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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट

अमृत के घूँट

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5984
आईएसबीएन :81-293-0130-X

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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....

शान्ति आन्तरिक है

जो भीतरसे शान्त है, स्वच्छ है और संतुष्ट है, वह बाहरसे अशान्त, अस्वच्छ और असंतुष्ट हो ही नहीं सकता। जो हमारे मनमें है, वही हमारे शब्दों, कार्यों एवं व्यवहार से प्रकट होता रहता है। भीतरी प्रवृत्तियाँ सदा नाना रूप धारण कर हमारे व्यवहारों से सुस्पष्ट होती रहती है।

अनेक व्यक्ति शान्ति-प्राप्ति के हेतु जंगलों में जाते है; मन्दिरों में सम्पूर्ण दिन व्यतीत करते है, उच्च स्वरमें 'ॐ शान्तिः, ॐ शान्तिः' का उच्चारण करते हैं। ये व्यक्ति नहीं जानते कि शान्ति ऐसी स्थिति है, जिसकी जड़ मनुष्य के मनके भीतर है। अंदरसे मनुष्य अच्छा-बुरा, शान्त-विक्षुब्ध, हर्ष-विषादपूर्ण जैसा भी है, वैसा ही वह बाह्य जगत्में भी है। हम अपनी भीतरी मनःस्थितिको अपने मुरवमण्डल पर प्रकट किया करते हैं। जिसे हम 'हम' कहकर पुकारते हैं, वह वास्तविक 'हम' अंदरसे ही है। बाहर तो एक आवरणमात्र है। अंदरकी स्थितियाँ हम छिपा नहीं सकते। किसी-न-किसी प्रकार वे प्रकट हो ही जाती हैं। हम अपना बाहरी शरीर सुन्दर वस्त्रों एवं आभूषणोंसे अलंकृत कर तथा चेहरेको क्रीम-पाउडरसे लीप-पोतकर छिपा सकते है; पर मनकी धारणाओं, विचारों और द्वन्द्वको नहीं छिपा सकते।

जिसे हम सही और शुभ मानें, वही करनेमें हमारी शान्ति है। शुभसे हम जितना दूर भागते है, उतने ही अशान्त और अस्त-व्यस्त रहते हैं। शान्ति एक दैवी मनःस्थिति है इसका निकट सम्बन्ध मनुष्यके मनमें रहनेवाली विवेक-भावनासे है। जब आपका विवेक संतुष्ट रहता है, तब मनमें शान्ति स्वतः स्थिर रहती है। जब विवेकका किसी अन्यायपूर्ण तर्क लालच-रिश्वत, झूठ-फरेब या अत्याचार-अनाचारसे हनन किया जाता है, तब मनकी शान्ति भंग हो जाती है। यही कारण है कि अन्यायी, द्रोही, अविवेकी, क्रोधी और उत्तेजित रहनेवाले व्यक्ति कदापि मनकी शान्तिका आनन्द नहीं प्राप्त करते।

केवल सत्य ही असत्यको, प्रेम क्रोधको, सहिष्णुता और संयम हिंसाको शान्त करते हैं। विवेकसे ही आपकी हीन वृत्तियाँ निन्द्य वासनाएँ शान्त हो सकती है। यदि विवेक तृप्त है, कठोर अनुशासककी भांति कुटिल वासनाएँ मनको अशान्त नहीं कर सकेंगी।

मनको वशमें रखना, आत्मनियन्त्रण बनाये रखना एक प्रकार की मानसिक आदत है। जो व्यक्ति धीरे-धीर दीर्घकालीन अभ्यास-शुभ-चिन्तन द्वारा विक्षोभ को नीचे छोड़ देता है, वह बड़ी-से-बड़ी कठिनाईमें भी शान्ति बनाये रखता है।

जीवन भीतर या बाहरके तूफानके विरुद्ध सतत संग्राम है, इसलिये संग्रामके मध्य हों, तब भी हमें शान्तिका अनुभव करनेकी आवश्यकता है। जो व्यक्ति भयंकर संग्राममें भी अपनी मनःशान्ति स्थिर रखकर उत्तेजनासे बच सकता है वही सच्चे अर्थोंमें शान्तचित्त कहा जानेका अधिकारी है।

