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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


पैंतालीस


मृत्यु के पश्चात् आत्मा का अस्तित्व अपने पुष्ट प्रमाण से कभी-कभी मानव को निश्चय ही आश्चर्यचकित कर उठता है। अपनी बहन की एक विदेशिनी परिचिता के ऐसा ही विचित्र अनुभव सुन बीच-बीच में मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। उक्त महिला अपने जीवन के अस्सी वर्ष कुमायूँ में ही व्यतीत कर चुकी हैं। भवाली में उनका सुसज्जित बंगला एक जीता-जागता अजायबघर है। जावा, सुमात्रा के क्यूरियोज, क्रोशिया की बनी अद्भुत बेलबूटेदार चादरें, मेजपोश, रंगबिरंगी सुसरनियाँ, अलभ्य नगीने और आलपाका के सरसराते सुवासित गाउन, जिनमें कभी पहननेवाली के बहुचर्चित यौवन की कस्तूरी मह-मह महकती थी। आज उन्हीं गाउनों को धूप में सुखाती वह कभी अपने अतीत की स्मृतियों में खोई, मुखर बन घंटों किसी श्रोता को अपनी प्रतिभा के कीलक से गाड़कर रख देती हैं।

मेरी बहन की वे वर्षों से प्रिय प्रतिवेशिनी रही हैं। उनके विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह अनेक विदेशी आत्माओं को बुला सकने में समर्थ एक सशक्त माध्यम हैं। उनके सजे बँगले का परिवेश भी ठीक उनके रहस्यमय व्यक्तित्व से मेल खाता है। पीली आँखोंवाली, गोमेदवर्णी परशियन बिल्लियाँ इस जंगल में बने विचित्र दरबों के कपाट अपने माथे के धक्के से खोल गुर्राती स्वामिनी के सुचिक्कन कपोलों से रोंगटे घिसती उन्हें घेरकर मंडलाकार घूमने लगती हैं और वे अपने तीन स्मरणीय अनुभव सुनातीं।

उनकी दोनों पुत्री विदेश में ही परिवार सहित जाकर वहीं की हो गई हैं। दोनों पतियों को वे बहुत पहले ही खो बैठी थीं। रह गए हैं दो खानसामे, एक आया और रंग-बिरंगी बिल्लियाँ जिनकी गुर्राहट भी कभी-कभी अनचीन्हीं पारलौकिक-सी लग उठती है।

"एक बार खानसामा छोटी हाजरी की तैयारी कर रहा था, सहसा मेरी वर्षों की सुपरिचिता प्रिय सखी हँसती मेरे सम्मुख खड़ी हो गई।" वह कहने लगती हैं, “और दो मखमली ऊँचे बिल्ले, अपनी पांडुवर्णी आँखें चमकाते उनकी गोद में पसर जाते हैं। मैं खुशी से चीखकर उससे लिपट गई, 'तू कहाँ से आ गई और यह क्या देख रही हूँ मैं! तू तो जरा भी नहीं बदली, मुझे देख, कमर झुक गई है, बाल सब सफेद, इधर तू कौन-सी अमर बूटी खाकर ऐसे ही बनी रही और फिर तेरी वह प्रसिद्ध देह परिमल, जिसकी सुगन्ध कभी कुमाऊँ के लाट-कमिश्नरों की पलियों को भी ईदिग्ध कर उठती थी। कितना पूछती थीं सब कौन-सी अनामा परफ्यूम है ये तेरी? पर तूने क्या कभी राज खोला? आह-क्या बढ़िया सुगन्ध है डार्लिंग-नाऊ टेल मी--कौन-सी परफ्यूम है ये?'

"पर वह हरामजादी वैसी ही मुस्कराती रही। फिर बड़ी देर बाद बोली, 'इतनी दूर से आई हूँ कुछ खिलाएगी नहीं?' और सुनते ही मेरे होशियार खानसामा ने मिनटों में मेज पर विदेशी प्राणों को पुलकित करनेवाला ब्रेकफास्ट सजा दिया। खाते ही वह बोली, 'डियर रुक नहीं पाऊँगी-कितना आनन्द आया आज तुम्हारे साथ कैसे बताऊँ और फिर हाथ हिलाती मुस्कराती मेरी प्रिय सखी उठकर गई तो मैं मन्त्रपूत-सी उठ भी नहीं पाई। जब वह चली गई और खानसामा ने आकर कहा, 'मेम साहब प्लेट, प्याले कई बार धो चुका हूँ पर आप चलकर देखिए जरा, न जाने कैसी खुशबू है कि जा ही नहीं रही है।' मैं चौंककर उठी, अश्रुसिक्त आँखों में वर्षों पूर्व का वह पत्र तैर गया जिसमें इसी सखी की मृत्यु की सूचना ने मुझे झकझोरकर रख दिया था।"

