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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...



सैंतालीस


भारतीय संस्कृति ने, नारी में मातृत्व भाव की श्रेष्ठता प्रतिपादित कर यह सिद्ध कर दिया है कि सनातन मातृत्व ही नारी का यथार्थ स्वरूप है। नारी होकर भी, मुझे यह स्वीकारने में संकोच नहीं होता कि युग परिवर्तन के साथ-साथ, नारी के स्वभाव, गुणों में ही परिवर्तन नहीं आया, उसके उस आदर्श मातृत्व के उच्च निःस्वार्थ स्तर का सिंहासन भी कभी-कभी डगमगा गया है। नारी का जो परम वन्दनीय स्वरूप था, जिस मातृत्व की सुकृति की ऐतिहासिक ख्याति थी, उसमें विकृति का समावेश भी होता जा रहा है। जो अनन्य स्नेह, अमूल्य समय हमारी पीढ़ी को जननी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह सम्भवतः हमारी सन्तान को भी हमसे न मिल पाया हो, ऐसे ही आनेवाली पीढ़ी से भी वात्सल्यमयी जननी की स्नेह-स्निग्ध छाया क्रमशः धूमिल होती विदेशी जननी की ही भाँति एक दिन सम्पूर्ण रूप से विलीयमान हो जाए, तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मेरे एक मित्र, अभी दो दिन पूर्व ही अपनी एक भतीजी के अशोभनीय ऐसे ही व्यवहार से क्षुब्ध होकर, मुझे उसकी कहानी सुनाकर कहने लगे, “बहन, यह जमाना अब बड़ा जालिम होता जा रहा है। इन मरे क्लब डिसकौथीकों, विदेश यात्राओं ने न जाने कितने बच्चों को माँ-बाप के रहते भी यतीम बना दिया है।" मैंने स्वयं उस परिवार की समृद्धि बचपन से ही देखी थी। उस रियासत का नमक खाया है, इसी से उनकी क्षुब्ध बौखलाहट मुझे भी विचलित कर गई। उच्च राजपरिवार से घनिष्ठता से सम्बन्धित वे दोनों बहनें नैनीताल की कन्वेंट शिक्षिता थीं। बड़ी का विवाह अत्यन्त समृद्ध परिवार में हुआ। साल के छः महीने विदेश में बिताती थी। तीन पुत्रियों की जननी बनने पर भी षोडसी लगती थी और नैनीताल की ठंडी सड़क में रेसकोर्स के जौकी की सधी भंगिमा में घोड़ा भगाती थी। वह भी नैनीताल का सबसे बदमिजाज घोड़ा! मेरा परिचय उसके नाना से ही अधिक था। मैं प्रायः ही उनसे मिलने जाती तो देखती तीनों परी-सी सुन्दरी नन्हीं बिटियाँ, आया के साथ खेल रही हैं या नानी दुलार रही हैं। कुछ वर्षों बाद सुना, बड़ी बिटिया को एक विचित्र बीमारी लग गई है, दस वर्ष की वयस से पीछे खिसककर छः महीने की अबोध अवस्था में उसका प्रत्यावर्तन, उसके नाना-नानी का बहुत बड़ा सिरदर्द बन गया है। न जाने कितना इलाज हुआ, किन्तु डॉक्टरों ने कहा, “यह लाखों में एक को होनेवाला घातक रोग है, सम्भव है कुल के अभिशाप का-सा यह रोग, दिखने में स्वस्थ उन दो बच्चियों को भी लग जाए।" बड़ी को उनसे दूर कर, बच्चों के ऐसे आश्रम में भेज दिया गया, जहाँ ऐसे ही अभिशप्त शिशु, हाथ बाँधे मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं। तेरह वर्ष की होकर, उसी आश्रम में उसने आँखें मूंदी, तो मेरे ये ही स्नेही मित्र उसके सिरहाने थे। उसके उच्चपदस्थ पिता, अपनी ऊँची नौकरी में व्यस्त थे, जननी विदेश भ्रमण को गई थी। दो वर्ष पूर्व, उसी विचित्र रोग में फूल-सी सुकुमारी दूसरी बेटी भी चपचाप चली गई। मझे आज भी उसका वह गोरा भभका रंग. बडी-बडी आँखें और भोली निष्पाप शिशु की-सी दूधिया हँसी नहीं भूलती।

