संस्मरण >> जालक जालकशिवानी
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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...
तैंतालीस
कुछ दिन पूर्व तक जब अख़बार में किसी साइकिल चोरी का समाचार पढ़ती थी तो मुझे आश्चर्य होता था। ऐसी नगण्य चोरी का समाचार छापना क्या न्यूजप्रिंट का अपव्यय करना नहीं था? किसी की फिएट, या बालक या पत्नी के अपहरण का समाचार छपा होता तो शायद दो पल-भर को आँखें ठिठकती किन्तु एक सप्ताह पूर्व जब से स्वयं मेरी साइकिल चोरी गई है, मुझे ऐसा समाचार अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व का प्रतीत होने लगा है; यद्यपि मेरी उस अपहत साइकिल का यौवन; तीन वर्ष पूर्व ही ढल चुका था। यह कहते संकोच भी होता है कि उस बेचारी का एक भी अवयव वह नहीं रह गया था जिसकी गरिमा से मोहती वह किसी नववधू की सलज्ज भंगिमा से पहली बार हमारे प्रांगण में खड़ी हुई थी। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि जितनी पूँजी उसके उपचार में हम लगा चुके थे उसमें सामान्य राशि जोड़ने पर ही एक दुहेजू कार खरीदी जा सकती थी, किन्तु फिर भी उस निगोड़ी, जर्जर, अधेड़ साइकिल के प्रति हमारा आकर्षण वैसा ही बना रह गया था, जैसा किसी परिवार के सदस्यों का अपने गृह की प्रौढ़ा गृहस्वामिनी के प्रति बना रहता है। हैंडल से लेकर उसके पैडिल तक के संचालन की एक सर्वथा मौलिक आचारसंहिता थी। किसी अनाड़ी अनभ्यस्त सवार की मजाल थी कि उस पर आरूढ़ हो उसे मनचाही दिशा को मोड़ ले। उसे दक्षिण दिशा को मोड़ना हो तो उसे वायव्य की ओर मोड़ना अनिवार्य था। चलने लगती तो किसी मनचले इक्केवान के इक्के केसे धुंघरुओं की झनकार सवारी और राह चलतों को एक साथ झुमा देती। दूर से ही परिचित पदचारी जान जाते कि हमारी साइकिल आ रही है। चेन रह-रहकर स्थानच्युत हो अहंकारी से अहंकारी सवार का भी आत्मसम्मान मिट्टी में मिला उसे चौराहे पर खड़ा कर अपने चरणों में झुका देती। किन्तु परिचित चालक का स्पर्श पाते ही वह अरबी अश्व के तीव्र वेग से हवा में उड़ने लगती। मेरे बेटे का तो कहना था कि पूर्व जन्म में वह निश्चित रूप से हेलीकॉप्टर रही होगी। एक बार जब मेरा नौकर उसके हैंडिल में बड़े चाव से मेरे बेटे का नाम खुदवा लाया, तो मैंने उसे डाँट दिया था, "यह क्या कोई भगौना था या दहेज में मिला गिलास, जो तू यह बर्तनोंवाला नाम खुदा लाया?" किन्तु आज जब कोई 'निर्मम' दस्यु, उसे निमेष मात्र में उदरस्थ कर गया तो उसी नाम की स्मृति रह-रहकर आश्वस्त कर उठती है कि क्या पता, संधानी पुलिस के दिव्यचक्ष उसी नामांकित नन्हीं रेखा के सत्र से साइकिल को चोर की घनी दाढ़ी से भी तिनके-सा बीन ले!
