संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
इकत्तीस
प्रत्येक वर्ष गांधी-दिवस के उपलक्ष्य में रेशमी ऊनी वस्त्रों पर दी जा रही
विशेष छूट का आकर्षण भारत के प्रत्येक गांधी आश्रम के बाहर मेले की-सी भीड़
का समाँ बाँध देता है। पट्टाम्बर-परिधान के प्रति नारी का आकर्षण आदिकाल से
रहा है। एक तो स्वयं गांधी नाम की महिमा उन्हें आश्वस्त कर देती है कि
कम-से-कम इस पावन केन्द्र में, प्रवंचना का प्रवेश सर्वथा निषिद्ध है, दूसरा
आकर्षण रहता है गट्ठरों में चुनी खादी सिल्क एवं टसर की सुन्दर साड़ियों का।
प्रत्येक वर्ष, इन्हीं दिनों साड़ियों के काउंटर पर नारी कलकंठों का मधुर
गुंजन, कभी छेड़ दिए गए, बरौं के छत्ते की भाँति, विक्रेताओं को बौखलाहट से
भर तीव्र स्वर में परिणत हो जाता है। जब कभी, नारियों की ऐसी कंधे से कंधा
छीलनेवाली भीड़ उत्तेजित हो जाती एवं प्रत्येक के निजी स्वार्थ का प्रश्न
मुखर होता है, तो वह किसी प्रकार का अनुशासन नहीं मानती।
पल-भर में भृकुटियाँ चढ़ने लगती हैं, तेवर बदल जाते हैं, कंठ के माधुर्य में एक भी कोमल स्वर की गुंजाइश नहीं रह जाती। नारी-सुलभ सहिष्णुता, धैर्य एवं लालित्य के लिए फिर कोई स्थान नहीं रह जाता।
उस दिन गांधी आश्रम में रेशमी साड़ियों के काउंटर पर भी ऐसी ही भीड़ जुटी थी। प्रौढ़ाएँ, किशोरियाँ, युवतियाँ प्रत्येक सबसे सुन्दर लुभावनी साड़ी हथियाने के लिए अबोध बालिका-सी मचल रही थीं।
"वह दिखाइए, सुन नहीं रहे हैं क्या?"
"वह लाला।"
"अजी वह कलेजी रंग की टसर।"
"सुनिए वह पीली..."
"नहीं, नहीं, वह बाएँ हाथ के गट्ठर की तीसरी पीली।" अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष, जैसे उसी काउंटर पर अपनी व्याख्या साकार कर रहा था। उस सशक्त साड़ी-लोलुप भीड़ से जूझते, काउंटर पर बौखलाए-से बेचारे दोनों सेल्समैनों का रक्तचाप, इस बार भयावह रूप से उच्च होकर आँखों से आग बरसाने लगा था। अब तक दोनों के निर्विकार चेहरों पर क्रोध, खीझ या असहायता की एक रेखा भी नहीं उभरी थी। प्राणपण से वे दोनों नारियों के मोर्चे को झेलने की चेष्टा कर रहे थे, पर फिर सहसा उनके धैर्य का बाँध भी अचानक भरभराकर टूट गया। सैकड़ों नारी-कंठों से फरमाइश अब वे एक कान से सुन दूसरे से निकाल दे रहे थे। शायद इसी से उत्तेजित भीड़ का रवैया भी पैंतरा बदल उठा। मैंने अब उस भयावह क्रुद्ध बरे के छत्ते से किसी भाँति कच्छप-सा सिर निकालकर एक टसर की साड़ी देखने की मूर्खतापूर्ण आकांक्षा व्यक्त की तो खिसियायी बिल्ली का पहला नुचा खम्भा बनने का दुर्भाग्य भी मुझे ही प्राप्त हुआ।
"कायदे से ही साड़ियाँ दिखलाई जाएँगी, एक-एक गट्ठर रखे गए क्रम से ही खुलेगा।"
दिखानेवाले के निर्विकार चेहरे पर मुझे किसी व्यवहारकुशल सेल्समैन के चातुर्य की एक रेखा भी ढूँढ़े नहीं मिली।
"पर आप तो वही दिखाया गया गट्ठर फिर दुबारा दिखा रहे हैं।" मैं अपने को नहीं रोक पाई क्योंकि नारी कल-कंठ निनाद के भूल-भुलैया में भटका बेचारा वह सेल्समैन फिर दिखाए गए गट्ठर के प्रदर्शन की पुनरावृत्ति कर रहा था।
“जी नहीं, देख नहीं रही हैं क्या? ये दूसरी साड़ियाँ हैं..." इस बार उसका स्वर तीखा हो गया था। मेरे प्रश्न का उत्तर देने में बेचारे को असमय ही अपने जामिश्रित पान के उस पीक को उदरस्थ करना पड़ा था, जिसका आनन्द वह सम्भवतः विलम्बित जुगाली से लेना चाह रहा था। करता भी क्या? कहीं पीक गुलगुलाकर उत्तर देता, और एक छींटा भी साड़ी पर पड़ जाता तो सत्यानाश हो जाता!
