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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


बत्तीस


मौर्ययुगीन नगर प्रशासन में प्रजा के हित को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता था। अर्थशास्त्र में एक स्थान पर उल्लिखित है, "प्रजा की प्रसन्नता ही में राजा की प्रसन्नता निहित है। जो कुछ राजा को अच्छा लगे, उसे ही उचित न मानकर जो प्रजा को उचित एवं सुन्दर लगे, उसे ही उचित मानना चाहिए।" कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर हमें ज्ञात होता है कि नगर चार भागों में विभक्त था और प्रत्येक विभाग 'स्थानिक' नाम के पदाधिकारी के अधीन रहता था। नगर की सफाई का ऐसा ध्यान रखा जाता था कि यदि किसी ने कहीं कूड़ा फेंक दिया तो उसे कठोर दंड दिया जाता था। आज जब अपने फ्लैट के पिछवाड़े मलबे के विराट् स्तूप को देखती हूँ तो अतीत के गर्त में विलीन हो गए उस अद्भुत 'स्थानिक' नामक पदाधिकारी की स्मृति में बरबस एक दीर्घ श्वास निकल जाती है।

गत सप्ताह, बिना बादल ही घनघोर वृष्टि की भाँति सार्वजनिक निर्माण विभाग की एक उत्साही टोली ने अकारण ही पिछवाड़े खड़ी दीवार को देखते ही देखते धराशायी कर दिया। यही नहीं, सड़क से मिली एक दूसरी दीवार, जो वर्षों से राहगीरों एवं फ्लैट निवासियों के बीच प्रहरी बनी खड़ी थी, उसे भी तोड़ता-फोड़ता एक सीमेंट भरा विराट् ट्रक सहजन के पेड़ का आमूल विध्वंस करता खड़ा हो गया। पूछने पर पता लगा कि अवकाश प्राप्त कर अपनी विस्मृत कोठी में निवास करने आए किसी उच्चपदस्थ अधिकारी को उस दीवार के ह्रस्व कलेवर पर घोर आपत्ति थी।

पहले उन्होंने अपना रोष प्रकट किया दफ़्तरी आवास बनी अपनी कोठी का मलबा हमारी ओर फेंककर और फिर दीवार गिरवाकर ही नहीं पिछवाड़े बने पक्के सागरपेशे में वर्षों से रह रहे उन परिवारों को भी एक ही दिन में घर खाली करने की कठोर कंठगर्जना सुनाकर। इनमें कुछ परिवार तब से रहे हैं जब इस कालोनी का निर्माण भी नहीं हुआ था। गुलिस्ताँ बनने से पहले ही जो बुलबुलें डालों पर चहक रही थीं, वे बेचारी अब जाएँ भी तो कहाँ? साथ ही उनके कंठसंगीत ने हमें भी वर्षों अपनी स्वरमाधुरी से अभिसिंचित किया है।

अधिकांश महरियाँ, झाड़-पोंछा करनेवालियाँ इन्हीं सागरपेशों में रहती हैं। किसी गृहिणी के लिए महरी का क्या महत्त्व है, यह एक गृहिणी ही समझ सकती है। पति का दौरे पर जाना भी शायद किसी गृहिणी को उतना नहीं खलता जितना घर की महरी का छुट्टी पर जाना।

इस अनावश्यक दीवार के निर्माण की सुनियोजित योजना को देखकर लगता है, इसे बनने में भी ताजमहल की भाँति सुदीर्घ समय लगेगा और बनने पर चीन की दीवार की ही भाँति अपने गगनचुम्बी उभार से वह नीम के प्रतिवेशी ऊँचे अगले वृक्ष को तुच्छ कर रख देगी।

योजना निश्चय ही लुभावनी है, किन्तु जिसके निर्माण के लिए आसन्नप्राय माघी विभावरी में कुछ दीनहीन परिवारों को अकारण ही ठिठुरने को बाहर खदेड़ दिया जाए, यत्न से लगाए गए सहजन के वृक्ष को धराशायी कर दिया जाए-वह भी तब जब हम अपने वृक्षारोपण-प्रेम की उच्च स्वर में सगर्व घोषणा करते हैं-यह कहाँ तक वांछनीय है?

इसके अतिरिक्त सड़क से लगी दीवार तोड़कर निर्माण विभाग ने गुलिस्ताँवासियों का सर्वाधिक अहित तो किया ही है, सीमान्त पर बने फ्लैट निवासियों के लिए रात की नींद भी हराम कर दी है। अब सड़क एवं कालोनी की सीमा-रेखा का प्रश्न ही नहीं रहा। सामान्य से ही कौशल एवं साहस से नौसिखिया चोर भी परम निश्चिन्तता से एक ही छलाँग लगा कभी भी कुल्हाड़ी सहित आधी रात को सिरहाने खड़े हो अपनी अलौकिक उपस्थिति से हमें आतंकित कर सकता है। इस भयावह सम्भावना के अतिरिक्त, अन्य अनेक पुण्य कार्य भी इस भग्न प्राचीर तले सम्पादित हो रहे हैं। अँधेरा होते ही सड़क के सम्पूर्ण श्वानकुल की गोष्ठी अब यहीं जुटने लगी है। राहगीरों ने भी यह अनुभव किया है कि जिस क्रिया से वे पहले इसकी आड़ में निवृत्त होते थे, उससे बिना आड़ के भी निवृत्त होने में कोई हानि नहीं है। फलतः दुर्गन्ध का निर्लज्ज भबाका न तो बरामदे में बैठने देता है, न खड़े होने देता।

अधिकारी यदि स्वयं आकर कभी उस भग्न दीवार का निरीक्षण करें तब ही उन्हें गम्भीर स्थिति ज्ञात हो सकती है।

मौर्यकालीन नागरिक प्रशासन की सुनियोजित व्यवस्था आज भी हमें बहुत कुछ सिखा सकती है। तब यदि कोई व्यक्ति अपने मकान में इस प्रकार के दरवाजे-खिड़कियाँ बनाता था, जिससे दूसरों को असुविधा होती थी, तो उसे दंड दिया जाता था। कौटिल्य ने नगर के प्रधान अधिकारी के जो आवश्यक कर्तव्य बताए हैं, उनमें उसका प्रमुख कर्तव्य है-सड़कों की व्यवस्था, नगर की जल-व्यवस्था एवं मार्गों तथा खाई आदि का निरीक्षण करना। नगर को समुन्नत ' बनाने के लिए, उसके सौन्दर्य में चार चाँद लगाने के लिए आवश्यक है कि हम निर्माण से अधिक संरक्षण की ओर ध्यान दें। सार्वजनिक निर्माण विभाग भी तब ही अपने नाम की सार्थकता को प्रतिपादित कर सकता है, जब वह अपने संरक्षण पक्ष को अधिक पुष्ट बनाए, संहार पक्ष को नहीं।

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