अभी दो दिन पूर्व मेरे वे मित्र मुझसे मिलने आए तो बोले, “अब उसका भी बुलौआ आ गया, अकेली पड़ी है, सोचता हूँ दोनों को तो पहुँचा आया, तीसरी को भी खुदा हाफिज कर आऊँ। या परवरदिगार! किसने सोचा था कि ये तीन खुशनुमा कलियाँ, ऐसे खिलने से पहले तू खुद तोड़ देगा।"

“क्यों, वह नहीं आई?" मैंने उसकी माँ का नाम लेकर पूछा।

वह बड़े वेग से हँसे। चेहरे पर अनुभव की प्रौढ़ झुर्रियाँ खंजर-सी तीखी हो उठीं, “वह आस्ट्रेलिया जा रही है, उनके अब्बा-अम्मा पहले जा चुके हैंमियाँ बड़ी दूर हैं, आ नहीं सकते-जाने से पहले शायद मिल आएँगी। पर उन्हें रहने की इतनी फुर्सत कहाँ है?" जो बच्ची किसी को पहचानती नहीं, बोलती नहीं, हँसना भूल गई है, आँखें खो बैठी है और फिर ऐसे स्कूल में है जहाँ वैसे ही भावनाहीन चेहरेवाले अनेक अभिशप्त बालक शून्य दृष्टि से जननी का पथ निहारते खड़े हैं, जहाँ न डिसकौथिक का मृदु संगीत है और न फाइव स्टार होटल की महिमा, वहाँ बेचारी आधुनिका जननी का मन लगेगा भी कैसे? तब क्या वह उक्ति, जो कभी हमने पढ़ी थी, अब सत्य नहीं रही-'मान्यते पूज्यते जनैरैति माता'? दोष जननी का नहीं है, दोष है इन वैभव से मदान्ध आँखों का।

ठीक इसी के विपरीत अनुभव मुझे गत वर्ष हुआ, जब एक मेरी अन्य परिचिता, अपने पाँच वर्ष के दत्तक पुत्र को मुझे दिखाने लाई। विवाह की सुदीर्घ अवधि के सूर्यास्त के समय बेचारी दिल्ली के किसी होम से वह परित्यक्त शिशु उठा लाई थी। “अकेला होने से बड़ा जिद्दी हो गया है। सोचती हूँ कोई अच्छी-सी ऐसी ही बच्ची मिल जाती तो इसे बहन दे देती। है तेरी नजर में कोई?"

मैंने अपनी महरी से पूछा। अपनी उस सखी के वैभव को स्वचक्षुओं से देख चुकी थी। उनका बहुत बड़ा फार्म है, कोठी है, फिर दत्तक पुत्र को वह ऐसे स्नेह से पाल रही है जैसे स्वयं उसे गर्भ में नौ मास धरा हो। यह किसी भी नारी का एक असाधारण गुण है, क्योंकि पराई सन्तान पालना भी हथेली के मांस को खाने की ही भाँति अत्यन्त कठिन होता है। जब मैंने अपनी महरी के सम्मुख उसी उदार प्रस्ताव का चुग्गा फेंककर कहा, "इतने कष्ट में तुम्हारी बच्चियाँ पल रही हैं-एक लड़की इन्हें दे दो, राजकन्या बनाकर रखेंगी, जब चाहो जाकर मिल भी सकती हो...।"

उसने मुझे अविश्वास से ऐसे देखा, जैसे मैं मजाक कर रही हूँ, “का कह रही हो बहूजी। भले ही एक जून खाएँ, बिटिया-बिटवा का कुत्ते केर पिल्ला हैं, जो बाँट देही?"

मेरे मुँह में जैसे करारा थप्पड़ लगा। यह वह परिवार था, जहाँ कभी-कभी चूल्हा भी नहीं जलता और पूरा परिवार एक लोटा पानी पीकर ही सो जाता था। इसी से मुझे लगता है, माता कभी कुमाता नहीं होती, कभी-कभी धन-वैभव का मोतियाबिन्द अवश्य उसकी आँखों की ज्योति हर लेता है।

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