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जालक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5975
आईएसबीएन :978-81-8361-168

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शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह...


चालीस


इसमें कोई सन्देह नहीं कि कोई भी राजनीतिक हत्या राजनीतिक बलिष्ठता की परिचायक नहीं कही जा सकती। बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या भी इसी दायरे में आने के कारण, प्रत्येक प्रबुद्ध भारतीय को झकझोर गई है। शेख मुजीब केवल बंगबंधु ही नहीं भारतबंधु भी बन गए थे। उनकी लोकप्रियता, पंडित नेहरू के अतिरिक्त और किसी को प्राप्त नहीं हुई। यह सचमुच ही एक विरोधाभास लगता है कि ऐसे जनप्रिय नेता की उसी समरवाहिनी के सदस्यों द्वारा हत्या की गई, जिसके अभ्युत्थान के पीछे स्वयं उनका हाथ था।

शेख मुजीब अद्भुत क्षमाशील व्यक्ति थे, सम्भवतः उनकी यही उदार क्षमाशीलता उन्हें काल के छलनामय आवर्त में फँसा गई। कहा जाता है कि कैसा ही कोई अपराधी क्यों न हो और उसका अन्याय कितना ही अक्षम्य क्यों न हो, उन तक पहुँचने पर किसी न किसी रूप में उनसे सहायता अवश्य पाता था। बाँगला देश की स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात् वहाँ के साधारण जनजीवन की आर्थिक व्यवस्था क्रमशः जटिल हो गई थी, उसे लेकर कुण्ठित जनता ने भी हमारे देश की जनता की ही भाँति, उत्तेजित होकर अनेक बार सत्तारूढ़ शासन की धज्जियाँ उड़ाईं किन्तु शेख मुजीब को व्यक्तिगत रूप से अन्त तक किसी ने एक अपशब्द भी नहीं कहा। इसका यह अर्थ नहीं था कि उनके शत्रु थे ही नहीं, किन्तु यह एक निर्विवाद सत्य था कि उनके भक्तों की तुलना में उनके शत्रुओं की संख्या नगण्य थी। उन पर प्रमुख आरोप यही था कि उनके ये तथाकथित भक्त ही भ्रष्टाचार एवं दुर्नीति के पक्षपाती हैं और शेख उन्हें अनावश्यक प्रश्रय देते हैं। वे भक्त ही प्रशासनिक कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं। किन्तु, शेख मुजीब का आत्मविश्वास था अद्भुत; उन्हें अन्त तक यह दृढ़ विश्वास था कि बाँग्ला देश के उन्नयन के लिए वे जो भी ठोस कदम उठाएँगे, अपनी जनता का उन्हें पूर्ण समर्थन प्राप्त होता रहेगा। इसी से उन्होंने कई बार अपने दल के सदस्यों से परामर्श करना भी आवश्यक नहीं समझा। उनके इसी अद्भुत आत्मविश्वास ने उन्हें एक बार जब कि वे पूर्ण रूप से परिपक्व राजनीतिक नेता भी नहीं बने थे, तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री मोहम्मद अली को ललकारने की प्रेरणा दी थी। मोहम्मद अली ने उन्हें देशद्रोही कह तिरस्कृत किया तो उन्होंने तत्काल चुनौती दी थी, “यदि आप मुझे देशद्रोही ही समझते हैं तो क्यों न आप पूर्व पाकिस्तान आकर मुझ जैसे नगण्य देशद्रोही से चुनाव लड़ें, वह भी अपने ही क्षेत्र बोगरा से। यदि आप विजयी रहे तो मैं वचन देता हूँ तत्काल मैं राजनीति से संन्यास ले लूँगा।"

जब वे स्वाधीन बाँग्ला देश के प्रथम राष्ट्रपति बने तब वे जेल में थे। स्वदेश लौटने पर उन्होंने फिर व्यवस्था बदली। निर्वाचन में स्वयं विजयी रहे किन्तु उनका गहन आत्मविश्वास, अपार जनप्रियता एवं स्वयं का समुज्ज्वल व्यक्तित्व भी देश की क्रमशः दुर्बल पड़ रही अर्थनीति की टूटती साँसों को नहीं रोक पाया। आवश्यकीय वस्तुओं के भाव गगनचुम्बी बन गए। विरोधी दल के खुड़पेंचों ने बाँहें चढ़ा लीं।

