीन बनाती रहेगी। इसी से खाद्याभाव या अर्थाभाव के आतंक से भी अधिक आतंककर है हमारी सांस्कृतिक अवनति की सम्भावना। अतः केन्द्रीय सरकार का कर्तव्य है कि वह कठोर नीति अपनाए।
हमारी एक बहुत बड़ी दुर्बलता है हम समय रहते नहीं चेतते, जब आग लपलपाने लगती है, तब खाली बाल्टियाँ लेकर सुदूर जलसन्धान को भागते हैं। पहले बाल्टियाँ भरकर रखने में हम विश्वास नहीं करते। जब बाढ़ आती है, तब बाँधों की परिकल्पना करते हैं। ऐसे ही जब पृथ्वी के जनभार से शेषफन डगमगाया तब हमारी प्रगाढ़ निद्रा भंग हुई। यदि तीस वर्ष पूर्व हमने इस दिशा में सामान्य-सा भी प्रयास किया होता तो आज यह दशा न होती। जो काम तीस वर्ष में हम नहीं कर पाए उसे अब कम्प्यूटर के कौशल से निपटा पाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। हज्जाम कितना ही व्यवसाय-निपुण क्यों न हो, यदि कतार की कतार में बैठे असंख्य ग्राहकों की हजामत बनाएगा तो तीव्र गति से चल रहे उस्तरे की धार अनेक कपोल-ठोड़ियों को अवश्य रक्तरंजित करेगी। आहत ग्राहक भुनभुनाएगा भी अवश्य। इसी से अब जनसंख्या सीमित करने में हमें प्रतिक्षण जनता के विक्षोभ का भी सामना करना होगा। देखा जाए तो असतर्कता हमारी ही है। इसी से किसी भी मूल्य पर क्यों न हो हमें भी महाराष्ट्र, हरियाणा एवं पंजाब की भाँति कठोर नीति अपनानी होगी।
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