“नहीं, वही गट्ठर है, वही गट्ठर है। आप भूल गए हैं। हम इसे देख चुकी हैं।" इस बार पीछे खड़ी मेरी पूरी बिरादरी ने मेरे कथन का सशक्त समर्थन किया।
नारी क्या कभी साड़ी के रंग और कन्नी को पहचानने में भूल कर सकती है?
"आप व्यर्थ ही अपना और हमारा समय बरबाद कर रहे हैं, अन्य गट्ठर दिखाइए।" मैंने कह दिया, तो उसने मुझे ऐसे आँख तरेरकर देखा कि बस चलता तो शायद रेशमी साड़ियों के गट्ठर में मुझे भी लपेटकर धम्म से फर्श पर पटक देता।
“समय नहीं हो तो घर जाइए, हमें ही कौन-सा समय है।" स्पष्ट था कि पान के पीक को असमय उदरस्थ किए जाने की व्यथा को वह अभी भूल नहीं पाया था। अहिंसात्मक मटका सिल्क की साड़ियों को उठा-उठाकर दिखाने की उस भंगिमा में हिंसात्मक भावना ही प्रतिपल मुखरित होते देख बिना कुछ लिए ही मैं बाहर निकल गई।
हमारे देश के व्यापार-विनिमय की परम्परा बड़ी महान रही है। कभी विदेशों में भी हमारे रेशम मलमल की जो सुख्याति थी, उसके पीछे केवल उत्कृष्ट रेशम का रेशा या मलमल की सुकोमल पारदर्शी स्निग्धता ही नहीं थी, था भारतीय व्यापारियों का व्यापारकुशल मस्तिष्क, उनकी नम्रता, सहिष्णुता एवं उनका व्यवहार। गांधी आश्रम केवल खादी सिल्क, ऊनी वस्त्र या खादी का ही विक्रय-केन्द्र नहीं है, वह जिनकी स्मृति का पावन मन्दिर है, उनका ध्यान भी हमें निरन्तर रखना चाहिए। वहाँ के प्रत्येक कर्मचारी में दो भावनाओं का रहना नितान्त आवश्यक है-कठोर परिश्रम एवं पूर्ण समर्पण। मैंने आज तक जितने भी खादी आश्रम देखे हैं, उनमें केवल एक दिल्ली के खादी ग्रामोद्योग भवन को छोड़ अधिकांश आश्रमों में कर्मचारियों की ऐसी ही उपेक्षा एवं उदासीनता से चित्त क्षुब्ध ही हुआ है। उनका व्यवहार ऐसा ही रहता है कि 'लेना है तो लीजिए वरना अपना रास्ता नापिए। यह प्रवत्ति किसी भी दुकानदार के हित में नहीं है। कभी नैनीताल के एक किताबों के फेरीवाले अपने दुकानदार से मैंने जब कहा, “दाना मियाँ, आपकी इतनी किताबें, पत्रिकाएँ पढ़े बिना कुछ खरीदे ये लोग चले जाते हैं, आप कुछ भी नहीं कहते।"
"मेम साहब," उसने हँसकर कहा था, "दुकानदार वह है, जो हर ग्राहक की धौंस सहकर भी हँसता रहे।"
आज का दुकानदार अपनी वह हँसी भूल गया है। यद्यपि, हमारे सरकारी प्रतिष्ठानों के विभिन्न विक्रय केन्द्रों ने स्वतन्त्रता के पश्चात् अपनी संस्कृति की सज्जा को बड़े यत्न एवं परिश्रम से सँवारा है, किन्तु अब भी उनके सांस्कृतिक ढाँचे में परिवर्तन अभीष्ट है। केवल संदली अगरबत्ती की सुवासित धूम्ररेखा से ही कक्ष को धूमायित कर हम अपनी संस्कृति को विज्ञापित नहीं कर सकते। कभी लगता है, कि बाहरी टीम को सजाने में ही हमारा भीतरी क्रम कुछ गड़बड़ा गया है। सज्जा, विज्ञापन आदि अन्य क्षेत्रों पर काफी जोर दिया जाता है, किन्तु अपने को समय एवं आवश्यकता के अनुरूप ढालना हम नहीं जानते। ऐसी विशेष छूट वर्ष में एक या दो ही बार होती है एवं एक औसत गृहिणी के बटुए की डोर भी यदाकदा ही औदार्य से खुल पाती है। इसी से जब यह अवसर आता है तो वह भी पूर्ण मनोयोग से अपनी मनवांछित साड़ी का चयन करना चाहती है। गांधी आश्रम के अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि उसे पूर्ण सहयोग एवं सम्भ्रतापूर्वक पूर्ण सुविधा प्रदान करें। बारह आने की मिट्टी की सुराही को भी ठोंक-बजाकर खरीदना जिस नारी का जन्मजात गुण है, वह यदि डेढ़ सौ की साड़ी को खरीदने से पूर्व उलट-पुलटकर देखना भी चाहे तो उसका क्या दोष?