इस बार उन्होंने संविधान ही बदल दिया। राष्ट्रपति शासन कर दिया गया, किन्तु जनता के आक्रोश की उमस-भर बदली छटी नहीं। बुद्धिजीवियों के भी तथाकथित दो दल हो गए-एक 'फैनेटिक' बुद्धिजीवी, दूसरे, प्रगतिवादी। शेख मुजीब के ये प्रशंसक थे, अब उनके कटु आलोचक बन गए। उनकी छः सूत्री योजना की धज्जियाँ उड़ाई जाने लगीं। क्षुब्ध होकर मुजीब ने कहा, "मैं इन दो दलों में कोई विशेष अन्तर नहीं देख पा रहा हूँ। नई सरकार को भी ये अपनी जकड़ में लेने की चेष्टा में निरत हैं। मुझे बार-बार लगता है कि हमारे देश के हित में यही होगा कि एक सांस्कृतिक क्रान्ति हो, किन्तु अभी उसके लिए समय नहीं है। पहली आवश्यकता है क्रान्ति की, वही क्रान्ति बाँग्ला देश को बँगला संस्कृति का क्षेत्र बनाएगी, ऐसी संस्कृति जो हम बंगालियों को, केवल बाँग्ला देश में ही नहीं बाँग्ला देश के बाहर भी गौरवान्वित करने में समर्थ होगी।" शायद यह उसी क्रान्ति की बलिवेदी पर पहला बलिदान था।

उनके व्यक्तित्व की ही भाँति उनकी पर-राष्ट्र नीति भी अत्यन्त उदार थी। रूस, अमरीका, भारत यहाँ तक कि चीन के साथ भी दौत्य सम्बन्ध स्थापित करने की वे समय-समय पर चेष्टा करते रहे। पाकिस्तान के युद्धबन्दियों को मुक्ति देने में उन्हें जनमत का घोर विरोध भी सहना पड़ा, पर फिर भी उन्होंने उन्हें मुक्त कर दिया था। विदेशियों को उन्मुक्त रूप से सोनार बाँग्ला भूमि में विचरण की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। कोई भी विदेशी, कभी बाँग्ला देश की क्षति कर सकते हैं, यह उन्होंने कभी नहीं सोचा। ऐसे उदार श्रद्धेय राजनीतिक व्यक्ति की यह नृशंस हत्या आज अनायास ही हमें उस दिन का स्मरण दिलाती है, जब 11 जनवरी की प्रातःकाल विशाल जनसमुदाय के बीच जेलमुक्त विजयी वीर मुजीब, अपने धानमंडी निवास-स्थान के बरामदे में खड़े थे। शरीर पर था ढीला कुर्ता और पायजामा, चिरपरिचित वास्कट। कुछ ही क्षण पूर्व उन्होंने जब रवीन्द्रनाथ की 'दुई बीघा जमी' की पंक्तियाँ दुहराईं तो आँखों से आँसू उनके कृश कपोलों पर बहने लगे। एक ओर कृतज्ञ भीड़ सिसक रही थी, दूसरी ओर उनका प्रिय नेता।

"पूरा बाँग्ला देश मेरा घर है, इसकी मिट्टी मुझे प्राणों से प्रिय है-मुझे प्राणदंड दे दिया गया था। यही नहीं, मेरी कब्र भी खोद दी गई थी, इसी से मैंने जेलर से कहा था-फाँसी के बाद मेरी निष्प्राण देह बाँग्ला देश पहुँचा देना। यह मेरी अन्तिम इच्छा है। मैं चाहता हूँ कि बाँग्ला देश की भूमि में ही मेरी कब्र बने-मैं अब निर्भय हूँ।" उनकी अन्तिम इच्छा पूर्ण हुई।

उनका राजनीतिक दौर्बल्य कैसा ही क्यों न रहा हो, उनकी जनप्रियता, देश-प्रेम, उनका साहस, उनका शौर्य हमें इन पंक्तियों की सार्थकता का सदैव स्मरण दिलाता रहेगा-

एकेनापि हि शूरेण
पादाक्रान्तं महीतलम्।
क्रियते भास्करंणैव
स्फार स्फुरित तेजसा।

उस तेजस्वी भास्कर की प्रखर किरणों को हम सहज में ही नहीं भुला पाएँगे।

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