मेरा साइकिल-विरह-विदग्ध चित्त जब जरा शान्त हुआ और प्रतिवेशियों की सहानुभूति गहर धीमा पड़ा तो एक प्रबुद्ध नागरिक का जन्मजात कर्तव्यज्ञान मुझे झकझोर गया। मेरे एक परिचित डी.आई.जी. हैं, उन्हें फोन किया, किन्तु फोन करते ही अपनी मूर्ख अल्पज्ञता स्वयं मुझे धरातल में धंसा गई। एक साइकिल खोई थी, इसी से उसके स्तरानुसार उचित था कि मैं किसी दारोगा का द्वार खटखटाती, कार खोई होती तो एक बात भी थी। किन्तु, जिन्हें मैंने फोन किया था, वह अत्यन्त निरभिमानी विनम्र अधिकारी हैं। उन्होंने तत्काल अपने विभाग की शायद सबसे दर्शनीय दारोगा-द्वय की एक प्रतिभाशाली जोड़ी को मेरे निवास स्थान पर भेज दिया। इस बीच मैं चेष्टा कर उस निगोड़ी साइकिल के विभिन्न अवयवों की रूपरेखा, उसकी व्यक्तिगत विशेषताएँ कंठस्थ कर रही थी। पुलिस में रिपोर्ट लिखाने का यह मेरे जीवन में प्रथम अवसर आया था। सच कहती हूँ, अपनी किसी कहानी की नायिका के नखशिखों के चित्रण में भी मैंने इतना परिश्रम आज तक नहीं किया। किन्तु जब उसका नम्बर, मेक आदि वर्णित कर मैं उन्हें उसके अतीत का परिचय देने लगी, तो हो सकता है मेरे चित्त का भ्रम ही हो, पर मुझे लगा, बेचारा दारोगा भी पूँछों ही पूँछों में मुस्करा रहा है। यानी एक तो साइकिल वह भी छः वर्ष पुरानी! विदेश में एक ही वर्ष पुरानी कार को भी दिलदार मालिक प्लास्टिक के खाली डिब्बों के साथ कूड़े के गर्त में फेंक देता है। मैं दारोगा को कैसे समझाती कि यह हमारा विचित्र देश है, चिरपुरातन के प्रति हमारा मोह पारम्परिक है। पुरानी शराब की ही भाँति हमारी पुरानी वस्तुओं का भी हमारे लिए एक विशेष आकर्षण रहता है। पुलिस रिपोर्ट लिखाकर विदा हुई थी कि अपनी महरी की लम्बी साँस सुनकर मैं चौंकी-
"क्या बात है महरी?" मैंने सशंकित होकर पूछा।
"कुछ नहीं बहूजी, अब पुलिस में रपट लिखायदी हो, मुला साइकिल अब मिल नहीं सकत।" उसकी दार्शनिक की-सी गम्भीर मुखमुद्रा देख मेरा उल्लसित चित्त कलाबाजियाँ खाना भूल गया।
अभी पाँच-छ: दिन पूर्व ही गुलिस्ताँ में हुई एक भारी चोरी की रिपोर्ट भी तो पुलिस लिखकर ले गई थी, धर-पकड़ भी हुई किन्तु हुआ क्या? पुलिस के कुत्ते भी आए, किन्तु दुर्भाग्य से प्रायः ही ये कुत्ते दीवाल, खम्भों को ही सूंघकर लौट जाते हैं और निर्जीव दीवाल, खम्भों का चोरी करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी से पुलिस का कार्य भी कठिन हो जाता है। फिर जैसा कि उस दिन दारोगा कह रहे थे, "साहब हम करें क्या? जिस पर शक हुआ पकड़कर ले गए तो चट आप ही की कालोनी के किसी अफसर का फोन आ गया कि फलाँ को छोड़ दो, वह हमारा विश्वासपात्र कर्मचारी है।" यही मानव की दुर्बलता है, कभी-कभी उसका स्वार्थ ही उसके आड़े आ जाता है।
