लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

341 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

सन्तोषामृत पिया करें

को वा दरिद्रो? हि विशालतृष्णः।
श्रीमांस्तु को? यस्तु समस्ततोषः।।

अर्थात् गरीब कौन है? जिसकी तृष्णा बड़ी है। अमीर कौन है? जो सदा संतुष्ट रहता है। भगवान्के दिये धनसे जिसे संतोष नहीं होता वह मनका दखि है और यही दुःखदायिनी दरिद्रता है।

टाल्सटायकी एक कहानी है। एक लोभी व्यक्ति एक ऐसे राज्यमें पहुँचा, जहाँ कुछ रुपया देकर व्यक्ति यथेष्ट भूमि प्राप्त कर सकता था। प्रातःकालसे हल-बैल लेकर उसे एक स्थानसे प्रारम्भ कर भूमिका चक्कर लगाना पड़ता था। सायंकालतक वह जितना बड़ा चक्र बना पाता था, भूमिका वही घेरा उसे दे दिया जाता था। फीस सबके लिये एक ही थी। यह व्यक्ति वहाँ पहुँचा और फीस देकर उसने भूमिका घेरा नापना प्रारम्भ किया। बड़ा घेरा बनानेके लोभमें वह चलता रहा। सायंकाल होते-होते वह इतना तेज चला कि घेरा पूर्ण करनेसे पहले ही गिरा और तुरन्त मर गया। इस कहानीका शीर्षक है 'मनुष्यको कितनी भूमिकी आवश्यकता है? अन्ततः वह व्यक्ति जितनी भूमिमें गाड़ा गया, उतनी ही भूमि उसे मिल सकी। वह बड़ा भूमिका घेरा व्यर्थ गया।' कहानीका तात्पर्य यह है कि मनुष्य वृथा ही इतनी वस्तुओंकी तृष्णा करता है। अन्ततः वही उसकी मृत्युका कारण बनतीं है। विधिका बनाया हुआ एक निश्चित क्रम है। धन, भूमि, मकान, सम्पत्ति तथा नाना वस्तुओंके देनेकी एक सीमा है। भगवान् प्रत्येक व्यक्तिका ध्यान रख उसके निर्वाह और सुखके लिये पर्याप्त सुख-सुविधाएँ प्रदान करते हैं, किसीको कभी नहीं भूलते, निरन्तर देते रहते हैं, पर भगवान्के दिये धन, सुख-सुविधाओंसे जिसे संतोष नहीं होता, उसकी बड़ी दुर्दशा होती है, तृष्णा-पिशाचिनी उसे निगल लेती है।

ईश्वरके संसारमें कभी भी मर्यादाके भीतर रहकर खाने-पीने-पहनने-ओढ़ने, शरीरकी नाना प्राकृतिक इच्छाओंकी पूर्तिके सभी साधन प्रचुरता से है। किसी को किसी वस्तुकी कमी नहीं है। जीवनकी आधारभूत चीजें विपुलतासे बिखरी पड़ी हैं। जितना जिस-जिसके हिस्सेमें है, जितना जिसके भाग्यमें है, वह उसे देर-सबेर अवश्य प्राप्त होकर रहता है। कोई किसीके भाग्यके धन, संतान, सम्पत्ति, भूमि, ऐश्वर्य, मान, समृद्धिको उससे नहीं छीन सकता। शर्त यही है कि हम अपना कर्म करते रहें, परिश्रम में लापरवाही न करें; आलसी न बनें, मुफ्त का धन लूटनेकी चेष्टा न करें। जो काम हमें सौंपा गया है, कर्तव्य मानकर कठिन परिश्रम और सहयोग से उसे पूरा करते रहें। अपना पेट भर लेनेके पश्चात् बचा हुआ धन या वस्तुएँ ईश्वरकी हैं, हमारी व्यक्तिगत पूँजी नहीं हैं, उन्हें समाजके अन्य जरूरतमन्द व्यक्तियोंको दे देने (दान करने) में ही कल्याण है। आवश्यकतासे अधिक धन इत्यादि रखकर दूसरोंका शोषण करनेवाले मोक्षका सुख प्राप्त नहीं करते। तृष्णाके माया-जालमें अशान्त पड़े रहते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book