द्वेष, ईर्ष्या, भय, क्रोध, वासना - ये सभी मनःशान्ति भंग करनेवाले शत्रु हैं। इन्हें आत्मनियन्त्रण द्वारा वश में रखने की परम आवश्यकता है। इनसे मनरूपी क्षेत्र विकृत हो उठता है और अनेक मानसिक रोगों की सृष्टि हो उठती है।

चिन्ता-मुक्त रहिये; अन्तर्दृष्टि जाग्रत् करने से आप मनके कार्य-व्यापार देख सकते है और विरोधी मनोविकारोंसे शइक्त पानेका प्रयत्न कर सकते हैं।

शान्ति बाह्य संसारमें खोजनेसे मिलनेवाली नहीं है, प्रत्युत यह मनके गुप्त प्रदेशमें रहनेवाली संतुलित स्थिति है। आन्तरिक द्रष्टा बनकर इसे प्राप्त किया जा सकता है।

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    अनुक्रम

  1. निवेदन
  2. आपकी विचारधारा की सही दिशा यह है
  3. हित-प्रेरक संकल्प
  4. सुख और स्वास्थ के लिये धन अनिवार्य नहीं है
  5. रुपये से क्या मिलता है और क्या नहीं
  6. चिन्ता एक मूर्खतापूर्वक आदत
  7. जीवन का यह सूनापन!
  8. नये ढंग से जीवन व्यतीत कीजिये
  9. अवकाश-प्राप्त जीवन भी दिलचस्प बन सकता है
  10. जीवन मृदु कैसे बने?
  11. मानव-हृदय में सत्-असत् का यह अनवरत युद्ध
  12. अपने विवेकको जागरूक रखिये
  13. कौन-सा मार्ग ग्रहण करें?
  14. बेईमानी एक मूर्खता है
  15. डायरी लिखने से दोष दूर होते हैं
  16. भगवदर्पण करें
  17. प्रायश्चित्त कैसे करें?
  18. हिंदू गृहस्थ के लिये पाँच महायज्ञ
  19. मनुष्यत्व को जीवित रखनेका उपाय-अर्थशौच
  20. पाठ का दैवी प्रभाव
  21. भूल को स्वीकार करने से पाप-नाश
  22. दूसरों की भूलें देखने की प्रवृत्ति
  23. एक मानसिक व्यथा-निराकरण के उपाय
  24. सुख किसमें है?
  25. कामभाव का कल्याणकारी प्रकाश
  26. समस्त उलझनों का एक हल
  27. असीम शक्तियोंकी प्रतीक हमारी ये देवमूर्तियाँ
  28. हिंदू-देवताओंके विचित्र वाहन, देश और चरित्र
  29. भोजनकी सात्त्विकता से मनकी पवित्रता आती है!
  30. भोजन का आध्यात्मिक उद्देश्य
  31. सात्त्विक आहार क्या है?
  32. मन को विकृत करनेवाला राजसी आहार क्या है?
  33. तामसी आहार क्या है?
  34. स्थायी सुख की प्राप्ति
  35. मध्यवर्ग सुख से दूर
  36. इन वस्तुओं में केवल सुखाभास है
  37. जीवन का स्थायी सुख
  38. आन्तरिक सुख
  39. सन्तोषामृत पिया करें
  40. प्राप्त का आदर करना सीखिये
  41. ज्ञान के नेत्र
  42. शान्ति की गोद में
  43. शान्ति आन्तरिक है
  44. सबसे बड़ा पुण्य-परमार्थ
  45. आत्मनिर्माण कैसे हो?
  46. परमार्थ के पथपर
  47. सदुपदेशों को ध्यानपूर्वक सुनिये
  48. गुप्त सामर्थ्य
  49. आनन्द प्राप्त करनेके अचूक उपाय
  50. अपने दिव्य सामर्थ्यों को विकसित कीजिये
  51. पाप से छूटने के उपाय
  52. पापसे कैसे बचें?
  53. पापों के प्रतीकार के लिये झींके नहीं, सत्कर्म करे!
  54. जीवन का सर्वोपरि लाभ
  55. वैराग्यपूर्ण स्थिति
  56. अपने-आपको आत्मा मानिये
  57. ईश्वरत्व बोलता है
  58. सुखद भविष्य में विश्वास करें
  59. मृत्यु का सौन्दर्य

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