संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
अड़तालीस
भली प्रकार प्रयुक्त की गई वाणी को विद्वानों ने कामनाओं की दुहनेवाली गाय कहा है। यदि वाणी ठीक ढंग से प्रयुक्त न की गई हो तो वह अपने प्रयोगकर्ता के वृषभ गुण को ही प्रगट करती है। इसीलिए काव्य में अल्पदोष को भी सहन नहीं करना चाहिए। सुन्दर शरीर भी, एक श्वेतकुष्ठ के धब्बे मात्र से कुरूप हो उठता है। किन्तु इसी सन्दर्भ में 'काव्यादर्श' की यह पंक्ति, प्रत्येक साहित्यकार के लिए, चाहे उसकी विधा गद्य, विशेष महत्त्व रखती है-
'गुण दोषान शास्त्रज्ञः
कथं विभजते
जनः किमन्धं स्याधिकारोस्ति
रूप भेदोप-लब्धिषु।'
जो व्यक्ति इस विषय के शास्त्र को जाननेवाला नहीं है, वह गुणदोष का विवेचन कैसे करेगा? रूपों के भेद बताने का क्या अन्धे व्यक्ति को अधिकार है? वाणी भली प्रकार प्रयुक्त की जाने से कामनाओं को दुहनेवाली गाय बन सकी है या स्वयं वाणी को प्रयुक्त करनेवाला ही अपना बैलपन प्रकट कर गया है, इसका सही मूल्यांकन क्या इस युग में भी हो पाता है? इधर हमारे साहित्य-जगत में एक नया लटका चल पडा है। किसी भी साहित्यकार की किसी बहुचर्चित कहानी या उपन्यास को लेकर एक गोष्ठी का आयोजन और उसमें लेखक की उपस्थिति में इस रचना की शल्यक्रिया। हो सकता है, पूर्वकालीन विदग्ध गोष्ठियों की भाँति लेखक एवं भावकों के विचारों को यह स्वस्थ आदान-प्रदान दोनों ही पक्षों के प्रति हितकर होता हो, किन्तु स्वस्थ आलोचना से भी अधिक महत्त्व रखती है, लेखनी की सहज-स्वच्छन्द निरंकुशता।
रुद्रट, कल्हण और बिल्हण की उक्तियाँ कवि के स्वाभिमान को बहुत ऊँचा उठा राजा के समकक्ष बनाती हैं। उनका कहना है, राजाओं के बनाए देवालय नष्ट हो गए। उन राजाओं का नाम भला किस माध्यम से शेष रहता, यदि उनकी यशगाथा लिखनेवाले न होते? जिन महान पराक्रमी राजाओं की भुजा वन रूपी वृक्षों की छाया सेवन कर समुद्र की करधनी धारण कर, पृथ्वी निर्भय बनी रही, वे राजा भी जिस अनुग्रह के बिना स्मरण नहीं किए गए, उस कविकर्म को हम प्रणाम करते हैं। जिन राजाओं के मित्र कवीश्वर न हुए उनका यश लुप्त हो जाता है। लंकापति रावण का यश जो नष्ट हो गया और राम लोकप्रीति के पात्र हो गए, यह सब महाकवि वाल्मीकि और उनकी काव्यप्रतिभा का प्रभाव है।
किन्तु राजा के समकक्ष खड़े होने का यह सम्मान क्या उन आदिकवियों ने केवल अपनी सहज नैसर्गिक प्रतिभा के बल पर ही अर्जित किया? यदि उनकी लेखनी पर कठिन अंकुश के दन्तक्षत होते तब भी क्या वह प्रतिभा, सहज रूप से विकसित हो पाती? भर्तृहरि ने आलोचकों के मात्सर्यग्रस्त और राजाओं के दम्भी हो जाने से सुभाषित के नष्ट हो जाने की आशंका व्यक्त की है, भामह ने कहा है कि सतकाव्य की रचना, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तथा कला की साधना में प्रवीणता, आनन्द एवं यश प्रदान करती है। यह तब ही सम्भव है, जब लेखनी की गति अवरुद्ध न हो। भावुक की संकीर्णता या अनावश्यक गतिरोध कभी-कभी लेखनी को स्थायी रूप से पंगु बना देता है और फिर उसका वह लँगड़ापन पोलियो विकासग्रस्त पैर की अभागी लचक की भाँति सदा उसके पंगु अंग से चिपका रह जाता है।
मेधा का विशिष्ट कौशल अब उतना महत्त्व नहीं रखता। साहित्यिक उत्कृष्टता या अपकृष्टता की विवेचना करनेवाले गुणी भावकों को भी अनेक बात ध्यान में रख अपनी साहित्यिक व्यवहारकुशलता का परिचय देना पड़ता है। हृदय से भले ही किसी कृति के महत्त्व को स्वीकार लें, लेखन की स्वीकृति देने से पूर्व उन्हें अपने विवेक के द्वार खटखटाने ही पड़ते हैं। इस सन्दर्भ में राजशेखर की वे सटीक पंक्तियाँ कितनी खरी लगती हैं, “उस कवि की काव्यरचना पर आश्चर्य है जिस कवि के स्वामी, मित्र, शिष्य या आचार्य कोई भी उसके काव्य के आलोचक न हुए।" अर्थात् उसका काव्य उनके बिना चर्चा का विषय बना, तो फिर उसे काव्य से क्या लाभ? उसके हृदय मात्र में जिस काव्य की स्थिति है; जिस काव्य के रचना गुणों को भावक अपनी चर्चाओं से दसों दिशाओं में नहीं फैला देते हैं? ऐसे ही काव्य की सुगन्ध अरण्य में खिले और अरण्य ही में मुरझा गए पुष्प की भाँति भला किसी को मिल भी कैसे सकती है?
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