संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
तैंतीस
बहुत वर्ष पूर्व हक्सले की इन पंक्तियों ने कैशोर्य के अविवेकी खून को खौला दिया था, किन्तु कैसा आश्चर्य है कि आज उन्हीं पंक्तियों का कटु सत्य कटु नहीं लगता। एक वयस के बाद जैसे कद्दू, लौकी, मूली जैसी अरसिक सब्जियाँ भी स्वयं स्वादिष्ट लगने लगती हैं, ऐसे ही समय एवं प्रौढ़ता के साथ-साथ अनुभवों का स्वाद भी बदलने लगता है। शान्तिनिकेतन वाचनालय के अध्यक्ष श्री प्रभात कुमार मुकर्जी, जिन्होंने रवीन्द्र-जीवनी के लेखक के रूप में विशेष ख्याति प्राप्त की, वे तब हमारे 'गाइड' भी थे। प्रायः ही, पठनीय पुस्तकों की पंक्तियों में, लाल पेन्सिल की प्रगाढ़ रेखा खींच वे हमें पढ़ने को देते और दूसरे दिन, कंठस्थ अंश हमें उन्हें सुनाना होता। उस दिन, जो पंक्तियाँ मुझे दी गई थीं, आज भी याद हैं। पंक्तियाँ थीं, "बट दि इंडियंस आर स्टूपिड एबाउट एवरी थिंग, दे बर्न आल दि काउ-डंग, इनस्टेड ऑफ पुटिंग इट बैक आन दि लैण्ड एण्ड देन दे आर सरप्राइज्ड दैट हाफ दि पापुलेशन हैज नाट इनफ टू इट।"
अर्थात् भारतीय हर बात में अपनी मूर्खता दर्शाते हैं, खेतों में डालने के बदले, वे अपने सारे गोबर को जला देते हैं, और फिर उन्हें आश्चर्य होता है कि उनकी आधी आबादी भूखी रहती है!
बात सुनने में चाहे कितनी ही कड़वी लगे, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि सामान्य वस्तु की महत् उपादेयता के रहस्य को हम अभी भी नहीं समझना चाहते। हमारी बड़ी-बड़ी महत्त्वाकांक्षी योजनाओं का प्रायः जो दुखद अंत होता है, उसका प्रमुख कारण हमारी यही शोचनीय मनःस्थिति है। अब भी, कोयलों में हमारे देश में बड़े यत्न से सरकारी मोहर लगाई जाती है, किन्तु अवसरपड़ने पर अशर्फियों की लूट में हमें कभी आपत्ति नहीं होती। किसी भी नेता के शुभागमन में बनाए गए आकर्षक सिंहद्वार हों या कंठार्पित फूलमालाएँ, व्यर्थ व्यय की चिन्ताएँ हमें नहीं सताती। यही नहीं, विवाह, जन्म-मृत्यु किसी भी सुखद या दुखद अवसर पर अपने अपव्यय की कुटेव हमने न छोड़ी है, न छोड़ना चाहते हैं। हमारे देश में जितने ही छोटे तबके का प्राणी होगा, उतनी ही कठिन दबोच से उसे बिरादरी दबोचेगी। पूरी बिरादरी को जिमाना उसका कठिन कर्त्तव्य बन उठेगा। पहाड़ में इसे घाट का बोझा उतारना कहते हैं, अर्थात् जितने आत्मीय परिजन मृतदेह वहन कर घाट गए थे, उन्हें आदरपूर्वक जिमाना। यही नहीं, भांजे-दामाद को दक्षिणा देना, जिसके आदान-प्रदान में लेने और देनेवाले समझदार होने पर, कभी सहज संकोच से गड़ जाते हैं; पर क्या करें? ऐसा हमेशा से होता आया है, इसी से किसी को यह साहस नहीं होता कि इस निरर्थक व्यवहार को जड़ से उखाड़कर दूर फेंक दें।
हमारा यही दकियानूसीपन हमें यदि विदेशियों के आलोचना-शर से बिद्ध करता है, तो हमें बुरा लगता है। यही रूढ़िग्रस्त मनोवृत्ति हमारी प्रगति का द्वार भी अवरुद्ध कर रख देती है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक मेघनाद साहा ने एक बार औद्योगीकरण पर अपने प्रसिद्ध भाषण में एक रोचक कथा का उल्लेख कर हमारी संकीर्ण मनोवृत्ति का अत्यन्त सजीव वर्णन किया था-एक बार, एक आदमी नाव से नदी के दूसरे छोर पर बसे गाँव की ओर जा रहा था। मार्ग में ही सन्ध्या घनीभूत हो गई। उसने नाव किनारे लगा एक पेड़ से बाँधी और मन-ही-मन निश्चय किया कि रात-भर सुस्ताकर वह भोर होते ही नाव खोल चल देगा। आधी रात को सहसा उसने सोचा, क्यों न रात ही रात में नाव खेकर वह गंतव्य स्थान पर पहुंच जाए। रात की यात्रा क्लांतिकर भी नहीं होगी! पर जब रात-भर नाव खेने पर भी वह दूसरे पार नहीं पहुंचा और सुबह के उजाले में उसने अपने को ठीक उसी स्थान पर पाया, जहाँ उसने नाव बाँधी थी, तो उसके आहत आश्चर्य का पार नहीं रहा। मुड़कर देखा तो नाव की रस्सी उसी पेड़ पर बँधी थी। कठिन परिश्रम से वह रात-भर नाव तो खेता रहा किन्तु पेड़ में बँधी रस्सी को खोलना भूल गया! इसी से जहाँ था बेचारा वहीं का वहीं रह गया! हमारी प्रगति का इतिहास भी लगभग ऐसा ही रहा है। उसी मूर्ख नाविक की भाँति हम प्रगति के पथ पर नावमान तो होना चाहते हैं किन्तु जब तक हमारी नाव रूढ़ियों के तने से बँधी रहेगी, किसी भी क्षेत्र में हमारी प्रगति सम्भव नहीं हो पाएगी। हम कितने ही जोश से नाव क्यों न खेएँ, रस्सी नहीं खुली तो हम जहाँ थे, हमेशा वहीं बने रहेंगे।
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