संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
छियालीस
हमारे जिन धार्मिक सांस्कृतिक अनुष्ठानों ने अपने सुन्दर स्वाभाविक रूप को स्वयं ही विकृत कर अपना नैतिक प्रभाव लगभग खो दिया है उनमें हम अब अपने होली के रंगीले अनुष्ठान की भी गणना कर सकते हैं। प्रत्येक वर्ष यह एक प्रकार से हमारे जीवन में मशीनी गति से आकर चली जाती है। इसकी आगमनी का उल्लास हमारे हृदयों को स्पन्दित नहीं करता, ऐसी बात नहीं है, किन्तु यह भी सत्य है कि हमारे सांस्कृतिक उत्सव में कुरुचि का प्रभाव जितना ही बढ़ता है धर्म-भीरु सरल नागरिक के लिए उस उत्सव की सांस्कृतिक सार्थकता उतनी ही कम हो जाती है।
हमारे होली उत्सव के क्षेत्र में भी, आमल की एकादशी से पूर्व ही जो निरर्थक हुल्लडबाजी आरम्भ हो जाती है वह धर्म एवं संस्कृति दोनों के लिए ही समान रूप से अहितकर है। रिक्शा रोककर चंदा वसूली, होलिकादहन के लिए द्वार पर लगे नेमप्लेट, गेट उखाड़कर चुरा लेना, पानी-भरे गुब्बारों की बौछार जैसा उत्पीड़क क्रिया-कलाप होली-भर चलता रहता है। होली में ठंडाईभंग आदि का प्रयोग अनादि काल से चला आया है। सामान्य-सी ठिठोली या 'भर पिचकारी मोरे सम्मुख मारी' जैसी अशिष्टता भी उस दिन अशिष्टता नहीं मानी जाती। समाज का औदार्य स्वयं ही होली में अपनी आचार-संहिता बदल देता है, किन्तु जब परिष्कृत सभ्य गृहों में भी समाज के इस औदार्य का लाभ उठा गृहवासी अपने उदंड आचरण से.इस पावन पर्व की सुष्ठु रम्यता को स्वयं ही विकृत कर देते हैं तो बड़ा दुःख होता है।
गत वर्ष ऐसे ही एक सम्भ्रान्त गृह की कुलवधू के मदालस अट्टहास की ध्वनि, मुझे अपने फ्लैट की खिड़की पर खींच ले गई थी। जो दृश्य देखा, उसके लिए मेरा संस्कारी चित्त प्रस्तुत नहीं था। अबीर-गुलाल से रँगा चेहरा, रंग से सराबोर झीनी साड़ी, मदालस पदचाप, नशे में मुँदी जा रही पलकें और इर्द-गिर्द जुटी रसिक मित्रों की भीड़! जिसका मैंने उस दिन वह विकृत अस्वाभाविक रूप देखा था, वह एक सम्भ्रान्त संस्कारशील ब्राह्मण परिवार की पुत्री एवं वैसे ही संस्कारशील परिवार की पुत्रवधू थी, कई बार मुझसे विभिन्न व्रत-अनुष्ठानों के विषय में बड़ी नम्रता एवं श्रद्धा से जानकारी ले गई थी। अपने नम्र संस्कारशील आचरण से वह मेरी नजरों में जिस तेजी से चढ़ी थी उस दिन होली की हुड़दंग में अपने विचित्र अशोभनीय आचरण से उसी तेजी से उतरती एक शोचनीय दृष्टान्त बनकर रह गई। मुझे सबसे अधिक दुख हुआ था उसके ओठों में दबी शिथिल होकर लटक रही सिगरेट देखकर!
