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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


इकतालीस


हमारे धार्मिक अनुष्ठान पर्वो का सौम्य रूप, स्वयं हमारी ही निम्नवर्गीय अभिरुचि के अनाचार से धीरे-धीरे, विकृत होता जा रहा है। दीवाली हो या दशहरा, प्रत्येक पर्व की आगमनी हमें अब आतंकित ही करती है। यह एक दुखद सत्य है कि जन-साधारण द्रव्य मूल्य के प्रचंड आघात सह-सहकर ऐसा पत्थर बन गया है कि यह जानकर भी कि अनेक वस्तुओं के दाम आश्चर्यजनक तीव्रता से गिरे हैं, उल्लसित नहीं हो पाता। दीपावली हमारा आलोक पर्व है-गत वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष इस आलोक पर्व को मनाने, हमें हमारी आर्थिक परिस्थितियों ने कुछ एक सुविधाएँ प्रदान की हैं। सरसों के तेल का भाव गत वर्ष इन्हीं दिनों दस रुपए किलो तक था, इस वर्ष छः रुपए तक उतर आया है। ऐसे ही कपड़े, मिठाई, खील, खाँड के खिलौने, सब ही ने गृहों की दुश्चिन्ता बहुत कुछ अंश में कम कर दी है। जो गृह केवल दर्जन-भर मोमबत्तियों के प्रकाश से ही वर्ष-भर का यह आलोक पर्व मना लेते थे, वे भी सम्भवतः इस वर्ष दीये जलाने की धृष्टता कर सकेंगे। किन्तु फिर भी उस बेचारे गृहस्थ की अवस्था अब लगभग पिंजरे में बन्द उस शुक की-सी है जो बार-बार डैने काट दिए जाने से उनके उगने पर भी स्वच्छन्द होकर उड़ नहीं सकता।

हमारे अनुष्ठान पर्वो की जो सहज सरलता थी, उससे हटकर अब हम दूर छिटक गए हैं। माइक में बज रहे फ़िल्मी संगीत के बिना जैसे हमारा कोई भी उत्सव सम्पूर्ण नहीं होता। समझ में नहीं आता कि हमारे शास्त्रज्ञ पंडित भी इसका विरोध क्यों नहीं करते? आर्यसमाज का कोई जलसा हो या अखंड रामायण, गुरुद्वारे का शबद पाठ हो या दुर्गा पूजा का पंडाल जब तक हम माइक में मुँह डाल दहाड़ न लें, हमें सन्तोष नहीं होता। हमारी यह प्रभावशाली दहाड़ भले ही विद्यार्थियों के अध्ययन में बाधा डाले या किसी रुग्ण पीड़ित व्यक्ति की निद्रा में व्याधात प्रस्तुत करे, हमें इसकी चिन्ता नहीं रहती। गत वर्ष दीवाली में ही एक विचित्र दृश्य देखा गया था। एक नई फिएट कार में एक सज्जन आए, झकाझक धुली धोती, चुना कुर्ता, चमकते पम्प शू, होंठों में पान की लालिमा और हाथ में ज्वलन्त सिगार। साथ में दो-तीन चमकतेदमकते अनुचर थे और कार लगभग सौ-डेढ़ सौ मिठाई के डिब्बों से हँसी थी। स्वयं उनके हाथ में मिठाई का एक दर्शनीय डिब्बा था। लखनऊ की एक ऐसी प्रख्यात दुकान का नाम डिब्बे पर चमक रहा था जहाँ अस्सी रुपए किलो की पिस्ते की लौज बिकती है। “सुनिए", उन्होंने मुझसे पूछा, "अला साहब, क्या यहाँ से चले गए? पहले तो इसी फ्लैट में रहते थे?"

“जी हाँ," मैंने कहा और उनका नया पता बता दिया। धन्यवाद देकर उन्होंने वह डिब्बा कार में वापिस रखा, और उससे अपेक्षाकृत कुछ छोटा-सा डिब्बा निकालकर सामने के दूसरे फ्लैट की सीढ़ियाँ चढ़ गए। मैं देखती रही, कदम-कदम पर कार रोक वे अपने भाग्यशाली अफसरों के यहाँ उनके स्तरानुसार दीवाली की मिठाई बाँटने ही शायद निकले थे। तीस वर्ष पूर्व भी दीवाली के दिन अफसरों के बँगलों पर ऐसे ही डालियाँ सजा-धजाकर पहुँचाई जाती थीं। डाली पहुंचाने की इस क्रिया में हमने उल्लेखनीय प्रगति की है। मेरे एक आत्मीय एक प्रख्यात फर्म में पी.आर.ओ. हैं। गत वर्ष दीवाली में मेरे अतिथि बनकर आए तो देखा अनेक अलभ्य विदेशी उपहारों से लदे-फदे हाँफ रहे हैं। मिक्सी, तीन-चार अमेरिकन ज्योर्जेट की साड़ियाँ, कार की गद्दियाँ और डनहिल के आकर्षक डिब्बे देख मैंने हँसकर पूछा, “वाह, आज लक्ष्मीजी ने किसका भाग्यद्वार खटखटाने भेज दिया आपको? 'गृहे तस्य सदा स्थाय नित्यं श्री पतिना सह'-कौन है वह भाग्यशाली?"

