गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
संसारकी विषय-वासनामें लिप्त व्यक्तिके दुःखोंका अन्त नहीं होता। एक आवश्यकता पूर्तिके बाद दूसरी; फिर तीसरी;, चौथी अनन्त तृष्णाएँ हजारों छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी इच्छाएँ उसके शान्ति-सुख और संतुलनको भंग करती रहती है। इन्द्रियोंको कभी संतोष नहीं मिलता। वासना कभी तृप्त नहीं होती। आसक्ति ही दुःखका मूल है।
संग्रहसे त्याग ही श्रेष्ठ है। संग्रहसे आसक्ति बढ़ती है। जीव संसारके माया-मोहमें और भी जटिलतासे बँधता जाता है। पद्मपुराणमें एक स्थानपर कहा गया है-
तपस्सञ्चय एवेह विशिष्टो धनसञ्चयात्।
त्यजतः सञ्चयान् सर्वान् यान्ति नाशमुपद्रवाः।।
न हि सञ्चयनात् कश्चित् सुखी भवति मानवः।
यथा यथा न गृह्वाति ब्राह्मणः सम्प्रतिग्रहम्।।
तथा तथा हि संतोषाद् ब्रह्मतेजो विवर्धते।
अकिञ्चनत्व राज्यं च तुलया समतोलयत्।
अकिञ्चनत्वमधिकं राज्यादपि जितात्मनः।।
अर्थात्-इस लोकमें धन-संचयकी अपेक्षा तपस्याका संचय ही श्रेष्ठ है। जो व्यक्ति सब प्रकारके लौकिक संग्रहोंका परित्याग कर देता है, उसके सारे उपद्रव शान्त हो जाते हैं। संग्रह करनेवाला कोई भी मनुष्य सुखी नहीं रह सकता। ब्राह्मण जैसे-जैसे प्रतिग्रहका त्याग कर देता है, वैसे-ही-वैसे संतोषके कारण उसके ब्रह्मतेजकी वृद्धि होती है। एक ओर अकिंचनताको और दूसरी ओर राज्यको तराजूमें रखकर तौला गया तो राज्यकी अपेक्षा जितात्मा पुरुषकी अकिंचनताका पलड़ा भारी रहा।
सबसे अधिक लोभ मनुष्यको धनका होता है। जितना धन प्राप्त होता है, उतनी ही तृष्णा बढ़ती जाती है। सौसे हजार, हजारसे दस हजार, लाख, दस लाख, करोड़, अरब निरन्तर धनकी इच्छा अधिकाधिक बढ़ती जाती है। मनुष्य यह भूल जाता है कि धन एक साधन है स्वयं साध्य नहीं है। धनसे मनुष्यकी सात्त्विक आधार-भूमिकी आवश्यकताएँ पूर्ण होनी चाहिये। बचे हुए धनको दानद्वारा दूसरे अभावग्रस्त व्यक्तियोंमें फैलाना चाहिये। यदि मर्यादासे बाहर जाकर कोई कृपण केवल धनका संग्रह ही कर्तव्य मान बैठता है तो वह बड़ी भारी मूर्खता करता है। स्कन्दपुराणमें कृपण धनीको पानीमें डुबा देनेका उल्लेख इस प्रकार है-
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्।
उभावम्भसि मोक्तव्यौ गले बद्ध्वा हाशिलाम्।।
अर्थात्-जो धनवान् होकर दान नहीं करता और दरिद्र होकर कष्ट-सहनरूप तपसे दूर भागता है, इन दोनोंको गलेमें बड़ा भारी पत्थर बाँधकर जलमें छोड़ देना चाहिये।
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