इस उल्लास पर्व के पूर्व किशोरों द्वारा संग्रहीत धनराशि का कितना सदुपयोग होता है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। एक तो किसी भी प्रकार के चंदे की माँग साधारण गृहस्थ के जीवन में शान्तिघातक ही होती है, फिर उस माँग का समापन यदि किसी सार्थक प्रयोजन में नहीं होता, तो देनेवाले को भी चन्दे की धनराशि, चाहे वह एक ही रुपया क्यों न हो, खलने लगती है। इस उल्लास पर्व की एक विकृत समापन किस्त हमारे सम्मुख और भी आती है, जब दल बाँधकर डाक-तार विभाग के कर्मचारी होली का इनाम माँगने द्वार खटखटाते हैं! जी में तो आता है, तड़ से द्वार उन्हीं के मुँह पर बन्द कर दिया जाए। यदि स्पष्ट शब्दों में कहने की धृष्टता करें तो इन कर्मचारियों की अकर्मण्यता देख इन्हें किसी भी बख्शीश से विभूषित करने की इच्छा नहीं होती। वैसे तो मनुष्य के जीवन भरण की भाँति उसके नाम पर आई डाक का भी अब कोई नियत समय नहीं रह गया है। मैं लखनऊ के अन्य टोले-मोहल्लों के विषय में तो नहीं कह सकती, किन्तु हमारी इस बदनसीब कॉलोनी में हमारी डाक के विषय में भी हम यह चिर पुरातन कहावत दोहरा सकते हैं कि दिन-भर का भूला यदि शाम को घर लौट आए तो भूला नहीं कहा जाता। कभी-कभी लखनऊ जी.पी.ओ. की मुहर लगने की तिथि के तीसरे दिन भी पत्र हस्तगत होता है तो हम अपने को भाग्यशाली ही समझते हैं। शनिवार को तो शायद गुलिस्ताँ के किसी बिरले ही भाग्यवान को पत्र मिलता होगा। हमारे उत्साही डाक कर्मचारी प्रायः शनिवार को भी छुट्टी मनाते हैं। रजिस्ट्री, मनीआर्डर, द्वार तक बिना आए ही बूमरंग से न जाने कब लौट, ऐसे स्वर्णाक्षरों से विभूषित किए जाते हैं, 'ऐड्रेसी घर पर नहीं।' मेरे नाम का एक स्थानीय समाचारपत्र से आया धनादेश, भौरे की-सी निरर्थक गुंजार कर न जाने कब मेरे द्वार से मँडराकर लौट गया। जब मैं स्वयं पता लगाने डाक-घर गई तो देखा, लिखा था, 'घर पर नहीं मिली' जबकि मैं अस्वस्थता के कारण पिछले पन्द्रह दिनों से घर से बाहर भी नहीं निकली थी।
हमारे दुर्भाग्य से, हमारा पोस्टमैन संगीतप्रेमी भी है। गाता गुनगुनाता, मंदाक्रान्ता की धीमी गति से रेंगता, वह जब एक दिन मेरी खिड़की के नीचे खड़ा हुआ और मैंने पिछले चार दिनों से डाक न आने की शिकायत की तो अपनी बेसुरी गुनगुनाहट को तिर्यक स्मित से स्थगित कर उसने कहा, “जब आपकी कोई चिट्ठी होगी ही नहीं तो क्या हम आपके लिए चिट्ठी लिख लाएँगे?" इस अशिष्ट उत्तर के पश्चात उसे यह समझाना व्यर्थ था कि जो मोटी गड्डी यह आज सोमवार के दिन दे गया है उसमें शनिवार और शुक्रवार की मोहर लगी भी तीन-चार चिट्ठियाँ हैं। कहती भी तो वह प्रत्युत्पन्नमति का संगीत-प्रेमी पोस्टमैन निश्चय ही उसी तत्परता से कहता, “अजी कोई 'सार्ट' करने में रह गई होगी।"
फिर भी, होली हो या दीवाली, ईद हो या बड़ा दिन, इनाम माँगने में इन कर्मचारियों की अद्भुत आत्मसम्मानहीन तत्परता सचमुच सराहनीय है। उनके दमकते उल्लसित चेहरों पर न अपनी पूर्व अकर्मण्यता के पश्चात्ताप की क्षीण रेखा दृष्टिगोचर होती है, न किसी प्रकार की खिसियाहट। यही नहीं, यदि उन्हें एक रुपया थमाया गया तो वह ऐसे भड़क उठते हैं, जैसे लाल कपड़ा देखकर साँड़। “अजी तीन आदमी हैं हम लोग-एक नोट कैसे बाँटेंगे?" उनसे फिर यह पूछना व्यर्थ प्रतीत होता कि जब आप तीन महानुभावों को तीन बार डाक बाँटने का वेतन मिलता है तो वर्ष-भर, आपमें से हमें एक ही क्यों दिखता है? आप दोनों क्या अभी जननी को गर्भभार से मुक्त करा होली का इनाम माँगने प्रकट हुए हैं? पर कौन बहस कर सकता है! होली की गुझिया एवं इनाम को वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ, छत्तीसी निपोड़े, तब तक खड़े रहेंगे जब तक उन्हें समुचित पारिश्रमिक प्रदान न किया जाए।
आश्चर्य का विषय है कि हमारे इस विचित्र देश में, कभी भी अधिकारी ऐसा कोई अभिमत प्रकाशित नहीं करते कि जिन्हें सरकार उनकी सेवा के लिए निर्दिष्ट वेतन देती है उन्हें इस प्रकार की त्यौहारी माँगने का कोई अधिकार नहीं है। क्योंकि, किसी भी साधारण गृहस्थ का मानसिक सन्तुलन एकसाथ द्वार पर जुटी खाकी वर्दियों को देख, क्षण-भर को विचलित होता ही है। और फिर, यदि उनकी वर्ष भर की सेवाओं का लेखा-जोखा उल्लेखनीय रहता तो स्वयं ही इनाम देने को मन भी होता, किन्तु जो कभी भी नियमित रूप से निर्दिष्ट समय पर डाक वितरित नहीं कर पाते, नम्रता एवं शिष्टता, अधिकतर जिनसे दूर ही रहती है, उन्हें इनाम देना भी, इसलिए एक विवशता बन जाती है कि कहीं ऐसा न हो कि बख्शीश न देने की हमारी कृपणता हमारे नाम की डाक का हम तक आने का पथ ही अवरुद्ध कर दे!
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