संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
चौवालीस
इसी सप्ताह शहर के एक भीड़ भरे चौराहे में एक युवा छात्र की दिन-दहाड़े हो गई हत्या में इधर युवा अपराधियों की उत्तरोत्तर हो रही वृद्धि ने जनता को निश्चय ही संत्रस्त कर दिया है। क्या कारण है कि चलती ट्रेन में छुरे-पिस्तौल की नोक पर, लूट-मार, हत्या हो या बैंक की निर्मम लूटपाट, प्रत्येक अपराध की यवनिका उठाए जाने पर, युवा वर्ग ही अपराधी पाया जा रहा है। कुछ दिन पूर्व लखनऊ के ही एक अंग्रेज़ी समाचारपत्र में एक संवाददाता ने स्वयं अपनी आपबीती का वर्णन किया था कि किस प्रकार हजरतगंज में दिन-दहाड़े उसकी जेब कतर ली गई और जब वह बड़े दुःसाहस से उस किशोर जेबकतरे का पीछा करता उसके पिता के सुसज्जित अफसरी आवास में पहुँचा तो वह आधुनिक जेबकतरा, अपने गुसलखाने में घुस गया। उधर बँगले की ठसकेदार स्वामिनी और उनकी आया ने संवाददाता को ऐसे झाड़ा कि बेचारे की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। बेचारा फटी जेब, और रही-सही इज्जत समेट चुपचाप बाहर चला आया। करता भी क्या?
इतना अब हम खूब समझने लगे हैं कि इस युग में अधिकतर चोर ही कोतवाल के कान पकड़ लेता है। अपराध करने से भी गुरुतर अपराध उसे छिपाना है, किन्तु हममें से अधिकांश नागरिक अब यही करते हैं-दुर्घटनास्थल से जान बचाकर भागना। यदि अपनी कार या स्कूटर की टक्कर से कोई राहगीर चोट खाकर धराशायी हो गया है और सौभाग्य से कोई देख नहीं रहा है तो जान बचाकर भागना हमारा रिफ्लैक्स ऐक्शन-सा बन गया है।
किन्तु एक प्रश्न जो हमारे विवेक को बार-बार झकझोरता है, वह यह कि क्या कारण है कि इस प्रकार के गर्हित आचरण में दोषी अब युवावर्ग ही अधिक पाया जा रहा है जबकि स्वभावतः तारुण्य न्यायप्रियता का ही समर्थक होता है? बेईमानी एवं कुटिलता तो हमारी प्रौढ़ता के साथ प्रौढ़ होती है। तब, क्या दोष हमारी शिक्षा-प्रणाली में है या हमारे परिवार की टूटती इकाई में या हिंसात्मक लूट, मार-धाड़पूर्ण चलचित्रों में? हमारे पुराणों के अनुसार, प्रत्येक छात्र की कुछ मौलिक योग्यताओं एवं अयोग्यताओं का विवेचन किया गया है। उसकी योग्यताओं में, उसकी विनयशीलता एवं निर्णिति अर्थात् युक्तिपूर्वक विचार करने की क्षमता प्रमुख थीं। अयोग्यताओं में प्रमुख थीं हिंसकवृत्ति तथा दुर्गुण ग्राहकता। आज ये ही अयोग्यताएँ उनकी प्रमुख योग्यताएँ बन गई हैं। दादा बन छाती फुला किसी फिल्मी खलनायक की भाँति आँधी के वेग को भी तुच्छ करता जो बुलेटारूढ़ छात्र हाथ में पिस्तौल या छुरा घुमा, किसी भीड़भरे चौराहे से निकल जाता है और यदि उसकी टक्कर में कोई अभागा आहत हो गिर पड़ता है तो चौराहे पर खड़ा ट्रैफिक सिपाही वैसा ही निर्जीव मिट्टी का बना दर्शनीय खिलौना बना रह जाता है जिसे हम बचपन की दीवालियों में खरीद आले में सजा दिया करते थे। यह निर्वीर्यता मैंने स्वचक्षुओं से कुछ ही माह पूर्व देखी है, जब लोरेटो के चौराहे पर एक आठ-दस वर्ष का बालक अपनी नन्हीं टाँगों की कैंची से एक बृहत साइकिल चलाता चौराहा पार कर रहा था। एक भन्नाती मोटर साइकिल को हवा के वेग से भगाता एक युवा चालक उस बालक को टक्कर मार बिना पीछे मुड़े उसी वेग से भन्नाता चला गया। पुलिस हाथ बाँधे खड़ी रही। आसपास जुटी भीड़ ने ही खून से लथपथ उस बच्चे को उठाकर अस्पताल पहुंचाया। जब भीड़ स्कूटर का नम्बर नोट न करने के लिए अकर्मण्य पुलिस को झाड़ रही थी तब मैंने स्वयं उसे कहते सुना, “अजी आज तक कौन बैर मोल ले सका है उससे, न जाने कितनों को अपनी टक्कर से गिरा चुका है। पकड़ भी लेते तो आध घंटे में किसी 'मिनिस्टर' की सिफारिश से अपने को छुड़ा लेता। एक जेब में तमंचा दूसरे में रामपुरी चाकू लिए घूमता है।" फिर उसने किसी कुख्यात फ़िल्मी खलनायक का नाम लेकर कहा, “उसी नाम से सब पुकारते हैं इसे, देखते नहीं सिर भी घुटवा लिया है उसी की तरह।"
इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे देश के इस सिरफिरे बहक गए युवा वर्ग को उन्मार्गगामी बनाने में हमारे भारतीय चलचित्रों का भी बहुत बड़ा हाथ है। यह ठीक है कि निरन्तर नीरस जीवन में डूबे मानव को कभी-कभी क्रीड़ा-विनोद मनोरंजन से ही अपनी शक्ति अर्जित करनी होती है। यह भी सत्य है कि नीरस जीवन में कार्यक्षमता कम हो जाती है एवं इस क्षमता की पूर्ति हेतु किसी भी प्रकार के मनोरंजन की अनिवार्यता को हम नहीं नकार सकते। फिर, इस युग में सिनेमा ही एक ऐसा मनोरंजन का साधन है, जिसमें सस्ते में ही हम अपने श्रान्त चित्त को क्षणिक विश्राम से तरोताजा कर लेते हैं, किन्तु इधर हमारी युवा पीढ़ी में इसका अत्यधिक सेवन एक व्यसन बन गया है। हमारे अधिकांश उच्चपदस्थ पिताओं को इतना अवकाश नहीं रहता कि वे सन्तान की गतिविधियों का लेखा-जोखा रखें और माता भला कब कुमाता होती है? उसे मूर्ख बनाना कौन बड़ी बात है? इसी से आए दिन क्लास से कटकर पिक्चर देखना अधिकांश किशोर अब अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगे हैं। किन्तु जैसा हमारे धर्मग्रन्थों में कहा गया है, अत्यन्त 'रसिकानादौपर्यते प्राणहारिणः' अर्थात् सर्वथा विनोद का सेवन करनेवाला धीरे-धीरे उन्मार्गगामी बन निरन्तर कष्ट को प्राप्त होता रहता है। ऐसे हिंसाप्रधान चलचित्रों का कुप्रभाव, किशोर युवा छात्र-छात्राओं के कोमल चित्त पर अवश्य पड़ता है और वही कुप्रभाव उन्हें उन्मार्गगामी बनाता है। जिसे पर्दे पर देख क्षणभर को उनके रोंगटे खड़े हो गए थे, जिस खलनायक के दुःसाहस ने उनकी साँस पलभर को रोक दी थी, उसे स्वयं अपने जीवन में दोहराने का लोभ वे संवरण नहीं कर पाते। इसका एक पुष्ट प्रमाण अपने एक प्रबुद्ध पाठक के रोचक आत्मनिवेदनपूर्ण पत्र के रूप में मेरे पास संचित है।
कुछ माह पूर्व 'धर्मयुग' को भेजा गया मेरा एक उपन्यास डॉ. भारती से खो गया। वे उसे पढ़ने साथ ले गए और भूलकर लोकल ट्रेन में ही छोड़ आए। अनेक चेष्टाओं-विज्ञापनों के बावजूद जब वह नहीं मिला तो उन्होंने मुझे तार द्वारा सूचित किया। मैं भी निराश हो चुकी थी क्योंकि किसी भी लेखक के लिए उसके उपन्यास की पांडुलिपि खो जाने का दुख इकलौती सन्तान के खो जाने के दुख की ही भाँति दुर्वह हो उठता है। अचानक एक दिन मुझे एक पत्र मिला। वह सुलिखित पत्र किसी उपन्यास का धारावाहिक किश्त-सा ही रोचक था। मेरा उपन्यास पानेवाले ने दो पुण्य कार्य एकसाथ किए थे। पहले मेरा उपन्यास टाइम्स ऑफ इंडिया प्रेस में जमा किया फिर मुझे वह पत्र लिखा था। उपन्यास उसे ट्रेन ही में मिला था। उसी दिन पानेवाले ने एक ऐसी हिन्दी फ़िल्म देखी थी जिसका नायक इसी भाँति एक पांडुलिपि को पाता है और अपने नाम से उसे छपा, रातोंरात ख्याति प्राप्त कर प्रतिष्ठित लेखक बन बैठता है। "उसी फिल्म ने मुझे प्रेरणा दी, क्यों न मैं शिवानी का नाम काट अपने नाम से इसे छपा लूँ? मेरे मित्रों ने राय दी कि कानपुर में एक ऐसा ही प्रतिभाशाली प्रकाशक है, जो यही काम करता है। पर फिर मैं सारी रात सो नहीं पाया, ऐसा करूँ या नहीं? दूसरे ही दिन मेरी बहन मायके आई। जब मैंने उससे इस विषय में कहा तो उसने मुझे बुरी तरह झाड़ा। वह आपकी प्रशंसिका निकली। कहने लगी, 'खबरदार जो यह काम किया, जाओ अभी लौटाओ उपन्यास।"
इस प्रकार जिस हतभागी फ़िल्म ने मेरे पाठक को उन्मार्गगामी बना ही डाला था, मेरे सौभाग्य से उसकी बहन ने उसे और मेरे उपन्यास, दोनों को डूबने से बचा लिया। किन्तु प्रश्न उठता है कि हत्या, बलात्कार, मारधाड़, हिंसा के उन्माद से ओतप्रोत हमारे इन भारतीय चलचित्रों के कुप्रभावों में से अपने भाइयों को कहाँ तक बहनें बचा पाएँगी?
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