"अजी, लक्ष्मीजी क्या हम अभागे ब्राह्मणों पर फलायन होती हैं?" फिर एक वैश्य इंजीनियर का नाम लेकर बोले, "उन्होंने यह लिस्ट भेजी थी, बिटिया की शादी है। हमारी फर्म का उनसे दिन-रात काम पड़ता है। लाखों का काम हमें दिलवाते हैं और हम भी उन्हें अपनी ओर से यथासाध्य पत्र-पुष्प भेंट करते रहते हैं। ये तो बेचारे बड़े सीधे हैं, हल्की-फुल्की फरमाइश ही करते हैं, इनसे पहले जो थे, जब कभी दिल्ली आते, नाकों चना चबवा देते थे। सुरा-सुन्दरी का प्रबन्ध तो लगा ही रहता, उस पर फाइव स्टार होटल का आतिथ्य, सिनेमा के टिकट, कार की सुविधा और चलते-चलते घंटेवाले के टायर-से मोटे सोहन हलुवे के चक्कों की फरमाइश भी कर देते। हम उन्हें ऐसे विदा करते जैसे सगे दामाद हों।"

उत्कोच शब्द हमारे शब्दकोश का अत्यन्त प्राचीन शब्द है। किन्तु उत्कोच लेनेवाले से भी गुरुतर अपराध क्या उत्कोच देनेवाले का नहीं होता? जब तक हम इस कटु सत्य को उदरस्थ नहीं कर पाएँगे तब तक भ्रष्टाचार हमारे देश से कभी जा नहीं सकता। वैसे इसमें कोई सन्देह नहीं कि उत्कोच लेने एवं देने, दोनों के ही कलात्मक लटके सीखने में कठोर साधना करनी पड़ती है। एक सर्वथा मौलिक उत्कोच प्रणाली से मेरा परिचय एक बार नैनीताल में हुआ था। जब मेरे ही यहाँ ठहरे एक सरकारी अधिकारी बोट-हाउस में दीवाली के उपलक्ष्य में मनाए जा रहे द्यूत पर्व में भाग लेने जा रहे थे।

"अजी क्या करें-वहाँ क्या हम जीतने जा रहे हैं? हम तो वहाँ जानबूझकर ही सर्वस्व गँवाने जा रहे हैं। बड़े साहब वहाँ आज खेलने आएँगे, अफसर हैं, उन्हें चार-पाँच दाँव जिता देंगे, तो 'दिल्ली फतेह।' यह भी भला कैसी निर्वीर्य स्वामिभक्ति थी। साहब को खुश करना है तो जानबूझकर हार जाइए, चाहे हाथ में भुवन विजयिनी इक्के की ट्रेल ही क्यों न हो!

दीवाली का यह धूत पर्व अब हमारे अधिकांश समृद्ध गृहों का एक बारहमासी पर्व बन गया है। छोटे-मोटे जुए के अड्डों को तो हमारे अधिकारी हथेली पर चल रही नँ-सी ही पकड़कर मसल देते हैं, किन्तु कोजगरी पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर जो पर्व कभी बड़ी एकादशी की सीमा-रेखा में सीमित रहता था वह अब पूर्ण स्वतन्त्रता से वर्ष-भर चलता रहता है और सम्भ्रांत गृहों में जुए के जो अड्डे रात-रात-भर चलते हैं, उन्हें कोई क्यों नहीं पकड़ता? एक परिवार का ऐसा ही द्यूत-प्रेम मुझे कभी-कभी स्तब्ध कर देता था। द्वार से लेकर दूर-दूर तक सड़क का सीमान्त नापती सरकारी जीप, मोटर, स्कूटरों की पंक्ति ऐसी सघन हो उठती कि कभी अपने फ्लैट तक पहुँचना भी दुरूह हो उठता। आश्चर्य भी होता था कि रात-रात-भर जुआ खेलकर ये पेशेवर दबंग जुआरी दफ्तर का काम करते कैसे होंगे?

हमारे प्रत्येक उत्सव की, धार्मिक अनुष्ठानों की, जो एक मौलिक सात्विकता थी उसे हमने स्वयं ही विकृत कर दिया है। शायद यही कारण है कि अब दीवाली के दीयों की प्रकम्पित लौ में न वह स्थिरता रह गई है न तेज!

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