पल-भर में भृकुटियाँ चढ़ने लगती हैं, तेवर बदल जाते हैं, कंठ के माधुर्य में एक भी कोमल स्वर की गुंजाइश नहीं रह जाती। नारी-सुलभ सहिष्णुता, धैर्य एवं लालित्य के लिए फिर कोई स्थान नहीं रह जाता।
उस दिन गांधी आश्रम में रेशमी साड़ियों के काउंटर पर भी ऐसी ही भीड़ जुटी थी। प्रौढ़ाएँ, किशोरियाँ, युवतियाँ प्रत्येक सबसे सुन्दर लुभावनी साड़ी हथियाने के लिए अबोध बालिका-सी मचल रही थीं।
"वह दिखाइए, सुन नहीं रहे हैं क्या?"
"वह लाला।"
"अजी वह कलेजी रंग की टसर।"
"सुनिए वह पीली..."
"नहीं, नहीं, वह बाएँ हाथ के गट्ठर की तीसरी पीली।" अन्तर्राष्ट्रीय महिला वर्ष, जैसे उसी काउंटर पर अपनी व्याख्या साकार कर रहा था। उस सशक्त साड़ी-लोलुप भीड़ से जूझते, काउंटर पर बौखलाए-से बेचारे दोनों सेल्समैनों का रक्तचाप, इस बार भयावह रूप से उच्च होकर आँखों से आग बरसाने लगा था। अब तक दोनों के निर्विकार चेहरों पर क्रोध, खीझ या असहायता की एक रेखा भी नहीं उभरी थी। प्राणपण से वे दोनों नारियों के मोर्चे को झेलने की चेष्टा कर रहे थे, पर फिर सहसा उनके धैर्य का बाँध भी अचानक भरभराकर टूट गया। सैकड़ों नारी-कंठों से फरमाइश अब वे एक कान से सुन दूसरे से निकाल दे रहे थे। शायद इसी से उत्तेजित भीड़ का रवैया भी पैंतरा बदल उठा। मैंने अब उस भयावह क्रुद्ध बरे के छत्ते से किसी भाँति कच्छप-सा सिर निकालकर एक टसर की साड़ी देखने की मूर्खतापूर्ण आकांक्षा व्यक्त की तो खिसियायी बिल्ली का पहला नुचा खम्भा बनने का दुर्भाग्य भी मुझे ही प्राप्त हुआ।
"कायदे से ही साड़ियाँ दिखलाई जाएँगी, एक-एक गट्ठर रखे गए क्रम से ही खुलेगा।"
दिखानेवाले के निर्विकार चेहरे पर मुझे किसी व्यवहारकुशल सेल्समैन के चातुर्य की एक रेखा भी ढूँढ़े नहीं मिली।
"पर आप तो वही दिखाया गया गट्ठर फिर दुबारा दिखा रहे हैं।" मैं अपने को नहीं रोक पाई क्योंकि नारी कल-कंठ निनाद के भूल-भुलैया में भटका बेचारा वह सेल्समैन फिर दिखाए गए गट्ठर के प्रदर्शन की पुनरावृत्ति कर रहा था।
“जी नहीं, देख नहीं रही हैं क्या? ये दूसरी साड़ियाँ हैं..." इस बार उसका स्वर तीखा हो गया था। मेरे प्रश्न का उत्तर देने में बेचारे को असमय ही अपने जामिश्रित पान के उस पीक को उदरस्थ करना पड़ा था, जिसका आनन्द वह सम्भवतः विलम्बित जुगाली से लेना चाह रहा था। करता भी क्या? कहीं पीक गुलगुलाकर उत्तर देता, और एक छींटा भी साड़ी पर पड़ जाता तो सत्यानाश हो जाता!
“नहीं, वही गट्ठर है, वही गट्ठर है। आप भूल गए हैं। हम इसे देख चुकी हैं।" इस बार पीछे खड़ी मेरी पूरी बिरादरी ने मेरे कथन का सशक्त समर्थन किया।
नारी क्या कभी साड़ी के रंग और कन्नी को पहचानने में भूल कर सकती है?