कोई कर्मचारी पटु है, अपने काम से आपको खुश रखता है तो क्या यह जरूरी है कि वह ईमानदार भी हो? कभी-कभी मनुष्य के अन्तरतम कोने में छलना किसी प्रवंचक-दगाबाज-धूर्त शैतान की भाँति छिपी रहती है। अब आप स्वयं ही पुलिस के हाथ बाँध देते हैं तो वह क्या खाक किसी को पकड़ेगी? एक ओर हम स्वयं अपने अनावश्यक उदार आचरण से जिसे 'मिसप्लेस्ड जैनरासिटी' कहते हैं, अपराधी को प्रश्रय देते हैं, दूसरी ओर यह आशा करते हैं कि पुलिस अपराधी की मुश्के बाँध हमारे चरणों में डाल देगी। जब तक अपराधी को ढूँढ़ने पर उसे कड़े से कड़ा दंड न दिया जाए, तब तक हमारी अपराध स्थिति में सुधार की आशा करना व्यर्थ है। गुप्तकाल में यदि गृहों में ताले नहीं लगते थे, तो उसका मुख्य कारण यह भी था कि सामान्य-सी चोरी का दंड भी था अत्यन्त कठोर। अपराधी के दोनों हाथ काटकर ही उसे उसके गर्हित अपराध का बोध कराया जाता था। आज हम स्वयं ही चोर को चोर बनने की पूर्ण सुविधा प्रदान करते हैं। चटुल वैचित्र्य, चमत्कारी प्रगल्भता को हम सांस्कृतिक सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु जब कठोर अनुशासन का अवसर आता है तो कान पीछे कर सहमे श्वान की ही भाँति दुबक जाते हैं।
दारोगा ने जब मुझसे पूछा कि क्या आपका सन्देह किसी व्यक्ति विशेष पर है तो मैं सहम गई। उस निगोड़ी के चाहनेवाले क्या एक-आध थे? इधर जब से पचास रुपए देकर मैंने सम्भवतः आठवीं बार उसका ढलता यौवन पुनः सँवारा था, माँगनेवाले फिर उसे ललचाई दृष्टि से निहारने लगे थे। बहुत पहले अपने भाई की ही अपूर्व नीति के टोटके को, मैंने भी अब प्रयोग में लाना आरम्भ कर दिया। मेरे भाई तब ओरछा महाराज के निजी सचिव थे, महाराज का प्रिय हाथी 'गंगाराम' अपने अहंकारी-सनकी स्वभाव के बावजूद बरातों में माँगा जाता एवं उसके सजाने-धजाने, रत्नखचित अम्बारी चढ़ाने में राज्य कर्मचारियों का सिरदर्द नित्य बढ़ता ही जा रहा था। सहसा मेरे भाई की प्रत्युत्पन्नमति ने एक सहज समाधान ढूँढ निकाला। ठीक है गंगाराम जाएगा, किन्तु एक शर्त थी। जो भी उसे ले जाएगा, उसे दस दिन पूर्व, उस हाथी को अपने द्वार पर बाँधना होगा। गंगाराम की सर्वभक्षी क्षुधा की कल्पना ही बेचारे माँगनेवालों का उत्साह ठंडा कर देती। फिर बिरला ही कोई समर्थ सामन्त उसे माँगने की धृष्टता करता। ऐसे ही मैं भी माँगनेवालों से कहने लगी, "शौक से ले जाइए पर पंचर हो तो आप ही को बनवाना होगा।" उस साइकिल की दूरदर्शिता एवं स्वामिभक्ति अपूर्व थी। मेरी देहरी लाँघकर जाती और दम तोड़ देती। बस, फिर एक ही बार जो उसे माँगकर ले गया, दुबारा मेरे द्वार पर याचक बनकर कभी खड़ा नहीं हुआ। काश, उसमें प्राण होते, पढ़ने को आँखें होतीं तो मैं अखबार में नित्य छप रही मार्मिक सूचनाओं की सजीव भाषा में छपवा देती-"बेटा, जहाँ भी हो इसे पढ़ते ही फौरन चले आओ, तुम्हारी माताजी मृत्युशैया पर हैं, तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी की जाएगी।" किन्तु वह बेचारी निष्प्राण खंजड़ मेरी व्यथा क्या समझेगी! इसी से उस गुणी दस्यु से सनम्र निवेदन है कि यदि वह मेरे सौभाग्य से मेरे 'वातायन' का पाठक है तो मुझे साइकिल से अधिक चिन्ता, इस समय उसके अन्धकारमय भविष्य की है। यदि वह विवाहित है तो उसकी पत्नी की सौभाग्य कामना ही मेरी लेखनी को आज विशेष रूप से प्रेरित कर रही है। उस साइकिल के रूप की मरीचिका, कुछ-कुछ बचपन में पढ़ी उस परीकथा की राक्षसी की-सी है, जो राजकुमार को अपने रूप से मुग्ध कर लेती है किन्तु अवसर पाते ही अपना भयावह असली रूप प्रकट कर तीक्ष्ण नखों से उसका पेट फाड़, अट्टहास ध्वनि से दिशाएँ प्रकम्पित कर उठती है।
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