दूसरी स्मृति भी, उन्हें इसी प्रकार विह्वल कर उठती है। नैनीताल के अंयारपाटा में बहुत पूर्व उनके एक मित्र रहते थे। स्वभाव एवं व्यक्तित्व था समान रूप से रंगीन। मास्क बाल डांस हो या बोटहा उस क्लब की रंगीन साँझ उस मेजर का सान्निध्य इस विदेशिनी के जीवन में अनेक बार रसवृष्टि कर चुका था। एक दिन भवाली की निर्जन पगडंडी पर सहसा मिल गए, साथ में थी एक सुन्दरी तरुणी, "ओह मेजर तुम यहाँ-कहाँ थे इतने वर्षों तक?"

"पहले इनसे मिलो, मेरी पत्नी, पर तुम्हें यह क्या हो गया है? कौन कहेगा यह तुम हो?"

" 'मेरे पति की मृत्यु हो गई, मैं यहाँ अकेली रहती हूँ। 'व्हाट ए पिटी', आओ चलो तुम्हें थोड़ा घुमा लाएँ।' हँसकर आनन्दी मेजर हाथ पकड़कर मुझे खींच ले गया। हम तीनों निःशब्द चलते रहे। पता नहीं कब तक चलते-चलते जब नैनीताल के कब्रिस्तान तक पहुँचे तब मैं चौंकी। 'फिर मिलेंगे डार्लिंग फिर कभी। और मैं मूर्ख-सी उस निर्जन कब्रिस्तान में अकेले खड़ी ठकठक काँप रही थी। तीसरा अनुभव, मेरे अतीत का सबसे प्रिय अनुभव है, क्योंकि उसी ने मुझे इस रहस्यमय परिवेश की डगमगाती सोपान पंक्ति पर पहली बार खड़ा किया था। मेरे पिता तब नैनीताल में स्थायी आवास ढूँढ़ वहीं बसने का निश्चय कर हमें साथ लेकर चले आए थे। निर्जन वन में सामान्य-से किराए पर एक दर्शनीय बंगला भी मिल गया, किन्तु जब मकान मालिक के पास पहुँचे तो उसने चश्मा नाक पर टिकाकर पूछा, 'मेरी किस शर्त पर बँगला लेंगे-विद और विदाउट घोस्ट-भूत के बिना या भूत के साथ?'

" 'मतलब?' मेरे पिता गम्भीर प्रकृति के अफसर थे, हलके मजाक न करते थे न कभी स्वयं उनका केन्द्र बनना उन्हें पसन्द था।

“ 'मतलब यही कि यदि आप पूरा बंगला लेंगे तो पूरा एक सूट, अर्थात् एक बेडरूम, कौरीडोर, बाथरूम, उस गम्भीर गृहस्वामी के लिए आपको सदा खाली रखना होगा। स्पष्ट ही कह दूँ, मकान भुतहा है, वर्षों पूर्व जहाँ कुआँरे गृहस्वामी ने चोला त्यागा है, उसकी यही दो शर्ते हैं-एक, केवल विदेशी किराएदार को बंगला दिया जाए; दो, एक सूट उसका अपना रहेगा। पर आप निश्चिन्त रहें वह आपको कभी परेशान नहीं करेगा, बशर्ते आप भी उसके सूट की ओर कदम न बढ़ाएँ।

“ यही हुआ-हमारे पितृगृह का वह बेडरूम, कौरीडोर, बाथरूम हमारी उपस्थिति से सदा अछूता रहा किन्तु आधी-आधी रात को उस एकाकी पारलौकिक उपस्थिति ने, अपने पल्टनी बूटों की पटापट से हमें न जाने कितनी बार चौंकाया है-कभी सिगरेट की मदिर सुगन्ध और कभी मांसल कंठ की दबी गुनगुनाहट!"

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