गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमृत के घूँट अमृत के घूँटरामचरण महेन्द्र
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प्रस्तुत है पुस्तक अमृत के घूँट.....
मनुष्य जब एकत्रित करनेके स्थानपर अपनी चीजोंको दूसरोंके सहायतार्थ प्रेमसे, सहयोगपूर्वक वितरण करनेकी सोचता है, तब वह शान्तिकी ओर एक कदम बढ़ाता है। धन, वस्तुएँ जायदाद, भोग्य वस्तुएँ एकत्रित करनेसे उनके प्रति मोहकी उत्पत्ति होती है। यह मोह उन वस्तुओंसे इतना जकड़ देता है कि उस मोह-पाशसे पृथक् नहीं हो सकता। उस मोहके कारण उसे उन एकत्रित चीजों में से कोई भी कम होने या विनष्ट होने से दुःख होता है। अतः मोह बन्धन है।
जो मनुष्य स्वार्थसे छुटकारा पा गया है, वह शान्त है, वह प्रसन्नचित्त है और संसारको त्याग देनेमें किसी प्रकारके दुःखका अनुभव नहीं करता। दुःख अथवा थकावटका मुख्य कारण अपने-आपको सांसारिक जंजालसे बाँध लेना है। बाँधनेके स्थानपर उससे मुक्त रहना, सांसारिक चीजोंमें लिप्त न होना, उन्हें त्यागकर दैवी सम्पत्तिमें विश्वास रखना, उसीमें अपने सुखोंकी जड़ मानना-शान्तिकी गोदमें जाना है।
ईश्वरीय आदेश यह है कि हम खुले रहें, मोह के बन्धन से मुक्त रहें। उच्च आध्यात्मिक सत्तामें रमण करने से इस शरीर को त्यागने में कुछ दुःखका अनुभव नहीं होता। आपकी भावना यह होनी चाहिये-
'मेरा कुछ नहीं है। मेरा संसारके घर-बार, बच्चे, जमीन-जायदाद से कुछ सरोकार नहीं है। यह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं भोगवादी नहीं हूँ। मैं संसार के विकारों में रमण करनेवाला कीड़ा नहीं हूँ। मेरे अन्दर स्वार्थपरता और मनोविकारोंका बन्धन नहीं है। मैं संसारकी अनित्य-अस्थिर चीजोंसे अपने-आपको नहीं जकड़ता हूँ।'
जहाँ सांसारिक चीजोंसे बँधे रहनेकी भावना है, वहीं दुःख और क्लेश है। जहाँ उनसे ऊपर आध्यात्मिक सत्तामें रहनेकी भावना है, वहीं मोक्ष है। सर्वदा मृत्युके लिये तैयार रहो। इससे जीवन और मृत्यु दोनों सुखद हो जायेंगे।
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