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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


बयालीस


वातायन के एक पाठक ने, मुझे हरदोई से अपने पत्र में अनुरोध किया है कि नारी की आधुनिक, दिन-प्रतिदिन निर्लज्ज होती जा रही वेशभूषा पर मैं अपने विचार व्यक्त करूँ। उन्होंने लिखा है कि “यदि आप महिलाओं के नाभिदर्शन फैशन की हिमायती हैं तब भी अथवा विरुद्ध हैं तब भी अपने विचार 'वातायन' के माध्यम से व्यक्त करने की कृपा करें। क्या आप नहीं सोचती कि नीची साड़ी बाँधने का फैशन अभद्र, अश्लील एवं अभारतीय है?"

वस्त्रों का प्रभाव, देखनेवाले की भावना पर अवश्य पड़ता है, इस तथ्य को हमारे पुराणों ने भी स्वीकार किया है। वायुपुराण में योगी द्वारा शुक्ल वस्त्र धारण करने का आदेश विहित है क्योंकि 'प्रावत्य मनसा शुक्लपटं वा' अर्थात ऐसे वस्त्रों से मनोविकार दूर होता है। मनुस्मृति में भी, गृहस्थ को 'शुक्लाम्बरः शुचिःस्वाध्याये चै व युक्तः' का वर्णन है अर्थात् गृहस्थ को श्वेत वस्त्र धारण कर शुद्धतापूर्ण स्वाध्याय करना चाहिए। वैदिक ग्रन्थों से विदित होता है कि तब तीन की संख्या में वस्त्र का उपयोग होता था। नीवि, वासस और अधिवास। 'कुमार संभव' में, तपश्चर्यारता पार्वती द्वारा उत्तरासंग वल्कल द्वारा निर्मित बताया गया है। 'शिशुपालवध' में एक नायिका उत्तरीय द्वारा वक्ष-स्थल आवृत किए वर्णित है। 'उत्तरीय विषयातूत्रपमाण रुधन्ती कुचमंडलम', अजन्ता में भी एक भित्ति अंकित राजकन्या की परिचारिकाओं को जानु प्रदेश तक धोती पहने प्रदर्शित किया गया है। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि जिस वेशभूषा को देख हमारी सभ्यता के विकसित होने के बहुत पूर्व कभी समाज की भृकुटि नहीं उठी, क्योंकि यदि उठी होती तो निश्चय ही उस समय की कला उसे अंकित करने का दुःसाहस नहीं करती, आज उसी से मिलती-जुलती वेशभूषा हमारी संस्कारशील रक्त-मज्जा भस्म कर देती है। क्या यह स्वयं हमारा ही दृष्टिकोण है? तब शायद हमारी दृष्टि विकारग्रस्त नहीं थी, इसी से ह्रस्व परिधान की निर्दोष सीमा-रेखा भी हमें उतनी ही निर्दोष लगती थी, चाहे वह शालभंजिका के सुडौल वक्षःस्थल पर बँधी कंचुकी हो या अजन्ता की राजकुमारी की परिचारिकाओं की जंघा तक पहनी गई साड़ी। आज किसी भी आधुनिका की नाभिदर्शना साड़ी देख हमें लगता है कि उसके उस प्रदर्शन के पीछे किसी कुटिला स्वयंदूती की छलनामय योजना छिपी है। वैसे मेरे विचार में जो स्वयं समर्थ है, सम्पूर्ण है, सुन्दर है, उसे न तो किसी प्रदर्शन की आकांक्षा ही रहती है न आवश्यकता। किसी सुगन्धित पुष्प की सुगन्ध की भाँति सौन्दर्य की सुगन्ध भी छिपाए नहीं छिपती। अवगुंठन की महिमा ही सौन्दर्य को द्विगुणित करती है, घूंघट की यवनिका हो या बुर्के की अभेद्यता, पुरुष कौतूहल को संयम की ये ही सीमा-रेखाएँ बाँधती हैं।

बहुत पूर्व मुक्तेश्वर में मुझसे मेरी एक विदेशी मित्र ने एक बार कहा था, तुम्हारे कुमाऊँ की ये सरला कुमाऊँनी सुन्दरियाँ और भी सुन्दर इसलिए लगती हैं कि उनकी टखनियाँ तक लम्बे घाघरों से छिपी रहती हैं, कलाई तक कुरती का बन्धन, उस पर वास्कट, वास्कट पर घनी मालाओं का जमघट, उनका यल से बन्दी बनाया गया यौवन ही उनका प्रमुख आकर्षण है। उन्होंने मुझसे यह कहा था, वह स्वयं अपूर्व सुन्दरी थीं, विदेशी नृत्य नाट्य में उन्होंने कभी अभूतपूर्व ख्याति प्राप्त की थी, सौन्दर्य को कैसे अधिक आकर्षक, अधिक घातक बनाया जा सकता है, इसकी उन्होंने विशेष शिक्षा भी विधिवत प्राप्त की थी। मुझे इसी से उस दिन विशेष गर्व भी हुआ था कि उन्होंने हमारे पहाड़ी लहँगे की गरिमा को इसलिए स्वीकार किया कि हमारी टखनियाँ भी बड़ी शालीनता से ढकी रहती हैं। नारी की खुली पीठ या ह्रस्व कंचुकीबद्ध वक्षःस्थल से हमारी भारतीय आँखों का परिचय बहुत पुराना है किन्तु पुरुष की बदलती दृष्टि के विकार ने ही, शायद नारी को अपनी टखनियाँ ढकने के लिए विवश किया। हो सकता है, धीरे-धीरे सबला बन रही अबला, एक बार फिर पुरुष को ह्रस्व परिधान धारण कर स्मरण दिलाना चाहती है कि दोष केवल पहननेवाली या पहने गए परिधान का ही नहीं होता, दोष देखनेवाले की विकारग्रस्त दृष्टि का भी उतना ही होता है। दुख तब अवश्य होता है, जब प्रदर्शन के सर्वथा अयोग्य किसी अंग का प्रदर्शन किया जाए जैसे जब कोई मेदबहुला आधुनिका अपनी विराट् कटि की परिधि का ध्यान न रख नाभिदर्शना साड़ी पहन ले या अपनी गैंडे की जैसी पीठ को उघाड़ ह्रस्व बैकलेस ब्लाउज पहन ले। अपने शरीर की गठन को ध्यान में रखकर ही नारी को अपने परिधान की भूमिका रचनी चाहिए। वयस की गरिमा के अनुरूप ही उसकी वेशभूषा रहे, उसकी शालीनता, उसका सौष्ठव ही उसके लिए अधिक महत्त्व रखते हैं, परिधान की हस्वता या दैर्घ्य नहीं।

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