"आप व्यर्थ ही अपना और हमारा समय बरबाद कर रहे हैं, अन्य गट्ठर दिखाइए।" मैंने कह दिया, तो उसने मुझे ऐसे आँख तरेरकर देखा कि बस चलता तो शायद रेशमी साड़ियों के गट्ठर में मुझे भी लपेटकर धम्म से फर्श पर पटक देता।
“समय नहीं हो तो घर जाइए, हमें ही कौन-सा समय है।" स्पष्ट था कि पान के पीक को असमय उदरस्थ किए जाने की व्यथा को वह अभी भूल नहीं पाया था। अहिंसात्मक मटका सिल्क की साड़ियों को उठा-उठाकर दिखाने की उस भंगिमा में हिंसात्मक भावना ही प्रतिपल मुखरित होते देख बिना कुछ लिए ही मैं बाहर निकल गई।
हमारे देश के व्यापार-विनिमय की परम्परा बड़ी महान रही है। कभी विदेशों में भी हमारे रेशम मलमल की जो सुख्याति थी, उसके पीछे केवल उत्कृष्ट रेशम का रेशा या मलमल की सुकोमल पारदर्शी स्निग्धता ही नहीं थी, था भारतीय व्यापारियों का व्यापारकुशल मस्तिष्क, उनकी नम्रता, सहिष्णुता एवं उनका व्यवहार। गांधी आश्रम केवल खादी सिल्क, ऊनी वस्त्र या खादी का ही विक्रय-केन्द्र नहीं है, वह जिनकी स्मृति का पावन मन्दिर है, उनका ध्यान भी हमें निरन्तर रखना चाहिए। वहाँ के प्रत्येक कर्मचारी में दो भावनाओं का रहना नितान्त आवश्यक है-कठोर परिश्रम एवं पूर्ण समर्पण। मैंने आज तक जितने भी खादी आश्रम देखे हैं, उनमें केवल एक दिल्ली के खादी ग्रामोद्योग भवन को छोड़ अधिकांश आश्रमों में कर्मचारियों की ऐसी ही उपेक्षा एवं उदासीनता से चित्त क्षुब्ध ही हुआ है। उनका व्यवहार ऐसा ही रहता है कि 'लेना है तो लीजिए वरना अपना रास्ता नापिए। यह प्रवत्ति किसी भी दुकानदार के हित में नहीं है। कभी नैनीताल के एक किताबों के फेरीवाले अपने दुकानदार से मैंने जब कहा, “दाना मियाँ, आपकी इतनी किताबें, पत्रिकाएँ पढ़े बिना कुछ खरीदे ये लोग चले जाते हैं, आप कुछ भी नहीं कहते।"
"मेम साहब," उसने हँसकर कहा था, "दुकानदार वह है, जो हर ग्राहक की धौंस सहकर भी हँसता रहे।"
आज का दुकानदार अपनी वह हँसी भूल गया है। यद्यपि, हमारे सरकारी प्रतिष्ठानों के विभिन्न विक्रय केन्द्रों ने स्वतन्त्रता के पश्चात् अपनी संस्कृति की सज्जा को बड़े यत्न एवं परिश्रम से सँवारा है, किन्तु अब भी उनके सांस्कृतिक ढाँचे में परिवर्तन अभीष्ट है। केवल संदली अगरबत्ती की सुवासित धूम्ररेखा से ही कक्ष को धूमायित कर हम अपनी संस्कृति को विज्ञापित नहीं कर सकते। कभी लगता है, कि बाहरी टीम को सजाने में ही हमारा भीतरी क्रम कुछ गड़बड़ा गया है। सज्जा, विज्ञापन आदि अन्य क्षेत्रों पर काफी जोर दिया जाता है, किन्तु अपने को समय एवं आवश्यकता के अनुरूप ढालना हम नहीं जानते। ऐसी विशेष छूट वर्ष में एक या दो ही बार होती है एवं एक औसत गृहिणी के बटुए की डोर भी यदाकदा ही औदार्य से खुल पाती है। इसी से जब यह अवसर आता है तो वह भी पूर्ण मनोयोग से अपनी मनवांछित साड़ी का चयन करना चाहती है। गांधी आश्रम के अधिकारियों का यह कर्तव्य है कि उसे पूर्ण सहयोग एवं सम्भ्रतापूर्वक पूर्ण सुविधा प्रदान करें। बारह आने की मिट्टी की सुराही को भी ठोंक-बजाकर खरीदना जिस नारी का जन्मजात गुण है, वह यदि डेढ़ सौ की साड़ी को खरीदने से पूर्व उलट-पुलटकर देखना भी चाहे तो उसका क्या दोष?
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